बताऔ गीद कस ल्येखूं? इस कविता से स्पष्ट है कि कवि-गिदार हीरा सिंह राणा किन लोगों के लिए गीत – कविताएं लिखते और गाते थे. आमजन की तकलीफों और संघर्षों से ही उन्होंने कथ्य और शब्द चुने. उनकी रचनाओं में जीवन का भोगा हुआ यथार्थ है. ये संघर्ष उनका अकेला नहीं, बल्कि उस पूरे कालखण्ड का है, जिसने उनकी गीत – कविताओं को भाव-भूमि दी. उनमें कथ्य को मजबूती से पकड़ने की गहरी समझ के साथ समाज की विडंबनाओं और संकटों को देखने की दृष्टि है. कविता गढ़ने के शिल्प की खूबसूरती और उसे अभिव्यक्त करने का गहरा भाव है. विशिष्ट शब्द चयन से लिपटी उनकी रचनाओं में लोगों तक पहुंच सकने की संवेदना है. जनसरोकारों में रची-पगी उनकी रचनाओं का फलक बहुत व्यापक है. इनमें पहाड़ की महिलाओं के दर्द, आमजन की तकलीफें, प्रकृति का सौन्दर्य, श्रृंगार की खूबसूरती, प्रेम-विछोह की व्यथा, लोक-स्वरों की सामूहिक अभिव्यक्ति, हिमालय के संकट, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिकार, संघर्ष करने की जिजीविषा, सच से साक्षात्कार करने की ताकत, जीवन की दार्शनिकता और इतिहास-संस्कृति का बोध है. हाशिए पर धकेले गए आमजन के जीवन से निकली सभी छटपटाहटों को स्वर देने वाली गहरी समझ और चेतना है. आंचलिक भाषा का सौन्दर्य, कथ्य, शिल्प, बिम्ब, प्रतीक और विशिष्ट शब्द चयन के साथ सुरीले कण्ठ से इन गीतों को जब वे गाते थे तो प्रकृति का संगीत उनमें अपने आप समाहित हो जाता था. हीरा सिंह राणा मूल रूप से मेले ठेले के गीतकार – गायक हैं. यहीं से उन्होंने अपनी रचनाओं के बिम्ब उठाए हैं. उन्होंने ख़ुद को हमेशा ‘गिदार’ ही माना. वे कभी एक लोकप्रिय गायक-गीतकार-कवि और कलाकार बनने के फेर में नहीं पड़े. यही वजह है कि उनकी बहुत सारी रचनाएं प्रकाश में नहीं आ पाई. अधिकतर गीत रिकॉर्ड ही नहीं हुए. जो कुछ रचा- गाया वह लोक से लिया, लोक को समर्पित किया. एक फक्कड़, सरल, उदार, संवेदनशील व्यक्ति और सशक्त रचनाकार के ये सारे गुण उन्हें ‘गिदार’ हीरा सिंह राणा बनाते हैं.