आज़ादी से पहले उत्तराखंड में कई सारे साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक अखबार प्रकाशित होने लगे थे. जिनमें अल्मोड़ा अखबार, गढ़वाल समाचार, समता, स्वाधीन प्रजा, कर्मभूमि, बाजार बंधु, शक्ति, कुमाऊं कुमुद और गढ़वाली जैसे अखबार शामिल थे. उस वक्त देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था. उत्तराखंड में भी टिहरी रियासत को छोड़ बाकी हिस्से पर ब्रिटिश हुकूमत हावी थी. मगर रियासत और अंग्रेज़ दोनों के ही शासन में पहाड़ की जनता त्रस्त थी और इनसे आज़ादी चाहती थी. गुलामी के इस दौर में उत्तराखंड में अखबारों ने अपनी अहम भूमिका निभाई. सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं अत्याचारों के खिलाफ़ खूब खबरें छापी गई, अनेकों लेख प्रकाशित हुए. मगर कुछ समाचार पत्रों को उनकी इस हिमाकत के लिए बैन भी किया गया साथ ही उनके संपादकों को जेल तक जाना पड़ा.
उत्तराखंड का पहला अखबार मसूरी से छपना शुरू हुआ था. इसका नाम था द हिल्स और इसे शुरू किया था 1842 में जॉन मैकिनन ने. लेकिन ये अखबार आम पहाड़ियों के लिये नहीं था, क्योंकि एक तो ये अंग्रेजी भाषा में छपता था और दूसरा इसमें खबरें भी अधिकतर आयरलैंड और इंग्लैंड के मध्य लड़े जा रहे गृहयुद्ध के बारे में ही छपती थी. इसके तीन साल बाद ही 1845 में मसूरी में ही दूसरे अखबार की भी शुरूआत हुई. इसका नाम था मेफिसलाइट और इसके संस्थापक थे महान लेखक और महारानी लक्ष्मीबाई के कानूनी सलाहकार बैरिस्टर जान लेंग. आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि अभी भी यानी लगभग 190 साल बाद भी ये अखबर मसूरी से प्रकाशित हो रहा है. इसके संपादक इस समय इतिहासकार जय प्रकाश उत्तराखंडी हैं. वो बताते हैं कि ऑस्ट्रेलियन मूल के जॉन लेंग की संदिग्ध मौत मसूरी में 1864 में हुई थी और वहीं कैमल्स बैक रोड में मौजूद क्रिश्चियन सीमेंटी में उनकी कब्र है. जॉन लेंग भारत में इंग्लैंड की दमनकारी नीतियों के बारे में अखबार में जमकर लिखते थे, जिसके चलते इंग्लैंड के अधिकारी उन्हें पसंद नहीं करते थे. उत्तराखंडी बताते हैं कि 1947 में ये अखबार बंद हो गया था. लेकिन कई दशक बाद इसे फिर से शुरू किया गया. पिछले 190 सालों में जॉन लेंग, लिडेल, फ्रेडरिक बाड़ीकाट, जॉनसन जैसे गोरे संपादकों के बाद उसके पांचवें संपादक जय प्रकाश उत्तराखंडी हैं. ये अखबार तो भारतीयों की बात करता था, लेकिन छपता ये भी अंग्रेजी भाषा में ही था.
उत्तराखण्ड में जहां एक तरफ अंग्रेजों का शासन था तो वहीं दूसरी ओर बसा टिहरी रियासत के अधीन था. गुलाम जनता कई समस्याओं से परेशान थी. ऐसे में इन्हीं स्थानीय समस्याओं को प्रमुखता से उठाने वाले किसी अखबार की ज़रूरत महसूस होने लगी. कुछ साल बाद 1868 में नैनीताल से समय विनोद नाम का एक अखबार प्रकाशित होने लगा. उत्तराखण्ड में स्थानीय पत्रकारिता का उद्भभव इसी अखबार से माना जाता है. इसके बाद 1871 में अल्मोड़ा से अल्मोड़ा अखबार प्रकाशित होने लगा, जो कि 48 सालों तक चला. 1893 में अल्मोड़ा से ही कूर्मांचल समाचार भी प्रकाशित होने लगा.
कुमाऊं क्षेत्र में स्थानीय पत्रकारिता अब बड़े स्तर पर होने लगी थी. लिहाज़ा गढ़वाल क्षेत्र में भी ऐसे ही किसी समाचार पत्र की जरूरत थी. ऐसे में साल 1902 में लैंसडाउन से गिरिजदत्त नैथानी ने गढ़वाल समाचार का प्रकाशन किया, मगर ये अखबार बस 2 साल तक ही प्रकाशित हो सका. इसके बाद करीब तीन साल बाद यानी 1905 में देहरादून से गढ़वाली नाम के मासिक पत्र का प्रकाशन होना शुरू हुआ. गढ़वाली उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ. इस अखबार ने करीब 47 साल तक गढ़वाल एवं देश से जुड़े हर तरह के मुद्दों को लेकर लेख प्रकाशित किए.
गढ़वाली अखबार को गढ़वाल यूनियन द्वारा प्रकाशित किया गया था. गढ़वाली को शुरू करने वालों में गिरिजादत्त नैथाणी, तारादत्त गैरोला, विश्वम्भर दत्त चंदोला, चन्द्रमोहन रतूड़ी और घनानन्द खण्डूरी प्रमुख थे. ब्रिटिश कुमाऊं एवं ब्रिटिश गढ़वाल के अतिरिक्त ये अखबार टिहरी रियासत में भी पहुंचता था.
गढ़वाली का 16 पृष्ठों का पहला अंक मई 1905 को निकला. जो कि आगरा की आर्य भाष्कर प्रेस से छपा था. उस वक्त इस अखबार का वार्षिक मूल्य मात्र 1 रूपए था. गढ़वाली का प्रकाशन शुरू होने के एक महीने बाद इसकी वार्षिक ग्राहक संख्या 117 थी. और लगभग डेढ़ साल बाद ही इसकी प्रकाशन संख्या 444 तक पहुंच गई.
अब तक ये अखबार बाहरी प्रेस से ही छप कर आ रहा था, मगर अब क्योंकि धीरे-धीरे इसके सर्कुलेशन में भी इज़ाफा हो रहा था. और लोग इसमें छप रहे लेख पसंद करने लगे थे. इसलिए साल 1911 में गढ़वाली प्रेस की स्थापना की गई. अब इस प्रेस से न सिर्फ गढ़वाली बल्कि कई अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी थी. गढ़वाली प्रेस से पहाड़ के कई उभरते हुए लेखक एवं कवियों को अपनी कृतियां प्रकाशित करने का भी मौका मिलने लगा.
25 अप्रैल 1913 में टिहरी के राजा कीर्तिशाह की मौत हुई. उस समय कीर्तिशाह के सबसे बड़े बेटे नरेंद्र शाह की उम्र 15 साल की थी. लिहाजा टिहरी की गददी पर 1919 तक रिजेंसी शासन रहा. रिजेंसी शासन के तहत अंग्रेज आईसीएस अधिकारी एफसी शैमियर ने टिहरी में छह साल तक राज किया. इस दौरान गढ़वाली अखबार में कई लेख प्रकाशित हुए जिनमें रिजेन्सी द्वारा किए जा रहे कार्यों की आलोचना की गई. प्रसिद्ध इतिहासकार डा शिवप्रसाद डबराल अपनी किताब टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दो में लिखते हैं कि शैमियर एक सुयोग्य शासक था. उसकी प्रजा से सहानुभूति थी और वो न्यायप्रिय भी था, लेकिन वह राज्याधिकारियों की दलबंदी तथा चाटुकारों पर नियंत्रण न कर सका. जिस कारण विभिन्न विभागों में चापलूसों को सफलता मिलने लगी और ईमानदार कर्मचारियों को तंग किया जाने लगा. बड़ी बात ये हुई कि शैमियर को स्वयं की प्रशंसा सुनने में आनंद आने लगा. संरक्षण समिति के सदस्य भवानीदत्त उनियाल ने उनके नाम पर राजधानी में शैमियर ड्रामाटिक क्लब की स्थापना कर दी. इस कार्य से शैमियर बहुत खुश हुआ और उसने भवानी दत्त उनियाल को संरक्षण समिति का सचिव ही नियुक्त कर दिया. इसके बाद कई बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों ने त्यागपत्र दे दिये थे. जिसमें प्रमुख रूप से चंद्रमोहन रतूड़ी और सत्यशरण रतूड़ी थे. इन सभी घटनाओं पर गढ़वाली अखबार ने बिना डरे जमकर लिखा. जिससे नाराज होकर रिजेंसी के अध्यक्ष शैमियर ने 1916 में अखबार को टिहरी रियासत में प्रवेश करने पर ही प्रतिबंध लगा दिया था.
नवम्बर 1919 में जब टिहरी रियासत में नरेन्द्र शाह का राज्याभिषेक हुआ, तो गढ़वाली अखबार में 72 पृष्ठों का विशेष अंक प्रकाशित हुआ. लेकिन वक्त आने पर गढ़वाली अखबार ने राजा के खिलाफ भी खबरें लिखी. जिसके चलते कई बार राजा ने अखबार पर अपना गुस्सा भी जाहिर किया.
इसी दौरान की एक उल्लेखनीय घटना का जिक्र टिहरी रियासत में वजीर रहे पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी किताब टिहरी का इतिहास में करते हुए लिखते हैं कि 30 मई 1930 का दिन था. उत्तराखण्ड में यमुना नदी के किनारे बसे रंवाई में रियासत के सैनिकों ने दीवान चक्रधर जुयाल के कहने पर नए वन कानूनों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे अनेकों लोगों पर गोलियां बरसा दी थी. टिहरी गढ़वाल का इतिहास भाग-2 में इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि इस कांड में 100 से भी ज्यादा लोग मारे गए थे वहीं घायलों का आंकड़ा इससे भी कहीं ज्यादा था.
रंवाईं कांड के बाद दीवान चक्रधर जुयाल को जनता ‘खूनी’ शब्द से संबोधित करने लगी थी. इस घटना के बारे में राजा नरेन्द्रशाह को जैसे ही जानकारी मिली तो राजा यूरोप से वापस लौट आए. वापस आकर राजा ने रियासत के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों से इस बारे में पूछताछ की. मगर इतनी बड़ी घटना के बावजूद राजा ने चक्रधर जुयाल के प्रति कोई कार्रवाई तो दूर की बात नाराज़गी तक व्यक्त नहीं की. बल्कि उल्टा आन्दोलनकारियों पर मुकदमे चला दिए एवं जेल की सजा सुना दी. इस वीभत्स नरसंहार को रंवाईं काण्ड के नाम से जाना गया. और उत्तराखण्ड के जलियांवाला बाग की संज्ञा दी गई.
राजा के इस कुशासन के खिलाफ गढ़वाली, हिन्दू संसार, अभय, इण्डियन एवं स्टेट्स रिफौरमर आदि समाचार पत्रों में कई सारी खबरें एवं लेख प्रकाशित हुए. 30 मई 1930 को तिलाड़ी कांड के बाद 28 जून 1930 के गढ़वाली में किसी रंवाई निवासी के नाम से रंवाईं से सम्बन्धित खबर छपी.
रंवाई कांड पर गढ़वाली अखबार ने लिखा था – प्रजा पर फौज को चढ़कर ले जाना और उसको गोली का शिकार बनाना यह पण्डित चक्रधर जुयाल का ही काम है. जो बात रंवाई में हुई, ब्रिटिश राज्य में होती तो कितना शोरगुल न मच जाता. किन्तु तिलाड़ी में जो डायर-ओडायरगर्दी हुई उसका कोई पूछने वाला नहीं.
2 दिन बाद 30 जून को टिहरी दरबार के सेक्रेटरी द्वारा भेजा गया प्रतिवाद 12 जुलाई 1930 के गढ़वाली के अंक में छपा. जिसमें कहा गया था कि गोलियों से सिर्फ 4 आदमी मारे गए थे और 2 लोग घायल तथा 194 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया था.
गढ़वाली की तरह ही हिन्दू संसार नामक पत्र में भी रियासत के कार्यों एवं नीतियों के खिलाफ छपे लेखों को चक्रधर जुयाल ने राज्य के साथ-साथ राजा एवं स्वयं की प्रतिष्ठा के लिए अपमानजनक बताया. और इसके खिलाफ कोर्ट में चला गया. केस में आने वाले खर्चे की राशि महाराजा द्वारा जारी कर दी गई. दरअसल चक्रधर जुयाल ने आरोप लगाया कि हिन्दू संसार में जो भी लेख प्रकाशित हुए हैं. वो गढ़वाली के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला ने ही स्वयं लिखे थे. या फिर चंदोला के कहने पर लिखे गए थे. इस वजह से चक्रधर जुयाल ने दोनों ही पत्रों के सम्पादक एवं कुछ अन्य व्यक्तियों के खिलाफ केस कर दिया.
रियासत ने गढ़वाली के बारे में कहा कि – 28 जून के गढ़वाली में जो संवाद छपा है. वह गलत एवं आपत्तिजनक है. साथ ही अधिकारियों ने सम्पादक चंदोला से आग्रह किया कि वे अपने रंवाई निवासी उस संवाददाता का नाम और पता बताएं. ताकि रियासत द्वारा उस पर गलत खबर को भेजने हेतु मुकदमा चलाया जा सके, साथ ही इसके लिए वो माफी भी मांगे. इस पर चन्दोला ने संवाददाता का नाम एवं पता बताने से मना कर दिया.
रियासत की ओर से देहरादून के न्यायालय में अभियोग चलाया गया. सुनवाई के दौरान चक्रधर जुयाल स्वयं वहां उपस्थित था. इस बार चन्दोला एवं उनके साथियों के पक्ष में बोलने वाला कोई मौजूद नहीं था. असल में रियासत की जनता में से किसी का भी रियासत के विरूद्ध कुछ भी कहना अनेकों मुश्किलों को गले लगाना था. धनबल एवं चक्रधर जैसे अनुभवी पुलिस अफसर के सामने चन्दोला का लड़ाई जीत पाना मुश्किल था. ऐसे में वे न्यायालय में दोषी सिद्ध हुए. इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट में अपील की. मगर यहां भी उन्हें सफलता नहीं मिल पाई. फलस्वरूप विश्वम्भर दत्त चंदोला को एक साल की अवधि के लिए जेल में डाल दिया गया. चन्दोला की जीवन भर की कमाई इस विवाद में खर्च हो चुकी थी. लेकिन चंदोला ने माफी मांगना स्वीकार नहीं किया, बल्कि अपने लिखे पर डटे रहे. चंदोला को इसके लिए जेल तो जाना ही पड़ा साथ ही इसके बाद गढ़वाली के रियासत में प्रवेश को गैरकानूनी ठहरा दिया गया. गढ़वाली के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला मार्च 1933 से फरवरी 1934 तक जेल में रहे, और इस दौरान विश्वम्भर दत्त चंदोला के भाई त्रयम्बक दत्त चंदोला गढ़वाली के सम्पादक रहे. गढ़वाली ने उस दौरान जनता का साथ दिया और असल मायनों में पत्रकारिता की अनूठी मिशाल पेश की.
गढ़वाली ने हर तरह के मुद्दों के बारे में लिखकर सरकार का ध्यान खींचा. जंगलात की समस्याओं पर मुखर होकर गढ़वाली ने जंगलात की सख्ती नामक शीर्षक के साथ अखबार में लिखा – सरकार ने धीरे-धीरे गढ़वाल और कुमाऊं के निवासियों की संपत्तियों पर कब्जा जमाया है. यहां की प्रजा जो एक समय गांव के अन्दर की भूमि की मालिक होती थी, आज वही अपने खेत की डोलों से भी बेदखल की गई. इस बर्फानी देश में शीत से प्राण रक्षा करने के लिए लकड़ी का मिलना भी कठिन हो गया है. मकान की लकड़ी का मिलना भी कठिन हो गया है. मकान की लकड़ी के लिए तो क्या ही कहना? सरकार अपने लाभ के लिए जंगलों पर रूपया खर्च कर रही है पर प्रजा के लोभ के लिए उसने कुछ नहीं किया. जंगलों की इस प्रकार की बढ़ती हुई सख्ती से प्रजा के कष्ठ की मात्रा दिन-दिन बढ़ रही है.
1918 के आसपास लगभग सभी स्थानीय समाचार पत्र बेगार एवं वन कानूनों की आलोचना करने लगे. गढ़वाली ने इस पर लिखा – जंगल, बेगार-बर्दायश इत्यादि स्थानीय कष्ठों के लिए हमको अवश्य ही आन्दोलन करना चाहिए. हमारे मत से समाचार पत्रों के अतिरिक्त संस्थाओं द्वारा भी इसका तुमुल आन्दोलन होना चाहिए. बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती. इसलिए सरकार से अपने कष्ठों को दूर करने के लिए कहना कोई राजद्रोह नहीं है.
महिला शिक्षा एवं अधिकारों के बारे में गढ़वाली अखबार ने कई सारे लेख छापे. एवं ऐसी खबरों को अपने सम्पादकीय पृष्ठ में जगह दी. साल 1913 में सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला द्वारा उन लड़कियों का इंटरव्यू किया गया जिन्हें गढ़वाल से बम्बई बेच दिया गया था. गढ़वाली ने इस मुद्दे के बारे में प्रमुखता से छाप कर गढ़वाल क्षेत्र की जनता को सामाजिक चेतना से भरा और आन्दोलन करने के लिए एकजुट किया.
गढ़वाली ने छू-आछूत के विरोध में भी लिखा. यहां ये भी दिलचस्प है कि छूआछूत कुप्रथा का विरोध भी ब्राह्मणों की सरोला सभा के प्रमुख संचालक ने किया. और ये शख्स थे स्वयं गढ़वाली अखबार के ही दूसरे संपादक तारादत्त गैरोला. गढ़वाली ने दलित वर्ग के अधिकार एवं उनकी आर्थिक स्थिति के प्रति संवेदनशील रूख अपनाया. दलितों को शिक्षा के प्रति सजग किया एवं उन्हें सेना में जाने के लिए प्रोत्साहित किया.
पहाड़ में बहुत से इलाके ऐसे थे जहां सड़क नहीं थी. और सड़कें नहीं थी तो गाड़ियों की पहुंच भी नहीं थी. ऐसे में 1938-39 के दशक में गाड़ी-सड़क आन्दोलन ने जोर पकड़ा. इस समय भी गढ़वाली अखबार ने क्षेत्र में सड़कों की कमी एवं खस्ता हालत को अपने लेखों के माध्यम से उजागर किया.
गढ़वाली ने कुली बेगार, जंगलात, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पानी, बन्दर-भालुओं सुवरों के हमले, महिला अधिकार, छूआछूत, खेती, जौनसार-बावर की समस्याओं जैसे स्थानीय मुद्दों पर तो लिखा ही, साथ ही देश से जुड़े मुद्दे जैसे बंगाल विभाजन, असहयोग आन्दोलन, क्रान्तिकारी आन्दोलन, पेशावर काण्ड, प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध पर भी लिखा.
गढ़वाली के तीसरे सम्पादक रहे विश्वम्भर दत्त चंदोला ने तमाम मुश्किलातों के बावजूद बड़ी ही निर्भीकता के साथ गढ़वाली को चलाते रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1905 से 1952 तक 47 सालों तक गढ़वाली का प्रकाशन होता रहा. इसके लिए उन्होंने अपनी बंदूक, प्रेस की कुछ मशीनें और यहां तक कि गांव की कुछ जमीनें तक बेच डाली थी. चंदोला के इस समर्पण की वजह से ही उन्हें गढ़वाल में पत्रकारिता जगत का भीष्म पितामह भी कहा गया. गढ़वाली का अन्तिम उपलब्ध अंक मार्च 1952 का है. पत्रकारिता के मायने आज के दौर में कितने बदल चुके हैं, असल जनपक्षधर पत्रकारिता का एक समाज में योगदान बहुत अहम है.
स्क्रिप्ट: अमन रावत
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