इस कहानी की शुरुआत होती है एक कमरे से. जहां कुर्सी पर बैठा एक आदमी सामने रखी टेबल पर झुका हुआ एक पत्र लिख रहा है. बाहर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के नारे इस बात की तस्दीक़ कर रहे हैं कि अब ज्यादा वक्त नहीं है जब देश आजाद हो जाएगा. रूक-रूक कर ‘गांधी जिंदाबाद’ के नारे भी लग रहे हैं, लेकिन इन सबसे बेपरवाह वो इंसान पूरी तन्मयता से पत्र लिखने में डूब हुआ है. उसके लेखन में हजारों सालों की प्रताड़ना और आक्रोश साफ दिख रहा था. पत्र की आखिरी पंक्तियों का मजमून कुछ इस तरह था कि ‘हम आजाद तो हो जाएंगे, सरकार भी हमारी ही होगी, देश शायद तरक्की भी करने लगेगा, लेकिन उस बीमारी का क्या जो हजारों सालों से इस समाज की तासीर में घुल गई है.’ जल्दी-जल्दी पत्र को समाप्त कर वो इंसान अपने कमरे से बाहर निकला, डाकखाने गया और पत्र को पोस्ट कर तसल्ली से वापस कस्बे के बाजार में सजे मंच पर जोरदार भाषण देकर घर लौट गया. ये पत्र तक़रीबन एक महीने बाद इंग्लैंड की राजधानी और ब्रितानिया हुकूमत के शाही महल के अधिकारियों को मिला, जहां उसे रिकॉर्ड में रख लिया गया. उन्हीं पत्रों के साथ, जिसमें डा0 भीमराव अंबेडकर के समर्थन में भारत के तमाम बुद्धिजीवियों के पत्र आये थे. ये पत्र आये थे पूना पैक्ट के लिये बाबा साहेब के समर्थन में और कुमाऊँ से यह पत्र भेजा था मुंशी हरिप्रसाद टम्टा. वही हरिप्रसाद टम्टा जिनकी बदौलत उस दौर में दलितों पर सेना में भर्ती होने का जातिवादी प्रतिबंध हटा तो उन्होंने पांच हजार दलित युवाओं की सेना तैयार कर दी. हरिप्रसाद टम्टा, जिन्होंने सबसे पहले कुमाउं में ट्रांसपोर्ट कंपनी की स्थापना की और जिनके परिवार की महिला राज्य की पहली महिला संपादक बनी.
मुंशी हरिप्रसाद टम्टा उस दौर में जन्मे थे, जब संयुक्त प्रांत के कुमाऊँ और गढ़वाल में जातिवाद चरम पर था. जाति के नाम पर छुआ-छूत इस कदर थी कि अगर किसी दलित ने किसी बड़ी जात के परिवार में कोई बर्तन छू भर लिया तो उसे इस कदर पीटा जाता था कि कई बार वो दम ही तोड़ देता. विवाह समारोह में दलितों को बुलाया तो जाता लेकिन कुर्सियों पर बैठने की सख्त मनाही थी. खुद उनके विवाह में दूल्हे का घोड़ी पर बैठना एक सपने सरीखा था. मंदिरों में जाने पर पूर्ण प्रतिबंध था. इन सामाजिक प्रतिबंधों से इतर दलितों के साथ सांगठनिक तौर भी भेद-भाव किया जाता था. मसलन जब अंग्रेजों ने पूरे उत्तराखंड से अपनी सेना के लिये भर्ती अभियान चलाया तो दलितों को इसलिये भर्ती नहीं किया गया, क्योंकि कुछ कथित ऊंची जाति के लोगों को यह स्वीकार्य नहीं था. अंग्रेजों ने उत्तराखंड में ब्राह्मण जातियों को भी सेना की भर्ती से दूर ही रखा था. वे कई दशकों तक ये मानते रहे हिमालय की राजपूत जाति मार्शल ब्रीड होती है. हालांकि बाद में उनका ये भ्रम टूटा कि मार्शल ब्रीड जाति से नहीं, बल्कि मानव समूह से ताल्लुक रखती है. क्या होती हैं ये मार्शल ब्रीड, इसके लिये आप बारामासा में हाइलैंडर्स सीरीज का ये कार्यक्रम देख सकते हैं जिसका लिंक डिस्क्रिप्शन में दिया गया है.
बहरहाल, इन्हीं तमाम सामाजिक समस्याओं के बीच हरिप्रसाद टम्टा का जन्म 26 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा निवासी गोविन्द प्रसाद और गोविंदी देवी के घर हुआ था. गोविंद प्रसाद ताम्र शिल्प के बड़े व्यापारी थे और कुमाऊँ के सम्पन्न परिवारों में आते थे. इस आर्थिक मज़बूती के चलते उनकी धाक भी थी और इज्जत भी. लेकिन यह इज्जत तभी तक थी जब तक वो तमाम थोपी गई जातिवादी परंपराओं को मानते और विरासत में मिले सामाजिक बंधनों की हदों में रहते. लेकिन अब उनकी अगली पीढ़ी यानी हरिप्रसाद टम्टा कुछ और ही इबारत लिखने वाले थे. क्या थी ये इबारत? आइये विस्तार से जानते हैं.
14 साल की उम्र में हरिप्रसाद टम्टा की शादी पार्वती देवी से हुई. कम उम्र में ही इनके पिता का देहांत होने की वजह से उन्हें अपने मामा कृष्णा टम्टा के संरक्षण में आना पड़ा. कृष्णा टम्टा खुद भी कुमाउं के बड़े व्यापारी थे और सामाजिक कार्यों में भी अक्सर सक्रिय रहा करते थे. अपने मामा के संरक्षण में हरिप्रसाद टम्टा ने दसवीं करने तक हिंदी, अरबी, फारसी, अंग्रेजी और उर्दू में महारथ हासिल कर ली थी. पांच भाषाओं का ज्ञाता होने के चलते ही उन्हें मुंशी की उपाधि हासिल हुई थी. जबकि उस दौर में पहाड़ों में अछूतों के लिए शिक्षा हासिल बेहद मुश्किल होता था. दलित बच्चों को स्कूलों में दरी पर भी नहीं बैठने दिया जाता था. ऊपरी जातियों के लोग उन्हें घृणा से देखते थे और घोर जातीय उत्पीड़न के साथ ही सामाजिक तिरस्कार के वे प्रति दिन शिकार होते थे.
तिरस्कार का ऐसा ही एक वाक़या हरि प्रसाद टम्टा के साथ भी हुआ जिसने उनका जीवन ही बदल दिया. अल्मोड़ा में जॉर्ज पंचम का दरबार लगा था. हरिप्रसाद टम्टा भी अपने मामा कृष्णा टम्टा के साथ इस आयोजन में शामिल होने पहुंचे थे. हरिप्रसाद ने पंडाल और पोडियम की तरफ देखा. इनकी सजावट में इस्तेमाल हुआ कपड़ा हरिप्रसाद टम्टा के परिवार ने ही दिया था. वे मंच के पास पहुंचे और देखा कि वहां कुर्सियां खाली पड़ी हैं. जैसे ही उन्होंने बैठने की नीयत से कुर्सियों को पीछे खींचा तो कथित ऊंची जाति के लोगों ने ऐसा करने से उन्हें रोक दिया. उन्हें तिरस्कृत करते हुए कहा गया कि आख़िर उनकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि वे सवर्णों के साथ बैठने का सोच भी सकें. उन्हें कहा गया कि ‘तुम अछूतों की जगह दूर उधर है, वहां खड़े होकर कार्यक्रम देखो.’ इस पर जब कृष्णा टम्टा ने कहा कि ‘हमने इस आयोजन के लिए बहुत सारा पैसा दिया है.’ तो सवर्ण चिल्लाते हुए बोले कि पैसा दिया है तो क्या हमारे साथ बैठोगे. दूर जाकर बैठो नहीं तो यहां से खदेड़ दिये जाओगे. जाति-सूचक गालियों और तिरस्कार के इस अपमान ने हरिप्रसाद टम्टा के ज़हन में गहरा असर डाला और उन्होंने उसी दिन संकल्प लिया कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक इस समाज से छुआ-छूत खत्म नहीं होगा. और तब तक आजादी की बात करना भी बेमानी होगी.
समता अखबार के 6 मई 1935 के सम्पादकीय में हरिप्रसाद टम्टा ने अपने इस दर्द को कुछ इस तरह जाहिर किया. “पच्चीस साल का लम्बा अरसा गुजर जाने के बाद भी मैं अब तक सन 1911 के उस वाकये को नहीं भूल पाया हूं. 1911 में जॉर्ज पंचम का राजतिलक हुआ था. इस मौके पर अल्मोड़ा में भी दरबार हुआ. मुझे और मेरे भाई को उस दरबार में हिस्सा लेने का हक हासिल न हुआ. मुझे अब भी याद है कि कुछ लोगों ने यह तक कह डाला कि अगर मुझ जैसे दरबार में शामिल हुए तो बलवा हो जाएगा. मैं उन भाइयों का लाख-लाख शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे और मेरे भाइयों को सोते से जगा दिया. इन्हीं बातों की बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ जगी है कि मैं अपने समाज को इतना उठा दूँ कि लोग उन्हें हिकारत की निगाह से नहीं बल्कि मोहब्बत और बराबरी की नजर से देखें.”
पहाड़ के स्मृति अंक-दो में मोहन आर्य अपने लेख ‘विविध स्वरूपों में शिल्पकार हिस्सेदारी’ में लिखते हैं कि उस दौर में कुमाऊँ के शिल्पकारों को सेना में भर्ती नहीं किया जाता था. उन्हें डरपोक कौम कहा जाता था. सेना की भर्ती के दौरान शिल्पकारों से खास तरह का बर्ताव किया जाता था. शारीरिक परीक्षण के दौरान उनकी पीठ पर गधा और बंदर लिखकर चयन करते थे. बाद में उन्हें चयनित लोगों से अलग कर दिया जाता था. ऐसा ब्रिटिश अधिकारियों को यहां की उच्च जातियों द्वारा भ्रमित किया जाता था. इस कारण दलितों की सेना में भर्ती शून्य थी. इस अन्याय को हरिप्रसाद टम्टा ने अंग्रेज अधिकारियों को वास्तविकता बताकर दूर किया. उन्होंने कहा, जो शिल्पकार बंदूकों का निर्माण कर सकता है, वो चला भी सकता है. बाद में अंग्रेजों ने अपनी गलती सुधारी और भर्ती के दौरान लाल रंग के निशान पर प्रतिबंध लगा दिया गया. तब तक अंग्रेजों को इस बात का भी ज्ञान हो गया था कि 1880 ईस्वी से चली आ रही ‘मारशियल रेसेस’ की थ्यौरी गलत तो है ही, पूरी तरह से अपमान जनक भी है. इस मारशियल रेसेस की थ्यौरी के चलते हिमालय के पहाड़ी राज्यों से केवल राजपूत जातियों को सेना में भर्ती किया जाता था. इसके अलावा सभी जातियों को डरपोक माना गया था.
साल 1929 में महात्मा गांधी के कुमाऊँ आगमन से कुछ हद तक समाज सुधार को बढ़ावा मिला. वैसे कुमाऊँ के सवर्ण राष्ट्रवादियों का रुझान इस ओर पहले ही हो चुका था. ब्राह्मणों द्वारा हल चलाना और संयुक्त भोजों का आयोजन करने जैसे सांकेतिक कार्यक्रम शुरू हो गये थे. हालांकि कुछ सवर्णों ने अपने ही जातियों का इस तरह प्रगतिशील होने का घोर विरोध भी किया.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हरि प्रसाद टम्टा ने कुमाऊँ से चार हजार शिल्पकार रंगरूटों को अंग्रेजी सेना में भर्ती कराया. उनके प्रयासों की वजह से 1913 में लाला लाजपत राय ने एक कार्यक्रम में सबसे पहले शिल्पकार शब्द का इस्तेमाल किया और उच्च जाति के लोगों से भी इसी शब्द का इस्तेमाल करने को कहा. उन्होंने अछूतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल की निंदा भी की. लम्बे संघर्ष के बाद 1926 में ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र के अछूतों के लिए शिल्पकार शब्द के इस्तेमाल को औपचारिक मान्यता दी और शिल्पकार सभा की तकरीबन सभी मांगें मान लीं. शिल्पकारों में राजनीतिक चेतना का अभाव देखकर हरिप्रसाद टम्टा ने कहा कि ‘असेम्बली एवं स्टेट कौंसिल के प्रतिनिधित्व द्वारा केंद्रीय कौंसिल में भी हमारा प्रतिनिधित्व होना चाहिये. इसके लिये एक डेप्यूटेशन वायसराय के मार्फत इंग्लैंड सरकार से ये मांग करे. इसके साथ ही यूपी के प्रत्येक शहर और कस्बे में अपनी जातीय कमेटियां स्थापित कर संगठन का जाल सा बिछा दें क्योंकि अनुसूचित जातियों की बड़ी आबादी कस्बों में आबाद है. इसलिये कस्बों के लिये 25 फीसद सीटें मुकर्रर की जानी चाहिये. इससे शहरों की बहुत बड़ी आबादी को प्रतिनिधित्व का मौका मिल सकेगा.’
हरिप्रसाद, बेगार प्रथा को सबसे बड़ी तकलीफ मानते थे जो कि गांवों में सबसे ज्यादा शिल्पकारों से कराई जाती थी. हरिप्रसाद जनेउ पहनने के पक्षधर नहीं थे, लेकिन फिर भी उन्होंने इस आंदोलन के समर्थन में अपनी बात रखी. उन्होंने यहां तक कहा कि मंदिरों में जाने से हमें कोई लाभ नहीं होगा. हमारी जाति को असल लाभ शिक्षा से होगा. इसी उद्देश्य से उन्होंने पुस्तकालय और वाचनालय के रूप में ‘कृष्णा डिप्रेस्ड लाइब्रेरी’ अल्मोड़ा में खोली, जिसने कालांतर में हर वर्ग के लोगों को लाभ पहुंचाया. उन्होंने अपने परिवार की बेटियों को भी उच्च शिक्षा के लिये प्रेरित किया. इसका सुखद नतीजा ये हुआ कि उनकी भांजी लक्ष्मी देवी टम्टा उत्तराखंड की पहली दलित महिला स्नातक बनी. लक्ष्मी टम्टा उत्तराखंड की पहली दलित महिला सम्पादक भी बनी. हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में लक्ष्मी देवी का योगदान महत्वपूर्ण है. उन्होंने समता पत्रिका के माध्यम से अनुसूचित जाति के लोगों की आवाज को बुलंद स्वर दिए और दलित वर्ग की शिक्षा समानता के लिए सदा प्रयासरत रहीं.
हरिप्रसाद टम्टा ने जब महसूस किया कि पहाड़ों में शिल्पकार, नशेबाजी की लत से ग्रसित हैं तो उन्होंने गांव-गांव जाकर शिल्पकारों से शपथपत्र भरवाए, कि वो ताउम्र नशे से दूर रहेंगे. उनकी ये मुहीम काफी कारगर भी रही. उन्होंने कुमाऊँ के भूमिहीन शिल्पकारों को तत्कालीन शासन से जमीन भी आवंटित करवाई, जो वर्तमान में हरिनगर गांव के रूप में स्थापित है. इस गांव में प्रत्येक शिल्पकार परिवार को 40 नाली यानी दो एकड़ जमीन नजूल पर दी गई.
इस दौरान उन्होंने अपने व्यवसाय को भी आगे बढ़ाया. 1920 में उन्होंने ‘हिल मोटर्स ट्रांसपोर्ट कंपनी’ की स्थापना की. तब हल्द्वानी से पर्वतीय क्षेत्र की ओर पैदल ही जाया जाता था. हरिप्रसाद टम्टा की ट्रांसपोर्ट कंपनी अल्मोड़ा से नैनीताल और हल्द्वानी के लिए मोटर का संचालन करने वाली पहली ट्रांसपोर्ट कंपनी बनी. इतना ही नहीं, उन्होंने हल्द्वानी में वाहन प्रशिक्षण केंद्र खोलकर ड्राइविंग के लिए लोगों को ट्रेन करना भी शुरू किया, जिससे हजारों लोगों को रोजगार मिला. उन्होंने एक लेबर कोर डिपो के साथ ही शिल्पकारों की डबल कंपनी भी स्थापित की. इसके अंतर्गत लखनऊ भर्ती केंद्र में तीन मजदूर कंपनियां खोली गई, जिसमें तराई व कुमाऊँ के अनुसूचित जातियों के युवकों को भर्ती किया गया. इसके द्वारा 600 शिल्पकारों को मजदूर कंपनी में रखा गया. इन मजदूरों को 1450 रूपये वेतन, भोजन और वर्दी दी गई. ये उत्तराखंड की पहली प्रोफेसनल कारपोरेट कंपनी बनी, जहां नियम कायदों के साथ मजदूरों को उनका हक मिलता था. 23 फ़रवरी 1960 को इलाहाबाद में अपनी देह त्यागने तक हरी प्रसाद टम्टा अछूतों के उद्धार के लिए संघर्ष करते रहे.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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