ये कहानी है आज से करीब चार सौ साल पहले की. उत्तराखंड और हिमाचल के बार्डर पर बसे पावंटा कस्बे में मुगलिया सल्तनत का सेनापति सरदार अब्दुल कादिर अपने पूरे लाव लश्कर के साथ जश्न में डूबा हुआ था. सहारनपुर रियासत को रौंदने के बाद उसके हौसले बुलंद थे. उसने वहीं से सिरमौर के राजा को शाही फरमान भिजवा दिया था कि या तो वे मुगल बादशाह शाह आलम की सरपरस्ती मंज़ूर कर लें या फिर अपनी मौत के लिए तैयार रहें. सिरमौर के राजा का कोई जवाब अब तक नहीं आया था. ऐसे में सरदार अब्दुल कादिर रोहिला ने सिरमौर पर हमले की मन बना लिया. देर रात तक अपने सिपहसालारों के साथ उसने सिरमौर पर हमले की रणनीति बनाई और फिर अपने शिविर में सोने चला गया. अभी उसकी आंख लगी ही थी कि उसे अहसास हुआ उसके सिरहाने के पास कोई है. उसने आंख खोली और जैसे ही अपने अंगरक्षकों को आवाज देने की कोशिश की, एक धारदार तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया. उसकी हत्या करने वाले उस हमलावर ने अब्दुल कादिर का सिर एक थैले में डाला और शिविर से बाहर निकल गया. बाहर खड़े अंगरक्षकों पर भी ये हमलावर और इसके साथी क़हर बनकर टूट पड़े. कुछ ही देर में सैकड़ों मुगल सिपाहियों के सिर पावंटा की जमीन पर बिखरे पड़े थे. जो बच गए, वो इतिहास के इस खूनी संघर्ष की कहानी सुनाने दिल्ली सल्तनत की ओर भागे.
इधर सिरमौर में जो राजा अभी कुछ ही घंटे पहले तक अपनी रियासत बचाने के लिए चिंतित था, उसकी सारी चिंताएँ अब जश्न में बदल चुकी थी. उसे धमकी देने वाले का कटा हुआ सर उसके सामने लाकर रख दिया गया था. और इस असम्भव को सम्भव कर दिखाया था जौनसार इलाके के नंतराम नेगी ने. वही जौनसार जिसके इतिहास में कई वीर योद्धाओं के नाम और कई स्वतंत्रता सेनानियों की वीर गाथायें दर्ज हैं.
जौनसार उत्तराखंड का वो क्षेत्र है जो न केवल अपनी प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए मशहूर है, बल्कि अपनी कला, संस्कृति, साहित्य, तहज़ीब और वीरता के लिए भी विशिष्ट पहचान बनाता है. लेकिन गढ़वाल और कुमाऊँ की तुलना में इस क्षेत्र और यहां की विभूतियों पर कम ही चर्चा हुई है. आज हम आपको जौनसार की ऐसी ही कुछ अमर विभूतियों से परिचित करवाते हुए ले चलेंगे इतिहास की एक यात्रा पर.
आज के कार्यक्रम में आगे बढ़ने से पहले जौनसार की भौगोलिक रूप रेखा समझ लेते हैं. जौनसार यमुना नदी और टॉन्स नदी के बीच स्थित बड़े भूभाग को कहते हैं. इसमें जौन बना है जमुना से. जौन यानी जमुना के एक छोर पर बसा इलाका जौनसार कहलाया और जुमना के पार का इलाका जौनपार, जो कि कालांतर में जौनपुर हो गया. इसी तरह पावर नदी के कारण बावर शब्द बना और ये पूरा क्षेत्र जौनसार बावर कहलाने लगा. इस क्षेत्र में स्थित चकराता और कालसी प्राचीन भारत के दो प्रमुख नगर रहे हैं. इतिहासकारों के अनुसार चकराता कभी एक-चक्रा नगर और कालसी कालकूट, कालशैल या कालेश्वर नाम से जाने जाते थे. वर्तमान जौनसार प्राचीन कुलिंद रियासत का हिस्सा था. ये रियासत मौर्य वंश तक सम्पन्नता के साथ अस्तित्व में रही है.
इसी जौनसार की भूमि में 18वीं सदी में एक प्रतापी योद्धा हुए नंतराम नेगी. लेखक बारू चौहान और डॉक्टर राजकुमारी चौहान अपनी किताब ‘जौनसार बावर की दिवंगत विभूतियों’ में लिखते हैं कि देहरादून से लगभग 65 किलोमीटर विकासनगर क्वानू मार्ग पर मौजूद मलेथा गांव के एक किसान परिवार में नंतराम नेगी का जन्म हुआ था. बचपन में ही मां की मौत हो जाने के कारण पिता लाल सिंह ने ही उनका पालन पोषण किया. उनके दो अन्य भाई अजब सिंह और सबल सिंह थे. लेकिन नंतराम की निर्भय और साहसिक प्रवृति को देखकर पिता ने उन्हें सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश की सेना में भर्ती करा दिया. तब जौनसार बावर परगना सिरमौर रियासत में होता था. जल्द ही नंतराम अपने पराक्रम के चलते पूरी सेना में चर्चा का केंद्र बन गए और राजा की नजर में आए. इसी दौरान एक बड़ी आपदा रियासत के सामने आ खड़ी हुई. हुआ यूं कि सन 1781 में मुगल सरदार अब्दुल कादिर रोहिला ने सहारनपुर को रौंद दिया. अब उसकी मंशा सिरमौर पर हमला कर इस पहाड़ी राज्य को मुगलों के अधीन लाने की थी. उसने सिरमौर पर हमला करने से पहले पांवटा के निकट बादशाही बाग में डेरा डाल दिया. सिरमौर राज्य की तत्कालीन राजधानी वहां से कुछ ही किलोमीटर दूर नाहन में थी. अब्दुल कादिर की इस मंशा को जानकर सिरमौर राजा डर गए, क्योंकि विशाल मुगल सेना का मुकाबला करना इस छोटी सी रियासत के लिए असंभव था.
इसी चिंता में डूबे राजा ने मंत्रियों से विचार विमर्श किया और मुग़लों का आक्रमण रोकने के लिए किसी योद्धा का नाम सुझाने को कहा. उस समय नंतराम नेगी राज्य भर में अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हो चुके थे. लेकिन वे एक महीने की छुट्टी पर अपने गांव मलेथा गए हुए थे. ऐसे में राजा ने भूपसिंह नाम के सैनिक को पत्र लिखकर उनके पास भेजा. राजा का संदेश मिलते ही नंतराम ने अपने बुजुर्ग पिता और नवविवाहिता पत्नी से विदा ली और नाहन के लिए चल दिए.
लेखक बारू चौहान और डॉक्टर राजकुमारी चौहान लिखते हैं कि राजा और नंतराम नेगी की मुलाकात बड़ी रोमांचक रही. राजा ने उनके युद्धक्षेत्र में जाने से पहले ये ताकीद कर दी कि वो एक बड़ी शाही सेना से लड़ने जा रहे हैं. लिहाजा, ये कदम जानलेवा भी हो सकता है. इस पर नंतराम मुस्कुरा भर दिए. राजा ने उन्हें सेनापति नियुक्त किया और शाही घोड़े तथा तलवार से सुसज्जित कर रवाना किया. लेकिन इस रवानगी के दौरान राजा ने यह चुनौती भी व्यक्त की कि अगर वो मुगल सरदार अब्दुल कादिर को मार कर उसका सिर साथ ले आएँ तो फिर कहना ही क्या. नंतराम ने हुंकार भरते हुए इस चुनौती को स्वीकार कर राजा से विदा ली. सेनापति नंतराम इस बात पर भी अत्याधिक उत्साह में थे कि राजा जिस तलवार और शाही घोड़े से खुद लड़ते थे, वो उन्होंने नंतराम को सौंप दिए थे.
राज महल से भूप सिंह समेत कई प्रशिक्षित सैनिकों को साथ लेकर नंतराम ने पांवटा से कुछ पहले कटासन मंदिर में मां भवानी के दर्शन किए. उसके बाद अपना हुलिया बदल कर बड़े गोपनीय तरीके से वो मुगल शिविर में घुसे और सारी जानकारी इकट्ठा की. इस दौरान आसपास के क्षेत्र में अत्याचारी मुगलों द्वारा किए गए विनाश को देखकर उनका आक्रोश और भी बढ़ गया. उधर मुगल सरदार इस मद में चूर था कि छोटा सा राज्य सिरमौर का भला कौन-सा योद्धा उसके शिविर में आ सकता है. उसे क्या पता था कि नंतराम नेगी आज उसका काल बनकर आ रहा है. मुगल सैनिक भी इसी बेफ़िक्री में बेसुध पड़े थे. नंतराम सीधा अब्दुल कादिर के कक्ष में दाखिल हुए. उसे सोता हुआ देख उन्हें अपना वचन याद आया. उन्होंने अब्दुल कादिर को जगाया और उसके जागते ही एक झटके में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया. उनके वीर सैनिक भी मुगलों पर टूट पड़े. अकस्मात् हुए इस हमले को जब तक मुग़ल सेना भांप पाती, उससे पहले ही नंतराम के सैनिकों ने कोहराम मचा दिया था. मुगल सेना में अफरा-तफरी मच गई. उन्हें जब पता चला कि उनके सरदार की हत्या हो गई है तो पूरी मुगल सेना पीछे हट गई.
जब राजा को इस विजय का समाचार मिला तो वे भी उत्साहित होकर नाहन के लिए चल दिए. रास्ते में ही राजा और नंतराम की मुलाकात हो गई. उन्होंने मुगल सरदार का रक्त रंजित सिर थैले से निकाल कर राजा के चरणों में रख दिया. राजा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. उन्होंने नंतराम को गले लगाया और गुलदार की उपाधि से सम्मानित किया. इसके साथ ही उपहार में तीन जागीर उन्होंने नंतराम को दी. ये जागीर मराड़ और स्यासू में हैं जो क्षेत्र अब हिमाचल प्रदेश में आता है. तीसरी जागीर कालसी उत्तराखंड में है. मलेथा गांव में आज भी नंतराम नेगी के हथियार सुरक्षित हैं और हर साल विजयादशमी पर बड़ी धूमधाम से उनकी पूजा होती है.
नंतराम नेगी की घटना से लगभग 200 साल बाद इतिहास फिर से दोहराने वाला था. लेकिन इस बार दुश्मन मुगलिया सल्तनत नहीं, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत थी. ये कहानी है जौनसार बावर के केसरी चंद की. केसरी चंद कालसी विकासखंड के क्यावा गांव के रहने वाले थे. इतिहासकार बारू चौहान और डॉक्टर राजकुमारी चौहान बताते हैं कि केसरी चंद का जन्म क्यावा गांव में 1 नवम्बर 1920 को हुआ था. ये वो दौर था, जब अंग्रेजी हुकूमत के जुल्म असहनीय हो गए थे. इन्हीं जुल्मों के कारण गुलाम भारतीयों के ज़हन में राजनीतिक जागरूकता भी आ रही थी. केसरी चंद के पिता का नाम पंण्डित शिवदत्त और माता का नाम रायबेली था. केसरी इनके सबसे छोटे पुत्र थे. केसरी चंद का बचपन तमाम उलझनों में बीता था. उनकी माँ का स्वर्गवास उनके जन्म के छः महीने बाद ही हो गया था. ऐसे में उनके ने स्वयं ही उन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा और निश्चय किया कि वे अपने बेटे को एक बड़ा अधिकारी बनायेंगे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने केसरी चन्द को शिक्षा के लिए गांव से लगभग 55 किलो मीटर दूर चौहड़पुर क़स्बे भेजा. चौहड़पुर वही जगह है जिसे आज विकासनगर कहा जाता है. अपनी शुरुआती शिक्षा विकासनगर से पाने के बाद केसरी चंद उच्च शिक्षा के लिए डीएवी कॉलेज देहरादून आ गए. यहां अपनी पढ़ाई के दौरान केसरी चंद फुटबॉल और वॉलीबॉल टीम के कप्तान भी रहे.
डॉक्टर चौहान अपनी किताब में लिखते हैं कि ठाणा डाण्डा में हर साल लगने वाले मेले में एक बार एक अंग्रेज ने जौनसारी युवती के साथ अभद्रता कर दी. मेले में अंग्रेज फौजियों का जमावड़ा था. लेकिन केसरी चन्द को जैसे ही इस घटना की जानकारी मिली उन्होंने अपनी परवाह न करते हुए उस अंग्रेज की जमकर पिटाई कर दी. ग़ुलाम भारत में इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था कि कोई जौनसारी या कोई भी आम भारतीय किसी अंग्रेज की पिटाई भी कर सकता है. इस घटना से आस-पास दहशत में भगदड़ मच गई. लेकिन अब स्थानीय लोग भी प्रतिरोध में उतर आए थे. लिहाजा, अंग्रेजों को वहां से हटना पड़ा. इसी प्रकार एक घटना का उल्लेख शहीद केसरी चंद के भाई ने अपने एक स्मरण में किया है. वो लिखते हैं कि छटोऊ गांव में हमारे एक रिश्तेदार के यहां सत्यनारायण कथा का आयोजन था. जौनसार बावर के रीति-रिवाज के अनुसार वह रिश्तेदार छानी से अपनी भैंसों का दूध, काठ के एक बड़े बर्तन जिसे स्थानीय बोली में कठिया कहते हैं, छटोऊ ले जा रहे थे. बिरमोऊ काण्डी में वह कुछ ग्वालों के पास बैठ गए.
केसरी चन्द भी उस दिन गाय चुगाने के लिए बिरमोऊ काण्डी में थे. इसी बीच चकराता से मसूरी की ओर पैदल मार्च करते हुए अंग्रेजों की फौजी टुकड़ी वहां से गुजरी. उनमें से एक फौजी ने केसरी चन्द के भाई के दूध के बर्तन को लात मारकर गिरा दिया और अट्टहास करने लगा. केसरी चन्द ने आव देखा न ताव और उस अंग्रेज पर टूट पड़े. केसरी चंद का गुस्सा देखकर पिट रहे अंग्रेज अधिकारी का कोई भी सिपाही उसे बचाने नहीं आया. हालांकि ये भी लगता है कि बर्तन पर लात मारने की हरकत अंग्रेज सिपाहियों को भी पसंद नहीं आई थी.
वक्त बीता और केसरी चंद 10 अप्रैल 1941 को रायल इण्यिन आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गए. उन्होंने उसी साल यानी 1941 में फिरोजपुर में वाइसराय कमीशन ऑफिसर का कोर्स भी पूरा कर लिया. इन्हीं दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर चल रहा था. 29 अक्टूबर 1941 को इन्हें मलाया में युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया जहाँ वे 7 नवम्बर, 1941 को पहुँचे. इसके अगले ही महीने 27 दिसम्बर 1941 के दिन इस साहसी युवक को सूबेदार के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. युद्ध के मोर्चे पर 15 फरवरी सन् 1942 को जापानी फौज द्वारा इन्हें बन्दी बना लिया गया था. लेकिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ से प्रभावित होकर वीर केसरी चन्द अंग्रेजों के विरूद्ध ही लड़ने के लिए आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गए. यहां भी उनके साहस, पराक्रम और जोखिम उठाने की क्षमता को देखकर उन्हें कठिन से कठिन कार्य सौंपे गए.
आजाद हिन्द फौज की ओर से लड़ते हुए इम्फाल के मोर्चे पर पुल उड़ाने के प्रयास के दौरान उन्हें ब्रिटिश फौज ने पकड़ लिया और सजा देते हुए दिल्ली जेल में भेज दिया गया. आर्मी एक्ट की दफा 41 और भारतीय दंड संहिता की दफा – 121 के तहत, ब्रिटिश राज्य के खिलाफ युद्ध करने के आरोप में, उनके ख़िलाफ़ लाल किले में जनरल कोर्ट मार्शल चलाया गया. 3 फरवरी 1945 को जनरल सी.जे. ऑचिनलेक ने उनको मृत्यु दण्ड की सजा देने की पुष्टि की. मौत की सजा मिलने के बाद जब उनसे मिलने उनके पिता, बड़े भाई और नजदीकी रिश्तेदार जेल पहुंचे तो उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों से दो टूक कह दिया कि वे आंसू बहाने के बजाय गौरव का अनुभव करें कि मुझे देश की आजादी के लिए प्राण न्योछावर करने का सम्मान मिला है. मात्र 24 साल 6 महीने की अल्पायु में इस महान देश भक्त को 3 मई 1945 की सुबह दिल्ली जिला जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. लेकिन उनकी शहादत और उनकी वीरता का इतिहास आने वाली तमाम पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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