कैसे बनी कहावत ‘कहां नीति कहा माणा’

  • 2023
  • 7:07

‘कहां नीति कहां माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहां कहां तो जाणा’.

उत्तराखंड का सचिवालय हो या कोई निदेशालय. कोई सरकारी विभाग हो या कोई पुलिस थाना. अक्सर किसी काम से झुन्नाया हुआ मुलाज़िम ये बुदबुदाते हुये मिल जायेगा, ‘कहां नीति कहां माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहां कहां तो जाणा’. ये वो मुलाज़िम होता है जिसे उसके बॉस ने उसकी क्षमता से ज्यादा काम दे दिया हो. लिहाज़ा उस ज्यादा दे दिये गये काम से परेशान वो मुलाज़िम श्याम सिंह पटवारी का वो मुहावरा अपने दर्द को साझा करने के लिये उपयोग में लाता है और सामने वाला भी समझ जाता है कि आखिर इस बेचारे को ज्यादा काम दे दिया गया होगा, लेकिन ये श्याम सिंह पटवारी आखिर थे कौन? जिनके मुंह से अनायास निकले कुछ बोल कालांतर में उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध सरकारी मुहावरा बन गया.

ये कहानी आज से लगभग 120 साल पुरानी है. जैसा कि साल सुनकर ही पता चल गया होगा कि देश अंग्रेजों का गुलाम था. अंग्रेज भारत पर तो शासन कर ही रहे थे, लेकिन अब उनकी नज़र तिब्बत पर भी थी. इधर, गढ़वाल रियासत के दो हिस्से हो चुके थे. अलकनंदा के एक तरफ का हिस्सा जिसमें पौड़ी जिला था वो अंग्रेजों के अधीन आ चुका था, तो अलकनंदा के दूसरी तरफ टिहरी रियासत थी. उस समय चमोली और रूद्रप्रयाग जिले नहीं बने थे और ये पौड़ी के ही अधीन आते थे. मतलब सभी बड़े अंग्रेज अधिकारी पूरे जिले पर नजर रखने के लिये पौड़ी डिप्टी कमिश्नरी में ही बैठते थे.

ये जिला अंग्रेजों के लिये कई मायनों में महत्वपूर्ण था. महत्वपूर्ण इसलिये कि पंडित नैन सिंह रावत तिब्बत का भेद अंग्रेजों के सामने रख चुके थे और ये भी खुफिया सूचना मिलने लगी थी कि तिब्बत की आंतरिक राजनीति में रूस दखल देने लगा है. सेंट्रल एशिया के देशों के संसाधनों को कब्जाने की इसी लड़ाई को इतिहास में ‘द ग्रेट गेम’ के नाम से याद किया जाता है. इसी ग्रेट गेम के तहत रूस की नजर तिब्बत की सोने की खानों पर थी. इन्हीं गोल्ड माइन्स पर पहले से ही अंग्रेजी हुकूमत नजर गड़ाये बैठी थी. भारत से इन खदानों का रास्ता पौड़ी जिले और अब के चमोली के सुदूर पूर्व माणा गांव से होकर जाता था. इसलिये भी माणा और नीति घाटी दोनों अंग्रेजों के लिये बहुत महत्वपूर्ण हो गई थी.

उस वक्त भारत में वायसराय जॉर्ज नथानिएल कर्जन जिन्हे लॉर्ड कर्जन भी कहते है, की हुकूमत थी. इन्हीं लॉर्ड कर्जन ने 1903 में तिब्बत पर हमला करने की योजना बनाई थी. इसके तहत पहले माणा गांव से हमला करने की योजना बनी. हालांकि बाद में ये हमला सिक्किम से हुआ. इस हमले में सबसे पहली बार अंग्रेजों ने मशीन गन का उपयोग किया था. जबकि तिब्बती सेना के पास महज कुछ सौ भरवा बंदूके थी.

अपनी मशीन गन की बदौलत अंग्रेजों ने महज तीन हजार सिपाही और सात हजार पोर्टरों के साथ तिब्बत पर हमला किया और कुछ ही महीनों में युद्ध जीत लिया. इसी युद्ध के बाद 1914 में शिमला एग्रीमेंट हुआ था, जिसमें पहली बार भारत और तिब्बत के बीच विवादास्पद मैकमोहन लाइन खींची गई थी. हालांकि इस एग्रीमेंट में तिब्बत और अंग्रेजों ने हस्ताक्षर तो कर दिये थे, लेकिन चीन ने इसका विरोध किया था.

रूस और अंग्रेजों के बीच 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में छिड़ा द ग्रेट गेम के बारे में विस्तार से जानना है तो अलेक्जेंडर बर्न्स की किताब ट्रेवल्स इनटू बुखारा पढ़ सकते हैं.  द ग्रेट गेम में उज्बेकिस्तान, ईरान, कज़ाकिस्तान, सिल्क रूट के साथ ही माणा और नीति घाटी भी काफी महत्वपूर्ण थी.

बहरहाल, उस वक्त माणा और नीति का एक ही पैनखंडा यानी रेवन्यू सर्कल होता था. दोनों जगह एक ही राजस्व निरीक्षक जिसे पटवारी भी कहते हैं तैनात होता था. अक्सर लोग नीति और माणा का नाम एक साथ लेते हैं. जिससे लगता है कि ये कोई अगल-बगल की जगह है. लेकिन, माणा गांव जोशीमठ से लगभग 50 किमी दूर है जबकि नीति घाटी जोशीमठ से बिल्कुल अलग दिशा में है. जोशीमठ से नीति लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर है. जितना बड़ा क्षेत्रफल नीति घाटी से जोशीमठ और वहां से माणा दर्रे तक का है, उससे छोटा क्षेत्रफल तो आज के वक्त में जिलों का होता है. उस समय पूरी नीति घाटी और माणा घाटी को एक ही पटवारी देखता था, जिनका नाम था श्याम सिंह नयाल. पूरे उत्तर प्रदेश में उस समय माणा गांव का पटवारी सबसे ताकतवर पद होता था. वो इसलिये क्योंकि इस क्षेत्र के पटवारी के पास फ्रंटियर ऑफिसर और सुरक्षा अधिकारी के अतिरिक्त अधिकार भी होते थे.

बहरहाल, 1903 में अंग्रेज़ तिब्बत पर हमले के लिए तैयार हो रहे थे. मई महीने में भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन के दफ्तर से कुमाऊँ कमिश्नर को एक पत्र आया. उस वक्त पौड़ी जिला भी कुमाऊँ कमिश्नर के अधीन आता था और पौड़ी में डिप्टी कमिश्नरी होती थी. पत्र में लिखा था कि लार्ड कर्जन खुद नीति माणा का सुरक्षा दौरा करना चाहते हैं. पत्र की गम्भीरता को देखते हुए कमिश्नर ए एम डब्ल्यू शेक्सपियर ने श्याम सिंह मयाल को पत्र लिखा कि वो तीन दिन के भीतर नीति और माणा की पूरी सामरिक रिपोर्ट खुद स्थलीय दौरा कर उनके पास भेजे. यानी लगभग 180 किलोमीटर क्षेत्रफल का दौरा उन्हें महज तीन दिनों के भीतर करना था. पत्र पढ़कर श्याम सिंह पटवारी को गुस्सा आया और उन्होंने जो पत्र जवाब में लिखा. उसकी शुरुवात थी कहाँ नीति कहाँ माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहाँ कहाँ तो जाना.

खैर, जैसे तैसे काम हुवा और फिर वायसराय लार्ड कर्जन उत्तराखंड भ्रमण पर आए. उन्होंने अल्मोड़ा से ग्वालदम, वाण, सुतोल, कनोल, रामणी, झींझी, पाणा, क्वांरीपास, करछों और तपोवन तक करीब 200 किलोमीटर का ट्रैक घोड़ों खच्चरों से किया. कालांतर में इसी 200 किमी के ट्रैक को कर्जन ट्रेल भी कहा गया.

इस घटना के कुछ समय बाद पटवारी श्याम सिंह मयाल की हत्या तिब्बती हूणिया डकैतों ने उनकी ही चौकी में कर दी थी. पटवारी श्याम सिंह की हत्या की सूचना पाकर नंदप्रयाग रेंज के कानूनगो रेवती नंदन बहुगुणा मौके पर पहुंचे. ये रेवती नंदन बहुगुणा इंदिरा गांधी सरकार में दूरसंचार मंत्री और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के पिता थे.

मौके पर पहुंचे कानूनगो रेवती नंदन बहुगुणा ने तय किया कि श्याम सिंह पटवारी का अंतिम संस्कार यहीं कर दिया जाये क्योंकि उनका शव उनके पौड़ी में स्थित गांव भैंसकोट पहुंचाने में बहुत दिन लग जायेंगे.  फिर बाद में वो अस्थियां उनके गांव लेकर गये.

उत्तराखंड में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व राज्य सचिव और श्याम सिंह पटवारी के नाती विजय रावत जो इस समय नोएडा में रहते हैं, बताते हैं कि कानूनगो रेवती नंदन बहुगुणा असल में श्याम सिंह पटवारी के कार्यस्थल से सबसे पास नंद प्रयाग में तो मौजूद थे ही साथ ही वो श्याम सिंह मयाल के कुल पुरोहित भी थे. दोनों के गाँव भी पौड़ी जिले में अगल बगल ही है. इसलिये उन्होंने उनका अंतिम संस्कार से लेकर उनकी अस्थियां तक उनके घर पहुंचाने की जिम्मेदारी उठाई.

बहरहाल, श्याम सिंह पटवारी की तो मौत हो गई, लेकिन उनके कहे – कहां नीति कहां माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहां कहां तो जाणा वाली कहावत आम बोलचाल के मुहावरों में प्रसिद्ध हो गई. बाद में इस कहावत पर कई लोकगीत भी बने. और कई अलग अलग जिलों में लोग श्याम सिंह पटवारी को अपने यहां का बताने लगे. ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि उस वक्त जो कुछ भी हो रहा था, वो कहीं लिखित रूप से दर्ज नहीं हो पाया. इसलिये जब ये कहावत जनश्रुतियों में एक गांव से दूसरे गांव पहुंची तो कई लोगों ने इसे अपने यहां के किसी बुजुर्ग व्यक्ति के साथ नत्थी कर दिया.

स्क्रिप्ट: मनमीत

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