जब एक अंग्रेज अधिकारी शैमियर ने किया टिहरी रियासत पर राज

  • 2022
  • 15:20

एंपायर के पिछले एपिसोड में आप लोगों ने रानी कर्णावती के साहस से लेकर, कुमाऊँ के चाणक्य हर्ष देव जोशी की कूटनीति तक की कहानियाँ सुनी.

लेकिन आज के इस एपिसोड में हम आपको किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि एक महल की कहानी सुनाने वाले हैं. एक ऐसे महल की कहानी जिसकी नींव एक राजा की ज़िद के चलते पड़ी और वो महल जब बन कर खड़ा हुआ तो रियासत को एक नई राजधानी मिली. ऐसी राजधानी जिसने उत्तराखंड के सबसे खूबसूरत शहर में तब्दील होने के ख़्वाब देखे थे लेकिन जिसकी नियति में आगे चलकर उत्तराखंड का कालापानी कहलाना लिखा था.

ये कहानी है एक ऐसे महल की जहां से न सिर्फ़ पंवार वंशीय राजाओं ने शासन किया, बल्कि कई सालों तक अंग्रेज़ अधिकारियों ने भी जिसकी शान-ओ-शौक़त में रहकर रियासत पर हुकूमत चलाई.

ये घटना है 1870 के दशक की. टिहरी रियासत में तब राजा प्रताप शाह का राज हुआ करता था. बसंत ऋतु बीत जाने के बाद  टिहरी में अच्छी खासी गरमी पड़ती थी. इस कारण राजा प्रताप शाह अक्सर अपने लाव लश्कर के साथ कभी मसूरी तो कभी शिमला घूमने जाया करते. ऐसे ही एक बार राजा प्रताप शाह अपनी पत्नी रानी गुलेरिया के संग मसूरी की माल रोड पर टहल रहे थे. यहां उनके साथ एक ऐसी घटना हुई जिसके चलते प्रतापनगर नाम का शहर अस्तित्व में आया.

इस घटना का जिक्र पुरूषोत्तम चौहान की लिखी किताब ‘प्रतापनगर का इतिहास’ में मिलता है. पुरूषोत्तम चौहान के पिता ख़ुद भी प्रतापनगर महल के कर्मचारी हुआ करते थे. अपनी किताब में पुरूषोत्तम चौहान लिखते हैं कि 1870 के दशक की गर्मियों में जब राजा प्रताप शाह अपने परिवार के साथ मसूरी की मॉल रोड पर टहल रहे थे तो उनके अंगरक्षकों की एक टोली भी आगे पीछे चल रही थी. राजा का ये लश्कर अभी कुलड़ी चढ़ाई पर पहुंचा ही था कि सामने से एक युवा अंग्रेज कैप्टन अपने कुछ अर्दलियों के साथ आता हुआ दिखा. अंग्रेज कैप्टन ने राजा प्रताप शाह को पूरी सामंती ठसक के साथ घूमते हुए देखा तो उसने राजा को टोक दिया. राजा को ये बात अपनी शान में गुस्ताखी लगी और दोनों में विवाद होने लगा. बात इतनी बढ़ गई कि राजा प्रताप शाह ने एक जोरदार थप्पड़ कैप्टन को मारा जिससे कैप्टन जमीन पर गिरा और एक पत्थर से टकराने के चलते उसी वहीं मौत हो गई.

ब्रितानिया हुकूमत के रहते हुए एक कैप्टन की हत्या हो जाने से जो बवाल मच सकता था, वो मचा. अंग्रेज सेना और पुलिस तुरंत ही मौके पर पहुंच गई. ये वो दौर भी था जब 1857 की क्रांति हो चुकी थी और अंग्रेज़ी हुकूमत ने भारत की कमान ईस्ट इंडिया कम्पनी से सीधा अपने हाथों में ले ली थी. इंडीयन पेनल कोड से लेकर वो तमाम क़ानून लागू हो चुके थे जो आज भी हमारे देश की क़ानून व्यवस्था का हिस्सा हैं. लेकिन राजा प्रताप शाह पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा दर्ज होता, उससे पहले ही ऊपर से फरमान आया कि उन्हें छोड़ दिया जाए. बताते हैं कि राजा को इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि एक बड़ा व्यापार अनुबंध तब टिहरी रियासत के साथ होने वाला था.

राजा को टिहरी लौट जाने को कहा गया. लेकिन इसके साथ ही उन्हें एक आदेश पकड़ाया गया, जिसमें दो टूक लिखा था कि अब राजा को कभी भी मसूरी की सीमा में प्रवेश नहीं मिलेगा. ये पढ़कर राजा प्रताप शाह गुस्से से तमतमा गए. कहा जाता है कि इसके बाद ही उन्होंने मसूरी से लौटते हुए जबरखेत में कसम खाई कि मैं मसूरी से भी खूबसूरत हिल स्टेशन बसाउंगा.

उन्होंने टिहरी लौटते ही अपने दिल की बात दरबार के सामने रखी. फिर सर्वे हुआ और सबसे खूबसूरत जगह ढांगधार को पाया गया. देवदार, बांज और कैल के जंगलों से घिरा ढांगधार लगभग 2300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित था. सर्दियों में यहां मसूरी से भी ज्यादा हिमपात होने के चलते यहां का तापमान शून्य से नीचे चला जाता और गर्मियों में मौसम बेहद सुहाना रहता. ये इलाका न सिर्फ़ मसूरी के मौसम, खूबसूरती और आबोहवा को टक्कर दे सकता था बल्कि यहां से रियासत की राजधानी टिहरी पर भी साफ नजर रखी जा सकती थी.

लिहाजा, राजा ने ढांगधार को 1877 में अपनी ग्रीष्म कालीन राजधानी घोषित कर दिया. ढांगधार का नाम बदलकर प्रतापनगर कर दिया गया और राजा का दरबार छह महीने टिहरी तो छह महीने प्रतापनगर से चलने लगा. कुछ समय बाद यहां रानी के महल का भी निर्माण किया गया. इसके साथ ही पुरानी टिहरी से प्रतापनगर के लिए रज्जूमार्ग यानी पैदल सड़क का निर्माण भी कराया गया. पहले ये सड़क पुरानी टिहरी से प्रतापनगर के लिए बनी और फिर लंबगांव से आगे सेम-मुखेम मंदिर तक इसका निर्माण किया गया. इस सड़क निर्माण का भी एक दिलचस्प किस्सा है.

प्रतापनगर और लंबगांव के पुराने लोग अक्सर ये क़िस्सा सुनाते हैं. बताया जाता है कि 19वीं सदी में प्रतापनगर के रावत गांव मे दो बड़े ठेकेदार भाई हुए. इनमें से बड़े भाई का नाम था शंकर चंद्र रमोला और छोटे का अव्वल चंद्र रमोला. प्रतापनगर से सेममुखेम तक सड़क निर्माण का ठेका इन्हीं दोनों को मिला था. दोनों भाइयों ने तय समय पर सड़क का निर्माण भी पूरा कर लिया था और सड़क बनाई भी पूरी ईमानदारी से थी. लेकिन लाखों रुपए का ये सड़क निर्माण पूरा हो जाने के बाद भी ठेकेदार भाइयों को उनका भुगतान नहीं किया गया.

उन्होंने राजा के लोक निर्माण विभाग से कई बार अपना भुगतान करने को कहा लेकिन जब इसके बाद भी भुगतान नहीं हुआ तो बड़े भाई शंकर चंद्र रमोला शिकायत करने टिहरी दरबार के लिए निकल पड़े. वो टिहरी शहर में पहुंचे ही थे कि सामने से उन्हें राजा का काफिला आता दिखा. ये काफिला जैसे ही ठेकेदार शंकर चंद्र रमोला के सामने आया, उन्होंने राजा के घोड़े की लगाम पकड़ ली. राजा की सुरक्षा में हुई इस दखल से पूरे सुरक्षा तंत्र में हड़कंप मच गया. सुरक्षा कर्मी शंकर चंद्र को गिरफतार करने ही वाले थे कि राजा प्रतापशाह ने उन्हें पहचान लिया और सुरक्षाकर्मियों को रोकते हुए उनसे पूछा:

ठेकेदार जी, ये  क्या कर रहे हो? ठेकेदार शंकर चंद्र ने जवाब दिया, ‘महाराज मेरा भुगतान अब तक नहीं हुआ है. मैं वही लेने आया हूँ और अपना पैसा लेकर ही वापस लौटूँगा.’ इस पर राजा प्रताप शाह ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा, ‘मैं जानता हूँ. लेकिन आपका भुगतान करने में असमर्थ हूँ क्योंकि राजकोष में अभी धन ही नहीं है. पूरा कोश लगभग खाली है.’ कहा जाता है कि राजा से इतना सुनने के बाद ठेकेदार शंकर चंद्र ने अपनी रक़म तो छोड़िए, उल्टा राजा की ही मदद का प्रस्ताव रख दिया. वे राजा से बोले, ‘अगर ऐसी बात है तो आपको जितना धन चाहिये, उतने खच्चर मेरे घर भेज दीजियेगा. मैं कुछ व्यवस्था करता हूं.’

पुराने लोग बताते हैं कि तब राजा ने दस खच्चर भिजवाए थे जिनमें ठेकेदार शंकर चंद्र रमोला और उनके भाई अव्वल चंद्र ने चांदी के सिक्के से भरे बीस कट्टे लादकर राजा के पास भिजवाए. इतने धन से अगले दो सालों तक राजा ने राजकाज चलाया और बाद में आर्थिक स्थिति सुधरने पर रमोला भाइयों को उनके पूरा पैसा लौटा दिया.

राजा प्रताप शाह ने अपनी दोनों ही राजधानियों से टिहरी पर राज जारी रखा. उनके शासनकाल में टिहरी में कई आधुनिक काम भी हुए. मसलन, रियासत में पहली बार अंग्रेजी शिक्षा देनी शुरू की गई, पहली बार आज की पुलिस की तरह राज्य की कानून व्यवस्था के लिए आधुनिक पुलिस सर्विस शुरू की गई, अंग्रेजों की तरह पटवारी व्यवस्था और न्यायालय की व्यवस्था बनाई गई जिसे चीफ कोर्ट कहा जाता था. इसके साथ ही रियासत का पहला अस्पताल स्थापित किया गया, जिसमें श्री देव सुमन के पिता हरिराम बडोनी पहले डाक्टर नियुक्त हुए. रियासत में पहला दवाखाना खोला गया पहली प्रिंटिग प्रेस भी इसी दौरान खोली गई. कई ऐसी कुप्रथाएं भी बंद हुई, जो सदियों से जनता का खून चूस रही थी. जैसे दास प्रथा समाप्त की गई, घी कर और बिसाह हटाया गया और खैण जिसे बेगार भी कहते हैं, इसे भी समाप्त किया गया.

इन सुधारों के पीछे अलग-अलग कारण बताए जाते हैं. इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि ऐसा उन्होंने अपनी हिमाचली मूल की पत्नी रानी गुलेरिया की सलाह पर किया था. जबकि टिहरी रियासत के दीवान पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार, राजा प्रताप शाह ने कई विदेश यात्रायें की थी, वहां की जनता और शासक के बीच के संबंधों को देखकर उन्हें महसूस हुआ कि जनता और राजा के बीच ऐसे ही सम्बंध टिहरी रियासत में भी होने चाहिए. लिहाजा, उन्होंने जनता को कई रियायत दी और उनके लिये अंग्रेजी शिक्षा के नए दरवाजे खोले.

साल 1886 में राजा प्रताप शाह की मौत के बाद उनके बड़े बेटे कीर्ति शाह ने राज गद्दी सम्भाली. लेकिन अपने पिता की मौत के वक्त वे अल्पवयस्क थे लिहाज़ा उनके वयस्क होने तक उनकी मां, रानी गुलेरिया के संरक्षण में मंत्रियों की एक ‘समिति’ ने यहां शासन किया. इस दौरान युवराज कीर्ति शाह ने कुछ दिन बरेली में और उसके बाद अजमेर के मशहूर मेयो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की. साल 1892 में नेपाल के प्रधानमंत्री जंगबहादुर राणा की पौत्री से उनका विवाह हुआ और 27 मई 1898 के दिन उन्हें टिहरी रियासत में संपूर्ण अधिकार और सत्ता मिली. आगे चलकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘कम्पेनियन ऑफ इन्डिया’ की उपाधि भी दी और ‘नाइट कमान्डर’ की भी. राजा कीर्ति शाह पहले ऐसे राजा भी, जिन्हें साल 1900 में इंग्लैंड में 11 तोपों की सलामी दी गई. किसी भारतीय रियासत के लिए ये बहुत बड़ा सम्मान था. टिहरी रियासत से पहले ये सम्मान सिर्फ़ हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी बड़ी रियासतों को ही मिला था.

अपने पिता प्रताप शाह की तरह कीर्ति शाह ने भी कई उल्लेखनीय कार्य किए. मसलन, शिक्षाविद होने के चलते उन्होंने टिहरी में प्रताप हाईस्कूल और ‘हीवेट संस्कृत पाठशाला’ की स्थापना की. इसके साथ ही उन्होंने कई गांवों में प्राथमिक पाठशालाएं भी खुलवाई. वो पहले ऐसे राजा हुए, जिन्होंने अपने राजकीय बजट में सबसे ज्यादा खर्च शिक्षा के क्षेत्र में करने का आदेश दिया. राजा कीर्ति शाह के नाम कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां और भी हैं. जैसे उनके राजकाल में ही पहली बार बिजली की सुविधा रियासत में आई, उत्तरकाशी में कुष्ठ रोग के लिए एक केंद्र बनाया गया और टिहरी में किसानों के लाभ के लिए कृषि बैंक की स्थापना हुई.

राजा कीर्ति शाह संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे. उन्हें Astronomy और Astrology की भी अच्छी जानकारी थी. उन्होंने टिहरी में तब एक वेदशाला भी बनवाई थी जिसके लिए विदेशों से यन्त्र खरीदे गए. तारों और सौरमंडल पर रिसर्च के लिए उन्होंने बड़ी-बड़ी टेलिस्कोप भी विदेशों से मँगवाई थी.

इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल अपनी किताब में ये भी लिखते हैं कि राजा कीर्ति शाह ने हिन्दी टाइपराइटर का भी आविष्कार किया था लेकिन उसका कॉपीराइट उन्होंने एक कम्पनी को दे दिया. इन विलक्षण प्रतिभाओं को देखकर ही सम्भवतः लॉर्ड लैन्सडाउन ने ‘वायसराय दरबार’ में ये घोषणा की थी कि भारतीय राज्यों के प्रत्येक नरेश को कीर्ति शाह को अपना आदर्श बनाना चाहिए और उनका अनुकरण करना चाहिए. कीर्ति शाह धार्मिक प्रवृत्ति के होने के साथ ही जिज्ञासु भी थे. उन्होंने सम्राट अकबर की तरह ‘दीन-ए-इलाही’ जैसा एक सुधारवादी धर्म तो नहीं चलाया लेकिन कुछ-कुछ उसी तरह विभिन्न धर्मावलम्बियों की अपने-अपने धर्म की मीमांसा करने के लिए एक महासम्मेलन बुलाया.

साल 1913 में कीर्ति शाह की मौत हुई और इसके बाद टिहरी रियासत की जिम्मेदारी एक अंग्रेज अधिकारी के हाथों में चले गई. हालाँकि इसके चलते प्रताप नगर का महल गुलज़ार हो उठा. इसकी भी एक कहानी है. कीर्ति शाह की मौत के वक्त उनके बड़े बेटे नरेंद्र शाह की उम्र महज 15 साल थी और वे अपनी पढ़ाई के लिए रियासत से बाहर थे. ऐसे में फिर से एक वैसी ही संरक्षण समिति बनाई गई जैसी उनके पिता कीर्ति शाह के राज्याभिषेक से पहले बनाई गई थी. इस समिति की अध्यक्ष कीर्ति शाह की पत्नी राजमाता नेपालिया बनी, दीवान भवानी दत्त उनियाल इसके सदस्य बने और इसमें रियासत के कुछ प्रतिष्ठित लोगों के साथ ही एक अंग्रेज़ ICS ऑफ़िसर यानी इंडियन सिविल सर्विस का अधिकारी भी था.

कुछ समय बाद ये हुआ कि संरक्षण समिति की अध्यक्ष राजमाता नेपालियाबीमार पड़ गई. तब कुमाउं कमिश्नर ने कलेक्टर एफसी शैमियर को टिहरी रियासत संरक्षण समिति का अध्यक्ष घोषित किया और उन्हें टिहरी भेजा गया. इस घटना का उल्लेख प्रसिद्ध इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल की किताब में भी मिलता है. वे लिखते हैं कि शैमियर इंग्लैंड के ठंडे इलाके का था तो वो अपना शासन 2300 मीटर की उंचाई पर बसे प्रतापनगर महल से चलाने लगा. शिवप्रसाद डबराल की किताब के अनुसार शैमियर एक सुयोग्य शासक था. उसकी प्रजा से सहानुभूति थी और वो न्यायप्रिय भी था. लेकिन वो राज्य के अधिकारियों की गुटबाज़ी और चाटुकारों पर नियंत्रण नहीं कर सका.

इस कारण विभिन्न विभागों में चापलूसों को सफलता मिलने लगी और ईमानदार कर्मचारियों को तंग किया जाने लगा. बड़ी बात ये हुई कि शैमियर को ख़ुद की प्रशंसा सुनने में आनंद आने लगा. संरक्षण समिति के सदस्य भवानी दत्त उनियाल ने उनके नाम पर राजधानी में शैमियर ड्रमैटिक क्लब की स्थापना कर दी. इससे शैमियर इतना खुश कि उसने भवानी दत्त उनियाल को संरक्षण समिति का सचिव नियुक्त कर दिया. इसके बाद कई बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों ने अपना त्यागपत्र दे दिया जिसमें प्रमुख रूप से चंद्रमोहन रतूड़ी और सत्य शरण रतूड़ी शामिल थे.

इसी दौरान राज्य एक बड़ी विपदा में फंस गया. अक्टूबर 1916 में जब राजधानी को प्रतापनगर से अगले छह महीनों के लिए टिहरी ले जाने की तैयारी चल रही थी, तब रियासत में हैजा की बीमारी फैल गई. हजारों लोग इसकी चपेट में आने से मारे गए. ख़ुद एफसी शैमियर भी इस बीमारी की चपेट में आ गया. मरने से पहले उसने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की कि उसे प्रतापनगर में जंगलों के बीच में ही दफन किया जाए. उनकी ये इच्छा पूरी भी की गई.

राजमहल से और अब की तहसील के बीच बनी सड़क के पास ही उसकी कब्र बनाई गई. वक्त के साथ इस कब्र की टाइल्स और पत्थरों को लोगों ने अंधविश्वास के कारण उठाना शुरू कर दिया जिसके चलते आज उस कब्र को तलाशना काफी मुश्किल भरा काम हो गया है.

वैसे टिहरी रियासत पर लम्बे समय तक राज करने वाला शैमियर काफी लोकप्रिय भी रहा. उसने टिहरी में थोकदारों का वर्चस्व लगभग समाप्त कर दिया था और टैक्स भी कुछ हद तक कम किए थे. वो आम लोगों से किसी सामंत की तरह नहीं बल्कि आम इंसान की तरह मिलता था. शैमियर की मौत के बाद कुछ साल अंग्रेज अधिकारी म्यूर ने भी टिहरी पर राज किया. उसके बाद चार अक्टूबर 1919 को जब नरेंद्र शाह 18 साल के हुए तो उन्हें टिहरी की राजगद्दी सौंप दी गई. फिर नरेंद्र शाह के शासन के दौरान ही टिहरी रियासत में जनक्रांति हुई और देश की आज़ादी के कुछ समय बाद टिहरी रियासत भी राजशाही के आज़ाद होकर भारतीय संघ में विलय हो गई.

टिहरी के आजाद होने के बाद प्रतापनगर के महल की दुर्गत होने लगी. आज के वक्त में अपने भीतर कई ऐतिहासिक तारीखों के समेटे हुए प्रतापनगर का महल भी एक खंडहर में तब्दील हो चुका है. कभी उत्तराखंड के सबसे खूबसूरत शहर बनने का सपना पाले हुए प्रतापनगर में महल बनाया गया था, लेकिन वक्त ने इस महल को ऐसे दिन दिखाए कि इस बेजान इमारत ने पहले अपनी पूरी रियासत को पानी में डूबते हुए देखा और फिर चारों तरफ उग आई झील के चलते ये इलाका सालों तक उत्तराखंड का कालापानी बना रहा. हालाँकि अब डोबरा-चाँठी पुल बन जाने से प्रतापनगर पहुंचना काफी सहज हो चुका है. तो आप लोग भी इस ऐतिहासिक शहर और यहां मौजूद इतिहास के निशानों को देखने जरूर जाएं.

 

स्क्रिप्ट : मनमीत

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