उत्तराखंड में धर्म परिवर्तन का क्या है इतिहास?

उत्तराखंड में UCC यानी उत्तराखंड कॉमन सिविल कोड लागू होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है. UCC लागू होने से पहले ही इसके समर्थन और विरोध में कई तर्क मौजूद है. जो समर्थन कर रहे हैं, उनका मानना है कि इससे सभी धर्मों को मानने वाले एक कानून के तहत आ जाएंगे. जबकि जो विरोध कर रहे हैं, उनका मानना है कि राज्य में महज 15 फीसद गैर हिंदू है, ऐसे में तमाम जरूरी मुद्दों को छोड़कर महज वोटों के ध्रुवीकरण के लिये UCC का राग सरकार गा रही है. सरकार को लाना था भूकानून और सरकार ला गई कॉमन सिविल कोड. खैर, अब इस समर्थन और विरोध को कुछ देर के लिये हम थोड़ा दूर रख देते हैं और अपने मूल काम पर लौटते हैं, जो है इतिहास को बांचना. UCC जब तब लागू हो, उससे पहले ये जान लेते हैं कि आखिर उत्तराखंड में विभिन्न गैर हिंदू धर्मों की आमद आखिर कब हुई. आखिर कब यहां पर पहले पहले धर्म परिवर्तन हुये और अगर हुये भी तो उसके क्या सामाजिक परिणाम निकले.

तमाम धर्मों के उत्तराखंड में आने से पहले हम यहां के मूल धर्म पर चर्चा कर लेते है. ये दिलचस्प तथ्य है कि उत्तराखंड में किसी समय में हिंदू धर्म खुद कई अलग अलग सम्प्रदायों में बंटा हुआ था. जब हम हिंदू धर्म के अलग अलग सम्प्रदायों में बंटे होने की बात कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि आज जैसा हिंदू धर्म संगठित और सुव्यस्थित है, वैसा पहले नहीं था.

अगर आठवीं सदी में आदि गुरू शंकराचार्य उत्तराखंड न आते तो शायद तस्वीर कुछ और भी हो सकती थी. वो तस्वीर कैसी थी, पहले ये भी समझ लेते हैं. शंकराचार्य के बद्रीनाथ मंदिर स्थापित करने से पहले इस पूरे हिमालय भूभाग में शैव सम्प्रदाय अपने चरम पर था. शंकराचार्य के साथ जब वैष्णव धर्म इस हिमालयी भूभाग में आया तो उसका शैव सम्प्रदाय के साथ पहले हिंसात्मक संघर्ष हुआ और फिर सांस्कृतिक गठबंधन हुआ. यानी दोनों धर्म का धार्मिक और सांस्कृति के साथ ही सामाजिक गठबंधन भी हुआ. आप इस बात पर गर्व कर सकते हो कि जहां पूरी दुनिया में अब्राहमिक धर्म मानने वाले, जिसमें मुख्य तौर पर यहूदी, ईसाई और मुस्लिम एक ही पेगम्बर को मानने के बाद भी एक दूसरे से एतिहासिक दूरी बनाकर रखते हैं. वहीं भारतीय भूभाग में ऐसा नहीं हुआ.

यहां पर अब्राहमिक धर्मों के उलट, दुनिया के पहले पहल धार्मिक गठबंधन हुए. मसलन, शैव और वैष्णव सम्प्रदाय शुरूआती संघर्षों के बाद एक साथ आ गये. फिर उसमें नाथ सम्प्रदाय भी मिल गया. फिर कुछ समय बाद बौध धर्म की एक शाखा भी इसमें मिल गई. धीरे धीरे अपने अंदर सबको समायोजित करने की खूबी के चलते ये धर्म एक विशाल पेड़ बन गया. जिसके  नीचे पूरे भारतीय भूभाग के लोग रहने लगे. नौंवी शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य ने खुद शण्मत के तहत छह धर्मों की बात की थी. उन्होंने कहा था कि शिव की पूजा करने वाले शैव हैं, विष्णु की पूजा करने वाले वैष्णव, दक्षिण में मुरूगा की पूजा करने वाले कुमारम, सूर्य की पूजा करने वाले सौराम, गणेश की पूजा करने वाले गणपत्यम और शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि इन विभिन्न धर्मों के गठजोड़ से सभी खुश थे.

कुछ धार्मिक कर्मकांडों और रूढ़वादी व्यवस्था के चलते इससे कई नये धर्म भी निकले. मसलन, बौद्ध धर्म जाति व्यवस्था की मुखालफत करते हुये पहले ही स्थापित हो चुका था. इसी तरह जैन और बहुत बाद में सिख धर्म भी इसी मूल गठजोड़ से ही निकले. इसमें एक दिलचस्प बात ये भी है कि भारत के कुछ स्थानों पर अभी भी शिवजी के उपासक अपने को हिंदू धर्म का नहीं मानते. इसमें सबसे प्रमुख है तमिलनाडू का लिंगायत सम्प्रदाय. तमिलनाडू की पूर्व मुख्यमंत्री स्व जयललिता भी इसी लिंगायत सम्प्रदाय से आती थी. जिनके निधन के बाद उन्हें हिंदू कर्मकांडों के अनुसार नहीं, बल्कि लिंगायत रीतिरिवाजों से दफनाया गया. उत्तराखंड में भी शिवजी के उपासक नाथ सम्प्रदाय को मानने वालों को अभी भी दफनाया ही जाता है.

फिर भी 14 वीं सदी तक इस धर्म के लिये हिंदू शब्द प्रचलन में नहीं आया था. इतिहासकारों के अनुसार, फारसी और यूनानी लोग उत्तर पश्चिम से भारत आये.क्योंकि उनके रास्ते पर सिंधू नदी आई तो उन्होंने यहां के लोगों को सिंधु कहना शुरू किया. फारसी भाषा में स के स्थान पर ह उच्चारित किया जाता है. इसलिये वो यहां के लोगों को हिंदू कहने लगे. इसी तरह 17 वी सदी के भाषा शास़्त्री और कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट के तात्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोंस ने पहली बार हिंदू शब्द का अधिकारिक इस्तेमाल उन लोगों के लिये किया जो न तो ईसाई थे और न ही मुसलमान. अब आप मोटा माटी समझ गये होंगे उत्तराखंड के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू धर्म कितना जीवंत और कितना सबको अपने भीतर समायोजित करने वाला था.

अब अपने मूल मुद्दे पर आते हैं कि आखिर उत्तराखंड में बाहरी धर्मों ने कब पहले पहले धर्मातंरण किया और वो कौन लोग थे, जिन्होंने सबसे पहले दूसरे धर्मों को अपनाया. ये तो हम पहले ही बता चुके हैं कि उत्तराखंड में धर्म का सुगठित स्वरूप, जैसा आज दिखता है, उसकी अवधारणा आज से लगभग हजार साल पहले बननी शुरू हुई थी. उसकी शुरुआत कत्यूरी राजवंश के साथ ही हो गई थी. जब पौन धर्म को मानने वाले कत्यूरी शासक शंकराचार्य से प्रभावित होकर सनातन धर्म में आ गये. 17 सदी तक लगभग अस्सी फीसद उत्तराखंड हिंदू बहूसंख्यक था. जबकि बीस  फीसद बौद्ध धर्म को मानने वाले थे. कुछ हिस्सों में मुस्लिम यहां पर आ चुके थे. लेकिन वो महज अपनी जान बचाने के लिये यहां आये थे. मसलन, 15 वीं सदी में मुगल शासक औरंगजेब ने जब सत्ता संघर्ष में अपने भाई दाराशिकोह की हत्या की तो उसका बेटा सुलेमान सिकोह अपनी जान बचाने के लिये पूरे लाव लश्कर के साथ गढ़वाल रियासत के राजा पृथ्वीपति शाह के पास राजनीतिक शरण लेने आया था. उसे और उसके साथ ही आये लाव लश्कर को टिहरी जिले में जाखणीद्वार ब्लॉक में  बसने की इजाजत दी गई. इसी तरह कुमाउं में पहले पहल मुसलमान चंद शासक बाजबहादुर चंद के शासन में आये.

इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे के अनुसार, ये 12 मुस्लिम परिवार चौकीदारी और पालतू जानवरों को टहलाने के लिये लाये गये थे. हालांकि रोहिले मुसलमानो ने यहां पर लगातार हमले भी किये और कई बार जीते थे. लेकिन उस वक्त ये वहां बसे नहीं थे. उस समय वो तराई बावर में ही रहते थे. 1821 में कुमाउं में जब पहली जनगणना हुई तो आबादी एक लाख 64 हजार आंकी गई. इस जनगणना में तराई बावर वाला क्षेत्र शामिल नहीं था. दूसरी जनगणना 1872 में हुई तो तब यहां की आबादी बढ़कर चार लाख से ज्यादा हो चुकी थी. इसमें अल्मोड़ा में 75 घर मुसलमानों के थे, जिनमें से 57 घर व्यापार का पेशा करने वालों के थे और 18 उनके नौकर चाकरों के थे. कुमाऊं कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल के अनुसार, इन सभी 75 परिवारों के 464 मुस्लिम लोग अल्मोड़ा के साथ ही रानीखेत, मनीहारगांव, काठगोदाम, ढिकुली आदि में रहते थे. जिनका मुख्य पेशा व्यापार ही था. उधर, गढ़वाल में 1821 में जब कमिश्नर ट्रेल ने गढ़वाल रियासत के लिये जनगणना करवाई तो आबादी लगभग एक लाख 25 हजार आंकी गई. हालांकि 1901 में ये आबादी 4 लाख 29 हजार 900 तक बढ़ गई थी.

गढ़वाल हिमालय का गजेटियर लिखने वाले एचजी वाल्टन के अनुसार, उस वक्त गढ़वाल में हिंदुओं की आबादी 98 फीसद थी। जबकि 4 हजार 411 मुसलमान, 664 ईसाई और कुछ बिखरी आबादी सिख और जैन की थी.

कुल मिलाकर मुस्लिम परिवार गढ़वाल और कुमाऊं में आ तो चुके थे, लेकिन उनका मकसद कोई धर्म परिवर्तन करना नहीं था और न ही उनका ऐसा करने का कोई इतिहास है. धर्म परिवर्तन उत्तराखंड में सबसे पहले ईसाई मिशिनरियों के द्वारा किया गया और इसकी शुरूआत तब हुई जब अल्मोड़ा में पादरी बडन के नेतृत्व में 1850 में ईसाई मिशन की शुरूआत की गई. इस मिशन के शुरू होने के महज नौ साल बाद नैनीताल में एशिया का पहला मेथोडिस्ट गिरजाघर बनकर तैयार हो गया. इस चर्च के शुरू होते ही पौड़ी गढ़वाल में भी मिशन कार्यालय खुलने लगे. पौड़ी में ही उत्तराखंड का सबसे पहला धर्म परिवर्तन हुआ और पहला हिंदू व्यक्ति जो ईसाई बना, उसका नाम था ख्याली. जबकि कुमाउं में पहला धर्मपरिवर्तन जोहार घाटी में शौक़ा जनजाति से ताल्लुख रखने वाले शिक्षक उत्तम सिंह रावत का रहा. ये वो ही उत्तम सिंह रावत हैं, जो तिब्बत का सटीक नक्शा बनाने वाले पंडित नैन सिंह के परिवार से आते थे. हालांकि ये धर्म परिवर्तन न तो उस समय के उत्तराखंड के समाज के लिये स्वीकार्य था और न खुद अंग्रेज अधिकारियों के लिये.

वो कैसे? इसके बारे में पूर्व मुख्य स्व आरएस टोलिया अपने एक लेख में लिखते हैं कि 17 वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने खुद ईसाई धर्म प्रचारकों का जबरदस्त विरोध किया था. ऐसा इसलिये हुआ था, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी एक विशुद्ध व्यावसायिक कंपनी थी. उसके डायरेक्टर्स और शेयर धारक ईसाई धर्म प्रचारकों के विरोधी थी. इंग्लैड के प्रमुख धर्म प्रचारक विल्बर फोर्स ने सांसद को प्रस्ताव दिया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी को अपनी भारतीय प्रजा को कथित तौर पर सभ्य बनाने के लिये ईसाई स्कूल मास्टर और धर्म प्रचारकों को भारत भेजना चाहिये. लेकिन इस प्रस्ताव का कंपनी के अधिकारियों ने जबरदस्त विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि अगर धर्म परिवर्तन के दौरान वहां के स्थानीय लोगों की धार्मिक भावनायें आहत हुई तो शासन करना मुश्किल हो जायेगा. लिहाजा, ये प्रस्ताव लगभग एक सदी तक ठंडे बस्ते में रहा. लेकिन 1813 में जब कंपनी के व्यावसायिक चार्टर का फिर से नवीनीकरण हुआ तो इस बात पर ब्रिटिश सांसद सहमत हो गई कि जो ईसाई अधिकारी भारत में काम कर रहे है, कम से कम उनके लिये तो ईसाई गिरजाघर स्थापित किये ही जाने चाहिये. हालांकि इसी की आड़ में धर्म प्रचारक भी पूरे भारत समेत उत्तराखंड में भी पहुंच गये.

उत्तराखंड में ईसाई धर्म के पहले प्रचारक मैथोडिस्ट मिशन से अमेरिकन पादरी रेवेंड बटलर थे, जो इंग्लैंड से 7 जनवरी 1857 को बरेली पहुंचे. बरेली के जज राबर्टसन के स्वागत से प्रभावित होकर बटलर ने मैथोडिस्ट मुख्यालय की स्थापनपा बरेली में करने का निर्णय ले लिया. लेकिन बरेली में पहुंचने के 14 महीने बाद वो स्थानीय सेना कमांडर कर्नल टूप की सलाह पर परिवार सहित नैनीताल भ्रमण पर चले गये. वो अभी बरेली से निकले ही थे कि 31 मई 1857 में खान बहादुर ने बरेली पर हमला कर दिया और जज राबर्टसन समेत सभी अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद बटलर ने निर्णय लिया कि वो नैनीताल में ही पहला चर्च स्थापित करेगा. उसने अपने पीछे अमेरिका के बोस्टन शहर से हम्फ्री और रेवेरेड राल्फ पादरी और उनके परिवार समेत नैनीताल बुला लिया और सबसे पहले नैनीताल में छह एकड़ जमीन बच्चों के लिये स्कूल की स्थापना के लिये खरीद ली. हम्फ्री ने सितंबर 1858 में हिंदुस्तानी भाषा में पहली बार इसी स्कूल में पहली प्रार्थना पढ़ी और कुमाउं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने पहले हिंदुस्तानी गिरजाघर के लिये बनने वाले भवन की नींव रखी.

जैसा की पहले ही बताया गया है कि ये ही मेथोडिस्ट मिशन का गिरजाघर भारत ही नहीं बल्कि एशिया का पहला गिरजाघर बना. ईस्ट इंडिया कंपनी जहां भारत में उपनिवश की स्थापना में व्यस्त थे, वहीं ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट मत की अनेक नई सोसाइटियों की स्थापना पूरे यरोप और अमेरिका में हो रही थी. इन्हीं सोसाइटियों की भारत में भी धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये बाढ़ सी आ गई थी. लेकिन जहां भारत के अन्य हिस्सों में प्रोटेस्टेंट धर्म प्रचारक आये, वहीं उत्तराखंड में मेथोडिस्ट प्रचारक पहुंचे.

कुमाऊं में जहां कई ईसाई धर्म प्रचारक यूरोप और अमेरिका से पहुंच गये थे, वहीं गढ़वाल रियासत में, जिसमें मुख्य तौर पर उत्तरकाशी, टिहरी और रूद्रप्रयाग जिले के कुछ हिस्से आते थे, ये सभी धार्मिक प्रचारकों से अछूता रहा. हालांकि ऐसा नहीं है कि ईसाई धर्म प्रचारकों को कुमाउं में कोई बहुत बड़ी सफलता मिल गई थी. क्योंकि जितने लोगों ने धर्मातरंण किया भी, वो ईसाई धर्म प्रचारकों और उनके पूरे ताकतवर सिस्टम के अनुपात में बहुत कम थे. इसको आप ऐसे समझिये कि उत्तराखंड में ईसाइयों के आने से लगभग बीस साल बाद यानी 1870 में पूरे नार्थ ईस्ट में ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपना काम शुरू किया और महज तीस सालों में उन्होंने पूरे उत्तर पूर्व में बौद्ध और हिंदू धर्म को अल्पसंख्यक बना दिया. लेकिन उत्तराखंड में उनके मंसूबे कामयाब नहीं हो पाये. क्यों नहीं हो पाये, उसके लिये हमें उस समय के ईसाई धर्म प्रचारकों की रिपोर्ट खंखालनी होगी, जो उन्होंने निराशा में अपने यूरोप और अमेरिका में मौजूद मुख्यालयों में भेजी थी. साथ ही इस बात की भी पड़ताल कर लेते हैं कि आखिर ईसाई धर्म प्रचारकों ने धर्मांतरण के लिये क्या क्या कवायदें की थी.

ईसाई मिशनरियों का मूल उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार था और इसके लिए उन्होंने परोपकारी कार्यों को साधन बनाया था. दूरस्थ और दुर्गम स्थानों पर कुष्ठ आश्रम, अनाथालयों, शिक्षण संस्थाओं और अस्पतालों की स्थापना की गयी. हेनरी रैम्जे ने अल्मोड़ा में कुष्ठ आश्रम स्थापित किया था, जो 1851 में लंदन मिश्नरी सोसाइटी को हस्तांतरित कर दिया गया. 1864 में पहला धर्मपरिवर्तन कुष्ठ रोगी मुसना का हुआ, उसके बाद 1865 में 17 कुष्ठ रोगियों ने ईसाई धर्म की दीक्षा ली. इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे के अनुसार, 1931 तक लगभग 700 कुष्ठ रोगियों का धर्म परिवर्तन कर दिया गया.  कुमाऊं मिशन के मिशनरियों की रूचि कुष्ठ आश्रमों के विकास में थी. अमेरिकी मैथोडिस्ट मिशन ने अनाथालयों की स्थापना करने में अधिक रूचि ली. दरअसल कुमाऊँ में अमेरिकी मैथोडिस्ट मिशन की स्थापना 1857 की क्रान्ति के दौरान ही हुयी थी और 1858 में मृतक सिपाही के तीन बच्चों के साथ अमेरिकन मिशन ने नैनीताल में अनाथालय की स्थापना की.

मिशनरी गतिविधियों में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना भी प्रमुख कार्य था. 1854 में मिशनरियों को अंग्रेज सरकार द्वारा वेस्टर्न एजुकेशन के प्रसार के लिये बड़ा अनुदान दिया गया. जिसका लाभ उठाते हुए कुमाऊँ में मिशनरियों ने अनेक विद्यालयों की स्थापना की. 1851 में अल्मोड़ा में स्थापित मिशन स्कूल, जिसे 1886 में रैम्जे कॉलेज नाम दिया गया, अल्मोड़ा में मिशनरी कार्यों और पश्चिमी शिक्षा का प्रमुख केंद्र बना. 1851 में स्थापना के वर्ष में ही इसकी छात्र संख्या 87 थी. 1858 में नैनीताल में मिशन स्कूल की स्थापना हुयी। पौड़ी में 1866 में पादरी थोबर्न ने मैसमोर कॉलेज की स्थापना की। शीघ्र ही द्वाराहाट, चंपावत, पिथौरागढ़ और जोहार आदि दूरस्थ स्थानों पर मिशनरी स्कूलों की स्थापना हो गयी. शुरूआत में मिशन स्कूलों में शिल्पकारों ने ही प्रवेश लिया था. मिशन के छात्रावास स्कूलों में इनके बच्चों को रहने और पढ़ने की सुविधा मिली. चर्च के बराबरी के अनुभव ने भी शिल्पकारों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया. कुमाऊं में स्त्री शिक्षा की भी शुरूआत मिशनरियों द्वारा ही की गई.

मिशनरियों ने स्वास्थ्य सेवाओं के प्रसार के लिये अस्पतालों की स्थापना भी की. 1870 में अमेरिकन मेथोडिस्ट चर्च ने पूरी तरह प्रशिक्षित महिला डॉक्टर क्लारा स्वैन को बरेली में स्वास्थ्य सेवा शुरू करने के लिए भेजा. 1884 में मेरी रीड भारत आयीं और उन्होंने पिथौरागढ़ मे स्वास्थ्य कार्यों का प्रारम्भ किया. 1890 में मिस एनी बडन ने डॉक्टर हरकुआ विल्सन और विशप थाबर्न की सहायता से धारचुला और चौंदास में भी अस्पतालों की स्थापना की गई. इन अस्पतालों से धर्मांतरण परियोजना को बड़ा फायदा हुआ. नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, पौड़ी, द्वाराहाट, रानीखेत आदि ईसाई समुदाय के प्रमुख स्थान बन गये. ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से अनेक क्षेत्रों में व्यक्तियों और परिवारों ने ईसाई धर्म में दीक्षा ली. इधर, पौड़ी में 1867 में शिल्पकार वर्ग का ख्याली नाम का युवक ईसाई बना.

इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल के अनुसार, 1872 में गढ़वाल में 297 ईसाई थे. 1910 तक गढ़वाल में ईसाईयों की कुल संख्या 800 हो गयी.

लेकिन लोगों का धर्मातरण की तरफ तब ध्यान गया जब अल्मोड़ा में कथित तौर पर उच्च जाति के परिवारों ने ईसाई धर्म अपनाना शुरू कर दिया. पूरा समाज तब भौंचक्का रह गया जब  जोशी, पंत, पांडे और सनवाल परिवार के लोगों ने भी ईसाई धर्म अपनाया. उधर, शौक़ा जाति के उत्तम सिंह रावत ने सबसे पहले ईसाई धर्म अपनाया और बाद में पादरी बनकर एक स्कूल भी चलाया. पादरी उत्तम सिंह रावत के साथ ही उनके पु़त्र प्रिंसिपल हेनरी जॉन रावत और डॉक्टर आर्थर रावत के धर्म परिवर्तन से अस्थानीय शौका समाज नाखुश था. लेकिन पिता और पुत्रों ने जो जनहित और शिक्षा के क्षेत्र में काम किये, उससे शौका समाज का भला ही हुआ और धीरे धीरे उनकी स्वीकार्यता शौका समाज में पहले की तरह हो गई.

लेकिन अल्मोड़ा में ठुल जाति से ताल्लुक रखने वाले तारादत्त पंत के धर्म परिवर्तन ने सबको सकते में डाल दिया. तारादत्त के पिता पंडित हरि राम नेपाल के राजा के प्रमुख वैद्य थे, लिहाजा, तारादत्त को भी आयुर्वेद का ज्ञान विरासत में मिला था. उनकी शादी अल्मोड़ा के उस जोशी परिवार की बेटी से हुई थी, जो कुमाउं के दीवान हुआ करते थे. तारादत्त के धर्मांतरण की भी एक दिलचस्प कहानी है. ईसाई धर्म अपनाने से पहले उन्हें हिंदू धार्मिक ग्रंथों का प्रकांड विद्वान माना जाता था. वे कई धार्मिक वाद-विवादों और शास्त्रार्थों में अपना लोहा मनवा चुके थे. उस दौर में बनारस धार्मिक वाद-विवादों का एक अहम केंद्र हुआ करता था और तारादत्त भी अक्सर इसमें हिस्सा लेने बनारस जाया करते. ऐसी ही एक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात नीलकंठ शास्त्री नाम के व्यक्ति से हुई. नीलकंठ स्वयं हिंदू धर्म ग्रंथों के विद्वान माने जाते थे लेकिन उन्होंने ‘चर्च मिशनरी सोसाइटी’ के साथ जुड़कर ईसाई धर्म अपना लिया था. नीलकंठ से मिलकर तारादत्त इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने भी ईसाई धर्म अपना लिया.

तारादत्त ने तो ईसाई धर्म स्वीकार लिया लेकिन इसके बाद उनके परिवार और उनको समाज ने कभी नहीं स्वीकारा. उन्हें समाज से बेदखल कर दिया और उनके परिवार ने उनका ‘घटा-श्राध’ करके उन्हें मरा हुआ घोषित कर दिया. इसके बाद वो अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर नैनीताल से अल्मोड़ा चले आए जो उस दौर में कुमाऊँ का सबसे बड़ा शहर हुआ करता था. इन्हीं तारादत्त पंत की पौती आइरीन डैन्यल पंत थी, जिन्होंने मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य लियाकत अली खान के साथ विवाद किया. लियाकत अली खान भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने और उधर, आइरीन पंत ने ईस्लाम धर्म अपना लिया, जिसके बाद उनका नाम हुआ गुले राणा. बाद में पाकिस्तान की फर्स्ट लेडी आइरीन पंत या गुले राणा को पाकिस्तान के सबसे बड़े सम्मान मादरे पाकिस्तान से भी नवाजा गया था. आइरीन पंत के जीवन पर अगर आपको विस्तार से जानना है तो बारामासा की सीरीज विरासत में ये कार्यक्रम देख सकते हैं.आपकी सुविधा के लिये लिंक नीचे डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.

कुमाउं में धर्म परिवर्तन का दूसरा बड़ा नाम है, विक्टर मोहन जोशी. विक्टर जोशी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. उनके पिता जयदत्त जोशी ईसाई बने थे. ईसाई बन चुके जयदत्त ने अपने बेटे का नाम बचपन में विक्टर जोसेफ रखा था. लेकिन उनकी मां का हिंदू धर्म के प्रति ज्यादा झुकाव था इसलिए उनकी मां ने इनका नाम मोहन रख दिया. इसलिए इनका नाम विक्टर मोहन जोशी पड़ गया. इस तरह के और भी कई उदाहरण हैं.

पौड़ी गढ़वाल में धर्म परिवर्तन करने वालों में दलित परिवार ज्यादा थे. पौड़ी के पास के एक गांव में जब कुछ दलितों ने धर्म परिवर्तन किया तो काफी विवाद भी हुआ था. इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल अपनी पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास भाग- 4, में लिखते हैं कि गढ़ राज्य में ईसाइयों का सर्वथा अभाव था. ईसाई मिशनरी अपने समस्त प्रयासों के बावजूद स्थानीय लोगों का ज्यादा धर्म परिवर्तन नहीं करा पाई. तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो हिमालय के इस क्षेत्र की अपेक्षा उत्तर पूर्वी हिमालय में मिशनरियों ने जनजातीय समाज नागा, खाशी, गारों और मिजो जनजातियों में ईसाईयत के प्रसार में अधिक सफलता प्राप्त की, जबकि वहां वे 1876 के बाद पहुंचे थे. उत्तराखंड के विभिन्न जातीय और जनजातीय समाज को ईसाई मिशनरी प्रभावित न कर सके. इसके पीछे का कारण उत्तराखंड के ही सामाज, संस्कृति, रीति रिवाजों में ही छुपे हुये है.

असल में,  चर्चित किताब लैंड एंड पीपल में, भारत सरकार के विशेष सचिव व पूर्व आईएफएस अधिकारी डा शरद सिंह नेगी लिखते हैं कि उत्तराखंड चार धाम, पंच केदार, पंच बदरी, पंच प्रयाग, नन्दा देवी और उसकी राजजात, सलाना होने वाली विभिन्न देवी देवताओं की जात, राज जात, विभिन्न मंदिरों में लगने वाले मेले, देव यात्राओं आदि के कारण हिन्दू धर्म का तीर्थ स्थल था. कुमाऊं में तीर्थ यात्रियों, विशेष रूप से हिन्दू धर्म के प्रमुख विचारकों और दार्शनिकों का, निरन्तर आगमन स्थानीय जन को हिन्दू संस्कृति से गहनता से जोड़ा हुआ था, जिसे ईसाई बनाना सम्भव नहीं था. इसी तरह गढ़वाल में चारधाम यात्रा के रूट पर तो किसी को धर्म परिवर्तन संभव ही नहीं था. मेथोडिस्ट मिशनरी और शिक्षक इसाबेला थोबर्न ने स्वयं लिखा था कि श्रद्धालु हिन्दू अपने धर्म के प्रति इतने आस्थावान होते हैं कि उनको धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करना असम्भव सा है. यहां की अनेक जातियों-जनजातीयों के मध्य विविधता होते हुए भी उन्होंने एक दूसरे के कुछ तत्वों को अपना लिया था और हिन्दू दर्शन के किसी न किसी पक्ष से उनका सम्बन्ध था. थोबर्न ने एक बार फिर एक दूसरे पत्र में इसी मुददे पर चर्चा करते हुये लिखा कि यहां के स्थानीय लोगों के पास जीवंत संस्कृति है, उनके ही बीच रहने वाले देवी देवता है, अलग अलग दुख और सुख के लिये विभिन्न ग्रामीण देवता है. ऐसे में ये संभव नहीं है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद ये अपना धर्म छोड़ें और ईसाई धर्म में आ जाये.

कुल मिलाकर 19 सदी तक अपनी ही सरकार होने के बावजूद ईसाई मिशनरियों ने बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन करने के अभियान को छोड़ दिया. हालांकि ये भी दिलचस्प तथ्य है कि उत्तराखंड में जब गोरखा शासन को हराने के बाद औपनिवेशिक साम्राज्य आया तो स्थानीय लोगों ने उसका स्वागत ही किया. लेकिन, 19वीं सदी के अन्त तक स्थानीय जनता औपनिवेशिक शासन के वास्तविक स्वरूप से परिचित हो गयी और जनता ने अंग्रेजी शासन को अपने जीवन और संसाधनों पर हमला माना. धर्म प्रचारकों, प्रशासकों तथा यूरोपीय पर्यटकों द्वारा जिस प्रकार स्थानीय समाज पर कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथा थोपी गयी थी, उसने स्थानीय समाज को उनके और उनके धर्म के प्रति आकृष्ट करने के स्थान पर प्रतिरोधात्मक रवैया अपनाने को मजबूर किया. सरकार की वन नीति ने भी जनता को ईसाई समाज के प्रति आक्रोशित किया. यूरोपियन समुदाय के लिए बसाए गए पर्यटक स्थलों में स्थानीय जनता के साथ जिस प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था, उसके बाद ईसाई मिशनरियों के परोपकार के कार्यों के प्रति भी स्थानीय जन के मन में कोई खास अच्छी भावनायें नहीं रही.

19 वीं सदी आते आते ईसाई धर्म गढ़वाल और कुमाउं में अपनी धर्मांतरण परियोजना में असफल हो गया। हालांकि अभी भी गढ़वाल और कुमाउं के विभिन्न जिलों में ईसाई मिशनरियों के शिक्षण संस्थान संचालित हो रहे हैं, लेकिन ऐसी कोई घटना अब देखने को नहीं मिलती कि कहीं कोई धर्म परिवर्तन का प्रयास किया गया हो. कहीं कहीं कुछ प्रयास पिछले सालों में हुये भी थे, लेकिन वो इन शिक्षण संस्थानों के द्वारा नहीं, बल्कि बाहर से आये कुछ गुपचुप मिशन द्वारा किये गये. जिन्हें बाद में पुलिस की सख्ती के कारण यहां से भागना पड़ा.
लेकिन इस दौरान मुस्लिम, सिख और अन्य गैर हिंदू धर्मों का उत्तराखंड में क्या स्थिति थी। यानी 19 वीं सदी के शुरूआत में यहां पर विभिन्न धर्मों का अनुपात क्या था और वो क्या कर रहे थे. इसके लिये 19 वीं सदी के इतिहासकारों के लिखे दस्तावेजों का रूख करना होगा. हरिकृष्ण रतूड़ी 1910 व 11 में हुये ब्रिटिश गढ़वाल यानी पौड़ी गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल रियासत में हुये जनगणना का हवाला देते हैं. वो लिखते हैं कि ब्रिटिश गढ़वाल में चार लाख 75 हजार 533 हिंदू रहते थे. जबकि 3 हजार 614 मुसलमान, 845 ईसाई, 119 आर्य सामाजी, 37 जैन धर्म को मानने वाले जबकि 13 बौद्ध थे. वहीं टिहरी गढ़वाल में दो लाख 98 हजार 983 हिंदू थे. महज तीन आर्य समाजी थे, 49 जैन, 24 सिखों के साथ ही 24 बौद्ध थे. 1730 मुसलमान और छह ईसाई थे. अगर मसूरी और देहरादून को मिला लिया जाता तो ईसाइयों की जनसंख्या ज्यादा होती. लेकिन ये दोनों शहर टिहरी रियासत के अधीन नहीं थे. इसका मतलब पूरे गढ़वाल में आज से लगभग 100 साल पहले मुसलमानों की जनसंख्या 5 हजार 344 थी.

हरिकृष्ण रतूड़ी मुसलमानों की इस जनसंख्या के बारे में तर्क देते हैं कि असल में, इनमें अधिकांश मुसलमान चुरेड़ या मनिहार है. इनकी भाषा गढ़वाली, लिपि देवनागरी और दूसरे रिवाज सब गढ़वाली हिंदू से है. जो इन्हें अलग करती है वो है शवों को दफनाने की प्रक्रिया.  इनका मुख्य पेशा चूड़ी या गहने बनाने का है. संभवता ये वो ही मुसलमान होंगे, जो 15 वीं सदी में औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच हुये सत्ता संघर्ष से बचने के लिये सुलेमान शिकोह के साथ गढ़वाल रियासत में पनाह मांगने आये थे.

हालांकि एक दिलचस्प तथ्य ये भी है, जो इन मुसलमानों को 15 वीं सदी से भी पहले से यहां मौजूद होने का प्रमाण देते हैं. वो है, आठ सौ साल पुराने किलों के खंडहरों में जब खुदाई हुई तो वैसी ही चूड़ियों के टुकड़े मिले थे. जैसे चूड़ी बनाने की विशेषज्ञता इन चुरेड़ यानी चूडी बनाने वाले मुसलमानों को थी. इतिहासकार रतूड़ी अपने गजेटियर में अन्य धर्मों के बारे में लिखते हैं कि इसी तरह श्रीनगर, मवालस्यूं, पीपली, अजमेर, जैगांव, लंगूर, गूम, गुराड़स्यूं, हलणी और बिंजोली में सिखों की छोटी छोटी बस्तियां है. ये व्यवहार में हिंदू ही हैं और जाति से ये नेगी है. ज्यादातर अब लंबे बाल नहीं रखते और अपने सिख होने की पहचान के तौर पर उन्होंने केवल एक आदत बनाये रखी है, वो है तम्बाकू सेवन से दूर रहने की. 55 जैन धर्मावलम्बी हैं. ये मुख्यतः कोटद्वार, लैंसडौन और श्रीनगर में व्यापारी है. कालांतर में 1947 और उसके बाद दंगों की चपेट में आये कई सिख परिवार पाकिस्तान से भारत में आये और देहरादून और उसके आसपास के इलाकों में बसे. इसी तरह कुमाउं की तराई में भी कई किसान परिवार बसे, जिनकी मेहतन से वो भूति हरित क्रांति की गवाह भी बनी.

इसी तरह कुमाउं की जनसंख्या के बारे में इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे लिखते है कि जैसा की पहले भी बताया गया कि कुमाउं में सबसे पहले मुसलमान राजा बाजबहादुर चंद के दौरान चैकीदारी और पालतू जानवर टहलाने के लिये बुलाये गये थे.

1872 में कुमाउं मे हुई जनगणना के दौरान वहां की कुल आबादी  चार लाख से ज्यादा हो चुकी थी. इसमें अल्मोड़ा में 75 घर मुसलमानों के थे, जिनमें से 57 घर व्यापार का पेशा करने वालों के थे और 18 उनके नौकर चाकरों के थे. कुमाउं कमिश्नर जॉर्ज विलियम टेल के अनुसार,  इन सभी 75 परिवारों के 464 मुस्लिम लोग अल्मोड़ा के साथ ही रानीखेत, मनीहारगांव, काठगोदाम, ढिकुली आदि में रहते थे. जिनका मुख्य पेशा व्यापार ही था. हालांकि तराई क्षेत्र में पहले से बड़ी संख्या में मुसलमान नावाबी ठाठबाट से रहते आये थे. इनमें मुख्य रूप से शेख, सय्यद, मुगल, पठान थे. पर्वतों में सबसे ज्यादा शेख थे. जो बिजनौर के शेरकोट से आये थे. तराई में तो कई मुसलमान जमीदार भी थे. देश की आजादी के बाद जहां उत्तराखंड में हिंदुओं की जनसंख्या बढ़ी, वहीं अन्य धर्मों के लोगों की भी जनसंख्या बढ़ने लगी. हालांकि गैर हिंदुओं की ज्यादातर जनसंख्या उन लोगों के कारण बनी, जो काम के सिलसिले में यहां आये और फिर यहीं बस गये. इसमें सबसे ज्यादा उत्तराखंड के तीन जिलों में गैर हिंदू बसे, जिसमें देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंहनगर और नैनीताल का मैदानी भाग है.

हालांकि ये गैर हिंदू या खासकर मुसलमान, जो भी यहां की तराई वाले इलाकों में बसे, वो आर्थिक रूप से कमजोर थे और अपने मूल घरों से जब वो उत्तराखंड के मैदानों या पर्वतीय जिलों में बसे तो वो छोटा मोटा  व्यापार कर रहे थे. बाद में उनमें से कई साहित्यकार और रंगकर्मी भी बने.

कुल मिलाकर उत्तराखंड में तमाम धर्मों के लोग भले ही बाहर से आये और यहीं बस गये. लेकिन उत्तराखंड न तो कभी नार्थ ईस्ट के राज्यों की तरह धर्म परिवर्तन की बड़ी प्रयोगशाला बनी और न ही यहां के लोगों ने अपने मूल संस्कृति, सामाजिक तानेबाने और जीवंतता छोड़ी.

स्क्रिप्ट: मनमीत

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