Mystery Solved | किसने बनवाई थी गरतांग गली

  • 2023
  • 12:13

उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्र गंगोत्री से महज़ 12 किलोमीटर पहले, भैरों घाटी की खड़ी चट्टानों पर गरतांग गली के रोमांचक चित्र आपने देखे होंगे. इस खूबसूरत घाटी में जाड़ गंगा के एक तरफ खड़ी चटटानों पर बनी गरतांग गली किसी स्काई वॉक सरीखा रोमांच देती है. लेकिन जितना रोमांच इसे देखने और इस पर चलने में आता है, उससे ज़्यादा रोमांच और हैरत इस बात पर होती है कि सदियों पहले आख़िर इसे किसे और कैसे बनवाया होगा? स्थानीय लोगों के साथ ही अब तक सरकार भी ये मानती आई है कि ये पुल करीब चार सौ साल पहले बनाया गया था और जाड़ भोटिया लोग इसका इस्तेमाल तिब्बत व्यापार के लिए करते थे. लेकिन ये सिर्फ़ क़यास ही थे और इस पुल निर्माण का रहस्य अब तक एक गुत्थी ही माना जाता रहा है. हालाँकि ये गुत्थी अब धीरे-धीरे सुलझने लगी है. व्यापक शोध ये स्थापित करने लगे हैं कि इस पुल के निर्माण से जुड़ी प्रचलित बातों से इतर, इसकी सच्चाई कुछ और ही है.

गरतांग गली उत्तरकाशी की सीमांत नेलोंग घाटी में मौजूद है. 136 मीटर लंबी और 1.8 मीटर चौड़ी ये गली किसी स्काईवॉक जैसा अनुभव कराती है. देवदार की सुंदर लकड़ियों से पुनर्निर्मित करने के बाद इस पुल को अगस्त 2021 में पर्यटकों के लिए खोला गया था. जानकार बताते हैं कि इस मार्ग का उपयोग 1962 तक तिब्बत के साथ सीमा पार व्यापार के लिए तकनौर पटटी के व्यापारियों द्वारा किया जाता था. लेकिन 1962 में हुए भारत – चीन युद्ध के बाद जब व्यापार बंद हुआ तो इस पुल पर आवागमन भी बंद कर दिया गया. असल में 1930 से पहले उत्तराखंड के कई इलाकों में लकड़ियों के पुल वजूद में थे. लेकिन गरतांग गली का जो डिजायन है, वैसा कोई दूसरा पुल उत्तराखंड तो दूर, पूरे भारत में मुश्किल से ही मिलता है. इसका निर्माण ग्रेनाइट की ऐसी चट्टानों में किया गया था, जिन्हें काटना लगभग असंभव था. कई इतिहासकार इस बात को लेकर आश्चर्य में रहते थे कि आखिर इस साहसिक परियोजना को अंजाम किसने और कैसे दिया होगा. क्योंकि जिस जाड़ गंगा इलाके में ये पुल है, वो कभी टिहरी रियासत के अधीन था. लेकिन टिहरी रियासत के तमाम दस्तावेजों में भी इस पुल निर्माण का कोई जिक्र नहीं मिलता.

इस रहस्यमयी पुल के रोचक इतिहास को विस्तार से जानें, उससे पहले एक बार इस पूरे क्षेत्र का संक्षिप्त इतिहास जान लेते हैं. क्योंकि जितना रोचक इतिहास गरतांग गली का है, उतना ही महत्वपूर्ण इतिहास इस पूरे इलाके का भी है. असल में, उत्तरकाशी जिले की नेलोंग घाटी कभी भारत, तिब्बत और हिमाचल की रामपुर बुशहर रियासत के बीच विवाद का कारण रही है. ये तीनों ही इस घाटी पर अपना-अपना अधिकार जताते रहे हैं. इसे लेकर टिहरी रियासत और तिब्बत के बीच तो कई बार गहरे मतभेद भी हुए. आखिरकार 1920 के दशक में अंग्रेज़ सरकार ने दोनों पक्षों को वार्ता की मेज पर बुलाया. लेकिन इस पर भी निर्णय लेने में छह साल लग गए. फिर साल 1926 में ब्रिटिश सरकार ने अपना फैसला सुनाया जिसके तहत नेलोंग गाँव टिहरी और जेदोंग गांव तिब्बत को दिया गया. हालांकि इस फैसले से दोनों ही पक्ष यानी टिहरी रियासत और तिब्बती सरकार खुश नहीं थे. क्योंकि दोनों ही रियासतें पूरे क्षेत्र पर ही अपना-अपना अधिकार चाहती थी.

तिब्बत सरकार ने तब कई दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताया था कि उनकी सरकार नेलोंग और जेदोंग गांव से 74 रुपए वार्षिक कर वसूलती रही है जिसका मतलब है कि ये गांव उसका हिस्सा हैं. दूसरी तरफ़ इन्हीं दो गांवों से 24 रूपये सालाना टैक्स वसूलने के साक्ष्य टिहरी के राजा के पास भी मौजूद थे. बल्कि टिहरी के तत्कालीन राजा ने ये भी दावा किया कि तिब्बत के राजा कर वसूलने का जो दस्तावेज दिखा रहे हैं, वो सिर्फ़ व्यापार कर का दस्तावेज है. उधर तिब्बत का आरोप था कि टिहरी के अधिकारी नेलांग और जेदोंग के स्थानीय लोगों पर दबाव डालते हैं कि वे सर्वेक्षण करने वालों को ये बताएँ कि त्सांग चोक ला जिसे जेलूखागा भी कहते हैं, उस पर हमेशा से टिहरी का राज रहा है. गरतांग गली का ये ही पुल उस वक्त नेलांग और जेदांग को भारत से जोड़ता था. साथ ही उत्तरकाशी के सीमांत इलाकों के लोग व्यापार के लिए इसी पुल से नेलांग-जेदोंग होते हुए तिब्बत जाते थे. बौद्धों के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल थोलिंग मठ जाने के लिए भी इसी पुल का इस्तेमाल होता था. टिहरी और तिब्बत और अलावा हिमाचल की रामपुर बुशहर रियासत ने भी लम्बे समय तक इस क्षेत्र को अपना हिस्सा बताया. लेकिन रामपुर बुशहर के तर्कों को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली.

ये तो हुआ उस पूरे इलाके का इतिहास. अब बात करते हैं चर्चित गरतांग गली की, जिसकी गुत्थी अभी तक इस बात पर उलझी रही कि आखिरकार इसे किसने और कब बनवाया. इस गुत्थी को सुलझाने की दिशा में बेहद अहम काम किया है वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू गुसाईं ने. सालों की मेहनत के बाद उन्होंने वो तमाम दस्तावेज हासिल किए जिससे काफी हद तक ये साफ होता है कि इस पुल का निर्माण 400 साल पहले नहीं बल्कि आज से क़रीब 170 साल पहले हुआ था और इसे बनवाया था ब्रिटिश टिंबर टाइकून और हर्षिल के राजा कहे जाने वाले फ़्रेड्रिक विल्सन ने.

विल्सन एक उम्दा शिकारी और लकड़ी का बड़ा व्यापारी था. इसके साथ ही वो अंग्रेजों के लिए तिब्बत की खुफिया जानकारी जुटाया करता था. फ़्रेड्रिक विल्सन 1820 के करीब गढ़वाल आया. यहां आने से पहले विल्सन अंग्रेजों की सेना में था और बताया जाता है कि वो सेना से भाग कर गढ़वाल पहुंचा था. यहां उसने टिहरी के राजा से लकड़ी कटान का ठेका हासिल किया, हर्षिल में अपने लिए एक आलीशान घर बनवाया और लकड़ी कटान से इतना धन अर्जित कर लिया कि देखते ही देखते हुए उसे हर्षिल का राजा कहा जाने लगा. आगे चलकर उसने देहरादून में एस्ले हॉल का भी निर्माण करवाया. विल्सन ने हर्षिल के ही एक स्थानीय परिवार की युवती से शादी की थी जिसके चलते स्थानीय लोगों के बीच उसकी अच्छी-ख़ासी पैठ हो गई थी. विल्सन के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप  बारामासा का प्रोग्राम ‘हर्षिल विलेज टूर’ भी देख सकते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार और शोधकर्ता राजू गुसाईं बताते हैं कि फ्रेडरिक विल्सन ने ही इस लकड़ी के मार्ग का निर्माण करवाया था इसके बारे में अपनी 1860 की संपादित किताब के साथ ही 1873 में प्रकाशित लेख में संकेत भी दिए. 1860 में प्रकाशित ‘हिमालय ए समर रंबल’ में विल्सन ने लिखा है कि, जाड़ गंगा के उपर व्यावहारिक मार्ग बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय हैं. हालाँकि विल्सन ने यहां स्थान का सीधा-सीधा नाम नहीं लिखा है लेकिन ये जिक्र जरूर किया है कि पुल को बनाने में उन्हें कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

अपने एक अन्य लेख में विल्सन ने जिक्र किया है कि गंगा घाटी क्षेत्र में एक ट्रेक है जहां चट्टान की दरारों में पेड़ और झाड़ियाँ उगती हैं और उन्हें पोषण देने के लिए बहुत कम या कोई मिट्टी नहीं होती. इस लेख में ये भी लिखा गया है कि नदी के ऊपर कई सौ मीटर खड़ी चट्टानें हैं, जो ग्रेनाइट की हैं और भागीरथी की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी, जाड़ गंगा 200 मीटर नीचे बहती है. राजू गुसाईं बताते हैं कि विल्सन ने अपने असली नाम के बजाए माउटेंनियर के नाम से लेखन और संपादन किया. ‘ए समर रेंबल इन द हिमालयाज’ का संपादन विल्सन ने ही किया था और उसमें कुछ लेख भी लिखे थे. 1873 में जेंटलमैन मैग्जीन के खंड दस में एक लेख प्रकाशित हुआ जिसकी हेडिंग थी ‘ए स्टाक इन तिब्बत.’ इस लेख में विल्सन ने सबसे पहले इस बात से पर्दा उठाया था कि वो तिब्बत की छोटी-सी यात्रा पूरी कर चुका है. उसने ये भी जिक्र किया कि हिमालय की भौगोलिक स्थिति इंग्लैंड की तुलना में बेहद चुनौतीपूर्ण है. उसने गरतांग गली से होते हुए भैरोघाटी से नेलांग की दूरी लगभग 6 मील बताई.

राजू गुसाईं बताते हैं कि हर्षिल से तिब्बत तक का पुराना व्यापार मार्ग भैरों घाटी से नहीं, बल्कि कोपंगा पहाड़ियों के ऊपर जांगला और करचा से होकर गुजरता था. सभी टूरिस्ट गाइड बुक और मैप, गरतांग गली से दूर का रास्ता ही दिखाते हैं. यहां तक कि 1907 में प्रकाशित नक्शा, जिसमें मसूरी से नेलांग मार्ग में हर्षिल और करचा से नेलोंग तक का रास्ता दिखाया गया है, उसमें भी गरतांग गली का कहीं ज़िक्र नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर विल्सन ने गरतांग गली का निर्माण क्यों कराया?

राजू गुसाईं बताते हैं कि ऐतिहासिक दस्तावेजों को अगर गौर से देखा जाए तो संभावना लगती है कि वह भैरों घाटी से तिब्बत में गुप्त अभियानों में जाता था और ये उसकी मजबूरी भी थी. जैसा कि हमने पहले भी बताया कि विल्सन कभी ब्रिटिश सेना का हिस्सा था. अफगान युद्ध के दौरान वो वहां से भाग गया और उत्तराखंड आ पहुंचा. यहां वो नाम बदलकर मसूरी में रह रहा था लेकिन उसका ये भेद एक दिन खुल गया. मसूरी में उसे पकड़ लिया गया और जब उसने भागने की कोशिश की तो उसके हाथों एक सैन्य अधिकारी की हत्या हो गई. इसके बाद ही विल्सन टिहरी रियासत पहुंचा जहां उसे हर्षिल में लकड़ी कटान का ठेका मिला गया. बाद में जब अंग्रेज हुकूमत को ये खबर लगी कि भगौड़ा और हत्यारा विल्सन दुर्गम हिमालय में छिपा है और वहां पर काफी प्रभावशाली हो गया है तो उसे तिब्बत की ख़ुफ़िया  सूचनाओं को हासिल करने के लिए एक संभावना के तौर पर देखा गया. उसके पास एक टीम भेजी गई और उसे बताया गया कि उसके अपराधों को माफ किया जा सकता है, बशर्ते वो अंग्रेजी हुकूमत के लिए तिब्बत की खुफिया जानकारी जुटाए. ये काम विल्सन के लिए वैसे भी ज्यादा कठिन नहीं था. वो इसलिये कि एक तो वो बिल्कुल तिब्बती सीमा के पास ही रहने अलगा था और दूसरा दोनों तरफ से लगातार व्यापार होने के चलते वहां आवाजाही भी थी.

लेकिन, क्योंकि उसके खुद के नैन-नक़्श तिब्बती या नेलोंग-जेदोंग वालों से बिलकुल अलग थे. इसलिए उसे बेहद सतर्क भी रहना था. 1854 में कर्नल फ्रेड मार्खम की किताब शूटिंग इन हिमालय में लिखा गया है कि कैसे विल्सन और कर्नल फ्रेड नेलोंग के पास भैरों घाटी क्षेत्र में भरल का शिकार करने गए थे. यहां तक कि तिब्बत दौरे पर अपने लेख में, विल्सन ने तिब्बत में प्रवेश करने का खुलासा किया, जहां विदेशियों के प्रवेश पर प्रतिबंध था.

1849 में विल्सन ने टिहरी के राजा सुदर्शन शाह से तकनौर परगना में 400 रुपये के वार्षिक किराए पर जंगल का पट्टा हासिल किया. तब अंग्रेज भारत में रेलवे का विस्तार कर रहे थे और इसके लिए उन्हें बड़ी मात्रा में टिंबर की जरूरत थी. इसी टिंबर की सप्लाई का बड़ा ठेका विल्सन को भी मिला. 23 मई 1849 को टिहरी सरकार द्वारा किए गए एक भूमि बंदोबस्त में कहा गया है कि विल्सन गोरखा कब्जे के दौरान उजाड़ हो चुके क्षेत्र के पुनर्वास के लिए महाराजा का एजेंट नियुक्त किया गया था. लिहाज़ा विल्सन को अब मैनपॉवर की जरूरत थी. तब उसने पड़ोस की रामपुर बशहर रियासत के जाड़ समुदाय के कई परिवारों को नेलोंग और जेदोंग में बसने के लिए आमंत्रित. इस पर टिहरी के तत्कालीन राजा भवानी शाह का आदेश भी उसे प्राप्त हो गया था.

राजू गुसाईं बताते हैं कि जाड़ समुदाय का विल्सन के साथ एक विशेष रिश्ता बन गया था. संभवतः वही लोग फिर गरतांग गली परियोजना में भी शामिल हुए और बाद में पत्थरों को काटने के लिए अफगानिस्तान के पठानों को भी बुलाया गया था. राजू गुसाई के अनुसार स्थानीय लोग अपने दम पर लकड़ी का पुल बनाने के लिए जरूरी संसाधनों को जुटाने में असफल थे. वो इसलिए कि इस पुल को बनाने के लिए देवदार की लाखों टन लकड़ी की जरूरत थी.

टिहरी सरकार के शासन में केवल सरकार के पास ही सड़क बनाने की शक्ति थी. स्थानीय ग्रामीणों को जंगल और उसकी उपज पर सीमित अधिकार मिलते थे. उन्हें घर बनाने, जलाने और कृषि के लिए लकड़ी काटने की अनुमति तो थी, लेकिन सार्वजनिक उपयोग के लिए इतनी बड़ी मात्र में लकड़ी कटान की अनुमति नहीं थी. टिहरी प्रशासनिक रिपोर्ट में 1918-19 में निर्माणाधीन भैरों घाटी – गरतांग सड़क को दर्शाया गया है. यहाँ तक कि गंगोत्री के तीर्थ मार्ग का विकास भी उस समय बेहद धीमा था. 1968 तक धरासू तक ही सड़क बनकर तैयार हुई थी और गंगोत्री तो धरासू से भी लगभग 120 किलोमीटर दूर है. उस दौर में खच्चर ट्रैक को बनाए रखना भी एक जटिल काम था. ऐसे में स्थानीयों द्वारा गरतांग गली जैसे लकड़ी के रास्ते का निर्माण असंभव था.

फ्रेडरिक विल्सन वास्तविक जीवन में लीक से हटकर प्रयोग करने के लिए भी जाना जाता था. गंगा में तैरती लकड़ी और भैरोघाटी के पास लंका में भागीरथी घाटी का पहला सस्पेंशन ब्रिज बनाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इस ब्रिटिश बिजनेस टाइकून के अभिनव दृष्टिकोण को साबित करते हैं. गरतांग गली भी ऐसी ही परियोजना थी जिसकी संकल्पना और क्रियान्वयन विल्सन ने किया. आखिर वह हर्षिल का राजा था जिसने उस इलाक़े में वर्चस्व और स्वतंत्रता का आनंद लिया. विल्सन ने मसूरी से गंगोत्री मार्ग पर भी कई पुलों का निर्माण करके और वन मार्ग को सुधार कर संचार व्यवस्था को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके साथ ही विल्सन ने हर्षिल, भटवारी, उत्तरकाशी और धरासू में वन अतिथि गृह भी बनवाए.

स्क्रिप्ट: मनमीत

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