23 अप्रैल 1930 का दिन था. गढ़वाल राइफ़ल्ज़ ने पेशावर में अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया. पूरी दुनिया में इस घटना का जबरदस्त असर हुआ.
इंग्लैंड के साथ-साथ यूरोप की सभी कॉलोनियल पॉवर्ज़ के लिए ये हैरान कर देने वाली घटना थी कि आख़िर गढ़वाल राइफ़ल्ज़ ने अपने अधिकारियों के आदेश की तामील न करने की गुस्ताख़ी कैसे कर दी.
वो गढ़वाल राइफ़ल्ज़ जो दुनिया की सबसे प्रोफ़ेशनल इफ़ेंट्रीज़ में से एक मानी जाती थी, जिसके जाबांज़ों ने First World War में दो-दो विक्योरिया क्रॉस हासिल किये थे और जिस गढ़वाल राइफ़ल्ज़ को इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम ने ख़ुद रॉयल गढ़वाल की उपाधि से नवाज़ा था, वो गढ़वाल राइफ़ल्ज़ आख़िर बग़ावती कैसे हो गई? और कैसे इस बग़ावत ने सुभाष चन्द्र बोस की ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ यानी INA की परिकल्पना को साकार करने में भी एक प्रेरक का काम किया.
ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ महात्मा गॉंधी के प्रतिरोध का अनोखा तरीक़ा जहां दुनिया भर में लोगों का ध्यान खींच रहा था, वहीं देश की सरहदों में भी यह प्रतिरोध की नई ऊर्जा का संचार कर रहा था. भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में अफ़गानिस्तान की सीमा से लगे इलाक़े में एक और गॉंधी उभर रहे थे जिनका नाम था अब्दुल गफ़्फार ख़ान.. इतिहास उन्हें ‘बादशाह ख़ान’ के नाम से भी जानता है.
गफ़्फ़ार ख़ान की लीडरशिप में पठानों ने अंग्रेज़ी हुक़ूमत के खिलाफ़ सत्याग्रह की शुरूआत कर दी थी. वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को और मज़बूती दे रहे थे और ब्रिटिश हुक़ूमत को ये नागवार था.
हमारे आज के इस क़िस्से की शुरूआत इसी पृष्ठभूमि से होती है जिसकी ज़मीन है पेशावर.
तारीख़ थी, 23 अप्रैल 1930. सीमांत गॉंधी यानी अब्दुल गफ़्फार ख़ान से प्रेरित कई पठान, गांधी जी के समर्थन में एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए जमा हुए थे. अंग्रेज़ी हुक़ूमत को ये बर्दाश्त नहीं हुआ. वो किसी भी क़ीमत पर पठानों के इस आंदोलन को कुचल देना चाहती थी. लिहाज़ा कैप्टन रिक्केट के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों के एक दल को ये काम सौंपा गया. ऐसा जान-बूझ कर किया गया था.
ब्रिटिश हुक़ूमत की ये एक कामयाब स्ट्रेटेजी रही थी कि उन्हीं सैनिकों को मोर्चा सौंपा जाए जो इलाक़े और लोगों से कोई सीधा ताल्लुक नहीं रखते हों.
ठीक यही स्ट्रेटेजी अंग्रेजों ने इस मोर्चे पर भी अपनाई. आंदोलन कर रहे पठानों को चारों तरफ से घेर लेने के बाद कैप्टन रिक्केट ने घोषणा की, ‘तुम लोगों को ये आख़िरी चेतावनी दी जा रही है. अगर इसके बाद भी तुमने ये सभा ख़त्म नहीं की तो गोलियों से भून दिए जाओगे.’
अंग्रेज़ी कप्तान रिक्केट की इस धमकी का भी जब पठानों पर कोई असर नहीं हुआ तो उसने चीखते हुए गढ़वाली सैनिकों को आदेश दे दिया, ‘थ्री राउंड फ़ायर!’
गढ़वाली सैनिक इस आदेश की तामील करते उससे पहले ही कैप्टन रिक्केट के ठीक बाईं ओर खड़े चंद्र सिंह भंडारी गरजते हुए बोले, ‘गढ़वाली सीज़ फ़ायर. गढ़वाली गोली मत चलाना.’
इतना सुनना था कि सभी गढ़वाली सैनिकों ने अपनी बंदूक़ें नीचे कर दी और निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया. इस बग़ावती क़दम के लिए जब कोर्ट मार्शल का दौर चला और गढ़वालियों से उनकी नाफ़रमानी की वजह पूछी गई तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया, ‘सेना का काम दुश्मनों से लड़ना है, अपने ही देश के नागरिकों पर गोली चलाना नहीं.’
गढ़वाली जवानों के इस अभूतपूर्व क़दम ने जहां ब्रितानिया हुकूमत को अंदर तक हिला दिया, वहीं इस पेशावर कांड ने सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों को एक नई उम्मीद से भर दिया.
मशहूर लेखक राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक़ पेशावर कांड ही वो घटना थी जिसने सुभाष चंद्र बोस के दिमाग़ में अब तक धुंधली-धुंधली बन रही ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ की परिकल्पना को एक ठोस आकार दे दिया था. आगे चलकर आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने वाली और यूनियन जैक के ख़िलाफ़ लड़ते हुए शहादत देने वाली एक बड़ी संख्या गढ़वाली जवानों की ही बनी. इस फ़ौज में शहीद होने वाला पहला सिपाही भी एक गढ़वाली ही था और इंग्लैंड की टैंक टुकड़ी पर सुसाइड अटैक करने वाली INA की पहली इन्फ़ेंट्री भी गढ़वालियों की ही थी.
गढ़वालियों के समर्पण और वीरता से सुभाष बाबू इस क़दर प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी बाहरी और आतंरिक सुरक्षा का पूरा ज़िम्मा गढ़वाली सैनिकों को सौंप दिया. इसकी कमान मेजर देव सिंह दानू ने संभाली. इतना ही नहीं, नेताजी के ड्राइवर से लेकर INA के सिंगापोर में मौजूद ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग स्कूल के कमांडेंड तक, तमाम पदों पर गढ़वाली फ़ौजी नियुक्त हुए.
इन नियुक्तियों के सिलसिले की शुरुआत की भी एक रोमांचक कहानी है. इस कहानी को जानने के लिए हम विश्व इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण पन्ना खोलने जा रहे हैं.
यह पन्ना ब्रिटिश मिलिट्री के इतिहास का अब तक का सबसे शर्मनाक पन्ना है. जब second world war में ब्रिटिश फ़ौज के नेतृत्व में लड़ रहे 80 हज़ार सैनिकों को महज़ 30 हज़ार जापानी सैनिकों के सामने आत्म समर्पण करना पड़ा.
Second world war अपने चरम पर था. ब्रिटिश हुक़ूमत के एक स्ट्रॉंगहोल्ड आइलैंड सिंगापोर पर 8 फरवरी 1942 को General तोमायुकी यामाशिता/Tomoyuki Yamashita के नेतृत्व में 30 हज़ार जापानी सैनिकों ने हमला बोल दिया.
इधर सिंगापोर पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखने का ज़िम्मा ब्रिटिश सेना के लैफ़्टिनेंट जैनरल ऑर्थर अर्नेस्ट पर्सिवेल के हाथों में था. उनके नेतृत्व में allied forces के 85 हज़ार सैनिक थे जिन्हें जापान के हमले को नाकाम करना था.
सिंगापोर स्ट्रैटेजिकली बेहद महत्वपूर्ण था इसलिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने लैफ़्टिनेंट जैनरल ऑर्थर पर्सिवेल को आदेश दिया कि इस लड़ाई को तब तक लड़ा जाए जब तक कि ब्रिटिश आर्मी के आखिरी सैनिक की सॉंसें चल रही हों. लैफ़्टिनेंट जैनरल पर्सिवेल के पास 85 हज़ार सैनिकों की एक बड़ी सेना थी और उन्हें 30 हज़ार जापानी सैनिकों से लड़ना था. कहा जाता है कि इसी बात के ओवर कॉन्फ़िडेंस ने उनसे युद्ध क्षेत्र में बड़ी ग़लतियॉं कराई. युद्ध की बेहद कमज़ोर रणनीति और कम्युनिकेशन गैप के चलते टुकड़ियों को ग़लत जगहों पर तैनात किया गया जिसके चलते समय पर एक डिफ़ेंस सिस्टम तैयार ही नहीं हो सका.
General तोमायुकी यामाशिता ने ब्रिटिश मोर्चे के डिफ़ेंस सिस्टम के सबसे कमज़ोर हिस्से को भॉंप कर हमला बोल दिया और ब्रिटिश सेना को पीछे धकेलते हुए महज़ एक हफ़्ते के भीतर सिंगापोर के तकरीबन 99 प्रतिशत हिस्से में क़ब्ज़ा कर लिया. सिंगापोर के मात्र 1 प्रतिशत भूगोल में सिमट गई अलाइड फ़ोर्सेज़ की सप्लाई पूरी तरह टूट चुकी थी. हथियारों और रसद की कमी के चलते लैफ़्टिनेंट जैनरल पर्सिवेल के पास हथियार डाल देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा.
तारीख़ थी 15 फरवरी 1942. 80 हज़ार सैनिकों के साथ ब्रिटिश नेतृत्व की अलाइड फ़ोर्सेज़ ने जापानी सेना के सामने सरेंडर कर दिया और इन सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया गया.
एक हफ़्ते चले इस भीषण युद्ध को इतिहास में बैटल ऑफ़ सिंगापोर या फ़ॉल ऑफ़ सिंगापोर के नाम से जाना जाता है. ब्रिटिश सेना के इतिहास में उसके सैनिकों को अब तक इतना बड़ा सरेंडर कभी नहीं करना पड़ा था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल के लिए ये हार चौंका देने वाली थी. उन्होंने इस हार को ब्रिटिश मिलिट्री हिस्ट्री का सबसे ‘वर्स्ट डिज़ास्टर’ बताया.
जो सैनिक युद्घ बंदी बनाए गए उनमें से तकरीबन 40 हज़ार सैनिक ख़ुद ब्रिटिश आर्मी के थे और इनमें से अधिकतर भारतीय थे. इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल की किताब ‘गढ़वाल का इतिहास’ में ज़िक्र मिलता है कि इन 40 हज़ार सैनिकों में क़रीब ढाई हज़ार सैनिक गढ़वाल राइफ़ल्ज़ के थे और क़रीब इतने ही सैनिक ‘कुमाऊँ राइफ़ल्ज़’ के भी जो कि उस समय 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट्स का हिस्सा हुआ करती थी और बाद में कुमाऊँ रेजीमेंट बनी.
इतिहास में अलग-अलग भूगोलों में घटी घटनाएँ कई बार आगे चलकर आपस में ऐसे गुंथ जाती हैं जैसे वे एक दूसरे के लिए ही घटी हों.
24 दिसम्बर 1912. देहरादून के फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट में क्लर्क, रास बिहारी बोस एक दम ठीक समय पर दफ़्तर में दाख़िल हुए. दिमाग़ में गहरी उथल-पुथल और बेहद बेचैनी के बावजूद उन्होंने अपने चेहरे के भावों को बेहद सामान्य बनाए रखा.
ये ठीक वो दिन था जिससे एक दिन पहले यानि 23 दिसम्बर 1912 को वायसरॉय लॉर्ड चार्ल्स हार्डिंग्स पर देसी बम से एक जानलेवा हमला हुआ था. हालॉंकि इस हमले में हार्डिंग्स बाल बाल बच गए.
इतिहास में ‘डेल्ही कॉंस्पिरेसी केस’ के नाम से मशहूर, हार्डिंग्स पर हुए इस हमले की पूरी तैयारी में जो लोग शामिल थे उनमें रास बिहारी बोस भी थे. वे बाकायदा उस दिन दिल्ली में मौजूद थे लेकिन हमले के नाकाम हो जाने के बाद रातों रात ट्रेन से देहरादून वापस लौट आए और अगले दिन ठीक समय पर दफ़्तर आ पहुँचे, जैसे कुछ हुआ ही ना हो.
लेकिन ये राज बहुत लंबे समय तक राज नहीं रहा और जल्द ही उन्हें ब्रिटिश पुलिस के चंगुल से बचने के लिए अंडरग्राउंड हो जाना पड़ा. इसके बाद से रास बिहारी बोस पूर्णकालिक तौर पर भारत की आज़ादी की लड़ाई में शरीक हुए. वे फरवरी 1915 में हुए गदर विद्रोह के प्रमुख नेताओं में शामिल थे. जब गदर विद्रोह असफल हो गया तो रास बिहारी बोस किसी तरह ब्रिटिश ख़ूफ़िया तंत्र को गच्चा देकर जापान पहुंच गए.
इसके बाद जापान में रास बिहारी बोस लगातार भारत की आज़ादी के लिए सक्रिय रहे और जापान के क़ब्ज़े वाले साउथ ईस्ट एशिया के देशों में बसे भारतीयों को इसके लिए गोलबंद करते रहे. यहीं 1918 में उन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और पैन एशियाई राजनीति के समर्थक दम्पति आइज़ो सोमा और कोक्को सोमा की बेटी से शादी कर ली. 1923 आते-आते उन्हें जापानी नागरिकता भी मिल गई.
प्रवासी भारतीयों की गोलबंदी के मक़सद से 1920 में कुछ महत्वपूर्ण प्रवासी नेताओं के साथ मिलकर उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की. इस लीग का मक़सद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जापान का सहयोग हासिल करना था. धीरे धीरे जापानी अधिकारियों से इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और रास बिहारी बोस की नज़दिकियॉं बढ़ती गईं. बाद में इसी इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की आर्मी के तौर पर फर्स्ट इंडियन नैश्नल आर्मी यानि पहली आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन हुआ.
यहीं से ये कहानी जुड़ती है सिंगापोर में जापान के बंधक बनाए गए ब्रिटिश आर्मी के उन 40 हज़ार भारतीय जवानों से.
दरअसल, सितम्बर 1941 में इंपीरियल जैपैनीज़ आर्मी ने, साउथईस्ट एशिया में उभर रहे स्थानीय स्वतंत्रता आंदोलनों के साथ रणनीतिक गठजोड़ बनाने के लिए एक सैन्य ख़ूफ़िया ऑपरेशन, एफ़ किकान की शुरूआत की थी. इसका मक़सद ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ उभर रहे हर तरह के असंतोष को बढ़ावा देना था.
इस ऑपरेशन का नेतृत्व जापानी सेना के चीफ़ ऑफ़ इंटेलिजेंस मेजर फ़ुजिवारा ईवाईची कर रहे थे. उन्हें ये टास्क दिया गया था कि वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े लोगों के बारे में ख़ूफ़िया जानकारियॉं जुटाएँ और उनसे संपर्क साध कर जापान के साथ उनकी दोस्ती और सहयोग को बढ़ाएँ.
इसी सिलसिले में मेजर फ़ुजिवारा गदर विद्रोह के नेता रहे गियानी प्रीतम सिंह के सम्पर्क में आए और फिर इन दोनों लोगों ने ब्रिटिश आर्मी के बंधक बनाए गए कैप्टन मोहन सिंह से मुलाक़ात की. इन लोगों ने मोहन सिंह के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वे जापानी सेना द्वारा बंधक बनाए गए 40 हज़ार जवानों के साथ एक ऐसी भारतीय सेना का नेतृत्व करें जो कि ब्रिटिश हुक़ूमत से भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ सके.
मोहन सिंह को इस प्रस्ताव ने असमंजस में डाल दिया. उन्हें ब्रिटिश आर्मी के लिए ली गई अपनी शपथ को तोड़ कर उसके ख़िलाफ़ बग़ावत जो करनी थी. लेकिन आख़िरकार वे सहमत हुए. और इस तरह मेजर फुजीवारा ने बंधक बनाए गए 40 हज़ार भारतीय सैनिकों को मोहन सिंह को सौंप दिया और ये पहली इंडियन नैश्नल आर्मी के गठन की ओर शुरूआती क़दम बना.
रास बिहरी बोस की अध्यक्षता में इंडियन इंडिपैंडेंस लीग की 15 से लेकर 23 जून 1942 तक चली बैंगकॉक कॉंफ्रेंस में पास हुए 35 रिजॉल्यूशंस में से एक रिजॉल्यूशन के तहत आधिकारिक तौर पर लीग ने मोहन सिंह को फ़र्स्ट इंडियन नैश्नल आर्मी का कमांडर इन चीफ़ नियुक्त किया. इसी कॉंफ्रेंस में एक और महत्वपूर्ण रिजॉल्यूशन पास हुआ था. इसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और जर्मनी से जापान आकर अध्यक्ष के तौर पर इसकी कमान संभालने का न्योता दिया गया था.
विश्वयुद्ध के कई मोर्चों पर एक्सिस पावर्स का हिस्सा जापान, ब्रिटिश आर्मी के नेतृत्व वाली अलाइड फ़ोर्सेज़ के ख़िलाफ़ अपनी जीत दर्ज करा रहा था. इसने भारत के प्रवासी आंदोलनकारियों को एक नई उम्मीद से भर दिया. इसी बीच सुभाष चंद्र बोस को जापान में इंडियन नैश्नल लीग की कमान सम्भालने का न्यौता मिला था.
मई 1942 के आख़िरी दिनों की बात है. ये पहला मौक़ा था जब बीते एक साल से जर्मनी में पॉलिटिकल असाइलम में रह रहे सुभाष चंद्र बोस को जर्मन चॉंस्लर अडोल्फ़ हिटलर से मिलने का मौका मिला. ये इन दोनों नेताओं की एक मात्र मुलाक़ात थी. हिटलर ने भी उनके जापान जाने के विचार से सहमति जताई और उन्हें इसके लिए एक सबमरीन की पेशकश की. इसी बीच नवम्बर 1942 में बोस की पत्नी एमिलिए शेंकल ने एक बेटी को जन्म दिया. लेकिन बोस अपनी पत्नी और नवजात बच्ची को एक अनिश्चित भविष्य के हवाले छोड़ जर्मन सबमीरीन में सवार होकर जापान की ओर बढ़ चले.
इधर, शुरूआती दौर में इंडियन नैश्नल आर्मी के जनरल मोहन सिंह ने उत्साह के साथ जापानी इम्पीरियल आर्मी को दूसरे विश्व युद्ध के कई मोर्चों में सहयोग किया और मेजर फ़ुजिवारा और एफ़ किकान के साथ उनके रिश्ते क़ाफ़ी मज़बूत रहे. लेकिन धीरे धीरे जापानी इंपीरियल आर्मी से वे असंतुष्ट होते गए. उन्हें जापान की मंशा पर शक होने लगा था. उन्हें लगा कि जापान, इंडियन नैश्नल आर्मी को महज जापानी सेना के एक हिस्से के बतौर इस्तेमाल कर रहा है और जान-बूझ कर उसे एक स्वतंत्र सेना की तरह मान्यता नहीं दे रहा.
जापानी सेना के कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों से गहरी असहमिति के चलते 29 दिसम्बर 1942 को मोहन सिंह को उनके पद से हटाकर जापानी सेना ने उन्हें हिरासत में ले लिया और पहली इंडियन नैश्नल आर्मी अनिश्चितता से घिर गई.
इधर, मैडागास्कर में सुभाष बाबू को जर्मन सबमरीन से अब एक जापानी सबमरीन में ट्रॉंसफ़र किया गया. इसी में सवार होकर वे मई 1943 में जापानी क़ब्जे वाले सुमात्रा पहुँचे और फिर वहां से टोक्यो.
तत्कालीन प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने टोक्यो में उनका स्वागत किया और अगले ही दिन जापानी संसद में पूरे विश्वासमत के साथ ये घोषणा की गई कि जापान अंग्रेजों को भारत से बाहर करने वाली ताकतों का पूरी तरह समर्थन करेगा क्योंकि वो भारत को पूरी तरह आज़ाद देखने का इच्छुक है.
इसके बाद जापानी सहयोग से सुभाष चंद्र बोस ने इंडिंयन नैश्नल आर्मी के पुनर्गठन की कमान संभाली. इस तरह सेंकंड इंडियन नैश्नल आर्मी यानि आज़ाद हिंद फ़ौज़ का गठन हुआ. बोस के करिश्माई नेतृत्व ने प्रवासी भारतीयों में अद्भुत् ऊर्जा का संचार किया. ‘जय हिंद’ और ‘दिल्ली चलो’ जैसे उनके नारों ने जापान के अलावा बर्मा, फ़िलीपिंस, मैंचुकुओ और कई अन्य जगहों के प्रवासी भारतीयों को आज़ाद हिंद फ़ौज़ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. इस तरह नई आज़ाद हिंद फ़ौज एक ऐसी विविधता भरी फ़ौज बनी, जिसमें क्षेत्रियता, एथनिसिटी, धार्मिकता और यहॉं तक कि लैंगिक तौर पर भी विविधता थी.
INA की सीधी कमान सम्भालने पर सुभाष बाबू मालूम हुआ कि युद्ध बंदियों में बड़ी संख्या गढ़वाल राइफल्स के जवानों की भी है. वे पेशावर विद्रोह से वाक़िफ़ थे, जहॉं गढ़वाली फ़ौजियों ने निहत्थे पठानों पर गोलियॉं चलाने से इनकार कर दिया था.
लिहाज़ा उन्होंने तुरंत गढ़वालियों की एक अलग रेजिमेंट बनाने का आदेश दिया. 2/18 गढ़वाल राइफ़ल्ज़ के कैप्टन चंद्र सिंह नेगी को इस राष्ट्रीय सेना में लेफिटनेंट कर्नल का पद दिया गया और उन्हें सिंगापुर में बने ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग स्कूल के कमांडेंट की जिम्मेदारी सौंपी गई. उसी 2/18 गढ़वाल राइफल्स के सूबेदार मेजर देव सिंह दानू को मेजर बनाकर नेताजी ने अपनी अंगरक्षक गढ़वाली बटालियन का कमांडर नियुक्त किया.
इसी तरह कैप्टन बुद्धि सिंह रावत को लेफ़्टिनेंट कर्नल का पद दिया गया और उन्हें एक पूरी बटालियन की कमांड सौंप दी गई. आगे चलकर नेताजी ने उन्हें अपना व्यक्तिगत एडजुटेंट भी नियुक्त किया. INA में बनी गढ़वालियों की इस रेजिमेंट का नाम ‘सुभाष रेजिमेंट’ रखा गया. ये गढ़वालियों के लिये सबसे बड़े सम्मान की बात थी कि उनकी बटालियन का नाम उनके सबसे बड़े नेता के नाम पर ही रखा गया.
आज़ाद हिंद फ़ौज में नेता जी ने जिस उम्मीद के साथ गढ़वालियों को विशेष स्थान दिया था, गढ़वाली उस उम्मीद पर पूरी तरह खरे भी उतरे. 5/18 गढ़वाल राइफल के कैप्टन पित्रशरण रतूड़ी को ले॰ कर्नल बनाकर सुभाष रेजिमेंट की प्रथम बटालियन का कमांडर बनाया गया था. उन्होंने आराकन के युद्ध में इतना जबरदस्त कॉम्बैट अटैक किया कि दुश्मन के पांव उखाड़ दिए. इस बहादुरी और रण-कौशल के चलते नेताजी ने अपने हाथों से उन्हें सर्वोच्च पदक ‘शेर-ए-हिंद’ प्रदान किया था.
ऐसी ही जाँबाज़ी भरी दास्तान सेकेंड लेफिटनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट की भी है. 14 मार्च 1945 को उन्हें नेहरू ब्रिगेड के साथ मिलकर इरावदी के रणक्षेत्र में ब्रिटिश सेनाओं से भिड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. ये लड़ाई सैन्य इतिहास में दुनिया के सबसे खतरनाक मोर्चों में शामिल मानी जाती है. यहां टौंगजिन नाम की जगह पर 17 मार्च 1945 के दिन ज्ञान सिंह बिष्ट को मात्र 98 सैनिकों के साथ ब्रिटिश सेना की टैंकों से सुसज्जित टुकड़ी से भिड़ना पड़ा था. इस लड़ाई में बिष्ट वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन मोर्चे पर जीत उन्हीं की हुई.
मेजर जनरल शाहनवाज खां के अनुसार, ‘सेकेंड लेफिटनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट को जब युद्धक्षेत्र में ये एहसास हुआ कि सिर्फ़ रायफल थामे 98 सैनिकों के साथ हम दुश्मनों की बड़ी-बड़ी मशीनगनों, हथगोलों और टैंकों का प्रतिरोध नहीं कर पाएँगे तो उन्होंने खुद को ही बम बना लिया. उन्होंने अपने शरीर पर एंटी टैंक माइन बांधी और अपने कुछ साथियों को लेकर दुश्मनों पर जबरदस्त हमला किया. ये हमला इतना भीषण था कि ब्रिटिश सेना मोर्चा छोड़कर भागने पर मजबूर हो गई.’ ज्ञान सिंह बिष्ट के साथ ही 40 अन्य सिपाही इस लड़ाई में शहीद होकर हमेशा के लिए अमर हो गए.
इसी तरह कैप्टन महेंद्र सिंह बागड़ी ने बर्मा के पोपा मोर्चे पर हथगोले और पेट्रोल से भरी बोतलों को अपने शरीर पर बांध कर दुश्मनों के टैंकों पर हमला किया और उनके 15 से ज्यादा टैंक और स्वचलित तोपों को नष्ट कर दिया. इस युद्ध को सैन्य इतिहास में ‘चार्ज ऑफ़ दि इम्मौर्टल्स’ यानी ‘अमर वीरों का धावा’ नाम से दर्ज किया गया.
इंफाल और कोहिमा के मोर्चे पर भी ब्रिटेश सेना को आजाद हिंद फौज ने कई बार हराया. अंडमान निकोबार को तो आजाद हिंद फौज ने पूरी तरह से आजाद करा लिया था और वहां भारतीय झंडा फहरा दिया था.
INA और उसमें शामिल गढ़वाली जवान हर मोर्चे पर दुश्मनों से ज़बरदस्त लोहा ले रहे थे लेकिन जर्मनी और इटली की हार के साथ ही सारे समीकरण बदल गए. 6 और 9 अगस्त 1945 को अमेरीका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा दिए. इसमें दो लाख से ज़्यादा लोग मारे गए. इस हमले के साथ ही जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया.
डॉक्टर राजेंद्र पटोरिया अपनी किताब ‘नेताजी सुभाष’ में लिखते हैं, ‘जापान की हार के बाद बेहद कठिन परिस्थितियों में फौज ने आत्मसमर्पण किया और INA के सैनिकों पर लाल किले में अभियोग चलाया गया. लेकिन जब इस मुक़दमे की सुनवाई शुरू हुई तो पूरा भारत भड़क उठा और जिस भारतीय सेना के बल पर अंग्रेज राज कर रहे थे, वे विद्रोह पर उतर आए. नौसैनिक विद्रोह ने ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में अंतिम कील का काम किया. अंग्रेज अब अच्छी तरह समझ गए कि राजनीति व कूटनीति के बल पर अब राज करना मुमकिन नहीं है. अंततः उन्हें भारत को स्वाधीन करने की घोषणा करनी पड़ी.’
जाते-जाते आपको एक बेहद दिलचस्प जानकारी और देते हैं.
देश की आज़ादी के बाद आजाद हिंद फौज के इन्हीं सिपाहियों ने टिहरी रियासत की आज़ादी में भी अहम भूमिका निभाई. चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी में राहुल सांकत्यायन लिखते हैं:
‘राजशाही से आज़ादी के बाद भी टिहरी में ये ख़तरा था कि कहीं राजा नरेंद्र शाह फिर से अपने भरोसेमंदों के साथ सत्ता में क़ाबिज़ न हो जाए. लिहाज़ा इसे रोकने के लिये आजाद हिंद फौज ने मोर्चा संभला. उन्होंने टिहरी रियासत के सभी अधिकारियों को जेल में बंद कर दिया और राजधानी में प्रवेश के लिये भागीरथी नदी पर बने मुख्य पुल पर अपनी सुरक्षा गार्ड तैनात कर दी. टिहरी की आज़ादी के लिए लड़ने वाले प्रजा मंडल के नेताओं की सुरक्षा का काम भी INA के इन्हीं सैनिकों ने किया और अंततः यहां भी वे सफल हुए. देश की आज़ादी के करीब एक साल बाद टिहरी भी राजशाही से मुक्त होकर भारतीय गणराज्य का अभिन्न अंग बन गया.’
स्क्रिप्ट : मनमीत
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