क्या है उत्तराखंड में बसने वाले मुसलमानों की कहानी जो औरंगजेब से जुड़ती है

  • 2022
  • 11:12

क़िस्सा गढ़वाल नरेश और मुग़ल बादशाह की दुश्मनी का…

राजशाही के पहले एपिसोड में हमने आपको रानी कर्णावती की कहानी सुनाई. वो रानी कर्णावती जिसने मुग़लिया सेना को न केवल पराजित किया, बल्कि गढ़वाल पर आँख उठाने की सजा देते हुए शाह जहां के सैकड़ों सैनिकों की नाक काट कर उन्हें वापस दिल्ली की ओर मोड़ दिया.

लेकिन दिल्ली और गढ़वाल के बीच की ये लड़ाई यहीं ख़त्म नहीं होती. बल्कि ये लड़ाई इन दोनों रियासतों की अगली पीढ़ी तक भी पहुँचती है. यानी जब मुग़लिया सल्तनत की कमान शाह जहां के बेटे औरंगज़ेब के हाथों में आई और इधर गढ़वाल रियासत की कमान रानी कर्णावती के बेटे पृथ्वीपति शाह ने संभाली. 

साल 1657. मुग़ल बादशाह शाहजहां की तबियत बिगड़ी नहीं कि चारों बेटे सत्ता संघर्ष में उलझ गए. मुग़लिया तख़्त को हासिल करने का जुनून ऐसा था कि भाई ने भाई का गला काटा. शाह जहां को मौत आने से पहले ही उसके तीन बेटों को मौत आ गई और ज़िंदा बचा सिर्फ़ एक बेटा जिसका नाम था मुहिउददीन मोहम्मद.

मुहिउददीन मोहम्मद – जिसने अपने बूढ़े बाप को आगरा के क़िले में क़ैद करवा दिया, मुहिउददीन मोहम्मद – जिसने अपने बड़े भाई और शाह जहां के सबसे चहेते दारा शिकोह का गला काटकर पिता को भेंट कर दिया. मुहिउददीन मोहम्मद – जो अब मुग़ल साम्राज्य का इकलौता उत्तराधिकारी था. मुहिउददीन मोहम्मद – जिसे अपने राज्याभिषेक में ‘आलमगीर’ का ख़िताब मिला. मुहिउददीन मोहम्मद – जिसे दुनिया ने औरंगज़ेब के नाम से जाना.

सभी भाइयों की मौत के बाद औरंगज़ेब की सत्ता को सीधी चुनौती देने वाला अब कोई नहीं बचा था. लेकिन उसके सलाहकारों को एक चिंता अब भी सता रही थी. ये चिंता थी दारा शिकोह के बेटे सुलेमान शिकोह का अब भी जीवित होना. सलाहकारों का मत था कि सुलेमान शिकोह जब तक ज़िंदा रहेगा, औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ बग़ावत की उम्मीद भी तब तक ज़िंदा ही रहेगी. 

उधर सुलेमान शिकोह भी इस बात से बेख़बर नहीं था कि उसकी जान ख़तरे में है. वो जानता था कि उसके पिता की बेरहम हत्या करवाने वाला औरंगज़ेब उसे भी नहीं छोड़ेगा. लिहाज़ा सुलेमान को एक ऐसी रियासत में पनाह की दरकार थी जो मुग़ल बादशाह का नाम सुनते ही घुटने न टेक दे, जो औरंगज़ेब के ख़ौफ़ से थर-थर काँपती न हो और जो मुग़लों की ताकतवर फौज से लोहा लेने का माद्दा रखती हो. 

लेकिन ऐसी रियासत को खोजना भी आसान नहीं था. उस दौर में मुग़लों का परचम इस कदर बुलंद था कि आस-पास की तमाम छोटी-बड़ी रियासतों ने मुग़लों की सरपरस्ती मंज़ूर कर ली थी. ऐसे में सुलेमान शिकोह के नज़दीकियों ने उसे गढ़वाल रियासत से पनाह माँगने की सलाह दी. इसके दो प्रमुख कारण थे. एक तो गढ़वाल रियासत की भौगोलिक स्थिति इतनी मज़बूत थी कि दक्षिण की ओर से आने वाला कोई भी हमलावर कभी गढ़वाल रियासत को हरा नहीं सका था. दूसरा, रानी कर्णावती के नेतृत्व में गढ़वाल रियासत पहले भी मुग़लों को धूल चटा चुकी थी. 

सुलेमान को ये प्रस्ताव समझ आया. उसे समझ आया कि औरंगज़ेब के प्रकोप से बचने के लिए गढ़वाल रियासत में पनाह लेना ही सबसे सही विकल्प होगा. गढ़वाल में उस वक्त राजा पृथ्वीपति शाह का शासन था. उन्होंने सुलेमान शिकोह का स्वागत किया और उसे अपने राज्य में शरण दी. सुलेमान अकेला गढ़वाल नहीं आया था. उसके साथ पूरा लाव लश्कर यहां पहुंचा था. इसमें चित्रकार थे, कलाकार थे, धोबी थे, बावर्ची थे और राजकुमार की सेवा-भगत करने वाले कुछ अन्य नौकर-चाकर भी थे. 

राजा पृथ्वीपति शाह ने इन लोगों को टिहरी जिले में चंद्रबदनी मंदिर के पास अजनीसैंण और भागीरथी नदी के दूसरी तरफ बेलचौरी के इलाकों में बसने की इजाजत दी. यहां आज भी जो गांव मौजूद हैं, उनके बसने का सिलसिला उसी दौर में शुरू हुआ था.

उधर औरंगज़ेब को जब ये मालूम हुआ कि गढ़वाल के राजा ने उसके शत्रु को पनाह दी है तो वो ग़ुस्से से तमतमा उठा. उसने इसे मुग़ल सल्तनत की शान में गुस्ताखी माना और तुरंत अपने राजदूत के हाथों पृथ्वीपति शाह को एक चेतावनी लिख भेजी. उसने लिख भेजा कि अगर सुलेमान शिकोह को जल्द से जल्द दिल्ली न भेजा गया तो गढ़वाल रियासत का नामों-निशान मिटा दिया जाएगा. 

पृथ्वीपति शाह सुलेमान को ज़ुबान दे चुके थे. वे उसे शरण देने और उसकी रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध थे. औरंगज़ेब की चेतावनी के बाद भी वो अपने फैसले पर अडिग थे. उन्होंने औरंगज़ेब को उसी की भाषा में तीखा जवाब लिखवा भेजा और ये साफ कर दिया कि उन पर उसकी धमकियों का असर नहीं होने वाला. 

पृथ्वीपति शाह के दरबार की शान माधो सिंह भंडारी और रिखोला लोदी जैसे योद्धा भी अपने राजा के फैसले से पूरी तरह सहमत थे. इन वीर भड़ों ने 13वीं सदी के चौहान राजा हम्मीर देव को याद किया जो ख़िलजी के मंगोल विद्रोहियों को शरण देने के चलते शहीद हो गए, लेकिन अपने वादे को टूटने न दिया. माधो सिंह भंडारी ने अपने राजा से कहा कि हमारा इतिहास ऐसी वीर गाथाओं से भरा पड़ा है जब हमने जान देकर भी वचन निभाए हैं. आज समय है जब हमें अपने उसी गौरवशाली इतिहास को दोहराना है. 

औरंगज़ेब इस बात से लगातार खिसिया रहा था गढ़वाल नरेश पर उसकी धमकियों का कोई असर नहीं हो रहा था. लेकिन वो ये भी जानता था कि गढ़वाल का भूगोल इतना कठिन है कि उसे युद्ध में जीतना आसान नहीं होगा. लिहाज़ा उसने कूटनीति का सहारा लिया. 

कैसी कूट नीति? इसका ज़िक्र इतिहासकार डॉ० केआर कानूनगो की किताब ‘दारा शिकोह’ में विस्तार से मिलता है. वो लिखते हैं कि इस कूटनीति की जिम्मेदारी औरंगज़ेब ने अपने वफ़ादार जयसिंह को सौंपी. ‘जय सिंह ने सबसे पहले माधो सिंह भंडारी को लालच देने की कोशिश की. इसमें नाकामयाब होने के बाद जयसिंह ने गढ़वाल के एक अन्य मंत्री को अपने षडयंत्र में शामिल किया. उसने मन्त्री को विश्वास दिलाया कि सुलेमान को पकड़वाकर वो सीधे मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का चहेता बन सकता है. ये मंत्री जय सिंह की बात में आ गया और उसने बीमार चल रहे सुलेमान को औषधि के साथ ख़तरनाक जहर देने की साजिश रची. लेकिन इस बीमारी ने सुलेमान भी दोगुना चौकन्ना बना दिया था. वो छांछ भी फूंक-फूंक कर पी रहा था.  ज़हरीली औषधि पीने से पहले उसने एक बिल्ली को ये पिलाई और मंत्री के षड्यंत्र का वहीं भांडा फूट गया. ये बात राजा पृथ्वीपति शाह तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत ही अपने मंत्री का सर धड़ से अलग करवा दिया.’

मंत्री के मारे जाने के बाद अब जयसिंह ने और भी मज़बूत नीति बनाई. उसने राजा पृथ्वीपति शाह के बेटे मेदिनी शाह को ही अपने षड्यंत्र में शामिल कर लिया. उसने मेदिनी शाह को उकसाया कि वो अपने पिता की हत्या करके ख़ुद राजा बने और सुलेमान को औरंगज़ेब के हवाले करके उस मुग़ल सल्तनत का करीबी बन जाए जिसका परचम तमाम हिंदुस्तान में बुलंद है. मेदिनी शाह जय सिंह की बातों में आ गया. 

रियासत के कुछ सामंत और राज परिवार के कुछ सदस्य पृथ्वीपति शाह से नाराज़ चल रहे थे. नाराज़ इसलिए कि उन्होंने सुलेमान जैसे अंजान आदमी के लिए पूरी मुग़ल सल्तनत से दुश्मनी मोल ले ली थी और उसकी रक्षा के लिए अपने ही एक मंत्री को मौत के घाट भी उतार दिया था. इसी नाराज़गी को भुनाते हुए मेदिनी शाह ने अपने पिता के ख़िलाफ़ खुला विद्रोह छेड़ दिया. 

जयसिंह को लगा कि इस विद्रोह के बाद तो पृथ्वीपति शाह पूरी तरह टूट जाएंगे और सुलेमान को दिल्ली भेजने को मजबूर हो जाएँगे. लिहाज़ा उसने अपने बेटे राम सिंह को श्रीनगर भेजा कि वो ख़ुद पृथ्वीपति शाह से मिले और सुलेमान को बंदी बनाकर दिल्ली ले आए. लेकिन पृथ्वीपति शाह ने इस बार भी उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. उन्होंने राम सिंह को ये कहते हुए बैरंग ही लौटा दिया कि जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं, सुलेमान का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता. 

सुलेमान की सुरक्षा को लेकर पृथ्वीपति शाह प्रतिबद्ध थे. लेकिन उनके ख़िलाफ़ चल रहे षड्यंत्र दिनों-दिन बढ़ते जा रहे थे और सुलेमान इस बात से अंजान नहीं था. उसने तय किया कि वो बिना किसी को बताए, चुपचाप गढ़वाल रियासत से निकल कर तिब्बत की ओर चला जाएगा.

मौक़ा देखकर एक रात सुलेमान अपने कुछ बेहद करीबी लोगों के साथ तिब्बत की ओर बढ़ गया. लेकिन तिब्बत की सीमा से बहुत पहले ही ये लोग रास्ता भटक गए. और कई दिनों तक हिमालय की पहाड़ियों में भटकते रहने के बाद अंततः गढ़वाल रियासत में ही आ पहुँचे. यहां कुछ गांव वालों ने इन्हें पहचान लिया और मेदिनी शाह के हवाले कर दिया. मेदिनी पहले से ही ऐसे मौके की तलाश में था. उसने तुरंत ही सुलेमान को दिल्ली से आए राम सिंह को सौंपते हुए औरंगज़ेब तक पहुंचा दिया. 

पृथ्वीपति शाह के अपने ही खून ने उन्हें धोखा दे दिया था. इस घटना के बाद उन्होंने मेदिनी शाह को तो हमेशा के लिए देश निकाला दे दिया. लेकिन बताते हैं कि इस धोखे से उनको ऐसा आघात लगा कि अपनी आख़िरी सांस तक वो इससे उभर नहीं सके और ताउम्र दोहराते रहे कि ‘मेरे बेटे का पाप भविष्य में जरूर रंग लाएगा. ये राज्य, इसका ऐश्वर्य, सब धूल में मिल जाएगा.’

इस घटना के कुछ समय बाद ही साल 1662 में औरंगज़ेब ने सुलेमान शिकोह की हत्या करवा दी. संयोग देखिए कि सुलेमान को मौत के मुंह में धकेलने वाले मेदिनी शाह की भी ठीक इसी साल दिल्ली में मौत हो गई. 

इतिहास के पन्नों से निकाल कर ये जो क़िस्सा हमने आपको आज सुनाया, उसका जिक्र 17वीं सदी के इतावली यात्री निकोलाओ मानुची, इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल और डॉ० केआर कानूनगो की किताबों में विस्तार से दर्ज है. हालाँकि एडविन एटकिंसन और जी.आर.सी विल्यम्ज़ की किताबों में इसी घटना की कुछ अलग व्याख्याएँ मिलती हैं लेकिन उनमें इतने विरोधाभास हैं कि उनकी प्रामाणिकता हमेशा सवालों से घिरी रही है.

बहरहाल, जाते-जाते आपको इस घटना से जुड़ी कुछ दिलचस्प जानकारियाँ और बताते हैं. इस क़िस्से की शुरुआत में हमने आपको बताया था कि सुलेमान शिकोह जब गढ़वाल आया तो वो अकेला नहीं था. उसके साथ पूरा लाव लश्कर यहां आया था. गढ़वाल नरेश ने इन लोगों को टिहरी ज़िले में अजनीसैंण के पास बसने के लिए जगह दी थी. इसके कुछ समय बाद सुलेमान की तो मौत हो गई लेकिन उसके साथ ये तमाम लोग फिर हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए.

आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि गढ़वाल रियासत के पहले-पहल चित्र इन्हीं लोगों ने बनाये. ये चित्र आज अभी कई म्यूजियम्स में ‘पेंटिग ऑफ गढ़वाल’ नाम से देखे जा सकते हैं. इन लोगों से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा ये भी है कि साल 1820 के आस-पास जब मसूरी में अंग्रेज बसने लगे तो उन्हें मांस और ख़ासकर बीफ़ पकाने वाले कारीगरों की दरकार हुई. गढ़वाल में ऐसे लोगों का मिलना मुश्किल था जो ये काम कर सकते. तब राजा ने अंजनीसैंण से इन्हीं लोगों को इस काम के लिए भेजा. 

इनमें एक वर्ग तो ऐसा था ही जो कभी मुग़लों का किचन सम्भाला करता था, अब इन्हें अंग्रेजों के किचन की भी जिम्मेदारी मिल गई. इससे ये हुआ कि इनकी पाक कला वक्त के साथ कदम-ताल करती हुई निखरती गई और इन्होंने देश-विदेश में अपनी अलग पहचान बनाई. बल्कि आज भी अंजनीसैंण के कारीगर दुनिया भर में अपने हाथ के स्वाद के लिए जाने जाते हैं. कभी औरंगज़ेब से बग़ावत करके गढ़वाल पहुँचे ये लोग आज हमारे पहाड़ का अभिन्न हिस्सा हैं और कमाल की फर्राटेदार गढ़वाली बोलते हैं.

इस कार्यक्रम के आने वाले एपीसोड्स में भी हम आपको गढ़वाल और कुमाऊँ की रियासतों के इतिहास से रूबरू करवाते रहेंगे.

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