गढ़वाल की पहली फ़िल्म थी ‘जग्वाल’. और इसी फिल्म को उत्तराखण्ड की पहली फिल्म होने का तमगा भी हासिल हुआ. ये फिल्म दिल्ली समेत उत्तराखण्ड के अलग-अलग सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी. इसके निर्माता पाराशर गौड़ थे और इसका निर्देशन तुलसी घिमिरे ने किया था. जग्वाल के रूपहले पर्दे पर साकार होने की कहानी हम आपको पहले ही बता चुके हैं.
आज के एपिसोड में हम आपको कुमाऊं की पहली फिल्म के बारे में. जग्वाल की तरह ही इस फिल्म के बनने की कहानी भी बेहद रोचक और दिलचस्प है. तो चलिए बिलकुल शुरुआत से जानते हैं कि जब कुमाऊँ कि पहली फ़िल्म बन रही थी तो हुआ यूं था.
80 का दशक था. उत्तराखण्ड में कई सारे गढ़वाली और कुमाऊंनी नाटकों पर पहले से ही काम हो रहा था. रामलीला, पाण्डव नृत्य, चक्रव्यूह, कमलव्यूह के अलावा अन्य क्षेत्रीय लोक नाट्यों और रंगमंचों में कलाकार जमकर हिस्सा ले रहे थे. फिर 4 मई 1983 को गढ़वाल और उत्तराखण्ड की पहली फिल्म ‘जग्वाल’ को लोगों के बीच लाकर तो पाराशर गौर ने इतिहास रच दिया. हालाँकि इस फिल्म को लेकर उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. लेकिन इसके बाद कई गढ़वाली फिल्मों पर काम होने लगा. इनमें घरजवैं तो काफी हिट रही. दिल्ली के संगम सिनेमा हॉल में घरजवैं, 29 हफ्तों तक प्रदर्शित की गई थी. मगर अब तक कोई भी कुमाऊंनी फिल्म नहीं बन सकी थी. जग्वाल फिल्म को बनाने में जिन दिक्कतों से पाराशर गौर को दो-चार होना पड़ा था, ठीक उसी तरह की दिक्कतें तब अल्मोड़ा के रहने वाले जीवन सिंह बिष्ट के सामने भी थीं, जब पहली कुमाऊंनी फिल्म बनाने का आईडिया उनके जेहन में आया.
जीवन सिंह बिष्ठ का जन्म अल्मोड़ा जिले की सालम पट्टी के ल्वाली गांव में 30 मई 1950 को हुआ था. उनके पिता चाहते थे कि जीवन सेना में जाएं, मगर उनके सपने कुछ और ही कहानी कहना चाहते थे. जीवन जब कॉलेज में थे तभी से रंगमंच की तरफ उनका रूझान बढ़ने लगा. वो पढ़ाई में तो अव्वल थे ही साथ ही नाटकों में भी हिस्सा लेने लगे थे. कॉलेज से पास-आउट होने के बाद उन्होंने कुछ साल पत्रकारिता भी की और इसके कुछ समय बाद भारतीय स्टेट बैंक में उनका चयन हो गया. उनकी पहली नियुक्ति कानपुर में हुई. इसके बाद अल्मोड़ा के शीतलाखेत उनका ट्रांसफर हो गया. जीवन अच्छी खासी नौकरी तो कर ही रहे थे, मगर रंगमंच से उनका जुड़ाव अब भी बरकरार था. कुछ साल बाद उन्होंने नीमा नाम की लड़की से शादी कर ली. इस शादी से उन्हें तीन बेटियां और एक बेटा हुआ. उनकी सबसे छोटी बेटी का नाम स्वाति था. स्वाति के नाम पर ही उन्होंने एक प्रोडक्शन कंपनी की शुरूआत की. जिसका नाम रखा ‘स्वाति सिने प्रोडक्शन’.
पहली कुमाऊंनी फिल्म बनाने का विचार जब उनके दिमाग में आया तो उन्होंने इसे अपनी पत्नी नीमा और कुछ करीबी दोस्तों से साझा किया. अब तक कोई भी कुमाऊंनी फिल्म नहीं बनी थी, लिहाज़ा ये एक चुनौतीपूर्ण सौदा होने वाला था. इस फिल्म के लिए पैसे कहां से जुटाए जाएंगे, फिल्म को कितने लोग देखने आएंगे, फिल्म पर लगाया जाने वाला पैसा क्या वसूल हो भी पाएगा जैसे कई सवाल उनके मन में गोते लगा रहे थे. उस वक्त तक कैमरा, टेक्नीशियन्स, म्यूज़िक, डबिंग, लाइट्स, एडिटिंग, साउंड आदि के लिए पहाड़ में अच्छे स्तरीय संसाधन उपलब्ध नहीं थे. इस वजह से किसी फिल्म के लिए मायानगरी मुम्बई का ही रूख करना पड़ता था.
फिल्म बनाने को लेकर उनके मित्र राजेश हर्बोला, एनएनडी भट्ट, सरदार ज्ञान सिंह, आनन्द बल्लभ उप्रेती, एसबी राणा और राजेन्द्र बोरा ने उन्हें सहयोग करने की बात कही. मगर इस राह में उन्हें कई बार अपने ही सगे-सम्बन्धियों, दोस्तों के बीच अपमानित भी होना पड़ा. वे जब लोगों से अपनी फिल्म को बनाने के लिए आर्थिक सहयोग की अपील करते तो उन्हें काफी कुछ सुनना पड़ता. उनके कुछ दोस्त चाहते तो थे कि वो कुमाऊं की पहली फिल्म को लेकर काम करें, मगर उनके दोस्तों को इस फिल्म को लेकर संशय भी था कि ये सफल रहेगी या नहीं. ऐसे में वे लोग जीवन सिंह बिष्ट से गारंटी चाहते थे कि अगर वो उन्हें फिल्म बनाने के लिए पैसे देते हैं, तो फिल्म सफल भी होनी चाहिए. आर्थिक मोर्चे पर इस तरह की तमाम चुनौतियों से जूझते हुए भी जीवन सिंह बिष्ट ने भी हार नहीं मानी और कुमाऊं की पहली फिल्म बनाने के अपने सपने को ज़िंदा रखा. इसके लिए उन्होंने बैंक से क़र्ज़ तक लिया. नौकरी के साथ-साथ फिल्म की शूटिंग कर पाना बड़ा मुश्किल काम था. लिहाज़ा उन्होंने अपनी नौकरी से लम्बी छुट्टी ली और फ़िल्म पर काम करना शुरू किया.
साल 1986 के अप्रैल महीने में पहली कुमाऊंनी फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई. इस फिल्म का नाम रखा गया ‘मेघा आ’. फिल्म के मुख्य कलाकारों में मुकेश धस्माना, सपना अवस्थी, मंजु श्री और अशोक मल्ल थे. इसके अलावा अन्य कलाकारों में राजेश हर्बोला, प्रेमा शाह, अलखनाथ उप्रेती और मंजू श्री शामिल थे. फिल्म का निर्देशन काका शर्मा ने किया और संगीत दिया हेमंत ठाकुर ने.
जीवन सिंह बिष्ठ का सम्पर्क मुम्बई के इन प्रशिक्षित लोगों से कराने के पीछे मोहन उप्रेती का काफी सहयोग रहा. मोहन उप्रेती उस वक्त कुमाऊंनी रंगमंच का एक बड़ा नाम थे और दिल्ली के कलाकारों से उनका अच्छा-खासा परिचय था. फिल्म को बनाने में जीवन सिंह बिष्ठ को उन्होंने अपनी तरफ से हर संभव मदद का प्रयास किया.
17 सितम्बर 1987 को सेंसर बोर्ड से ये फिल्म पास हुई. इसके बाद आया 30 सितम्बर 1987 का दिन जब दोपहर 12 बजे रानीखेत के रतन पैलेस में पहली कुमाऊंनी फिल्म ‘मेघा आ’ का प्रीमियर शो हुआ. इस फिल्म को देखने के लिए सैकड़ों लोग रतन पैलेस पहुंचे थे. पंजाब और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल रहे भैरव दत्त पाण्डेय ने इस शो का उद्घाटन किया. 15 रील की 35 एमएम में बनी ये फिल्म 3702.10 मीटर लम्बी थी. सीधे शब्दों में कहें तो इस फिल्म की अवधि 1 घण्टा 32 मिनट और 34 सेकेण्ड थी. फिल्म में उत्तराखण्ड में उस वक्त के मशहूर गायक गोपाल बाबू गोस्वामी, लखनऊ की सरस्वती वर्मा, दीवान कनवाल और विमल पंत ने अपनी आवाज़ दी थी. गोपाल बाबू गोस्वामी को आप इस फिल्म में अभिनय करते हुए भी देख सकते हैं.
फिल्म मेघा आ की कहानी कई सामाजिक मुद्दों पर प्रकाश डालती है. फिल्म में प्रेम कहानी भी है, तो अकेली पड़ चुकी महिला का संघर्ष भी है. फिल्म तब के शराब माफियाओं के कुकर्मों पर भी बात करती है और भारतीय सेना के जवानों के जज़्बे को भी दर्शाती है.
रानीखेत और अल्मोड़ा जैसी जगहों में इस फिल्म की शूटिंग हुई थी. फिल्म के मुख्य कलाकार मुकेश धस्माना इससे पहले गढ़वाली फिल्म ‘कभी सुख-कभी दुख’ में काम कर चुके थे और अच्छा खासा नाम बना चुके थे. वहीं फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे अशोक मल्ल इससे पहले फिल्म ‘कौथिग’ में बतौर नायक शानदार अभिनय कर लोगों का दिल जीत चुके थे, लिहाज़ा उन्हें इस फिल्म में बतौर खलनायक देखा जाना बेहद दिलचस्प था.
इस फिल्म को लिखा था शील चौधरी ने. उनके नाम को लेकर कई बार विवाद भी हुआ. राजेन्द्र बोरा का कहना था कि इस फिल्म की पटकथा उन्होंने लिखी थी, मगर फिल्म में बतौर लेखक शील चौधरी का नाम दिया गया. ऐसे में जीवन सिंह बिष्ठ का कहना ये था कि राजेन्द्र बोरा ने जो कहानी लिखी थी, उसमें बदलाव कर दिया गया था. और बाद में इसे शील चौधरी ने अलग ढ़ंग से लिखा था.
ऐसा भी कहा जाता है कि फिल्म के कुछ कलाकारों ने मुफ्त में भी काम किया था. ताकि आर्थिक रूप से ज्यादा बोझ जीवन सिंह बिष्ठ के कंधों पर ना आए. फिल्म से जुड़े कुछ सीन्स को लेकर भी कई बार कलाकारों से मनमुटाव हुए. ऐसे में फिल्म के उन सीन्स को हटा दिया गया, या अलग ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया.
इस फिल्म से जुड़ा एक दिलचस्प वाकया बॉलीवुड की मशहूर गायिका सपना अवस्थी से भी जुड़ता है. वही सपना अवस्थी जिन्होंने 90 के दशक में बॉलीवुड के कई सारे चर्चित गीतों को अपनी आवाज़ दी थी. जिनमें ‘चल छैय्यां छैय्यां’, ‘परदेसी-परदेसी’ और ‘यूपी बिहार लूटने’ जैसे गीत शामिल हैं. फिल्म मेघा आ में सपना अवस्थी मुख्य कलाकार थीं. माना जाता है कि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती की वजह से सपना को इस फिल्म के लिए साइन किया गया था, क्योंकि सपना अवस्थी, मोहन उप्रेती की भतीजी थीं.
ये भी बड़ा रोचक है कि फिल्म में सपना अवस्थी ने ना ही कोई गाना गाया है और ना ही किसी संवाद के दौरान अपनी आवाज़ दी है. उनकी आवाज़ की डबिंग उस वक्त की मशहूर अभिनेत्री पूर्वी नेगी ने की थी.
उस वक्त सरकार की ओर से क्षेत्रीय भाषाओं में बन रही फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए निर्माताओं को प्रॉडक्शन कॉस्ट का 40 प्रतिशत अनुदान के तौर पर दिया जाता था. बाकि का 60 प्रतिशत प्रॉड्यूसर को खुद की जेब से ही खर्च करने होते थे. मगर बजट के ये आवेदन भी सरकारी दफ़्तरों की आलमारियों में धूल फांकते रहे.
रानीखेत में ‘मेघा आ’ के सफल शो के बाद भी कोई अन्य सिनेमा हाल इस फिल्म को दिखाने के लिए राजी नहीं था. उन्हें डर था कि अगर फिल्म को देखने कम लोग पहुंचें या कोई ना पहुंचे तो उन्हें काफी नुकसान झेलना पड़ेगा. फिल्म के इस मुश्किल दौर में जीवन सिंह बिष्ठ का साथ दिया पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच के संस्थापक अध्यक्ष बलवंत सिंह चुफाल ने. उनके कहने पर हल्द्वानी के लक्ष्मी टॉकीज में इस फिल्म का प्रदर्शन किया गया. इसके बाद कुमाऊं के कई अन्य शहरों में भी ये फिल्म दिखाई गई.
जीवन सिंह बिष्ठ का मानना था कि फिल्म का व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार नहीं हो सका था, जिस वजह से फिल्म को उतनी सफलता हाथ नहीं लगी, जितने की वो हकदार थी. साथ ही फिल्म के कई सीन री-शूट किए जाने थे, मगर फिर कुछ कारणों से उन्हें जस का तस रहने दिया गया. फिल्म में कलाकारों के सही चयन को लेकर भी कई बातें सामने आईं.
फिल्म मेघा आ की शूटिंग काफी लम्बे वक्त तक चली. ऐसे में बैंक ने जीवन सिंह बिष्ठ को बिना कारण बताए अनुपस्थित रहने का सस्पेंशन नोटिस थमा दिया. हालांकि इस नोटिस को लीगली चैलेंज किया गया, और बाद में बैंक को इसे रद्द करना पड़ा. मगर फिर जीवन सिंह बिष्ठ ने खुद ही साल 1988 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया था.
फिल्म के पोस्टर पर अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि इस फिल्म के निर्माता जीवन सिंह बिष्ठ का नाम इसमें कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता. ऐसा इसलिए क्योंकि वे सरकारी नौकरी में कर्मचारी थे. और एक सरकारी कर्मचारी का ऐसे किसी कार्य में लिप्त रहना उनकी नौकरी के लिए सही नहीं था. इस वजह से उन्होंने फिल्म के पोस्टर में अपनी पत्नी नीमा का नाम रखा. एक और दिलचस्प बात ये कि उन्होंने अपनी पत्नी का नाम नीमा से निर्मल कर दिया था. फिल्म में जीवन सिंह बिष्ट के नाम का ज़िक्र, ‘जे.एस.बिष्ठ की एक परिकल्पना’ के रूप में किया गया है.
जीवन सिंह बिष्ठ ने इस फिल्म के बाद कोई भी दूसरी फिल्म नहीं बनाई. मगर बाद में उन्होंने दूरदर्शन और कई अन्य संस्थानों के लिए दर्जनों टेलीफिल्म्स और डॉक्यूमेन्ट्रीज़ बनाईं.
जीवन सिंह बिष्ठ अपने जीवन के अन्तिम दिनों में कैंसर से जूझ रहे थे. इस दौरान जीवन ने एक फीचर फिल्म के गीत और पटकथा पर काम किया. जिसका नाम था ‘राजवंशी गोलूदेव’. मगर इसे रिलीज करने से पहले ही वे 7 जनवरी 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह गए. पहली कुमाऊंनी फिल्म के निर्माता के रूप में जीवन सिंह बिष्ठ का नाम उत्तराखण्डी सिनेमा के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है.
स्क्रिप्ट : अमन रावत
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