उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में आपने अक्सर छोटे-छोटे मंदिर देखे होंगे. कभी सड़क के किनारे तो कभी गांव को जाती किसी पगडंडी के पास और कभी गाड़-गदेरों के किनारे तो कभी दूर किसी पहाड़ी चोटी पर स्थित, आड़े-तिरछे पत्थरों से बने छोटे-छोटे मंदिर. न तो इन मंदिरों में बद्रीनाथ या केदारनाथ के मंदिरों जैसी विशालता और भव्यता होती है, न जागेश्वर या बैजनाथ के मंदिरों जैसे निर्माण शैली और न ही कोई भौतिक आकर्षण.
छोटे-बड़े पत्थरों या हद से हद सीमेंट से बने, बमुश्किल दो बाई दो के इन मंदिरों में किसी चर्चित देवता की तस्वीर या मूर्ति तक नहीं होती है. न तो ये मंदिर भगवान शिव के होते हैं, न विष्णु या श्री राम के और न ही भगवती या काली के. तो आख़िर ये मंदिर होते किन देवताओं के हैं? क्या है इन मंदिरों का इतिहास? क्यों ये पहाड़ के कोने-कोने में सदियों से पूजे जाते हैं और क्यों इन मंदिरों को स्थानीय लोग इतना प्रभावशाली मानते हैं कि यही मंदिर उनके लिए न्याय की अंतिम उम्मीद भी होते हैं, तो रुष्ट होने पर दोष लगाने वाली सबसे ख़तरनाक शक्ति भी.
1970 का दशक था. यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंटॉन से ग्रैजूएशन कर रहे एक अमरीकी छात्र को स्टूडेंट एक्स्चेंज प्रोग्राम के तहत भारत आना था. ये छात्र रूपकुंड झील के रहस्य से इतना रोमांचित था कि इसने इसी पर रिसर्च करने की ठानी. साल 1977 में ये छात्र पहली बार भारत आया और कर्णप्रयाग से थराली होता हुआ बेदिनी बुग्याल और रूपकुंड झील तक पहुंचा. अपनी रिसर्च के दौरान ये छात्र गढ़वाल की दैवीय शक्तियों और परंपराओं से इतना प्रभावित हुआ कि फिर आने वाले दशकों में गढ़वाल ही इसका दूसरा घर बन गया. इस छात्र का नाम था विलियम एस सैक्स जो आज एक विश्व विख्यात ऐन्थ्रॉपॉलॉजिस्ट हैं और जिन्होंने न सिर्फ़ रूपकुंड के रहस्य पर अंतरराष्ट्रीय पेपर लिखे हैं बल्कि नंदा देवी राज-जात से लेकर गढ़वाल में होने वाली पांडव लीला और न्याय के देवता भैरव तक पर कई चर्चित किताबें भी लिखी हैं. 70 के दशक में पहली बार गढ़वाल आए विलियम आगे चलकर यहां की संस्कृति में ऐसे रमे कि चमोली के नौटी गांव में उन्हें बद्री प्रसाद नौटियाल के नाम से पुकारा जाने लगा.
विलियम सैक्स आज एक जाने-माने ऐन्थ्रॉपॉलॉजिस्ट हैं, एक प्रोफ़ेसर हैं और जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ हाइडेलबर्ग के साउथ एशिया इंस्टिट्यूट में ऐन्थ्रॉपॉलॉजी विभाग के एचओडी हैं. बेहतरीन हिंदी और कमाल की गढ़वाली बोलने वाले विलियम सैक्स ने उत्तराखंड की लोक संस्कृति और विशेष तौर से गढ़वाल के लोक देवताओं पर दशकों रिसर्च की है. अपनी इसी रिसर्च के दौरान उनका सामना उस सवाल से भी हुआ, जो सवाल इस प्रोग्राम की शुरुआत में हमने आपसे पूछा था. उत्तराखंड के पहाड़ों में नजर आने वाले ये छोटे-छोटे मंदिर आख़िर किस देवता के हैं?
विलियम सैक्स ने जब इस बाबत जब स्थानीय लोगों से जानकारी जुटाना शुरू किया तो उन्हें बताया गया कि इनमें से अधिकांश मंदिर भैरव देवता के हैं. लेकिन ये वो भैरव देवता नहीं थे जिनका जिक्र पुराणों में मिलता है और जिनके वीरभद्र रूप ने शिव गणों का नेतृत्व करते हुए दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया था या जिस काल भैरव को काशी का नगर कोतवाल भी कहा जाता है. बल्कि गढ़वाल में पूजे जाने वाले भैरव यहीं के लोक देवता हैं जिनका जिक्र ग्रंथों में नहीं बल्कि लोक में पीढ़ियों से चले आ रहे जागरों, गीतों और कथाओं में मिलता है. विलियम ने जब इस दिशा में अपनी रिसर्च को आगे बढ़ाया तो उन्हें कई दिलचस्प जानकारियाँ हासिल हुई. वे इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि गढ़वाल का भैरव देवता इतना प्रभावशाली है कि कभी सिर्फ़ दलित और पिछड़े वर्ग के रहे इस देवता को कालांतर में पहाड़ के पूरे समाज ने पूजना शुरू किया. भैरव देवता पर उनकी इस रिसर्च को विस्तार से समझने से पहले पहाड़ों के इन छोटे-छोटे मंदिरों के बारे में कुछ मूलभूत बातें समझ लेते हैं.
इन मंदिरों को असल में थान या मंडुला कहा जाता है. ये उन लोक देवताओं के पूज्य स्थल होते हैं जिन्हें भुम्याल देवता भी कहते हैं. भुम्याल का अर्थ हुआ भूमि के देवता. यानी वो देवता जो स्वर्ग में नहीं बल्कि यहीं इसी धरती पर, आम लोगों के बीच ही निवास करते हैं और आम लोगों पर ही अवतरित भी होते. पहाड़ों में जगह-जगह जो छोटे-छोटे थान नजर आते हैं, वो इन्हीं स्थानीय देवताओं के हैं जिनमें नरसिंह, नागरजा, घण्डियाल या घंटाकर्ण, क्षेत्रपाल और भैरू या भैरव देवता के थान प्रमुख हैं.
भैरव देवता को ही न्याय का देवता भी कहा जाता है. उनके कई जागर और गीत पहाड़ में सदियों से गाए जाते हैं. विलियम सैक्स ने अपनी रिसर्च में पाया कि इन्हीं में से एक गीत भैरव परंपरा की मूल कथा है. ये कथा कुछ यूं है कि एक समय पंथी बगवान की ऊंची जाति के म्युर लोग एक मंदिर बना रहे थे. उन्होंने टम्टा लोगों को मंदिर के लिए पत्थर ढोने के काम पर लगाया. लेकिन ये पत्थर इतने भारी थे कि इन्हें ढोना लगभग नामुमकिन था. टम्टा लोगों ने मानव क्षमताओं के अनुसार जो पत्थर ढोए जा सकते थे, वो मंदिर के लिए पहुंचा दिए और जो उनसे उठाए नहीं गए उन्हें वहीं छोड़ दिया. इस पर म्युर लोग इतना नाराज़ हुए कि उन्होंने टम्टा लोगों को बुरी तरह पीटा और उनकी सुंदर ध्याणियों, उमेदा और सुमेदा का हरण करके गोरखों को गुलामी के लिए बेच दिया.
तब उमेदा और सुमेदा के दो भाई, उदोतु और सुदोतु अपने गुरु लामा हुणियां से मदद मांगने हुणदेश गए. उन्होंने अपने धर्म के मामा लामा हुणियां से कहा ‘हे मामा! म्युर लोगों ने हम पर बहुत अन्याय किया और हमारे लोगों को गुलामी के लिए बेच दिया. उन्होंने हमारी पीठों से खाल तक निकाल डाली. हमारा कोई नहीं है. हमारी मदद कीजिए.’
लोक कथा के अनुसार ये सुनकर लामा हुणियां की आँखों में आंसू आ गए. तब उन्होंने एक हांडी बनाई और उसके अंदर बावन वीर, अठारह काली, चौंसठ जोगनियाँ और नब्बे नरसिंह डाल कर हांडी पर ढक्कन लगाया और उस पर एक कपड़ा बांधते हुए टम्टाओं से कहा, ‘जाओ भांजे, इस लाल हांडी को उत्तराखंड ले जाओ और इसे अपने दुश्मनों की भूमि तक पहुँचाओ.’
टम्टा भाई जब इस हांडी को लेकर लौट रहे थे तो दोबारी गांव के पास आते-आते उन्हें रात हो गई. उन्होंने मन बनाया कि रात यहीं आराम करके सुबह आगे बढ़ेंगे. उन्होंने जब उस हांडी को नीचे रखा तो उसके अंदर से कुछ आवाज़ें आ रही थी. सुदोतु ने जिज्ञासा के चलते हांडी का ढक्कन को थोड़ा सा उठाया तो उसमें से भैरव प्रकट हुए.
दोबारी गांव में उन दिनों पांडव लीला हो रही थी. भैरव ने एक योगी का रूप धारण किया और वे वहां पहुंच गए जहां पांडव नाच रहे थे. उन्होंने गांव वालों से कुछ जमीन माँगी लेकिन गांव के लोगों ने उन्हें तिरस्कृत करते हुए गांव से भगा दिया. तब भैरव ने एक बाघ का रूप धारा और दोबारी गांव के सारे गाय, बैल, भेड़, बकरी और भैंसों को खा लिया. यहां भैरव का ऐसा दोष लगा कि उस दिन से अभी तक भी दोबारी गांव में पांडव नहीं नाचते हैं.
इस कथा के अनुसार भैरव इसके बाद कोब बार पहुंचे जहां म्युर लोग रहते थे और उन्होंने सभी म्युर लोगों का सत्यानाश किया. वहां भैरव ने ऐसा हैजा फैलाया कि म्युर लोगों का पूरा क्षेत्र शमशान में बदल गया.
लोक गीत में गाए जाने वाली इस कथा की व्याख्या करते हुए विलियम सैक्स लिखते हैं कि इसमें दो बातें ध्यान खींचती हैं. पहली तो वो जिसे एन्थ्रोपोलोजिस्ट यानी मानव विज्ञानी ‘मिथिकल चार्टर’ बोलते हैं. यानि कि वो मिथ जिसके अनुसार एक परंपरा चलती है और फिर चलती जाती है. जैसे जब भी भैरव के थान थापे जाते हैं यानी कि जब उनकी स्थापना की जाती है तो उसमें सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक होता है कि लाल हांडी को चीजों से भरा जाता है और फिर उसके ऊपर बलि दी जाती है.
इस कथा की दूसरी अहम बात है न्याय. यानि भैरव वो देवता है जो छोटे, गरीब और दलित लोगों को न्याय दिलाता है. विलियम सैक्स ने उत्तराखंड के भैरव देवता पर अपनी रिसर्च को आगे बढ़ाया तो उन्होंने पाया कि यही दोनों बातें चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी ज़िले में दलितों के बीच प्रचलित एक और लोक गीत में देखी जा सकती हैं. इस गीत के अनुसार एक समय सेमवारी कोट में सात भाई सौमर्याल रहते थे. वे दलित जाति के थे. इनमें से सबसे बड़े भाई का नाम था अगमाल, उसके बाद था बागमाल और काणसे यानि सबसे छोटे भाई का नाम था पुरिया. पुरिया बहुत गौरवशाली और घमंडी था. वो न तो किसी की मदद करता था, न किसी को नमस्कार करता था और न अपने बड़ों को पहचानता था.
एक दिन रावण के कानों में ये बात आई और उसने अपनी राक्षसों की सेना वहां भेज दी. इन राक्षसों ने पुरिया को पकड़ा और उसे रावण की कचहरी में हाज़िर किया. रावण ने कहने पर भी जब पुरिया उसकी सेना को नमस्कार करने को तैयार नहीं हुआ तो रावण ने आज्ञा दी कि उसके हाथों को हथकड़ी और पैरों को बेड़ियों से बांधकर धर्मशिला में रखा जाए. पुरिया को जब बांध कर धर्मशिला पर रखा गया तो जीवन में पहली बार वो रोने लगा और उसने कहा, ‘आज मेरा कोई नहीं है. न तो भाई है, न परिवार और न ही भगवान.’ उसके रोने से भैरव अपने बावन भैलों को लेकर वहां प्रकट हुए और धर्मशिला को तोड़कर पुरिया को मुक्त करवाया.
इस कहानी से भी वही अर्थ निकलता है कि भैरव गरीब और दलित लोगों के लिए न्याय का देवता है. विलियम सैक्स इन दोनों कथाओं की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, ‘जिसका कोई नहीं होता है उसका भैरव देवता होता है. पुरिया की तरह ही उदोतु और सुदोतु ने अपने लामा गुरु के सामने बोला था कि हमारा कोई नहीं है. तभी भैरव प्रकट हुए. उमेदा-सुमेदा, उनके भाई और पुरिया ये सब छोटे और गरीब लोग थे, जिनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं था. लेकिन जब कोई उन पर अन्याय करता है, तब न्याय का देवता भैरव प्रकट हो जाता है और उनकी मदद करता है.’
इन दो लोक कथाओं के अलावा भी गढ़वाल में कई लोकगीत हैं जो बताते हैं कि भैरव देवता समाज के सबसे निचले तबके और हाशिए पर खड़े लोगों का देवता रहा है. ऐसी ही एक कथा लालू दास और उसके परिवार की भी है जो जासू बर्तवाल के खेतों में काम किया करता था. इस कथा का सार भी यही है जासू बर्तवाल ने जब दलित लालू दास पर अन्याय किए तो भैरव देवता ने उसे न्याय दिलाया.
इन लोक कथाओं का अध्ययन करने के साथ ही विलियम सैक्स ने कई सालों तक भैरव देवता के पुजारियों के साथ सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्राएं की, उनके अनुष्ठानों को देखा-समझा और भैरव के कई मंदिरों का अध्ययन किया. अपने शोध के बाद उन्होंने माना कि भैरव परंपरा मूल रूप से दलित-केंद्रित परंपरा है.
सिर्फ़ चमोली या गढ़वाल में ही नहीं बल्कि न्याय के देवता का सम्बंध दुनिया भर में कामगारों के समाज से बना रहा है. विशेष तौर से वे लोग जो धरती से लोहा या अन्य धातु निकालने का काम पीढ़ियों से करते आए हैं. लुहार या ऐसी ही अन्य जातियों को समाज में भले ही निचली जातियों के रूप पर देखा गया है लेकिन इसके साथ ही इन्हें बहुत शक्तिशाली भी माना गया है क्योंकि उनका पृथ्वी और प्रकृति की मूल शक्तियों से सीधा संबंध रहा है. अफ़्रीका से लेकर एशिया तक ऐसी ही मान्यताएँ हैं जहां इस समाजिक रूप से कमजोर इस समाज को प्रकृति की मूल शक्तियों के सबसे क़रीब माना गया है. एन्थ्रोपोलोजिस्ट विक्टर टर्नर इसे ‘कमज़ोरों की शक्ति’ कहते हैं.
गढ़वाल के कई हिस्सों में ये मान्यता है कि दलित महिलाओं को परेशान नहीं करना चाहिए वरना वे अपने भैरव को पुकारेंगी जिसका दोष लगने पर सर्वनाश हो सकता है. मानव विज्ञानी मानते हैं कि यह मान्यताएँ भी इसी तरफ इशारा करती हैं कि भैरव मूल रूप से दलितों का देवता रहा है. भैरव का एक रूप कच्या भैरव भी है जिसके गीत हिंदू धर्म के प्रचलित सिद्धांतों के उलट नजर आते हैं. यानी कच्या भैरव शुद्धता की बजाय अशुद्धता का प्रतीक है. वो चमड़े के वस्त्र पहनता है, उल्टा सुनता और उल्टा खाता है, उसे शोक के गीत पसंद हैं और वो मुर्दों का भोजन करता है. मानव विज्ञानी मानते हैं कि भैरव का ये रूप दलितों के स्टीरियो टाइप किए गए स्वरूप को दर्शाता है.
ये सभी लोक कथाएँ और लोक गीत इशारा करते हैं भैरव परंपरा संभवतः दलित केंद्रित रही है. लेकिन ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है अगर भैरव सिर्फ़ दलितों के आराध्य रहे हैं तो आज कैसे उत्तराखंड में भैरव के पुजारी ब्राह्मण भी होते हैं और सवर्ण घरों में भैरव के थान आसानी से देखे जा सकते हैं. इन सवालों के जवाब में विलियम सैक्स लिखते हैं कि ऐसा ‘एंटी-संस्कृताइजेशन’ के चलते हुआ है.
प्रसिद्ध भारतीय मानवशास्त्री एमएन श्रीनिवास के अनुसार संस्कृताइजेशन उस प्रक्रिया को कहते हैं जब लोग अपने समाजिक स्तर को बढ़ाने के लिए अपने रीति-रिवाजों को बदलने लगते हैं. यानी जब समाज का एक तबका अपने से प्रभुत्व समाज के रीति-रिवाजों को अपनाता है और अपनी मूल रीतियों को पीछे छोड़ने लगता है, उसी को संस्कृताइजेशन कहते हैं. इसके कुछ उदाहरण हैं जैसे मांसाहार को त्याग शाकाहार को अपनाना, ब्राह्मणों की देखा-देखी जनेऊ धारण करना, ऐसे त्योहार मनाना जो पारंपरिक तौर से नहीं मनाए जाते थे लेकिन फ़िल्मों की देखा-देखी मनाए जाने लगे आदि. एन्थ्रोपोलोजिस्ट विलियम सैक्स मानते हैं कि भैरव परंपरा के साथ भी यही हुआ. भैरव को पूजने के तरीक़े में जहां दलित समुदाय का संस्कृताइजेशन से प्रभावित हुआ और उसने ब्राह्मणों की तरह भैरव को पूजना शुरू किया वहीं इस मामले में एंटी-संस्कृताइजेशन भी हुआ. यानी समाज के मजबूत वर्ग ने दलितों से भैरव पूजने की परंपरा को अपनाया. ऐसा सम्भवतः इसलिए हुआ क्योंकि लोगों को यह विश्वास था भैरव बहुत शक्तिशाली देवता है, उसे पूजने में फ़ायदा है और उसके दोष या प्रकोप से बचने के लिए ऐसा करना ज़रूरी भी है.
विलियम सैक्स इस निष्कर्ष पर इसलिए भी पहुंचे क्योंकि गढ़वाल में भैरव को पूजे जाने की अधिकतर कथाओं के पीछे कोई न कोई ऐसी घटना का ही ज़िक्र सुनने में आता है जब देवता का दोष लगने के चलते उनका थान स्थापित किया गया हो. उत्तराखंड के भैरव देवता पर विलियम सैक्स ने विस्तृत किताब भी लिखी है जिसका नाम है, ‘God of Justice: Ritual Healing and Social Justice in the Central Himalayas.’
उन्होंने लिखा है, ‘बड़ी जाति के लोग डर के चलते भैरव को पूजते हैं. कच्या भैरव जब सवर्ण घरों में रहता है तो हमेशा इसका मूल कारण भूतकाल की ऐसी घटना है, जब पूर्वजों ने निचली जाति के लोगों का शोषण किया या उनके साथ अन्याय किया. तब दलित लोगों ने न्याय पाने के लिए भैरव को पुकारा और जब भैरव का दोष बड़े लोगों पर लगा तो वे इस दोष को दूर करने के लिए उसे पूजने लगे.’
भैरव के अलावा उत्तराखंड में नरसिंह, नागरजा, क्षेत्रपाल और घंटाकर्ण जैसे देवताओं के थान भी बहुतायत में मिलते हैं.
स्क्रिप्ट: प्रगति राणा
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