अगस्त 1942. देश की आज़ादी से करीब 5 साल पहले का वक्त. भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में हज़ारों क्रांतिकारी लामबंद थे. यही वो दौर भी था जब द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था और 70 से ज़्यादा देशों की जल, थल और वायु सेनाएं आपस में गुत्थम-गुत्था थी. भारत के भी हजारों जवान अंग्रेजों की तरफ से इस युद्ध में शामिल थे. ब्रितानिया हुकूमत तो पूरी तरह से इस युद्ध में ही उलझ चुकी थी. वक्त की नज़ाकत को भांपते हुए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी आज़ाद हिन्द फौज को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया. दूसरी तरफ़ महात्मा गांधी ने भी 8 अगस्त 1942 के दिन बम्बई में चल रहे कॉंग्रेस अधिवेशन में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा देकर आज़ादी के मतवालों को जोश और जुनून से भर दिया. इसी के साथ शुरुआत हुई ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की. जगह-जगह धरने-प्रदर्शन होने लगे और कई जगह आक्रोशित आंदोलनकारियों ने तोड़-फोड़ शुरू कर दी. ये सब देखकर ब्रिटिश अधिकारी सकपका गए. वे किसी भी क़ीमत पर इस जनाक्रोश को कुचल देना चाहते थे. कई कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कई नजरबंद कर दिए गए. मीडिया संस्थानों पर प्रतिबंध लगा दिया गया और जगह-जगह हो रहे विरोध प्रदर्शनों को पुलिस बर्बरता से कुचलने लगी. लेकिन इस सब के बावजूद देश भर के लोग भारत छोड़ो आन्दोलन से जुड़ते गए और इस आन्दोलन की गूंज देश भर में फैलने लगी. उत्तराखंड की इससे अछूता नहीं रहा और हमारे पूर्वजों ने इस आंदोलन में तब जो भूमिका निभाई, वो हमेशा-हमेशा के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में दर्ज हो गई.
उत्तराखण्ड के जनान्दोलनों को समर्पित बारामासा की इस विशेष सीरीज़ में देखिए कि जब देश भर में भारत छोड़ो आन्दोलन की लहर चली तो उत्तराखंड में कैसे दर्ज हुआ ‘प्रतिरोध’