20 मार्च 1963 में टिहरी के आसमान पर दो हेलीकॉप्टर मंडरा रहे थे और नीचे हजारों की संख्या में जनता सिर ऊपर कर उन्हें बड़े आश्चर्य के साथ देख रही थी. कुछ ही पलों बाद धूल उड़ाते हुए वो दोनों हेलीकॉप्टर एक के बाद एक प्रताप इंटर कॉलेज के मैदान में उतरे. उस दोपहर टिहरी की जनता ने अपनी जिंदगी में दो चीजें पहली बार देखी. एक हेलीकॉप्टर और दूसरा भारत का राष्ट्रपति. भारत के राष्ट्रपति को जो महिला रिसीव करने आई थी वो उस वक्त देश की संसद में सबसे मजबूत नेता के रूप में नाम दर्ज करा चुकी थी. एक ऐसी नेता जिसके अतीत में राज महलों के ऊंची दीवारों के भीतर की गुमनाम जिंदगी थी तो भविष्य में वो देश की बड़ी शख्सियत के रूप विख्यात होने वाली थी. ऐसी नेता, जिसे अभी-अभी रजवाड़ों की गुलामी से निकली जनता ने तमाम गिले-शिकवे भुला कर जब संसद में भेजा तो इंग्लैंड के अखबारों में भी सुर्ख़ियाँ बनी. और जब ये भद्र महिला संसद में पहुंची तो दो ऐसे कानूनों को पास कराया, जिनकी जरूरत आने वाले दशकों में भारतीय महिलाओं और अनाथ बच्चों को सशक्त बनाने में पड़ने वाली थी. दरबार के परदे से भारत की संसद तक का सफर तय करने वाली ये महिला थी, टिहरी राजघराने की महारानी कमलेंदुमती शाह जिन्हें इतिहास ने राजमाता के नाम से याद रखा.
रानी कमलेंदुमती शाह की जीवन यात्रा शुरू करने से पहले उस वक्त के टिहरी रियासत के इतिहास को थोड़ा टटोल लेते हैं, जहां वो विवाह बाद हमेशा के लिये आने वाली थी. रानी कमलेंदुमती शाह के विवाह से पहले टिहरी में अंग्रेज अधिकारी का शासन था. पहले अंग्रेज अधिकारी शैमियर और बाद म्यूर ने यहां लगभग सात साल तक राज किया. ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि टिहरी के राजा कीर्ति शाह की जब मौत हुई, तब उनके उत्तराधिकारी बेटे नरेंद्र शाह की उम्र सिर्फ़ 15 साल थी. उस समय तक अंग्रेज ये कानून ला चुके थे कि जब तक कोई उत्तराधिकारी 18 साल का न हो जाये, उसे राज गद्दी नहीं सौंपी जा सकती. लिहाजा, ये तय हुआ कि नरेंद्र शाह का राज्याभिषेक तो कर दिया जाए, लेकिन शासन एक संरक्षण समिति के हाथों में हो. ऐसा ही हुआ भी. संरक्षण समिति की अध्यक्ष राजा कीर्ति शाह की पत्नी और नरेंद्र शाह की मां रानी नेपालिया को बनाया गया. लेकिन शासन सम्भालने के कुछ ही समय बाद उनकी तबीयत बिगड़ने लगी तो उन्होंने संरक्षण समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने से इंकार कर दिया. तब संरक्षण समिति ने कुमाऊं कमिश्नर की संस्तुति पर एक आयरिश मूल के आईसीएस यानी इंडियन सिविल सर्विस अधिकारी शैमियर को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया. इंडियन सिविल सर्विस अंग्रेजों की जमाने की वही एलीट सर्विस होती थी, जिसे आज आईएएस यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा कहा जाता है.
शैमियर सुयोग्य शासक तो था और उसकी प्रजा से सहानुभूति भी थी. लेकिन वो दरबार के अधिकारियों की दलबंदी और चापलूसों पर काबू न पा सका. इससे चंद्रमोहन रतूड़ी और सत्य शरण रतूड़ी समेत कई बडे दरबारियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और पूरी रियासत में अराजकता फैलने लगी.
इन्हीं सब के बीच नरेंद्र शाह अपनी पढ़ाई के लिये अजमेर के मेयो कॉलेज में थे. रानी नेपालिया के सलाहकारों ने उन्हें सलाह दी कि अब वक्त आ गया है कि वो नरेंद्र शाह को वापस बुलाएं और उनकी ताजपोशी करें क्योंकि अब उनकी उम्र 18 साल हो गयी है. संरक्षण समिति ने ये भी सलाह दी कि उनका तुरंत विवाह कर देना चाहिये. लिहाजा, उनके लिये रिश्ता तलाशा जाने लगा. रिश्ते की ये तलाश खत्म हुई हिमाचल प्रदेश की क्यूंठल रियासत में. यहां कमलेंदुमती हिमाचल की क्यूंठल रियासत के जुंगा राजा के परिवार में 20 मार्च 1903 पैदा हुई थी. वह राजा विजय सेन और उनकी चार रानियों में से एक रानी की बेटी थी. उनकी छोटी बहन का नाम इंदुमती था. इन दोनों ही बहनों की शादी एक साथ राजा नरेंद्र शाह से 2 फरवरी 1916 के दिन कर दी गई.
ये शादी कैसे हुई इसके बारे में रानी कमलेंदुमती शाह ने अपनी डायरियों में विस्तार से लिखा है. इन डायरियों की मौलिक पांडुलिपी इस समय रिटायर्ड आईएएस और लेखक एसएस पांगती के पास सुरक्षित है. अपनी डायरी में रानी कमलेंदुमती अपने जीवन का शुरुआती दर्द को कुछ यूं साझा करती हैं, ‘मेरा जन्म शिमला के पास एक छोटी सी रियासत में हुआ था. मेरे पिता की चार पत्नियां थी. ये वो दौर था जब पुरुषों के कई विवाह हो सकते थे. लिहाजा मेरे राजा पिता का विवाह मेरी मां और उनकी छोटी बहन के साथ एक ही वक्त में कर दिया गया. उस वक्त मेरी मौसी महज सात साल की थी. मेरे पिता मेरी मां से बेइंतहा मोहब्बत किया करते थे. लेकिन उन दोनों के इस प्यार को जल्द ही ग्रहण लग गया. मेरी मां से सबसे पहले मैं पैदा हुई और इससे पूरे महल में मेरी मां के अलावा कोई खुश नहीं था. फिर 13 महीने बाद मेरी छोटी बहन इंदुमती का जन्म हुआ. मेरी मौसी का भी कोई लड़का नहीं हुआ. लिहाजा, एक लड़के की चाहत में फिर से मेरे पिता का, पास की एक रियासत की दो बहनों से विवाह कर दिया गया. इस विवाह के बाद उन्होंने मेरी मां, मौसी, मेरे और छोटी बहन इंदुमती के पास आना ही छोड़ दिया. वक्त बीता और हम अपनी मां और मौसी को राज महल के भीतर दुखी और बीमार ही देखते रहे. हालात इतने बुरे हो गये कि हमारे लिये खाने तक की जरूरत की कमी होने लगी. कई बार तो हमारे नौकर अपने गांव से हमारे लिए खाना बनाकर लाते थे. मौका देखकर एक दिन मेरी मौसी महल से भाग गई और मेरे नाना के पास पहुंची. जहां उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या की कोशिश की. तब मेरे नाना को उन हालातों का पता चला जो हम झेल रहे थे. लेकिन वो क्या करते? इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो लोग ये सोचते हैं कि महलों के भीतर सब खुश रहते होंगे, उन्हें इस कदर गलतफहमी होती होगी.’
बहरहाल, इतिहास ने फिर से अपने आपको दोहराया. रानी कमलेंदुमति शाह के साथ ही उनकी छोटी बहन इंदुमती का विवाह एक साथ टिहरी रियासत के राजकुमार नरेंद्र शाह से कर दिया गया. उस वक्त कमलेंदुमति शाह नौ साल की थी और छोटी बहन इंदुमती महज आठ साल की. इस विवाह से महज एक माह पहले कमलेंदुमति और इंदुमति के पिता की मौत हो गई थी. लेकिन विवाह पहले से तय था, लिहाजा, विवाह अनुष्ठान किए गए. यहां से कमलेंदुमति शाह के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ. विवाह के बाद उनके पति राजा नरेंद्र शाह और दोनों बहनें तमाम राज दरबारियों और सेवकों के साथ ट्रेन से किसी स्थान तक पहुंचे और वहां से चार दिनों तक पैदल चलने के बाद टिहरी राज महल पहुंचे.
राज महल पहुंचने के बाद वो राजा नरेंद्र शाह के साथ महज चार दिन ही रह पाए. क्योंकि नरेंद्र शाह को अपनी आगे की पढ़ाई के लिये मेयो कॉलेज अजमेर लौटना था. राज महल में दोनों बहनों को हर वक्त पर्दे में ही रहना होता था. विवाह से पहले ही पर्दा प्रथा के कारण दोनों बहनों ने घर पर ही हिंदी और उर्दू सीख ली थी. क्यूंठल के दरबारी संगीतज्ञ ने कमलेंदुमती की रूचि संगीत में जगाई. उन्होंने अपनी मां से सितार वादन सीखा. विवाह के बाद कमलेंदुमती ने एक अंग्रेज महिला डॉक्टर से अंग्रेजी सीखी और विश्व दर्शन के साथ ही भगवत गीता का उन्होंने गहरा अध्ययन किया. कुछ समय बाद उन्होंने फ्रेंच भाषा भी सीखी. लेकिन इसी साल, जब उनकी शादी हुई ही थी, राज्य एक भीषण आपदा की चपेट में आ गया.
19वीं सदी का पूर्वार्ध प्रथम विश्व युद्ध की भीषण मानवीय आपदा का दौर था. लाखों लोग इस युद्ध की चपेट में आने से या तो मारे गये या अपंग हो गये. इसी दौरान टिहरी में भी हजारों लोग मरे. लेकिन ये लोग युद्ध के कारण नहीं, बल्कि युद्ध ज्वार के कारण मरे. असल में, टिहरी रियासत से अंग्रेजों की सेना की मदद करने जो सिपाही यूरोप गये थे और जिंदा बचकर लौटे. वो अपने साथ स्पैनिश फ़्लू जैसी जानलेवा बीमारी भी लेकर आये थे. इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल अपनी किताब टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दो में लिखते हैं कि यूरोप में ये महामारी फैली और वहां से महायुद्ध से लौटे गढ़वाली सिपाहियों के साथ गढ़वाल के अन्य इलाकों के साथ ही टिहरी भी पहुंच गई. हालात इस कदर खराब हो गये कि गांवों से लोग भागकर जंगल और पर्वतों में आश्रय लेने के लिये मजबूर हो गये. मरे हुए व्यक्तियों के शव गांवों, सड़कों और तालाबों के आसपास गिरकर कई दिनों तक सड़ते रहे. आँकड़ों के अनुसार, 18 हजार से ज्यादा लोग इस बीमारी से गढ़वाल में मारे गये. पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के चाचा चंद्र वल्लभ खंडूडी और ताऊ तारा दत्त खंडूडी दोनों इसी बीमारी से मरे थे. हर ओर हाहाकार मचा था. रानी कमलेंदुमति शाह और उनकी बहन इंदुमति शाह को इस दौरान महल के भीतर ही रहने की सख्त हिदायत थी.
बहरहाल, कुछ सालों बाद नरेंद्र शाह अपनी पढ़ाई खत्म कर लौटे और 4 अक्टूबर 1919 को उन्हें रियासत का राज्याधिकार प्राप्त हुआ. इस दौरान रानी कमलेंदुमति ने जब कई बार उन्हें किसी दरबारी काम में सलाह देने की कोशिश की तो उन्हें अपनी हदों में रहने की हिदायत राजा से मिली. अपनी डायरी में उन्होंने इसके बारे में लिखा है कि जब श्री देव सुमन को जेल में डाला गया तो उन्हें ये ठीक नहीं लगा. वो महाराजा नरेंद्र शाह को कहती रही कि तुम जाओ और श्री देव सुमन से बात करो. लेकिन उन्हें चुप करा दिया गया. उन्हें सख्त हिदायत मिली कि परदे से बाहर आने की जुर्रत की तो उसका अंजाम ठीक नहीं होगा. इसके बावजूद भी कई बार उन्हें जब कुछ चीज ठीक नहीं लगती तो वो अपनी बात रखती और डांट खाती.
रानी कमलेंदुमती शाह ने अपनी डायरियों में बड़ी साफ़गोई से एक-एक बात सच लिखी है. उन्होंने लिखा कि मेरी और बहन इंदुमती शाह की अच्छी बनती थी. हम दोनों का ये प्यार तब तक रहा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई. अपनी डायरी में रानी कमलेंदुमति ने अपनी जिंदगी की कुछ बेहद निजी बातों का भी जिक्र किया है. वो लिखती हैं, ‘1930 में राजा नरेंद्र शाह और हम दोनों बहने यूरोप दुबारा घूमने गये. इस बार हमारे साथ हमारे पति की एक महिला मित्र भी थी.’ यहां एक ऐसी दुर्घटना होने वाली थी, जो अगर हो जाती तो टिहरी गढ़वाल का इतिहास ही कुछ और दर्ज होता और इस दुर्घटना को अंजाम देने वाली शख़्स वो खुद थी. वो लिखती हैं कि हुआ यूं कि हम जब यूरोप पहुंचे तो वो महिला मित्र कुछ ज्यादा ही हमारे पति राजा नरेंद्र शाह के करीब आ गई. इससे मेरी बहन और मुझे बहुत गुस्सा आया. कई बार तो हम सभी बाहर थियेटर में कोई कार्यक्रम देखने जाते तो वो नरेंद्र शाह के बगल वाली सीट पर बैठ जाती. उन्होंने भी हम दोनों की तरफ ध्यान देना छोड़ दिया.
रानी कमलेंदुमती शाह बताती हैं कि मुझे अपना दुख नहीं था. दुख मुझे अपनी बहन का हो रहा था. उस यात्रा में मैं, रात तीन-तीन बजे तक सिगरेट पीती और टेन्शन करती. मैं डिप्रेशन से पीड़ित हो गई. फिर एक दिन मुझे डिप्रेशन का दौरा पड़ा. मैंने अपने साथ लाई रिवाल्वर को लोड किया और वहां पहुंच गई जहां राजा नरेंद्र शाह उस महिला मित्र के साथ थे. उस दिन मैं उन दोनों की हत्या करने जा रही थी और इसको अंजाम देने के लिये मैं होटल में उनके कमरे में भी घुस गई थी. लेकिन फिर अचानक मैं रूक गई और नरेंद्र शाह ने मुझसे वो रिवाल्वर ले ली.
उस दिन उन्हें अपनी गलती का अहसास भी हुआ. बाद में उन्होंने उस महिला से अपने संबंध दूर करने शुरू कर दिये. हालात यहां तक हो गये कि वो महिला कई बार टिहरी दरबार भी शराब के नशे में धुत होकर उनसे मिलने पहुंच जाती. लेकिन उसे वहां जब कोई तवज्जो नहीं मिली तो उसकी शराब पीने की लत इस कदर बड़ गई कि कुछ ही महीनों बाद उसकी मौत भी हो गई. सोचिये अगर उस दिन मैं दोनों की हत्या कर देती तो इतिहास में मेरे बारे में क्या दर्ज होता.
हालांकि पूरी तरह स्वस्थ्य होने के बाद रानी कमलेंदुमती शाह सामान्य हो गई और उन्हें फिर से अपनी छोटी बहन और महाराजा से प्यार और सम्मान मिलने लगा. लेकिन ये प्यार और सम्मान भी ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह पाया. पहले कार एक्सीडेंट में बहन की मौत हुई और फिर सात साल बाद 1950 में एक और कार दुर्घटना में राजा नरेंद्र शाह की भी मौत हो गई. हालांकि अपनी बहन की मौत के बाद उन्होंने अपनी बहन के बेटे मानवेंद्र शाह को राज गद्दी पर बैठाने के लिए राजा को मना लिया था. ऐसा उन्होंने तब किया, जब उनके खुद के तीन बेटे थे जिनमें सबसे बड़ा लगभग मानवेंद्र शाह के बराबर ही था.
बहरहाल, इन दोनों की मौत और टिहरी रियासत के भारत में विलय के बाद महारानी कमलेंदुमति शाह के जीवन का तीसरा सफर शुरू होना था. जहां, उन्होंने महलों के पर्दों को दरकिनार कर ख़ुद को भारत की राजनीति में एक सशक्त महिला नेता की तौर पर दर्ज कराया. वो राजमहल को छोड़कर कौड़ियाला के पास एक आश्रम में रहने लगी थी, जो उनके लिये खुद राजा नरेंद्र शाह ने तब बनवाया था, जब वो अपनी बहन की मौत के बाद दुखी रहने लगी थी. उधर, 1952 में देश की लोकसभा के लिये पहले संसदीय चुनाव की घोषणा हुई और रियासत के भारत में विलय के बाद टिहरी लोकसभा सीट के तौर पर चुनी गई. उस वक्त बिजनौर तक टिहरी लोकसभा का हिस्सा हुआ करता था. राज दरबार और कांग्रेस के कुछ लोगों ने तय किया कि राजा मानवेंद्र शाह को इस चुनाव में पर्चा भरना चाहिये. लेकिन कुछ अंदरूनी राजनीति के कारण उनका पर्चा तकनीकी पहलुओं का हवाला देते हुए निरस्त कर दिया गया. उधर, कांग्रेस ने भी तुरंत कृष्ण सिंह को चुनाव मैदान में उतारा. लेकिन राजघराने के कुछ सलाहकारों ने ये सलाह मशविरा किया कि अगर राज महल से अलग-थलग रह रही रानी कमलेंदुमती शाह को मनाया जाये तो उन्हें निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतारा जा सकता है.
सलाहकारों ने इसके लिये दो मत दिये. पहला तो ये कि रानी कमलेंदुमती शाह की पूरे टिहरी संसदीय सीट में सामंती हनक वाली छवि नहीं है. दूसरा, राज दरबार में पर्दे में रहने के कारण वो केवल एक डमी के रूप में रहेंगी और उनकी सांसदी को कुछ सयाने राज घराने के लोग चलायेंगे. लिहाजा, एक प्रतिनिधि मंडल रानी के पास उनको राजनीति में उतरने के लिये मनाने गया. काफी मान-मनोव्वल के बाद रानी कमलेंदुमती शाह मान गई. उन्होंने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी पर्चा भरा और अपना चुनावी अभियान शुरू किया. चुनाव परिणाम में वो कांग्रेसी प्रत्याशी कृष्ण सिंह से 13 हजार 982 वोटों से जीती. भारत की पहली लोकसभा में 22 महिला सांसद चुनी गई थी. लेकिन कमलेंदुमती शाह और त्रिवेंद्रम से एनी मस्कारीन का नाम उन लोकसभा सदस्यों में दर्ज है, जो निर्दलीय चुनकर आई थी. वैसे तब के उत्तर प्रदेश और अब के उत्तराखंड से केवल रानी कमलेंदुमती शाह ही पहली महिला सांसद नहीं थी. देहरादून में जन्मी और एमकेपी यानी महादेवी कन्या पाठशाला में पढ़ाई कर नेता बनी गंगा देवी भी चुनाव जीती थी, लेकिन देहरादून से नहीं, बल्कि लखनऊ-बाराबांकी सीट से.
उधर, संसद में पहुंचने के बाद उनके सलाहकारों को ये लगा कि अब रानी बैक-फुट पर आ जायेगी और संसदीय काम वो करेंगे. लेकिन चुनाव जीतने के महज कुछ ही दिनों बाद रानी कमलेंदुमती शाह ने अपने तेवर साफ कर दिये और जता दिया कि वो अपने विवेक से ही तमाम फैसले लेंगी. उन्होंने अपने सामंती पर्दे को एक तरफ फेंका और अपने आवास के दरवाजे जनता के लिये ताउम्र के लिये खोल दिये. उन्हें फ्रेंच, अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान था. साथ ही वर्ल्ड फ़िलासफ़ी का भी उनका अध्ययन बेजोड़ था. इसी अध्ययन के कारण उनका संसद में दिया भाषण बेजोड़ होता. उनके ऐसे ही रोंगटे खड़े कर देने वाले भाषणों के कारण उन्होंने पहली लोकसभा में वो कानून पास कराया, जिसके लिये भविष्य में वो तमाम गुरबत से लड़ रही महिलायें और अनाथ बच्चे उन्हें धन्यवाद देते, जिन्हें इस कानून के जरिये नई जिंदगी मिलनी थी. पितृसत्तात्मक परिवार से निकली सांसद कमलेंदुमती शाह ने महिलाओं के कल्याण के लिये काम करने वाली संस्थाओं को लाइसेंस जारी करने की व्यवस्था का निजी विधेयक ‘वीमन एंड चिल्ड्रन इंस्टीट्यूशन बिल – 1954’ और समाज में व्याप्त ‘महिलाओं की अनैतिक देह व्यापार पर प्रतिबंध बिल -1957’ पास कराया. इसी कानून के तहत आज के वक्त में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय काम करता है और अनैतिक देह व्यापार के साथ ही महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने में अहम योगदान देता है.
वरिष्ठ लेखक एसएस पांगती अपनी किताब ‘From Purdah to Parliament and Padma Bhusan’ में लिखते हैं कि रानी कमलेंदुमती शाह ने न केवल भारत की संसद में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई बल्कि वो अपनी संसदीय सीट में ही 12 हजार 874 किलोमीटर की पैदल और घोड़ों से यात्रा कर अधिकांश गांव तक पहुंची. ये उस वक्त का रिकॉर्ड था. आज के वक्त में जब तमाम गांवों तक सड़क पहुंची चुकी है, तब भी लोगों को शिकायत रहती है कि उनके प्रतिनिधि उनके वोट से जीत हासिल करने बाद भी उनके गांव तक नहीं पहुंचे.
इसी दौरान उनके महिलाओं के अधिकारों के लिये किये गए उल्लेखनीय कामों के लिये भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण सम्मान से नवाजा. ये सम्मान पाने वाली वो भारत की तीसरी और उत्तराखंड की पहली महिला थी. 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव के लिये उनकी जीत निश्चित थी, लेकिन एक बार फिर से उन्होंने अपनी बहन के बेटे मानवेंद्र शाह के लिये टिहरी लोकसभा की सीट छोड़ दी और फिर से अपने आश्रम में लौट गई. पहाड़ में अपने एक लेख में कुसुम रावत लिखती हैं कि कमलेंदुमती शाह के नेक कामों की जमीन पर ही राजा मानवेंद्र शाह आठ बार सांसद बने. उधर, सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद लोग उन्हें राज माता कहने लगे. राजनीति से संन्यास लेने के बाद वो सामाजिक कार्यों में जुट गई. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने समाज कल्याण परिषद का उपाध्यक्ष मनोनीत किया और उनकी देखरेख में टिहरी में वयस्क महिला शिक्षा कार्यक्रम चला. 1958 में वो अमेरिका चली गई और वहां पर छह महीने दर्शन शास्त्र की कक्षायें ली. ये अचरज की बात है कि बाद में उन्हें अमेरिकी सरकार ने दो बार दर्शन शास्त्र में व्याख्यान देने के लिये भी बुलाया. वहीं 1968 में राजमाता कैलिफोर्निया के गर्वनर रौजर्स के न्यौते पर अमेरिका गई और वहां एक महिला आश्रम में संवासिनियों को योगाभ्यास कराया. वह सुविधाजनक जीवन जी रही संवासिनियों को यह समझाने में सफल रही कि स्वस्थ शरीर और दिमाग के लिये शाकाहारी भोजन अधिक फायदेमंद है.
1963 में उन्होंने अपनी छोटी बहन रानी इंदुमती शाह के नाम पर इंदुमती अंध शिशु शरणालय सोसाइटी की स्थापना की जहां दृष्टिहीन बच्चों की पढ़ाई और छात्रावास निशुल्क होता था. इसी तरह 1965 में अनपढ़ युवाओं के लिये जनसेवा आश्रम सोसायटी का गठन किया. जबकि 1970 में अपने ससुर के नाम पर राजा कीर्ति शाह धर्मार्थ न्यास स्थापित कर कुष्ठ रोगियों के उपचार निशुल्क करने की व्यवस्था शुरू की. उन्होंने इसके बाद महाराजा नरेंद्र शाह ट्रस्ट का गठन किया और अपनी सारी निजी संपत्ति इस न्यास को दान कर दी और इस ट्रस्ट की प्रबंधक बनी. इसी ट्रस्ट के तहत टिहरी में नरेंद्र महिला विद्यालय भवन का निर्माण कराया गया. 1961 में इस कॉलेज में क्लास चलनी शुरू हुई. इसी कॉलेज का उद्घाटन करने देश के राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन आये थे. उस वक्त टिहरी में पहली बार हेलीकॉप्टर उतरा था.
ये विद्यालय का नाम भले ही नरेंद्र महिला विद्यालय था, लेकिन आम बोलचाल में इसे राजमाता विद्यालय ही कहा गया. इस विद्यालय का वास्तुशिल्प उस वक्त भारत के तमाम स्कूलों से खूबसूरत था. स्कूल के भीतर खुला ग्रीक ऑडिटोरियम, उसके आगे कृत्रिम तालाब. जिसमें रंग बिरंगी मछलियां और खूबसूरत कमल खिले होते थे. छायादार पेड़, अलग-अलग रंगों के फूलों की क्यारियां, भव्य पवेलियन के नीचे कमरों में क्लास रूम थे, जहां संगीत, दस्तकारी, शिल्पकारी, कला आदि की कक्षायें होती थी. आगे की ओर मुख्य बिल्डिंग थी, जिसमें ऊंची छत, बड़ी खिड़कियों व रोशनदान वाले बड़े-बड़े क्लास रूम, प्रयोगशाला और कार्यालय थे. मुख्य बिल्डिंग के सामने असेंबली ग्राउंड था. यहां भी एक गोल तालाब था, जिसमें कमल खिले होते थे.
रानी कमलेंदुमती शाह ने देहरादून के कालीदास मार्ग पर अपना आवास भी इस ट्रस्ट को दान कर दिया और जब तक इस आवास में रही, उन्होंने ट्रस्ट को इसका बाजारी मूल्य के बराबर किराया चुकाया. उन्होंने अपने बेटों शार्दूल विक्रम, बालेंदु शाह और पोतों को कोई भी संपत्ति नहीं दी और न ही अपने बेटों में से कभी किसी को ट्रस्ट का सदस्य बनाया. अपने सौतेले बेटे मानवेंद्र शाह को उन्होंने इसका ट्रस्टी अध्यक्ष घोषित जरूर किया. बाद में इसके प्रबंधक तत्कालीन टिहरी के जिलाधिकारी और बाद में गढ़वाल कमिश्नर रहे एसएस पांगती रहे. एसएस पांगती बताते हैं कि रानी कमलेंदुती शाह में कभी राज परिवार की हनक नहीं रही. उन्हें कभी कोई काम भी होता तो खुद आती थी. वो चुपचाप जरूरतमंद लोगों की आर्थिक मदद करती और ये आर्थिक मदद भी वो अपनी पेंशन से करती थी. वह न ही गलत पसंद करती थी और न कभी किसी गलत व्यक्ति की सिफारिश करती थी. वो तो अपने और पराये के भेद से बहुत उपर उठ चुकी थी.
कुसुम रावत लिखती हैं कि मौत के बाद पद्म भूषण और उसके दस्तावेज ट्रस्टियों को बंद पड़े मिले. वह सच में मान सम्मान, धन प्रतिष्ठा और पदों के प्रपंच से बहुत ऊपर उठ चुकी थी. बाद में उनकी संपत्ति पर बड़ा विवाद हुआ. जिस कारण संपत्तियों को बेच कर ट्रस्ट में पैसा जमा कराया गया. कई फर्जी लोग उनकी ही वसीयतें लेकर खड़े हो गये. अपने आखिरी दिनों में वो कहती थीं, मैंने संपत्ति सही हाथों में सौंप दी है. मेरी प्रवृत्ति नुकसान के बदले नुकसान न पहुंचाकर अपने मौलिक स्वभाव पर टिके रहना है. मैं सबको नादान बच्चों की तरह प्रेम करती हूं. सही गलत देखने को अब ट्रस्टी है. 15 जुलाई 1999 को उन्होंने एक लंबी बीमारी के बाद देहरादून के अपने आवास में अंतिम सांस ली.
स्क्रिप्ट: मनमीत
© Copyright baramasa.in