साठ का दशक. आजादी के बाद भारतीय सामाजिक – राजनीतिक यात्रा का पहला पड़ाव. इस पड़ाव ने आजादी की आकांक्षाओं और उससे उपजी अच्छी-बुरी बातों पर नये सिरे से सोचना शुरू किया. आजादी के संघर्ष से निकली कांग्रेस पार्टी एक तरह से भारत के नवनिर्माण को अपनी बपौती समझती थी. आज भी गाहे- बगाहे ऐसा जताने की कोशिश करती है. यह सच भी था. लेकिन सच यह भी था कि 1936 से ही एक समाजवादी धारा कांग्रेस के अंदर काम कर रही थी जो सामाजिक-राजनीतिक सवालों को अपनी तरह से देख-समझ रही थी और समय-समय पर नीतिगत सवालों को प्रखरता से रख भी रही थी. यह प्रखरता 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय और स्पष्ट दिखाई दी. साठ के दशक में जब देश में राजनीतिक बदलाव की छटपटाहट शुरू हुई तो समाजवादी धारा और प्रखर होने लगी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपनी तरह से राष्ट्रवाद को मजबूत करने की दिशा में बढ़ रहा था.
1962 में ‘भारत-चीनी भाई-भाई’ के नारे के बीच युद्ध ने भारत को अपनी सीमाओं को लेकर चौकन्ना कर दिया था. ऐसे में हिमालय की हिफाजत की आवाज उठने लगी और एक नये नारे ने जन्म लिया जो था, ‘हिमालय बचाओ.’ इस नारे के साथ हिमालयी क्षेत्रों के सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अलावा वे भी जुड़े, जो हिमालय को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने के समर्थक थे. इस दौर में उत्तराखण्ड से एक मजबूत नाम उभरकर आता है. ऐसा नाम जो हमेशा हिमालय के हितों के लिये चिन्तित रहा. यह बहुत चौंकाने वाला तथ्य है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रहने वाले व्यक्ति के पास समाज को देखने की समाजवादी दृष्टि थी. यही वजह थी कि उन्होंने सबसे पहले नारा दिया- ‘हिमालय बसाओ.’ यानी हिमालय के गांवों को जब तक नहीं बचाया जाएगा, हिमालय नहीं बच सकता. आज पलायन और प्राकृतिक धरोहरों की लूट का जो सिलसिला चल पड़ा है, उसमें इस व्यक्ति की दूरदर्शी समझ और भी प्रासंगिक हो उठी है.
ये व्यक्ति एक कुशल संगठनकर्ता था, समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता था, तेज़तर्रार राजनीतिज्ञ था, एक आंदोलनकारी था और एक चिंतक के अलावा जीवट वाले व्यक्ति के रूप में इसे बिजनौर से लेकर गढ़वाल के दूरस्थ गांवों तक पहचाना गया. वो जब भाषण देता तो हज़ारों की भीड़ को ऐसे मंत्रमुग्ध कर देता कि लोग उसके मुरीद हो जाते. उसने काम किया जनसंघ में, लेकिन विचारों से समाजवादी रहा. वो कश्मीर और गोवा मुक्ति जैसे आंदोलनों में भी रहा तो तराई में गन्ना किसानों के साथ भी उनकी आवाज बुलंद करता नजर आया. वो उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की नींव रखने वालों में भी रहा और गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन के प्रमुख नेताओं में भी. शराबबंदी से लेकर वन आंदोलन तक सामाजिक चेतना का कोई ऐसा अभियान नहीं है जो उससे छूटा हो. उसने गृहस्थी तो जोड़ी, लेकिन पूरा समाज उसका परिवार बन गया. अपनी धुन का पक्का और जीवन मूल्यों को बनाये रखने का हिमायती, संकटों से जूझने की जिजीविषा वाला और स्वार्थ से अछूते इस व्यक्ति के योगदान को उस तरह याद नहीं किया जा सका, जिसका वो असल में हक़दार था. इस व्यक्ति का नाम था ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल.
पौड़ी जनपद का चौंदकोट परगना कई खासियतें समेटे है. यहां के लोगों ने कभी सतपुली से लेकर चौबट्टाखाल तक, 31 किलोमीटर सड़क श्रमदान से बना दी थी. इस सड़क का नाम रखा गया था जनशक्ति मार्ग. इसी क्षेत्र में है सुन्दरियालों का मझगांव. साल 1928 में यहीं के एक बेहद सामान्य परिवार में ऋषिबल्लभ सुंदरियाल का जन्म हुआ. खेती-बाड़ी के साथ पिता रामानंद वैद्यकी का परंपरागत व्यवसाय करते थे. वे एक आर्यसमाजी थे और स्वतंत्रता आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया था. समाज के लिए ऐसा समर्पण कि अपने परिवार की कभी चिंता नहीं की और अपनी पैतृक सम्पत्ति भी ग्राम हित में गांव को ही समर्पित कर दी. पिता से मिले यही संस्कार ऋषिबल्लभ ने आत्मसात किये. प्रारम्भिक शिक्षा आधारिक विद्यालय चमनाऊं और बाद में ग्राम गडरी पट्टी किमगड़ीगाड़ में हुई. यहीं से उन्होंने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की. उन दिनों आस-पास के इलाक़ों में कहीं उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी. पिता आर्य समाज से प्रभावित थे इसलिये ऋषि को आगे की पढ़ाई के लिये गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर यानी हरिद्वार भेजा गया. तब उनकी उम्र सिर्फ़ आठ-नौ साल की थी.
ये वही दौर था जब देश में आजादी के आंदोलन की ज्वाला तेज हो रही थी. युवा और छात्र इसमें बढ़चढ़ कर भाग ले रहे थे. उन दिनों गुरुकुल महाविद्यालय में प्रकाशवीर शास्त्री, हरिपाल शास्त्री, बैकुंठलाल शर्मा ‘प्रेम’ आदि ऊँची कक्षाओं में अध्ययन कर रहे थे. अपने इन अग्रजों और महाविद्यालय के गुरुओं के सान्निध्य में ऋषि के अंदर भी देशभक्ति के बीज अंकुरित होने लगे. प्रकाशवीर शास्त्री के निकट रहने के कारण उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ज्यादा प्रभाव पड़ा. यहां विनायक दामोदर सावरकर, शहीद चन्द्रशेखर, भगत सिंह, राजगुरु, रामप्रसाद बिसमिल, अशफाक उल्ला खां जैसी हस्तियों के जीवन संघर्ष से उनका परिचय हुआ. वे सावरकर के जीवन और साहित्य से काफी प्रभावित हुए और इस तरह से क्रान्तिकारी विचार के साथ जुड़ने लगे. ऋषि अभी छोटी कक्षा में ही पढ़ते थे जब उनके विद्यालय के कुछ छात्र अध्ययन छोड़ अमृतसर में गुप्त रूप से चल रहे क्रान्तिकारियों के संगठन में शामिल हो गये. यहीं छोटी उम्र में उनमें देशभक्ति का बीजारोपण हुआ. वे भारतीय संस्कृति और इतिहास का अध्ययन करने लगे लेकिन अमृतसर प्रवास में अपनी औपचारिक शिक्षा के छूटने का एहसास भी उन्हें हुआ.
उन्होंने पंजाब प्रांत से ही ‘प्रभाकर’ की परीक्षा पास की. उन दिनों देश में भारत छोड़ो आंदोलन तेज हो गया था. तब उनकी उम्र केवल चौदह बरस की थी. 1942 के आंदोलन को दबाने के लिये ब्रिटिश हुकूमत ने दमनात्मक कार्यवाही शुरू की और आंदोलनकारियों की धर-पकड़ होने लगी. तब अपने साथियों के साथ वे भी अमृतसर छोड़ने को मजबूर हुए और अपने गांव वापस आ गए. कुछ साल यहीं रहकर उन्होंने गांव की परिस्थितियों को समझा. वे खेती-बाड़ी में विशेष रुचि लेने लगे और पारिवारिक बंधनों में ऐसे उलझे कि परिवार के दबाव में उनका विवाह ग्राम मल्ड गुराडस्यूं के गूंठाराम की पुत्री सत्यभामा से कर दिया गया. यहां से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ.
देश आजादी की नई हवा में सांस लेने लगा था. ऋषि को अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी अहसास हो रहा था. लिहाज़ा वे दिल्ली चले गये और अलग-अलग प्रेसों में काम करने लगे. देश में पहले चुनाव के लिये मतदाता सूची का काम हुआ तो वे जयपुर चले गए. इससे उन्होंने पैसा कमाया और परिवार का पालन होने लगा. दिल्ली आने के बाद वे फिर से संघ की शाखाओं में भी जाने लगे थे और उनका झुकाव अब राजनीति की ओर भी होने लगा था. जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में 1952 में ‘अखिल भारतीय जनसंघ’ नाम से राजनीतिक दल की स्थापना हुई तो वे भी इस दल में शामिल हो गए.
संगठनात्मक रूप से काम करने का उनका सफर बिजनौर शहर और गढ़वाल से शुरू हुआ. उन्होंने बहुत कम समय में ही जनसंघ के एक ओजस्वी वक्ता के रूप में पहचान बना ली थी. हालांकि इस चुनाव में जनसंघ के प्रत्याशियों को सफलता नहीं मिली, लेकिन ऋषि ने अपने संगठन कौशल और भाषण शैली से संगठन को फैलाने में योगदान दिया और उन्हें राजनीति की व्यावहारिक समझ हुई. यही उनके आगे की राजनीति का रास्ता भी बनाता गया. उसी दौर में 1953 में श्यामा प्रसाद के नेतृत्व में कश्मीर सत्याग्रह चल रहा था. ऋषि ने अपने दस सहयोगियों के साथ कश्मीर कूच किया. पठानकोट में उन्हें बंदी बना लिया गया और छह महीने की सजा हुई लेकिन कुछ दिन बाद ही उनकी रिहाई हो गई. इसी आंदोलन के दौरान श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत हो गई थी. इस बीच जनसंघ में संगठनात्मक हलचल के बीच गोवा मुक्ति आंदोलन चला. 1961-62 में पुर्तगाली साम्राज्य से गोवा को मुक्त करने की माँग ज़ोर पकड़ने लगी. इस आंदोलन में ऋषिबल्लभ ने बिजनौर से बड़ी संख्या में साथियों के साथ शिरकत की. उन्हें गिरफ्तार कर फिर जल्द ही मुक्त कर दिया गया. उनके साथ ही मुक्त हुआ गोवा भारत का अंग बन गया.
गोवा से ऋषि एक बार फिर अपने गांव लौटे. उन्होंने गोवा के अपने अनुभवों से लोगों को परिचित कराने के लिये एक बड़ी सभा का आयोजन चौबट्टाखाल में किया. इससे जहां एक ओर उनकी जिजीविषा का पता लोगों को लगा, वहीं उनकी राजनीतिक चेतना का आधार भी तैयार हुआ. कुछ समय बाद जब वे बिजनौर गए तो संघ के कर्मठ कार्यकर्ता सांवलदास गुप्ता को जिला बिजनौर का संगठन मंत्री नियुक्त किया जा चुका था. वे सांवलदास से परिचित थे. उनके साथ मिलकर ऋषिबल्लभ ने बिजनौर और गढ़वाल में जनसंघ को खड़ा करने में महत्वपूर्ण काम किया.
बिजनौर में काम करते हुए उन्हें एक जननेता की तरह लोग देखने लगे थे. इसी बीच वहां नींदड़ विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ. कांग्रेस ने धामपुर चीनी मिल के प्रबंधक बलवन्त सिंह को पार्टी का प्रत्याशी बनाया तो जनसंघ की ओर से साधन विहीन शिवराम पार्टी के प्रत्याशी थे. ऋषि के संगठनात्मक कौशल के चलते जनसंघ ने यह सीट जीत ली. उत्तर प्रदेश में जनसंघ की जीत एक बेहद महत्वपूर्ण घटना थी. संगठन के अंदर ऋषिबल्लभ और सांवल दास की धाक जम गयी. ऋषि हमेशा संगठन को सर्वोपरि मानते रहे. यही वजह थी कि 1957 में अवसर होने के बावजूद उन्होंने कर्णप्रयाग सीट पर जनसंघ से मनवर सिंह रावत को उतारा, हालांकि वे भक्तदर्शन के मुकाबले चुनाव हार गये. ऋषि जहां लगातार संगठन के लिये काम कर रहे थे, वहीं संगठन उनकी जनपक्षीय धारा को बहुत देर तक सहन नहीं कर पाया. 1962 में पार्टी ने उन्हें उपेक्षित रखा तो उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा. भक्तदर्शन के मुकाबले वे चुनाव हार गये. 1967 में भी उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन इस भी बार उन्हें सफलता नहीं मिली.
इस बीच जनसंघ ने उन्हें और सांवल दास गुप्ता को पार्टी से निष्कासित कर दिया. तब उन्होंने सांवल दास के साथ मिलकर ‘जनतंत्रीय जनसंघ’ बनाई लेकिन यह पार्टी आगे नहीं बढ़ पायी. यहीं से ऋषि के उस रूप से सब लोग परिचित हुए जो बीज रूप में उनके अंदर हमेशा से था. यह बात बहुत बैचेन करने वाली है कि जनता के सवालों को मुखरता से रखने वाला और दूरगामी समझ वाला व्यक्ति इतने दिन जनसंघ में कैसे रहा? एक तरह से देखा जाये तो राजनीति के स्वप्नदर्शी का बड़ा समय जनसंघ में बरबाद हो गया.
ऋषिबल्लभ के जनसंघ से निकलने के बाद एक नये राजनीतिक सफर की शुरूआत हुई. यही सफर उनका अभीष्ट था. यहीं से उन्होंने शुरू की एक नयी सामाजिक चेतना की यात्रा, जो अंतिम समय तक जारी रही. संघर्षों और बदलाव के पड़ावों के साथ ही कुछ स्थापनाओं को लिए हुए. भारत-चीन युद्ध के बाद हिमालयी क्षेत्रों में एक नये तरह का डर पनपने लगा था. लोगों को ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे ने और डरा दिया था. सीमान्त क्षेत्र अपनी सामरिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हो रहे थे. यह वही दौर था जब देश ही नहीं, अन्य हिमालयी क्षेत्रों में भी हिमालय की हिफाजत के सवाल उठने लगे थे. ये अलग बात है कि उनके संदर्भ अलग-अलग थे. नया नारा भी गढ़ दिया गया था ‘हिमालय बचाओ.’ कई प्रतिष्ठित लोग, जिसमें जेपी, राममनोहर लोहिया और दलाई लामा भी शामिल थे, हिमालय को लेकर चिंतित थे. ऐसे में ऋषि ने नया नारा दिया – ‘हिमालय बसाओ’ हिमालय बसाओ, का नारा एक दूरगामी समझ की मौलिक अभिव्यक्ति थी, जिसे ऋषि ने समझा.
उन्होंने इसके लिये 24 फरवरी 1963 को दिल्ली की लोदी कालोनी में एक सम्मेलन का आयोजन किया. अध्यक्षता हेतु स्वतंत्रता सेनानी और ‘कर्मभूमि’ के सम्पादक भैरवदत्त धूलिया को आमंत्रित किया गया और समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया इसके मुख्य अतिथि बने. सांसद प्रकाशवीर शास्त्री और बलराज मधोक भी इसमें शामिल हुए. ऋषि के नारे- ‘हिमालय बसाओ’ पर सभी वक्ताओं ने कहा कि देश की अखंडता और सुरक्षा के लिये हिमालय के गांवों का पलायन रुकना जरूरी है. हिमालय के लोगों को वहीं जीविकोपार्जन के साधन जुटाने चाहिये. आज जब हिमालय के गांव खाली होने के कगार पर हैं, तब ऋषि का यह उद्घोष ज़्यादा प्रासंगिक लगता है. इस सम्मेलन की गूंज बहुत दूर तक गई और समाचार पत्रों ने भी इसे प्रमुखता दी.
‘हिमालय टाइम्स’ के सम्पादक द्वारिका प्रसाद उनियाल ने टिप्पणी की- ‘हिमालय बसाओ अर्थात उल्टी गंगा बहाओ।’ हिमालय बसाओ आंदोलन से प्रेरित कई और सम्मेलन भी हुए. कमलानगर दिल्ली के तिकोना पार्क, बारहटूटी सदर बाजार और रामलीला मैदान दिल्ली के अलावा पौड़ी, कांसखेत, पाबौ और चौबटिया में सम्मेलनों का आयोजन किया गया. सम्मेलन के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा की समीक्षा गौर करने लायक है- ‘सम्मेलन का उद्देश्य स्पष्ट था कि पहाड़ों को उजड़ने से बचाया जाये. वहां पर लोगों को बसाया जाये.. ‘हिमालय बसाओ’ आंदोलन का उद्देश्य यह था कि सरकार का ध्यान हिमालय की ओर दिलाया जाये. लोगों का प्रवास रोका जाये. सम्मेलन का यह भी उद्देश्य था कि प्रवासी लोग अपने-अपने गांवों में जाकर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें. सम्मेलन में इस बात पर खेद व्यक्त किया गया कि जो शिक्षित होने लगता है, वह पहाड़ में नहीं जाना चाहता. पहाड़ के उजड़ते जाने के कारणों को ढूंढ निकालना था और लोगों को जानकारी देना था कि वे कुछ सोचें, करें और अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करें. उन्नति कैसे करें, इस पर लोगों का विचार था कि पहाड़ों के प्रशासनिक ढांचे को बदला जाये. बिना इस परिवर्तन के पहाड़ों की उन्नति नहीं हो सकती. इसलिए भले ही उक्त सम्मेलन में एक पृथक राज्य की मांग न की गई हो लेकिन यह स्पष्ट था कि लोगों को उस दिशा में जाना चाहिये. सम्मेलन में इस बात पर बल दिया गया कि पर्वतों का विकास यहां की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिये. वहां के लोग उसमें अधिक भाग ले सकें और वहां के लोगों से ही वहां की विकास योजनाएं बनाई जाएं.’
सम्मेलन के बारे में दी गई यह राय इसलिये मायने रखती है कि इसी ने बाद में ऋषि और अन्य लोगों को पृथक राज्य की मांग के लिये प्रेरित किया. इस सम्मेलन और विशेषकर हिमालय बसाओ की अवधारणा से राममनोहर लोहिया काफी प्रभावित हुये. उन्होंने ऋषि से समाजवादी पार्टी में शामिल होने का आग्रह भी किया. यह अलग बात है कि बाद में ऋषि ‘स्वतंत्र पार्टी’ में शामिल हो गये. हालाँकि वे यहां भी ज्यादा दिन नहीं टिके.
ऋषि जनता के किसी भी सवाल के साथ प्रतिबद्धता के साथ खड़े होने वाले लोगों में थे. उस दौर में उत्तराखण्ड राज्य की मांग नये सिरे से उठाने के लिये लोग एकजुट हो रहे थे. वैसे राज्य की मांग कामरेड पीसी जोशी आजादी के तुरंत बाद ही उठा चुके थे. लेकिन राज्य के लिये संगठनात्मक रूप से सोचना काफी बाद में शुरू हुआ. कई संगठन भी बनने लगे थे. रामनगर में पृथक राज्य के लिये 24-25 जून 1967 में एक सम्मेलन आयोजित हुआ. इसके बाद एक मंच बनाया गया जिसका नाम था ‘उत्तराखण्ड राज्य परिषद्.’ इस मंच में कई विचारधाराओं के लोग एक साथ खड़े हुए. इनमें वामपंथी भी थे, समाजवादी भी और जनसंघ से जुड़े लोग भी. गोबिन्द सिंह को अध्यक्ष, दयाकृष्ण पांडे उपाध्यक्ष और नारायणदत्त सुन्दरियाल को इसका महासचिव नियुक्त किया गया. ऋषिबल्लभ को संगठन एवं प्रचार का काम सौंपा गया. हालांकि इतने ध्रुवों के बीच यह संगठन चल नहीं पाया, लेकिन ऋषि चुप नहीं बैठे. उन्होंने उत्तराखण्ड राज्य के लिये अपना अभियान जारी रखा. उत्तराखण्ड राज्य के लिये सही मायने में दिल्ली में पहली दस्तक ऋषि ने ही दी।
10 दिसंबर 1967 को उन्होंने प्रवासी संगठनों को इकट्ठा कर बोट क्लब पर विशाल प्रदर्शन कर राज्य की मांग को पहली बार सड़कों पर ला दिया. इस प्रदर्शन में सैकड़ों लोग गिरफ्तार किये गये. इसके बाद भी ऋषि ने राज्य आंदोलन को जारी रखने के लिये लगातार लोगों से सम्पर्क बनाये रखा. उनके नेतृत्व में 1972 में फिर एक बार दिल्ली की सड़कों पर प्रवासी उतर पड़े. बोट क्लब पर फिर से एक विशाल रैली का आयोजन हुआ. इसमें पूरन सिंह डंगवाल, शशिभूषण खंडूड़ी, भावानन्द बडूनी, अवतार नेगी, सुरेश नौटियाल जैसे युवा भी शामिल हुए. इस रैली के बाद संसद कूच करते 21 लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. उत्तराखंड राज्य आंदोलन में ऋषिबल्लभ सुंदरियाल की अग्रणी भूमिका रही. ये अलग बात है कि जो लोग कभी राज्य का विरोध करते थे, वे आज सत्ता में हैं और उन्होंने कभी भी ऋषिबल्लभ जैसे लोगों को याद करने की जहमत नहीं उठाई.
ऋषि भले ही राजनीति की मुख्यधारा से अपने मूल्यों के रहते दूर रहे हों, लेकिन उनका आंदोलनों से जुड़ाव हमेशा बना रहा. सत्तर के दशक में गढ़वाल में विश्वविद्यालय बनाने के लिये चले आंदोलन ने युवाओं में नई चेतना का काम किया. एक तरह से यह आंदोलन बाद तक वहां के आंदोलनों की प्रेरणा बना. 1971 में स्वामी मन्मथन की अगुआई में विश्वविद्यालय आंदोलन की शुरूआत हुयी थी. यह आंदोलन पूरे गढ़वाल में फैला और गढ़वाल की अस्मिता के साथ जुड़ गया था. यही वजह थी कि भारी संख्या में छात्र, युवा, महिलायें सड़कों पर आए. नारे और गीतों से गढ़वाल गूंज उठा था. प्रताप सिंह पुष्पाण, मथुरादत्त बमराड़ा, देवेश्वर प्रसाद, कृष्णानन्द मैठानी, कैलाश जुगरान, गजेन्द्र नैथाणी, देवेन्द्र शास्त्री, कुंजबिहारी नेगी जैसे कई लोग इनमें शामिल रहे. इस आंदोलन की संचालन समिति में ऋषि प्रचार मंत्री थे. आज भी जब गढ़वाल में इस आंदोलन की चर्चा होती है तो लोग उनके भाषणों की बात करते हैं. उन्होंने अपने संगठनात्मक कौशल और ओजस्वी भाषणों से इस आंदोलन को ज़बरदस्त ऊर्जा दी. विश्वविद्यालय आंदोलन के समय ऋषि के पास अपने बच्चों को पालने का संकट पैदा हो गया था. उन्हें निकट से जानने वाले लोग बताते हैं कि वे आंदोलन में इतने व्यस्त हो गये कि बच्चे तीन-तीन दिन तक बिना खाये सोये. इससे उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है.
साल 1973 में जब विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई तो ऋषि विश्वविद्यालय वापस बिजनौर चले गए. बिजनौर एक तरह से उनकी कर्मभूमि रही. उन्होंने 1972- 73 में वहां किसानों का बड़ा आंदोलन खड़ा किया. यह आंदोलन किसानों को गेहूं के लिए मिलने वाले समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी के लिये था. इसके लिये वे किसान नेता और लोकदल के अध्यक्ष चौधरी चरणसिंह से मिले. दोनों ने मिलकर किसानों से सरकारी एजेंसियों में गेहूं न बेचने की अपील की. किसानों ने इस आंदोलन को भरपूर समर्थन दिया और सरकारी गोदामों में गेहूं जाना बंद हो गया. उस समय हेमवती नन्दन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकदल के साथ उनके इस मेल से सत्ता में बैचेनी स्वाभाविक थी.
1 जुलाई 1974 को वे बिजनौर जिले के कीरतपुर कस्बे में किसानों की एक सभा शामिल होने जा रहे थे. तभी उनकी जीप में कुछ खराबी आ गई और ड्राइवर उसे ठीक करने लगा. उसी समय स्थानीय पुलिस स्टेशन का थानेदार उन्हें कुछ बात करने के लिये थाने लाया. एक घंटे बाद जब ऋषि बाहर आये तो वे कराह रहे थे. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि उनका शरीर नीला पड़ गया था. इसके कुछ ही देर बाद ही डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. उस समय के तमाम अखबारों जैसे ‘नवभारत टाइम्स’, ‘कर्मभूमि’, ‘पांचजन्य’, ‘अलकनंदा’ आदि ने उनकी मौत की जांच की मांग उठाई. उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी सी.बी.आई. जांच की बात कही भी लेकिन उनकी मौत आज तक एक रहस्य ही बनी हुई है.
स्क्रिप्ट : वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी