क्या कोई ऐसी दैवीय शक्ति हो सकती है जिसके अवतरण से इंसान सुलगते हुए अंगारों पर चलने लगे और फिर भी उसके पैर न जलें? अगर नहीं, तो फिर दुनिया के कई हिस्सों में लोग ऐसा कैसे कर लेते हैं? क्या इसके पीछे कोई विज्ञान या तकनीक है जिसे साध लेने से ऐसा कर पाना मुमकिन हो जाता है? हमारे उत्तराखंड से लेकर देश और दुनिया में कई ऐसे धार्मिक अनुष्ठान होते हैं जहां देव पूजा के दौरान कुछ लोग अंगारों पर ऐसे चलने लगते हैं मानो फूलों की सेज पर चल रहे हों. क्या है इस चमत्कार की कहानी? क्या है उस देवता की मान्यता जिसकी पूजा के दौरान उसके पश्वा आग पर चलने लगते हैं और जिसके नाम पर पहाड़ों के कई गांव, क़स्बों और पर्वतों के नाम भी रखे हैं. चलिए विस्तार से जानते हैं.
‘यक्ष प्रश्न.’ इस बारे में आप सभी ने कभी न कभी सुना होगा. महाभारत के ‘वन पर्व’ में इसका ज़िक्र आता है. मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान एक बार जब पांडवों को प्यास लगी और वे एक तालाब के पास पहुंचे, तो यक्ष ने उनके सामने शर्त रखी कि उसके सवालों का जवाब देने पर ही उन्हें पानी पीने की अनुमति मिलेगी. पांडवों को अपने सवालों से दुविधा में डाल देने वाले उन्हीं यक्ष का एक दिलचस्प सम्बंध उत्तराखंड से भी है. यहां कई जगह जाख देवता के थान यानी मंदिर हैं जिन्हें यक्ष का ही परिवर्तित रूप माना जाता है. वैसे पूरे हिमालय में ही यक्ष पूजा के निशान जगह-जगह मिलते हैं. पहाड़ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में राजपाल सिंह नेगी और कैलाश पांडे लिखते हैं कि यहां जाख, घंटाकर्ण, भूमियाल, घंडियाल, वीर पूजा, वनदेवी, बावन वीर और 24 योनियाँ आदि इसी श्रेणी में आते हैं. कई लेखकों ने यक्षों को प्राचीन भारत की एक प्रमुख जाति और विशिष्ट यक्षों को लोक-पूजित देवता माना है. कई किताबों में इसका जिक्र मिलता है कि यक्ष जाति हिमालय में अन्य किरात-वंशीय जातियों, नाग, वानर, गंधर्व आदि के साथ निवास करती थी. बारामासा की हाईलैंडर्स सिरीज़ में हम जल्द ही इन जातियों पर भी एक विस्तृत कार्यक्रम लेकर आएँगे. फ़िलहाल वापस लौटते हैं यक्षों पर. माना जाता है कि यक्ष पूजा किसी समय में भारतीय समाज में काफ़ी प्रचलित थी. कुमार स्वामी के अनुसार भारत की प्राचीन आर्येतर जातियाँ यक्ष को पूजा करती थी जिन्हें उर्वरता और बारिश का देवता माना जाता था. यक्ष को पाली भाषा में यक्ख और प्राकृत भाषा में जक्ख कहा गया है.
चर्चित इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल ने माना है कि जैसे कश शब्द हिमालय में खश में परिवर्तित हुआ उसी तरह यक्ष शब्द यहां यकस, जगस, जख या जाख के रूप में परिवर्तित हुआ होगा. उनके अनुसार जहाँ भी खश जाति पहुंची होगी वो अपने साथ जाख को भी ले गयी होगी. आज के गढ़वाल में यक्ष के रौद्र और भद्र, दोनों स्वरूप माने जाते हैं. मान्यता है कि जाख देवता की नियमित पूजा करने से, उन्हें नचाए जाने से और उनकी यात्राएं निकालने से वे प्रसन्न होते हैं और सभी की रक्षा करने के साथ ही सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं. लेकिन दूसरी तरफ उनके रुष्ट हो जाने पर भारी अनिष्ट होने की भी मान्यता है. इसलिए परम्परा है कि उनकी पूजा-आराधना हमेशा नियमित होती रहे.
यक्षों का उल्लेख पुराणों और अन्य प्राचीन साहित्य में भी मिलता है. संस्कृत साहित्य के अनुसार यक्षों की आदिम बस्ती उत्तर में अलकापुरी थी. विद्वानों के अनुसार यह अलकापुरी सम्भवतः उत्तराखंड में रही होगी और कालिदास ने मेघ को दूत बनाकर यहीं संदेश भिजवाया होगा. यक्षों का राजा कुबेर को कहा जाता है जो उत्तर दिशा का लोकपाल था और जिसकी राजधानी अलकापुरी थी. ये जगह अलकनंदा नदी के किनारे थी जिसकी धारों ने इसे तीन ओर से घेरा हुआ था. बल्कि ये भी माना जाता है कि अलकापुरी के निवासियों के लिए मनोरंजन और खेल का साधन होने के कारण ही इस नदी का नाम अलकनंदा पड़ा. वायु पुराण में भी कुबेर का सम्बंध कैलाश से बताया गया है. इसी तरह अथर्ववेद में यक्षों का निवास ब्रह्मपुर बताया गया. दिलचस्प है कि प्राचीन साहित्य में उत्तराखंड या इसके एक हिस्से को भी ब्रह्मपुर ही कहा गया है. बल्कि सातवीं सदी में यहां आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र को ब्रह्मपुर ही लिखा है. मान्यता है कि इसी ब्रह्मपुर में कभी विशाल शरीर वाले यक्ष रहते थे. वामन पुराण के एक अध्याय में भी ये जिक्र है कि भगवान शिव ने कुबेर के पुत्र पांचालिक यक्ष को जिस क्षेत्र में पूजित होने का वरदान दिया था, वह क्षेत्र सम्भवतः आज का उत्तराखंड ही है. इन्हीं यक्ष का एक स्वरूप जाख देवता को माना जाता है जिनके थान पहाड़ों में कई जगह मिलते. जाख देवता के मेले और यात्राएं भी जगह-जगह आयोजित होती हैं. उन्हें इतना शक्तिशाली माना जाता है कि कई बार उनके अवतरण पर लोग अंगारों पर भी चलने लगते हैं. इस पहलू पर अभी विस्तार से चर्चा करेंगे लेकिन उससे पहले जाख देवता से जुड़ी कुछ और मान्यताओं के बारे में जान लेते हैं.
जाख देवता को यक्ष का रूप मानने के अलावा यहां कुछ लोक मान्यताएँ इसे महाभारत के ही एक अन्य प्रसंग से भी जोड़ती हैं. विशेष तौर से गढ़वाल के चमोली क्षेत्र की एक लोकगाथा के अनुसार जाख असल में अर्जुन और चित्रांगदा का बेटा बभ्रुवाहन है. वही बभ्रुवाहन जिसने कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान ये घोषणा की थी कि पांडवों और कौरवों में से जो भी ये युद्ध हारने लगेगा, वो उसी की तरफ़ से युद्ध में शामिल हो जाएगा. उसकी वीरता और क्षमताओं की परीक्षा लेने के लिए श्री कृष्ण ने उसे जब उसे एक पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को एक साथ भेदने की चुनौती दी तो उसने ये आसानी से कर दिखाया. कृष्ण जानते थे कि युद्ध में पांडवों की जीत तय है. ऐसे में बभ्रुवाहन उनके ख़िलाफ़ ही लड़ाई में उतरेगा. तब उन्होंने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और बभ्रुवाहन से उसका सिर भेंट में देने को कहा. इसके बाद उन्होंने सुदर्शन चक्र से बभ्रुवाहन का सिर धड़ से अलग कर दिया ताकि वो पांडवों की जीत में बाधक न बन सके. बभ्रुवाहन ने अपना सिर तो दे दिया था लेकिन उसकी इच्छा थी कि वो महाभारत का पूरा युद्ध अपनी आंखों से देख सके. ऐसे में श्री कृष्ण ने उसे एक लकड़ी के स्तम्भ से टांग दिया और अपनी शक्तियों से उसे पूरा युद्ध दिखाया. इस युद्ध के बाद बभ्रुवाहन के सिर को भीम उत्तराखंड में स्थित सभी प्रयागों और हिमालय के अन्य क्षेत्रों में ले गए और उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें यहाँ पूजित होने का वरदान दिया. आज भी जाख के शरीर का सिर्फ़ ऊपरी भाग ही मूर्ति के रूप में पूजित होता है.
इन तमाम लोक कहानियों से ये तो स्थापित है कि जाख देवता गढ़वाल और कुमाऊँ में अति प्राचीन काल से ही पूजे जाते रहे हैं. बल्कि गढ़वाल के अनेक गांवों के नाम भी जाख देवता के नाम पर हैं. जैसे जाख, जखोली, जखंड, जखन्याली, जाखी, जखेड आदि. इसके अलावा यहां कई चोटियाँ भी इस देवता के नाम पर मिलती है. मसलन जाखधार, जखाल जाखणीधार आदि. गोविंद चातक के अनुसार ये गांव और चोटियाँ या तो यक्षों की बस्ती रही होंगी या फिर उनके पूजा केंद्र.
रवाईं क्षेत्र में भी जाख देवता की पूजा प्रचलित है जहां उन्हें सुरक्षा और शांति प्रदान करने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है. यहाँ लगभग सभी गांवों के मुख्य द्वार के बाहर दो खम्भों के बीच में द्वारपाल जैसी एक मूर्ति लटकी होती है जिसे जाख देवता माना जाता है. वायु पुराण में भी द्वारपाल नामक एक यक्ष का वर्णन मिलता है. ऐसे ही उत्तरकाशी जिले के सिरी गाँव में भी जाख देवता का एक मंदिर है जिससे देवता प्रत्येक तीन साल में बहार आते हैं और तब यहां एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है.
गढ़वाल की तरह ही कुमाऊँ में भी पिथौरागढ़ में घंटाकर्ण का मंदिर है जिसके पास से ही वो यक्षवती नदी बहती है जिसे मानसखंड में यक्ष तीर्थ कहा गया है. ऐसे ही गढ़वाल की सीमा से लगते हिमाचल के डोडरा क्वार क्षेत्र का राजा भी यक्ष राजा है जिसे क्वार जाख कहा जाता है. स्थानीय लोगों के लिए ये एक राजा भी है और देवता भी जिसे संगीत और नृत्य का शौक़ है.
गढ़वाल के चमोली और रुद्रप्रयाग ज़िले में जाख देवता का विशेष प्रभाव देखा जा सकता है. यहां अलग-अलग जाख मंदिरों से जुड़ी अलग-अलग लोक कथाएँ सुनने को मिलती हैं. इनमें से अधिकतर का सार यही है कि इस देवता की स्थापना यहां तब हुई जब या तो देवता किसी के सपने में आए या फिर कोई उन्हें अपनी समस्याओं के समधान के लिए किसी दूसरी स्थापित जगह से लेकर आया. ऐसी ही एक कहानी के अनुसार जाख का मूल स्थान कलगोट माना जाता है. मान्यता है कि जाख देवता यहीं से गढ़वाल के अन्य इलाकों में गए हैं.
जाख देवता के बारे में मान्यताएँ भले ही अलग-अलग हैं लेकिन स्थानीय देवी-देवताओं की तरह ही उन्हें भी सुरक्षा, शांति, सम्मान, समृद्धि और दीर्घायु प्रदान करने वाला माना जाता है. बारिश न होने पर उन्हें विशेष तौर से पूजा जाता है और इस तरह से देखें तो उन्हें वैदिक क़ालीन वरुण के समान माना गया है. मान्यता है कि जब लम्बे समय तक बारिश नहीं होती तो जाख देवता की विशेष पूजा आयोजित होती है. तब जाख देवता अपने पश्वा यानी जिस व्यक्ति पर देवता अवतरित होते हैं, उसके माध्यम से चमत्कारिक शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं. वही चमत्कारिक शक्तियाँ जिनका जिक्र इस कार्यक्रम की शुरुआत में भी किया गया. ऐसी शक्तियाँ जिनके चलते लोग अंगारों पर भी चलने लगते हैं. रुद्रप्रयाग ज़िले में होने वाले ‘जाखधार उत्सव’ में इसे साक्षात देखा जा सकता है.
गुप्तकाशी से करीब सात किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में पहाड़ की एक चोटी पर जाख देवता का मंदिर स्थित है. इस मंदिर में जाख देवता की एक ध्यानमय मूर्ति है. हर साल वैशाख में यहां एक भव्य मेला आयोजित होता है. प्राचीन मान्यता के अनुसार इस मेले के करीब बीस दिन पहले से ही आस-पास के कई गांवों में फूल तोड़ना, शंख बजाना और घंटा-घंडियाल बजाना पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाता है. मेले से तीन दिन पहले यहां जाख देवता की पूजा-अर्चना शुरू होती है और गांव वालों की एक गोष्ठी बैठाई जाती है. इन तीन दिनों तक गांव में एक तरह से लॉक-डाउन लगा दिया जाता है. न तो बाहर का कोई व्यक्ति गांव के अंदर आ सकता है और न ही कोई गांव से बाहर जा सकता है. यहां तक कि किसी के मेहमान भी इन तीन दिनों तक गांव में दाखिल नहीं हो सकते. हालाँकि वक्त के इस परम्परा में कुछ बदलाव आए हैं और अब इसे उतनी सख़्ताई से लागू नहीं किया जाता जितना पहले हुआ करता था. इन तीन दिनों में गांव वाले देवता से सम्बंधित आयोजन की प्लानिंग करते हैं और जाखधार उत्सव की तैयारी को अंतिम रूप दिया जाता है.
इसी दौरान उत्सव के लिए जंगल से पेड़ काट कर भी लाए जाते हैं. लेकिन इन पेड़ों को जंगल से मंदिर तक पहुँचाने के लिए कठिन नियमों का पालन करना होता है. मसलन, पेड़ की लकड़ियाँ लाने वालों को नंगे पैर ही ये काम करना होता है और मंदिर प्रांगण तक पहुँचने से पहले रास्ते में कहीं भी लकड़ियों को नीचे नहीं रखा जाता. इन लोगों को भोजन भी सिर्फ़ एक बार ही करना होता है और वो भी मंदिर पहुँच जाने के बाद.
पूजा के लिए मंदिर प्रांगण में एक बड़ा गड्ढा खोदा जाता जिसके अंदर लकड़ियों की 7, 11 या 13 परतें बिछाई जाती हैं. इन्हें ‘मूंडी चिणाई’ कहा जाता है. इनमें सबसे ऊपर पद्म वृक्ष यानी पंया कि टहनियाँ रखी जाती हैं जिन्हें सबसे पवित्र माना जाता है. रात क़रीब आठ बजे इसमें अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है और फिर रात भर मूंडी को जलने के लिए छोड़ दिया जाता है. इस पूरी रात मंदिर में भजन-कीर्तन चलता है. अगली सुबह मुख्य मेला आयोजित होता है और देवता के पश्वाओं के साथ ही तमाम श्रद्धालु मंदाकिनी में स्नान करने जाते हैं. फिर जाख देवता की डोली को पूरे गाजे-बाजे के साथ मंदिर से जाखदार ले जाया जाता है. करीब चार घंटे बाद जब ये डोली वापस मंदिर पहुँचती है तो देवता के पश्वा को एक थान पर बैठाकर उनकी पूजा की जाती है. यहां से वाद्य यंत्रों का संगीत तेज होने लगता है जो फिर मेले के अंत तक ऐसे ही बना रहता है. इसी दौरान जाख देवता के पश्वा जलते हुए अंगारों के गड्ढे को कई बार नाचते हुए पार करते हैं. प्रत्येक फेरे के बाद पश्वा को पानी की गागरों से नहलाया जाता है. इसके बाद देवता यहां उपस्थित सभी लोगों को आशीर्वाद देते हैं और कई बार पश्वा इस मौके पर भविष्यवाणी भी करते हैं. मेले के अंत में तमाम श्रद्धालु अग्निकुण्ड की राख को प्रसाद के रूप में अपने-अपने घर के जाते हैं. इसी तरह के आयोजन सिद्ध-पीठ कालीमठ के नज़दीक चौमासी और जाल गांव में भी होते हैं जहां जाख अग्नि पर चलकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं.
सिर्फ़ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि आग पर चलने वाले ऐसे कई आयोजन देश और दुनिया भर में कई अन्य जगहों पर भी होते हैं. इसीलिए इस पर कई शोध भी हुए हैं कि क्या इसके पीछे कोई दैवीय चमत्कार है या फिर विज्ञान की कोई तकनीक? कई वैज्ञानिकों ने माना है कि इसके पीछे विशुद्ध विज्ञान है. उनके अनुसार गर्मी तीन तरीक़ों से ट्रान्स्मिट होती है: कंडक्शन, कन्वेक्शन और रेडीएशन. कंडक्शन वो प्रक्रिया है जब गर्मी किसी एक पदार्थ से दूसरे में तब ट्रांस्मिट होती है जब वो सीधे सम्पर्क में आते हैं. इसके अलावा कन्वेक्शन उस प्रक्रिया को कहते हैं जब हवा या किसी तरल पदार्थ के माध्यम से गर्मी ट्रांस्मिट होती है. जबकि रेडीएशन वह प्रक्रिया है जिसमें गर्मी एक केंद्रीय स्रोत से सीधी रेखाओं के माध्यम से ट्रांस्मिट होती है. जैसे सूरज से या किसी गर्म लैम्प से. जब कोई व्यक्ति अंगारों पर चलता है तो उसके शरीर में मुख्यतः कंडक्शन के ज़रिए गर्मी ट्रांस्मिट होती है. वैज्ञानिक मानते हैं कि लकड़ी और इंसान के पैर, दोनों ही गर्मी के ख़राब कंडक्टर हैं. इसलिए लकड़ी के अंगारों पर चलना सुलगते हुए लोहे या गर्मी के किसी अन्य अच्छे कंडक्टर की तुलना में आसान होता है. फिर लकड़ी के इन अंगारों पर राख की एक परत भी होती है जो इस प्रक्रिया में बेहद अहम भूमिका निभाती है. वैज्ञानिक मानते हैं कि अंगारों पर चलने वाले लोग जिस गति से चलते हैं, वो भी एक बड़ा कारण है कि वे जलते नहीं. ये गति अगर ज़्यादा धीरे होगी तो कंडक्शन की प्रक्रिया इतनी मजबूत हो जाएगी कि अंगारों से पैर जल जाएं. और ये गति अगर बहुत तेज हुई तो इंसान के पैर अंगारों में ज़्यादा अंदर धँसने लगेंगे जिससे जलने की सम्भावनाएँ बढ़ सकती हैं. इस तरह से देखें तो वैज्ञानिकों के अनुसार आग पर चलना पूरी तरह से एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे इंसान प्रैक्टिस के साथ साध सकता है. लेकिन दूसरी तरफ उत्तरी ग्रीक गांवों में होने वाले इसी तरह के आयोजनों पर शोध कर चुके मानव विज्ञानी डैन्फ़ॉर्थ मानते हैं कि विज्ञान भले ही कितने भी तर्क क्यों न दे, आग पर चलने वालों को आत्म-विश्वास दैवीय शक्तियों पर विश्वास के चलते आता है, उसे कभी भी नकारा नहीं जा सकता.
डैन्फ़ॉर्थ की तरह ही कई अन्य मानव शास्त्री और मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि आग पर चलने की प्रक्रिया में जितना विज्ञान है, उससे ज़्यादा मनोविज्ञान. देवता पर विश्वास के चलते ही किसी व्यक्ति को वो आत्म विश्वास मिलता है कि वो बिना इसका विज्ञान समझे भी पूरी कामयाबी के साथ ऐसा कर पाता है. उत्तराखंड के कई इलाकों में जाख देवता पर लोगों की आस्था उन्हें ये आत्मविश्वास देती है कि उनके पश्वा ऐसा कर पाते हैं. इसके साथ ही देवता के पश्वा लोहे की कटार को अपने पेट से सटा-कर लकड़ी से ठोकते हैं और फिर भी उन्हें कोई गहरे ज़ख़्म नहीं होते. इसके पीछे भी उनकी असंदिग्ध आस्था ही मुख्य कारण हैं. ऐसी ही आस्था हमें भूमियाल, घंडियाल और अन्य लोक देवताओं के प्रति भी देखने को मिलती है जिन्हें यक्ष का ही रूप माना जाता है. पहाड़ों में आज भी जगह-जगह इन लोक देवताओं की पूजा-परम्परा जारी है लेकिन वक्त के साथ इन देवताओं का मुख्यधारा के देवी-देवताओं के साथ समागम भी हुआ है. मसलन, जाख देवता की पूजा कई जगह पिंडी के स्वरूप में होती थी जो आकार में शिवलिंग जैसी होती है. इसके चलते कालांतर में ऐसे अधिकतर पूजा स्थल शिव को समर्पित होते चले गए और यक्षों को शिव का ही गण या सेवक मान लिया गया.
स्क्रिप्ट : वैष्णवी भट्ट
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