वो 90 का दशक था. मैं शायद कक्षा 2 या 3 में पढ़ता था. पुरानी टिहरी के कॉन्वेंट स्कूल में. घर से स्कूल की दूरी करीब 6 किलोमीटर थी. आना-जाना बस से होता था. पहाड़ी घुमावदार सड़कों से उतरती हुई जब हमारी स्कूल बस भागीरथी पर बने लोहे के पुल पर पहुँचती तो दाहिनी तरफ़ एक कुटिया नजर आती. लगभग वैसी ही कुटिया जैसी सड़क किनारे मज़दूरी करने वाले मज़दूरों की होती है. टिन की आड़ी-तिरछी चद्दरों से बनी इसी कुटिया में सुंदर लाल बहुगुणा रहा करते थे.
दूसरी-तीसरी क्लास में पढ़ने वाला मैं उस वक्त नहीं जानता था बहुगुणा कौन हैं. सिर्फ़ इतना जानता था कि इस कुटिया में पतली काया वाला कोई बुजुर्ग अपनी पत्नी के साथ रहता है. हर दिन जब बस उस पुल से गुजरती तो बहुगुणा जी कभी हाथ में स्टील का प्याला लिए हुए, कभी कोई किताब पढ़ते हुए, कभी बर्तन धोते हुए तो कभी कुटिया के बाहर बैठे भागीरथी को निहारते हुए नजर आते.
जाने कैसा आकर्षण था उस आदमी में कि स्कूल से आते-जाते रोज़ मैं पूरी जिज्ञासा से उन्हें और उनकी कुटिया को तब तक देखता रहता जब तक हमारी बस उस पहाड़ी मोड़ को पार नहीं कर लेती और उनकी कुटिया दिखनी बंद नहीं हो जाती. अब तक मैं इतना जान चुका था कि सर पर सफ़ेद कपड़ा बांधने वाले इस सुंदर आदमी का नाम सुंदर लाल बहुगुणा है.
बहुगुणा जी जब भी अपनी कुटिया के पास नजर आते, मैं बस की खिड़की से लगभग आधा बाहर निकलता हुआ उन्हें हाथ हिलाता. ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं होता था. स्कूल बस के कई बच्चे इस हरकत में मेरे सहभागी होते और जब भी बहुगुणा जी की नजर हम पर पड़ती और वे मुस्कुराते हुए वापस हाथ हिला देते तो लगता जैसे सैंटा क्लॉज ने कोई तोहफ़ा दे दिया हो. क्रिसमस के दिन स्कूल में जो सैंटा क्लॉज तोहफ़े बांटता था, जाने क्यों मुझे पूरा यक़ीन था कि वो बहुगुणा जी ही हैं. ये राज मुझ पर बहुत देर से खुला कि वो तो स्कूल का चपरासी जॉर्ज होता था.
बहरहाल, मैंने चौथी क्लास पास ही की थी कि टिहरी शहर डूबना शुरू गया. हमारा स्कूल भी अब पुरानी टिहरी से नई टिहरी शिफ़्ट कर दिया गया था. अब स्कूल आते-जाते हुए बहुगुणा जी दिखने बंद हो गए. एक-एक कर सभी लोग पुरानी टिहरी छोड़ने को मजबूर हो गए. बहुगुणा जी आख़िर तक लड़ते रहे. नदी किनारे की अपनी उसी कुटिया में रहते हुए, कमजोर शरीर लेकिन मज़बूत इरादों के साथ यह दोहराते हुए कि ‘मैं इस शहर के साथ ही जल समाधि ले लूँगा.’
मुझे अब भी बहुगुणा जी के संघर्ष, उनके जीवन और उनकी विराट शख़्सियत का कोई इल्म नहीं था. मुझे जाने क्यों यही लगता था कि क्रिसमस के दिन स्कूल आने वाला सैंटा क्लॉज असल में बहुगुणा जी ही हैं और उनका यह रहस्य सिर्फ़ मैं जानता हूँ. उनके बारे में पहली बार गंभीरता से तब मालूम चला जब एक-दो साल बाद मैं आरआईएमसी (राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज) की लिखित परीक्षा निकालने के बाद इंटर्व्यू के लिए लखनऊ पहुंचा.
मैं शायद तब कक्षा 6 में था. उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और टिहरी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था. ऐसे में इंटर्व्यू के लिए प्रदेश की राजधानी लखनऊ जाना हुआ. इंटर्व्यू का समय दोपहर बाद था. पिता जी का हाथ पकड़े बड़ा इमामबाड़ा घूमने के बाद मैं जब इंटर्व्यू के लिए के पहुंचा तो देखा मेज़ के दूसरी तरफ़ 4-5 इंटर्व्यूअर मुझे ग्रिल करने को तैयार बैठे थे.
मेरा नाम जानने के बाद उन्होंने पूछा, ‘कहाँ से आए हो?’ मैंने जैसे ही टिहरी बताया, उनका पहला सवाल था ‘सुंदर लाल बहुगुणा का नाम सुना है?’
मैंने सिर्फ़ नाम ही नहीं सुना था बल्कि अभी दो साल पहले तक तो मैं रोज़ उन्हें अपनी स्कूल बस से हाथ हिलाया करता था. मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, ‘जी हाँ. मैं उन्हें जानता हूँ.’
अगला सवाल आया, ‘उनके बारे में बताओ. वो क्या करते हैं?’
अब मैं फंस गया. उनके सैंटा क्लॉज होने की जो बात आज तक सिर्फ़ मैं जानता था वो इन लोगों को कैसा बता देता? मैंने जवाब दिया, ‘वो कुछ नहीं करते. पुरानी टिहरी में नदी के किनारे एक कुटिया में रहते हैं और सुबह-शाम वहीं दिखते हैं. कभी-कभी बच्चों को हाथ हिला देते हैं.’
मेरा जवाब सुनकर मेज़ के दूसरी छोर बैठे सभी लोग मुस्कुराने लगे और मुझे लगा मैंने इंटर्व्यू में झंडे गाड़ दिए हैं. बाहर निकला तो पिता जी ने इंटर्व्यू के बारे में पूछा. मैंने उन्हें पूछे गए सवाल और अपना जवाब बताया. पिता जी पहले मुस्कुराए, फिर उन्होंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में बताना शुरू किया. बहुगुणा जी की शख़्सियत से मेरा पहला गम्भीर परिचय इस लखनऊ यात्रा में पिता जी ने करवाया.
अब बहुगुणा जी को देखने का मेरा नज़रिया बदलने लगा था. इतनी बड़ी शख़्सियत को इतना साधारण जीवन जीते हुए प्रत्यक्ष देखने का मेरे पास कोई दूसरा उदाहरण नहीं था. धीरे-धीरे उनके काम, उनके संघर्ष के बारे में और गहराई से जाना और फिर कॉलेज के दिनों में उनसे पहली बार अच्छे से मिला.
अब तक टिहरी को डूबे हुए कई साल हो चुके. शहर की कब्र पर उग आई विशाल झील के पास ही सरकार ने उन्हें विस्थापित किया था. मुझे कॉलेज प्रोजेक्ट के लिए एक डॉक्युमेंटरी बनानी थी और मैंने टिहरी बांध विस्थापन को इसका विषय चुना था. इसी के लिए उनका इंटर्व्यू करने मैं उनके घर पहुंचा.
परिचय के बाद उन्होंने जब बांध पर बात करना शुरू किया तो सामने फैली झील की ओर इशारा करते हुए पहली ही बात ये कही कि ‘इतना बड़ा राक्षस सरकार ने हमारे सिर पर बैठा दिया है.’ फिर सामने मदन नेगी गांव की तरफ इशारा करते हुए बोले, ‘ये राक्षस पानी से भरा हुआ है लेकिन इसके ऊपर बसे ये तमाम गांव आज पानी को तरस रहे हैं.’
उस दिन पहली और आख़िरी बार उनसे लंबी बातचीत हुई. उनकी बातों में ऐसा सम्मोहन था कि मैं उन्हें क़रीब डेढ़ घंटे चुपचाप सुनता रहा. उनकी कही कई बातें मुझे आज भी हर्फ़-दर-हर्फ़ याद हैं. नदियों से लेकर पहाड़ तक की बातें और शराब से लेकर चीड़ तक की चिंताएं उन्होंने ज़ाहिर की. विस्थापन पर उन्होंने बोला, ‘पहाड़ी आदमी अपनी मामूली ज़रूरतों के लिए आस-पास के वातावरण पर निर्भर होता है. वो जंगलों से सिर्फ़ शुद्ध हवा, पानी, चारा ही नहीं लेता बल्कि ‘हाईलैंडर्स स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम’ को भी जीता है. उसे पहाड़ों से उखाड़ कर मैदानों में आप अगर सारी सुविधाएँ भी दे दोगे तो भी वो पनप नहीं सकता. उसकी ‘हाईलैंडर्स स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम’ का मुआवज़ा कैसे दोगे?’
सुबह सुंदर लाल बहुगुणा अब इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन मैं आपको अलविदा नहीं कहूँगा मेरे ‘सैंटा क्लॉज’. कोशिश करूँगा कि उस ‘हाईलैंडर्स स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम’ को अपने अंदर बचाए रख सकूँ जिसकी आप बात करते थे. बिलकुल वैसे जैसे आप बचे रहोगे मेरे बचपन की यादों में, मुस्कुरा कर स्कूल बस को हाथ हिलाते हुए. हमेशा, हमेशा.
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