‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी…’
रानी लक्ष्मी बाई की वीरता पर लिखी गई ये कविता आपने खूब सुनी होगी. इसी तरह चांद बीबी, झलकारी बाई और रानी दुर्गावती की वीरता के क़िस्से भी आपने खूब पढ़े-सुने होंगे. पहाड़ की वीरांगना रानी कर्णावती के अद्वितीय शौर्य की कहानी भी आपने बारामासा पर विस्तार से देखी है. वीरांगनाओं की इसी फ़ेहरिस्त में शामिल एक और नाम से आज हम आपका परिचय करवाने जा रहे हैं. एक ऐसी वीरांगना जो सिर्फ़ 15 साल की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और जिसने अगले सात सालों में सात युद्ध लड़ते हुए 13 गढ़ जीत लिए थे. किंवदंती बन चुकी पहाड़ की ये वीरांगना थी, तीलू रौतेली.
तीलू रौतेली का जन्म 17वीं सदी में पौड़ी गढ़वाल के गुराड गाँव में हुआ. ये वो दौर था जब कत्यूरी राजवंश लगभग समाप्त हो चुका था और कुमाऊँ में चंद तो गढ़वाल में पंवार राजवंश का शासन था. हालाँकि कत्यूरियों के वंशज अब भी प्रभावशाली थे और वे जगह-जगह लूट-पाट मचा कर अशांति फैला रहे थे. गढ़वाल और कुमाऊँ में तब कई छोटे-छोटे गढ़ थे जिनकी कमान कभी राजा, कभी भड़ तो कभी किसी थोकदार के हाथों में होती थी. कत्यूरी राजा धामशाही ने तब गढवाल और कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र खैरागढ पर आक्रमण कर अपना आधिपत्य जमा लिया था. इसी गढ़ को कत्यूरियों से मुक्त करवाते हुए तीलू रौतेली के पिता और भाई वीरगति को प्राप्त हुए थे और इसी घटना ने एक नाबालिग बच्ची को एक वीरांगना बना देने की भी नींव डाली थी.
इस घटना पर विस्तार से बात करने से पहले तीलू रौतेली के परिवार और उनके बचपन को जान लेते हैं. तीलू के पिता भूप सिंह गोर्ला अपनी वीरता के लिए विख्यात थे और इसीलिए गढ़वाल नरेश ने उन्हें चौंदकोट परगने की थोकदारी सौंपी थी. तीलू के अलावा भूप सिंह के दो जुड़वा बेटे थे जिनका नाम भगतु और पथ्वा था. ये दोनों ही युवा अपने पिता की तरह साहसी थे और अपनी वीरता का लोहा मनवा चुके थे. लोक-कथाओं में जिक्र मिलता है कि एक बार जब बिंदुआ कैंतूरा ने चौंदकोट क्षेत्र में आक्रमण कर दिया था, तब भगतु और पथ्वा ने ही अपने शौर्य के दम पर उसका सामना किया था और उसे इलाके से खदेड़ दिया था. कहा जाता है कि इस लड़ाई में दोनों भाइयों के शरीर पर 42 घाव आए थे और तब गढ़वाल नरेश ने उनकी वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें 42 गांव इनाम में दिए थे.
अपने भाइयों के साथ ही तिलोत्तमा देवी यानी तीलू रौतेली ने भी बचपन से ही तलवार चलाना और घुड़सवारी सीख शुरू कर दिया था. सिर्फ़ 15 साल की उम्र में ही तीलू के गुरु शिवदत्त पोखरियाल ने उन्हें इन विधाओं में पारंगत बना दिया था. इसी दौरान तीलू की सगाई ईड़ा गांव के थोकदार के बेटे भवानी नेगी से कर दी गई. लेकिन तीलू की उनसे शादी होती, उसके पहले ही वे वीरगति को प्राप्त हो गए. तीलू ने फिर ताउम्र शादी नहीं की.
जैसा कि हमने पहले बताया, उस दौर में गढ़वाल में पंवार वंश और कुमाऊँ में चंद वंश का शासन स्थापित हो चुका था लेकिन बिखर चुके कत्यूरी राज वंश के कुछ वंशज जगह-जगह आक्रमण कर अपनी सत्ता स्थापित करने के प्रयास जारी रखे हुए थे. ऐसा ही एक आक्रमण कत्यूरी राजा धामशाही ने गढवाल और कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र खैरागढ पर किया. ये इलाका गढ़वाल नरेश के अधीन था. उन्होंने अपना गढ़ बचाने के भरसक प्रयास किए लेकिन धामशाही की सेना उन पर हावी रही और उन्हें चौंदकोट लौटना पड़ा.
इसके बाद इस मोर्चे की कमान राजा ने भूप सिंह और उन्हें वीर बेटों को सौंपी. तीलू की पिता और भाइयों ने बहादुरी से धामशाही की सेना से युद्ध लड़ा लेकिन आख़िर में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. तीलू के पिता भूप सिंह सराईखेत में और उनके दोनों भाई कांडा युद्ध में शहीद हो गए. तीलू के मंगेतर भवानी नेगी भी इस युद्ध में मारे गए.
तीलू रौतेली उस वक्त सिर्फ़ 15 साल की थी और उनका पूरा परिवार एक झटके में खत्म हो चुका था. लेकिन तीलू इससे टूटी नहीं, बल्कि उन्होंने अद्वितीय साहस दिखाते हुए धामशाही से बदला लेने की ठानी और अपनी ख़ुद की सेना तैयार की. इस सेना के गठन में उनकी मदद उनके मामा रामू भंडारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल और देवकी व बेलू जैसी सहेलियों ने की. तीलू के उत्साह और बुलंद हौंसलों से प्रभावित होकर उनके क्षेत्र के कई युवा भी उनके साथ शामिल हो गए और इन लोगों को प्रशिक्षण दिया गुरु गौरीनाथ ने. उन्होंने इस युवा सेना को छापामार और गुरिल्ला युद्ध लड़ने के गुर भी सिखाए.
बहुत ही कम समय में अपनी सेना को आक्रमण के लिए तैयार कर तीलू ने सेना नायक की कमान सम्भाली और बिंदुली नाम की अपनी घोड़ी पर सवार होकर वो धामशाही से युद्ध लड़ने निकल पड़ी. उनकी इस सेना में डंगवाल, असवाल, गोर्ला, सजवाण, बंगारी, खुगसाल, ढ़ौंढ़ियाल, पोखरियाल, बौड़ाई, जोशी और सुंदरियाल जैसी तमाम जातियों के लोग शामिल थे. तीलू के नेतृत्व में इस सेना ने सबसे पहले दो दिनों तक लगातार लड़ते हुए खैरागढ़ को कत्यूरियों से मुक्त कराया. वर्तमान के कालागढ़ के नज़दीक का ये वही क्षेत्र था जिसका बचाव करते हुए तीलू के पिता शहीद हो गए थे. खैरागढ़ के बाद तीलू ने एक के एक बाद एक कई गढ़ों पर जीत हासिल की. अगले सात सालों में उन्होंने टकौलीगढ़, इडियाकोट, भौनखाल, उमरागढी, सल्ट महादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफराईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ, भलंगभौण और चौखुटिया समेत कुल 13 किलों पर विजय पाई.
इन सात सालों में तीलू के जहां-जहां युद्ध लड़े और जीते, उसके कुछ निशान और प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं. जैसे टकोली खाल में जिस पेड़ की आड़ लेकर तीलू ने गोलियां चलाई थी, बताते हैं कि उस पेड़ का एक तना आज भी मौजूद है और स्थानीय लोग उसकी पूजा करते हैं. भौन यानी इड़ियाकोट में जहां तीलू ने विपक्षी सेना का नरसंहार किया था, वहां भौन देवी का मंदिर स्थापित किया गया है. इसी तरह कहीं उनकी जीत के बाद बूँगी देवी मंदिर की स्थापना हुई तो कहीं शिव मंदिर बनाए गए. सात सालों तक लगातार युद्ध लड़ते रहने के दौरान तीलू की दोनों सहेलियों के साथ ही उनके मामा रामू भंडारी भी वीरगति को प्राप्त हुए.
महज़ 22 साल की उम्र में तीलू ने विलक्षण शौर्य का परिचय देते हुए अपनी विजय पताका चारों ओर लहरा दी थी. सभी 13 गढ़ों को जीतने के बाद तीलू अपने मूल गढ़ कांडा पहुंची और यहीं उन्होंने शिवदत्त पोखरियाल के साथ मिलकर अपने पित्रों का तर्पण किया.
तीलू ने अपने अदम्य रणकौशल से स्थापित कर दिया था कि उन्हें रण क्षेत्र हराना नामुमकिन है. ऐसे में उनके दुश्मनों ने उन्हें खत्म करने के लिए छल और कपट का रास्ता चुना. तीलू जब अपने तल्ला कांडा शिविर के पास ही नयार नदी में स्नान कर रही थी, उन्होंने अपनी ढाल, कवच और तलवार एक किनारे रख छोड़ी थी, तब मौके का फ़ायदे उठाते हुए रामू रजवार नाम के एक कत्यूरी सैनिक ने निहत्थी तीलू पर छिपकर वार कर दिया. साल 1683 में 22 साल की छोटी उम्र में विराट जीवन जीने के बाद इस वीरांगना की शहादत हो गई.
तीलू रौतेली याद में उत्तराखंड सरकार ने साल 2006 में ‘वीरबाला तीलू रौतेली पुरस्कार’ की स्थापना की, जो अदम्य साहस, समर्पण और जान सरोकारों के लिए लड़ने और समाज हित में काम करने वाली महिलाओं को दिया जाता है. उनके नाम पर उत्तराखंड में एक पेंशन योजना भी है जो कृषि कार्य करते हुए विकलांग हो चुकी महिलाओं को समर्पित है.
तीलू रौतेली की याद में कांडा गांव और बीरोंखाल क्षेत्र में हर साल एक मेले का आयोजन भी होता है. इसमें ढ़ोल -दमाऊ और निशान के साथ तीलू रौतेली की मूर्ति को पूजा जाता है. उनकी वीरता पर कुछ किताबें, लेख, गीत और नाटक भी लिखे गए हैं लेकिन इस वीरांगना के शौर्य की कहानी अब भी उतनी चर्चित नहीं है, जितनी की वो हक़दार है.
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