कौन थे गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी ?

  • 2022
  • 16:32

गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का एक बेहद चर्चित गीत है, ‘बीरू भडू कु देस, बावन गडू कु देस.’

इस गीत में पुरिया नैथानी की वीर गाथा का भी जिक्र है. वही पुरिया नैथानी जिन्हें इतिहास में गढ़वाल का चाणक्य भी कहा गया है और पहाड़ का नाना फडनवीस भी. गढ़वाल का इतिहास टटोलने वाले तो यहां तक कहते हैं कि अगर पुरिया नैथानी न होते, तो शायद पंवार वंशीय राजाओं का इतिहास वक्त के बहुत पहले ही सिमट चुका होता.

पौड़ी ज़िले में नैथाना नाम का एक ऐतिहासिक गाँव है. अदवाणी के घने जंगल और नयार नदी की अविकल धारा के बीच बसा ये गांव ऐतिहासिक इसलिए है क्योंकि इसी गांव में 22 अगस्त 1648 के दिन वीर पुरिया नैथानी का जन्म हुआ था. वैसे तो उनका पूरा नाम पूरणमल नैथानी था लेकिन बचपन में सभी उन्हें प्यार से पुरिया कहते थे. आगे चलकर भी वे ‘वीर पुरिया’ नाम से ही विख्यात हुए.

पुरिया के जन्म के वक्त उनके पिता गेंदामल की उम्र काफ़ी हो चुकी थी. बड़ी उम्र में संतान होने के चलते गेंदामल बहुत प्रसन्न भी थे और पुरिया के भविष्य को लेकर बेहद उत्साहित भी. उन्होंने जब ज्योतिषियों से पुरिया के भविष्य की गणना करवाई तो सभी ने इस बालक को विलक्षण बताया. ज्योतिषियों का कहना था कि पुरिया न सिर्फ़ बेहद होनहार होगा बल्कि वो एक महान व्यक्तित्व वाला विजयी योद्धा बनेगा.

ये उस दौर की बात है जब गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में हुआ करती थी. महाराजा पृथ्वी शाह के दरबार में तब शंकर डोभाल नाम के एक दीवान थे जो ज्योतिष शास्त्र में पारंगत थे. गेंदामल का उनसे परिचय था तो उसने पुरिया की जन्मपत्री उन्हें दिखाई. शंकर डोभाल ने भी अन्य ज्योतिषियों की तरह पुरिया के असाधारण भविष्य की बात दोहराई. साथ ही उन्होंने गेंदामल से यह भी माँग की कि वो पुरिया को उन्हें गोद दे दें.

इतिहासकार भक्त दर्शन अपनी किताब में लिखते हैं, ‘जन्मपत्री को देखकर ज्योतिष में पारंगत श्री डोभाल मंत्री को इस बालक की भावी महानता का आभास मिल चुका था. वे पुत्रहीन थे. एक दिन दौरे में नैथाना की तरफ गए और श्री गेंदामल से प्रार्थना की कि वे उन्हें इस बालक को गोद लेने दें. लेकिन ये क्यों मानने लगे थे? आख़िर उन्होंने प्रस्ताव रखा कि इस बालक को वे अपनी भावी कन्या ब्याह देंगे. यह बात इन्होंने स्वीकार कर ली. उस दिन से श्री डोभाल मंत्री नियमित रूप से मासिक सहायता भेजने लगे और बालक का पालन-पोषण भली-भांति होने लगा.’

पुरिया जब सात साल के हुए तो शंकर डोभाल ने उन्हें पढ़ाई के लिए श्रीनगर बुला लिया. उस दौर में पढ़ाई-लिखाई सिर्फ़ राजा और उच्च कुल के बच्चों के लिए होती थी. लेकिन शंकर डोभाल का महाराज पर अच्छा प्रभाव था तो उन्होंने पुरिया की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध राजकुमारों के साथ राजकीय पाठशाला में करवा दिया.

देश में मुग़लों का शासन था. इसलिए हिंदी और संस्कृत के साथ ही अरबी और फारसी भाषा भी तब पढ़ाई जाने लगी थी. भाषा की पढ़ाई के साथ साथ घुड़सवारी और शस्त्र-संचालन भी पुरिया ने सीखा. छह शास्त्र, 18 पुराण और यंत्र-मंत्रो में दक्षता लेते हुए पुरिया कुछ ही सालों में एक अच्छे विद्वान हो गए.

सिर्फ़ 17 साल की उम्र में ही पुरिया को राज दरबार में नियुक्त कर लिया गया था. इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. उस दौर में हर साल बैलों की एक नुमाइश हुआ करती थी. इसमें जवान बैलों को शराब पिला कर आपस में लड़वाया जाता था. दूर-दूर से लोग इस नुमाइश को देखने आते थे. उस दिन भी ऐसी ही एक नुमाइश हो रही थी और महाराज मेदिनी शाह इसे देखने पहुंचे थे. तभी अचानक एक बैल बिदककर भीड़ में जा घुसा. ये बैल राजा की तरफ बढ़ कर उन पर हमला करने ही वाला था कि तभी पुरिया ने उसे पकड़ कर क़ाबू किया और ज़ंजीर से बांध दिया. महाराज पुरिया के इस साहस से बेहद खुश हुए और उन्हें अपने दरबार में शामिल कर लिया. इसके अगले ही साल उनकी शादी भी शंकर डोभाल की बेटी से हो गई.

पुरिया अब एक बेहतरीन घुड़सवार और शाही अस्तबल के प्रधान बन चुके थे. उनके नेतृत्व में शाही घोड़ों को नए-नए करतब सिखाए जाने लगे और विषम परिस्थितियों के लिए तैयार किया जाने लगा. आख़िरकार शाही प्रदर्शनियों में इन घोड़ों का प्रदर्शन राज्य की नाक का सवाल हुआ करता था. ऐसा ही एक प्रदर्शन साल 1667 में गढ़वाल राज्य की नाक का सवाल भी बना.

श्रीनगर में घुड़सवारी का एक बड़ा आयोजन हुआ जिसमें कई राजाओं के साथ ही दिल्ली दरबार के राजदूत को भी विशेष निमंत्रण दिया गया था. गढ़वाली घुड़सवारों का प्रदर्शन देख राजदूत दंग रह गया था. लेकिन उसने राजा मेदिनी शाह का उपहास बनाने के उद्देश्य से कहा, ‘महाराज, हमारे यहाँ के घोड़े तो ऊँचाई तक लांघ जाते हैं. क्या आपका कोई घुड़सवार उस सामने वाली छोटी हवेली के ऊपर घोड़ा कुदा कर पार हो सकता है?’

इस घटना के बारे में भक्तदर्शन अपनी किताब में लिखते हैं कि राजदूत की ये बात सुनकर महाराज ‘असंभव’ कहने हाई वाले थे कि पुरिया नैथानी आगे बढ़कर आए और पूरी नम्रता व दृढ़ता के साथ बोले, ‘महाराज, अश्व सवारी के फ़ौजदार के लिए तो ये एक साधारण-सी बात है.’

इसके बाद पुरिया महाराज के प्रिय घोड़े श्याम कल्याण पर सवार हुए और उसे मैदान में दौड़ाते हुए एक ऊंची छलांग लगाकर महल की उंचाई को पार कर गए. भक्तदर्शन लिखते हैं, ‘चारों ओर हजारों लोगों का समूह उमड़ पड़ा और सब ओर इनकी सराहना होने लगी. स्वयं दिल्ली के राजदूत ने कहा, ‘महाराज, श्री पुरिया गढ़वाल हाई नहीं, हमारे चक्रवर्ती मुग़ल सम्राट के लिए भी अभिमान की वस्तु हैं. धन्य है गढ़ देश जिसने ऐसा वीर पैदा किया.’ घुड़सवारी के इस अद्भुत करतब के बाद महाराज ने तत्काल ही पुरिया को अपनी घुड़सवार सेना का सेनापति नियुक्त कर लिया.’

पुरिया नैथानी का असल राजनीतिक जीवन अब शुरू हो रहा था. लेकिन इसी बीच उनके जीवन में एक बेहद दुखद घटना भी हुई. उनकी पत्नी की एक बीमारी के चलते मौत हो गई. उनके ससुर शंकर डोभाल ने पुरिया को ये भी प्रस्ताव दिया कि वे उनके ही परिवार की किसी अन्य लड़की से शादी कर लें लेकिन पुरिया ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया. हालाँकि आगे चलकर उन्होंने दूसरी शादी भी की और ये मौक़ा तब आया जब पुरिया अपनी पहली दिल्ली यात्रा पर गए.

मुगल बादशाह औरंगजेब की बहन रोशन आरा की शादी का विशेष निमंत्रण गढ़ राज्य को मिला था. महाराज मेदिनी शाह ने पुरिया नैथानी को गढ़वाल के प्रतिनिधि के तौर पर दिल्ली जाने को कहा. पुरिया जब दिल्ली के लिए रवाना हुए तो श्रीनगर और पौड़ी के बीच ‘धनपुर-पाखा’ में उनकी मुलाक़ात चंदोला परिवार की एक लड़की से हुई. दोनों ने एक-दूसरे को पहली ही नज़र में पसंद किया और शादी करने का संकल्प लिया. पुरिया जब दिल्ली से वापस लौटे तो विधिपूर्वक दोनों की शादी हुई.

पुरिया नैथानी की ये पहली दिल्ली यात्रा गढ़वाल राज्य के लिए भी बेहद अहम रही. दरअसल उस दौरान कोटद्वार-भाबर की कुछ जमीन पर सैय्यद मुसलमान ने क़ब्ज़ा कर लिया था. पुरिया जब दिल्ली दरबार में पहुंचे तो उन्होंने अपनी मजबूत दलीलों से इस जमीन को छुड़वाया और इस पर गढ़वाल का अधिकार माना गया. इस घटना का उल्लेख एक ताम्रपत्र में भी मिलता है जो आज भी टिहरी राज्य संग्रहालय में सुरक्षित है. पुरिया नैथानी की इस सूझ-बूझ से खुश होकर तब गढ़वाल के महाराज ने दो हजार बीघा जमीन उन्हें ईनाम में दी थी.

पुरिया नैथानी की दूसरी दिल्ली यात्रा साल 1680 में हुई. औरंगज़ेब ने उन दिनों पूरे देश के हिंदुओं पर जज़िया कर लगा दिया था. गढ़वाल क्योंकि ज़्यादा सम्पन्न नहीं था तो इस राज्य के लिए ये कर चुकाना बहुत भारी पड़ रहा था. जनता से टैक्स के रूप में अतिरिक्त अनाज लेकर दिल्ली भेजा जाने लगा था और इससे गढ़वाल के आर्थिक हालात और भी बिगड़ रहे थे. ऐसे में कूटनीतिज्ञ पुरिया नैथानी को एक बार फिर से दिल्ली भेजा गया. वहां एक दिलचस्प वाक़या हुआ जिसके बाद औरंगज़ेब ने गढ़वाल रियासत को जज़िया कर से मुक्त कर दिया.

इतिहासकार भक्त दर्शन लिखते हैं कि पुरिया नैथानी ने मुग़ल सम्राट को गढ़वाल के भूगोल और यहां की ग़रीबी के बारे में विस्तार से बताया. उसी शाम एक शाही भोज का आयोजन किया गया था. दरबार में पहुंचे तमाम हिंदू राजा और राजदूतों को सोने-चांदी के बर्तनों में खाना परोसा गया. पुरिया जब खाना खाकर उठे तो उन्होंने अपने सामने वाले सोने-चांदी के बर्तन फेंक दिए. औरंगज़ेब को जब इसकी खबर मिली तो उसने पुरिया को तलब किया और इस नाफ़रमानी की वजह पूछी. पुरिया ने जवाब दिया, ‘हमारा मुल्क बहुत पवित्र है इसलिए वहां लोग जिन बर्तनों में एक बार भोजन कर लें, उनमें दोबारा भोजन नहीं करते और उन्हें फेंक देते हैं.’

ये जवाब सुनकर औरंगज़ेब ग़ुस्से से तमतमा उठा. उसने पुरिया नैथानी को बंधक बनाने का आदेश देते हुए कहा, ‘तुम तो बता रहे थे कि तुम्हारा मुल्क बहुत गरीब है. फिर ये कैसे मुमकिन है कि वहां लोग जिन बर्तनों में एक बार खाना खा लें उन्हें दोबारा कभी इस्तेमाल न करें. तुम लोगों के पास खूब धन-दौलत है तभी ऐसा करते हो.’

पुरिया नैथानी ने बड़े सहज भाव से जवाब देते हुए कहा, ‘सम्राट. हमारे गढ़वाल में सालू और मालू दो ठठेरे हैं जो हर रोज़ नए बर्तन बना देते हैं. इसलिए बर्तनों की हमारे यहां कोई कमी नहीं होती.’ इस पर औरंगज़ेब और भी ज्यादा हैरान हुआ और उसने पूछा कि ये कैसे मुमकिन है कि दो ठठेरे पूरे राज्य के लिए हर रोज़ नए बर्तन बना देते हैं?

पुरिया नैथानी ने तब जवाब दिया कि भगवान ने हमें मालू के पेड़ दिए हैं. उसी के पत्तों को सीकों से जोड़कर हम लोग बर्तन बना लेते हैं. वे पत्ते और सीकें ही हमारे मालू और सालू ठठेरे हैं. पुरिया की इस हाज़िरजवाबी से पूरा दरबार खुश हुआ. औरंगज़ेब ने न सिर्फ़ इसके बाद गढ़वाल को जज़िया कर से छूट दी बल्कि पुरिया को ईनाम देने की भी घोषणा की. अगले दिन विशेष दरबार लगा और ‘श्रीनगरिया जुन्नारदार’ यानी जनेऊ वाले ब्राह्मण को विशेष पुरस्कार देते हुए विदा किया.

पुरिया के असाधारण राजनैतिक कौशल का परिचय तब भी मिलता हैं जब साल 1709 में कुमाऊँ के राजा जगतचन्द ने एक विशाल सेना ले कर अचानक से गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया. इस वक्त तक महाराजा मेदिनी शाह का देहांत हो चुका था और उनके बेटे फ़तेह शाह राजा बन चुके थे. कुमाऊँ से अचानक हुए इस आक्रमण के लिए गढ़वाल की सेना लिए तैयार नहीं थी. राजा जगतचंद की सेना आगे बढ़ते हुए राजधानी श्रीनगर तक पहुंच चुकी थी. ऐसे में पुरिया ने राजशाही को बचाने के लिये महाराजा फतेहशाह को वहाँ से तुरंत देहरादून के लिए रवाना किया. क्योंकि कुमाऊं की सेना बहुत विशाल थी इसलिए उस समय उससे लड़ पाना और जीत पाना बहुत मुश्किल था. ऐसे में पुरिया नैथानी ने कूटनीति से काम लिया. उन्होंने राजा जगतचन्द की सेना विरोध नहीं किया बल्कि उनका अतिथि सत्कार किया. कुमाऊं नरेश जगत चन्द पुरिया से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पुरिया को ब्राह्मण मानकर श्रीनगर दान में दे दिया और वहां से वापस लौट गए.

इतिहासकार पं० रुद्र दत्त पंत इस बारे में लिखते हैं, ‘राजा जगत चंद का ये संकल्प बड़ा विस्मयकारी था. वस्तुत: यह पुरिया जी के व्यक्तित्व और वाणी का ही प्रभाव था कि राजा जगतचंद श्रीनगर को बिना नुकसान पहुंचाए और बिना हिंसा किये अपने राज्य की ओर लौट गया.’

जगत चन्द्र के वापस लौटते ही पुरिया ने महाराजा फतेशाह को वापस बुला लिया. पुरिया की इस कूटनीतिक चाल से न सिर्फ़ श्रीनगर की रक्षा हुई बल्कि कुमाऊँ के सीमावर्ती गाँवों को भी गढ़वाल में शामिल कर लिया गया.

इतिहास में गढ़ राज्य की एक और महत्वपूर्ण घटना दर्ज है. साल था 1715. राजा फतेहशाह की मृत्यु के बाद उनके बेटे दलीप शाह गद्दी पर बैठे थे. लेकिन नौ महीने के अन्दर ही उनकी भी मृत्यु हो गई. दलीप शाह की मौत के समय उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था लेकिन उनकी पत्नी गर्भवती थी. ऐसे में मंत्रियों के बीच गम्भीर मतभेद होने लगे और गृह-युद्ध जैसी स्थिति बन पड़ी. तब पुरिया नैथानी ने सभी के बीच समझौता करवाया और तय हुआ कि राज्याधिकारी का जन्म होने तक दलीप शाह के छोटे भाई उपेन्द्र शाह राज-कार्य चलाएँगे. आगे चलकर अगर रानी को बेटा हुआ तो उसका राजतिलक किया जाएगा और अगर बेटी हुई तो उपेन्द्र शाह ही राज्य करते रहेंगे. क़रीब आठ महीने बाद रानी ने एक बेटे को जन्म दिया जिसका उसी वक्त राजतिलक कर दिया गया. इस तरह से नवजात प्रदीप शाह नए राजा बन गए. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के दौरान दरबारियों में आपसी मनमुटाव बेहद बध चुके थे. कुछ दरबारी तो यहां तक योजना बना चुके थे कि नवजात राजा की हत्या करके राज्य हासिल कर लिया जाए.

पुरिया नैथानी ने तब नवजात प्रदीप शाह को सबसे बचाकर अपने गांव नैथाना भेज दिया. उन्होंने लंबे समय तक राजकुमार प्रदीप को वहीं सुरक्षित रखा और खतरा होने पर कई बार उन्हें रानीगढ़ या अदवाणी के जंगल में भी छिपाए रखा. राज्य को हथियाने का सपना देखने वालों में पांच भाई कठैत सबसे प्रमुख थे. उन्होंने मंत्री शंकर डोभाल की भी हत्या कर दी थी और वे राजकुमार के साथ ही पुरिया नैथानी की हत्या की योजना बना रहे थे. लेकिन पुरिया नैथानी ने न सिर्फ़ राजकुमार को वर्षों तक इनसे छिपाए रखा बल्कि अपनी सूझ-बूझ से कठैत भाइयों में ही आपसी फूट पैदा कर दी जिसके चलते वो आपस में ही लड़कर मारे गए.

इस घटना के बाद पुरिया अपने गांव जाकर रहने लगे. लेकिन साल 1747 में राजा प्रदीप शाह को एक बार फिर से पुरिया की जरूरत पड़ी. हुआ ये कि कुमाऊँ की राजनीति में दो ताकतवर समूह महरा और फर्त्याल काबिज हो गये थे. वे तेजी से पूरे कुमाऊँ में अपना वर्चस्व स्थापित कर रहे थे. ऐसे में वहाँ से जय कृष्ण जोशी, महाराजा प्रदीप शाह के पास आए और उन्हें कुमाऊँ के राजनीतिक उपद्रवों की जानकारी दी. जोशी ने प्रदीप शाह को ये भी सलाह दी कि इस मौके का फायदा उठाकर उन्हें कुमाऊँ पर आक्रमण करना चाहिए और पूरे क्षेत्र को अपने राज्य में शामिल कर लेना चाहिए.

पुरिया की उम्र अब तक करीब सौ साल की हो चुकी थी. लेकिन महाराजा प्रदीप शाह को उन पर ऐसा विश्वास था कि उन्होंने पुरिया को ही श्रीनगर बुलवाया और उनसे मदद माँगी. हालाँकि पुरिया नैथानी कुमाऊँ पर आक्रमण करने के पक्ष में नहीं थे. लेकिन महाराजा प्रदीप शाह की जिद पर वे लाव लश्कर लेकर जूनिया गढ़ पहुंचे. यहां उनकी मुलाक़ात कुमाऊँ नरेश के मंत्री शिव देव जोशी से हुई. उन्होंने भी पुरिया नैथानी यही कहा कि ‘यह युद्ध अधार्मिक है. इसे न लड़ा जाये तो ये सबसे लिए हितकर होगा.’

इस बातचीत के बाद पुरिया ने एक दूत को भेजकर राजा प्रदीप शाह को जूनियागढ़ बुला लिया. लेकिन इससे पहले कि प्रदीप शाह जूनियागढ़ पहुँचते, कुमाऊँ की सेना ने अचानक से आक्रमण कर दिया. तक़रीबन सौ साल के हो चुके पुरिया तलवार लेकर युद्ध में उतरे तो लेकिन शरीर अब उनके हौसलों और इरादों जैसा मजबूत नहीं रह गया था. वे जब जमीन पर गिर पड़े तो वीर भड़ रुद्र सिंह ने किसी तरह उन्हें बचाया और सेना के साथ ही उन्हें सुरक्षित श्रीनगर ले आए.

इस युद्ध में गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच संधि हो गई थी. भक्त दर्शन लिखते हैं, ‘कुछ महीनों घायल रहे के बाद जब पुरिया नैथानी ठीक हुए तो उन्होंने महाराज से अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की. उन्होंने कहा कि गढ़वाल-कुमाऊँ का युद्ध प्रायः प्रतिदिन की समस्या हो गई है और सीमांत की लड़ाइयों के लिए रसद व युद्ध सामग्री पहुँचाने में विकट कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं. इसलिए सर्वोत्तम उपाय ये है कि पूर्वी सीमांत पर एक मजबूत क़िला बनाया जाए. महाराज ने ये प्रस्ताव स्वीकार किया और तब द्वारहाट से आठ मील दूर रामगंगा नदी के किनारे एक क़िला बनवाया गया. दो साल में बन कर तैयार हुए इस क़िले में 500 सैनिकों के लिए हर समय युद्ध सामग्री तैयार रहती थी. ये क़िला अगर चारों ओर से घिर भी जाए तो भी वहाँ मौजूद सैनिक क़रीब आठ महीनों तक युद्ध जारी रख सकते थे.

अपनी ये अंतिम सलाह महाराज को देने के बाद पुरिया नैथानी राजकीय सेवा से मुक्त होकर अपने पैतृक गांव नैथाणा चले गए. देहरादून के टिहरी हाउस संग्रहालय में आज भी पुरिया नैथानी के जीवन की कुछ झलकियाँ देखी जा सकती हैं, जिनमें उनकी 450 साल पुरानी भी शामिल है.

 

स्क्रिप्ट : प्रगति

 

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