खतडुआ त्योहार. संभवतः उत्तराखंड का एक मात्र ऐसा त्योहार, जिसका नाम आते ही कई विवादास्पद बातें होने लगती हैं. विवाद इसलिए क्योंकि कई लोग मानते हैं कि इस त्योहार के मूल में गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच हुए एक युद्ध की कहानी है और ये त्योहार उसी युद्ध के उल्लास में मनाया जाता है जिससे गढ़वाल और कुमाऊँ के लोगों के बीच द्वेष पैदा होता है. दूसरी तरफ़ कई लोगों का मत है कि ये त्योहार असल में ऋतु परिवर्तन का जश्न है जो सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि विदेशों में भी ऐसे ही उल्लास के साथ मनाया जाता है. क्या है खतडुआ त्योहार की पूरी कहानी, चलिए जानते हैं.
कुमाऊँ के पर्वतीय इलाकों में शरद ऋतु की पहली शाम को खतडुवा उत्सव मनाया जाता है. इसे कई जगह खतड़वा या कथड़कू भी कहा जाता है. पहाड़ी पंचांग के अनुसार खतडुवा त्योहार हर साल 17 सितंबर या उससे एक या दो दिन आगे पीछे मनाया जाता है. खतडुवे की शाम सारी पर्वत शृंखलाएँ जलती हुई मशालों से जगमगा उठती हैं.
कुमाऊं के अलावा रोमन काल से ही एक प्राचीन त्योहार ठीक इसी समय और लगभग इसी रूप में पश्चिम एशिया के कुछ देशों में भी मनाया जाता है. इस पर आगे विस्तार से बात करेंगे, फ़िलहाल कुमाऊँ के खतडुवा को बेहतर तरीक़े से समझते हैं. यहां आश्विन मास के पहले दिन गांव के किसी खुले मैदान में चीड़ की नुकीली सूखी पत्तियों को एक ऊंची झाड़ी पर चुन दिया जाता है. जहां चीड़ के पेड़ नहीं होते वहाँ उसकी जगह सूखी घास का इस्तेमाल किया जाता है. उसके बाद इस झाड़ी को अच्छी तरह घास से ढक कर उसे ऐसे खोखला किया जाता है कि उसमें से हवा के आर-पार होने की जगह बची रहे.
सामूहिक तैयारियों के अलावा गांव के प्रत्येक परिवार में भी मक्के के डंठल या भांग के पौधे के तनों से खतडुवा के पुतले बनाए जाते हैं. इन पुतलों का आकार लगभग हर घर में एक समान ही होता है. करीब पाँच फुट लंबे मक्के के एक डंठल के ऊपर के आधे भाग में एक-एक फुट के अंतराल में तीन-तीन फुट लंबे दो तिरछे डंडे इस तरह बांध दिए जाते है कि उनका आधा भाग डंडे के एक तरफ होता है और आधा भाग दूसरी तरफ. खतडुवे का पुतला लगभग ईसाई धर्म में प्रचलित डबल क्रॉस के साइन जैसा होता है. पुतले के ऊपर के पांचों सिरों पर कांस के सफेद फूलों का लगाना जरूरी होता है.
त्योहार के दिन अंधेरा होते ही लोग एक हाथ में पुतला और दूसरे हाथ में चीड़ के छिलकों की जलती हुई मशाल लेकर अपने-अपने घरों से गौशाला में जाते है और बाहर निकलते हुए बोलते है ‘निकल खतडुवा निकल’.
इसके बाद सभी लोग उस मैदान में जाते है जहां चीड़ और घास फूस से झाड़ियों को सजाया गया था. इस दौरान लोग गाते है:
भलो छि भलो, भलो खतडुवा,
गैडी की जीत खतडुवे को हार.
जिसका मतलब है- अच्छा हुआ खतडुवे, बहुत अच्छा हुआ. गैड़ी की जीत हुई और खतडुवा हार गया.
मैदान में पहुँचकर सभी लोग अपने साथ लाए पुतलों को झाड़ियों के ऊपर रख देते हैं और झाड़ियों के नीचे जलती हुई मशालें लगा दी जाती हैं. इन पुतलों के पूरी तरह जल कर राख हो जाने तक सभी लोग वहाँ खड़े रहते है. इसके बाद लोग अपने-अपने घरों से लाए खीरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ते हैं जिन्हें फिर प्रसाद के रूप में सभी में बाँट दिया जाता है. कुछ लोग खतदुवे की राख को अपने घर भी ले जाते हैं और कुछ वहीं उसे लांगने की कोशिश करते है. ऐसा माना जाता है कि खतडुवे की आंच से एक साल तक हर बीमारी से छुटकारा मिल जाता है.
ये त्योहार विवादों से इसलिए घिरने लगता है क्योंकि इसके साथ एक क़िस्सा सालों से चला आ रहा है. किंवदंती है कि ये त्योहार कुमाऊं और गढ़वाल के बीच हुए किसी पुराने युद्ध में कुमाऊं की जीत का उत्सव है. इस कहानी के अनुसार इस दिन कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह ने गढ़वाल के सेनापति खतड़वा को हराया था और अपनी जीत का संदेश दूर-दूर के गांवों तक पहुँचाने के लिए मशालें जलाई थी. तभी से ये त्योहार कुमाऊं और चमोली जिले के कुछ गांवों में मनाया जाता है. ऐसा भी कहा जाता है कि टिहरी के एक राजा ने गढ़वाल में इस त्योहार को मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था. इस प्रतिबंध के चलते भी लोग अनुमान लगाते हैं कि ये त्योहार गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच हुए किसी प्राचीन युद्ध में कुमाऊँ की विजय का उत्सव है. लेकिन यमुना दत्त वैष्णव अपनी किताब ‘संस्कृति संगम उत्तराखंड में लिखते हैं कि ‘ये धारणा भ्रामक है क्योंकि न कुमाऊँ के इतिहास में गैडी नाम के किसी राजा या सेनापति का उल्लेख हुआ है और न ही गढ़वाल के राजाओं की राज-वंशावलियों में खतडुवा या खतुडु नामक किसी राजा का नाम आता है. गैडी शब्द कुमाऊँ में गाय का बोधक है. गाय कत्यूरी राजाओं का राज चिन्ह था. इन राजाओं के 8वीं -9वीं शताब्दी के ताम्रपत्र बद्रीनाथ मंदिर में आज भी उपलब्ध हैं. कत्यूरी राजाओं की पहली राजधानी जोशीमठ थी. उनके बनाए मंदिर, जलाशय, धारा-गृह आदि आज भी उत्तर गढ़वाल और कुमाऊँ में मिलते हैं. कत्यूरी मूलतः गढ़वाल से ही कुमाऊँ की तरह गए थे. अतः ये त्योहार उनकी गढ़वाल विजय का प्रतीक नहीं है. खतड़ू शब्द क्षत्रप का अपभ्रंश हो सकता है. कनिष्क के राज्य काल में सम्भवतः कत्यूरी राजाओं की किसी यूनानी क्षत्रप के ऊपर विजय का ये उत्सव हो सकता है. सम्भव है कि इस त्योहार को ये राजनीतिक रूप भी बाद में मिला होगा.’
यमुना दत्त वैष्णव अपनी किताब में आगे जिक्र करते हैं कि कुमाऊं की साधारण बोलचाल में खतडु या खातड़ों का मतलब होता है गुदड़ी या रुई से भरी रजाई. ये भी कहा जाता है कि खतडुवा त्योहार के बाद रात को एक खातड़ो यानि रजाई ओढ़ने वाली ठंड पड़ने लगती है. त्योहार का नाम खातड़ों यानि रजाई के नाम पर होने से और इसके शरद ऋतु के पहले दिन मनाए जाने से इसका संबंध सीधे ऋतु परिवर्तन से होना ज़्यादा प्रासांगिक लगता है न कि किसी ऐतिहासिक घटना से. ऋतु परिवर्तन की अनेक गाथाएँ प्राचीन वैदिक काल से ही चली आ रही है.
जर्मन विद्वान लुडविग महाभारत पर लिखी अपनी किताब में इसकी एक दिलचस्प व्याख्या करते हैं. इसमें वे पाण्डव-कौरव कथा को ऋतु परिवर्तन का ही आलंकारिक रूप मानते हैं. उनका कहना है कि पांडु का संबंध पीले सूर्य से है. इसी तरह धृतराष्ट्र का अंधा होना शरद कालीन शक्तिहीन सूर्य का प्रतीक है. गांधारी का आंखों में पट्टी बांधना सूर्य का बादलों की ओट में होना है और द्रौपदी का कृष्णा नाम पृथ्वी का द्योतक है. उसका सभा में एक-वस्त्रा होना पृथ्वी का शस्यहीना होना है.
हालाँकि यमुना दत्त वैष्णव मानते हैं तो सभी पौराणिक गाथाओं को ऋतु परिवर्तन के आलंकारिक रूपक मानना अतिशयोक्ति होगी. लेकिन ये भी एक तथ्य है कि वेदों के अहि यानी बादल और इंद्र यानी सूर्य के संघर्ष के आलंकारिक रूपक को लेकर पौराणिक कथाओं की रचना हुई है.
ऐसी ही एक पौराणिक गाथा है कि एक कुमाऊँनी बालक हेमंत ऋतु में ठंड से बचने के लिए धूप सेक रहा होता है और सूर्य किसी बादल के आ जाने से ढक जाता है. ऐसे में वो ठिठुरते हुए गाता है –
‘घाम दीदी वली आ, बादल भीना पली जा’.
जिसका मतलब है: धूप दीदी इधर आ, बादल जीजा परे जा.
सुदूर पर्वतों में ये किसी कवि की अभिव्यंजना हो सकती है कि उसकी रक्षा करने वली धूप उसकी बड़ी बहन के समान है और बादल जीजा समान. इसलिए ऐसा भी लगता है कि खतडुवा भयानक और बूढ़े वर्षाकाल का प्रतीक हो. आदिकाल से ही शरद ऋतु की पहली शाम को पहाड़ी इलाकों में लोग अपने घरों के कोने-कोने से मृत वर्षा ऋतु को भगा कर चौराहे पर उसका पुतला जलाते हैं. शरद ऋतु के फूले सफ़ेद कांसों से तुलसीदास जी ने भी वर्षा ऋतु के बूढ़े होने की कल्पना करते हुए लिखा है:
फूले कांस सकल महि छाई,
मनु वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई.
पहाड़ों में कांस के फूलों का पुतलों में लगाना बूढ़ी वर्षा ऋतु के मरने का प्रतीक है. इसलिए वर्षा ऋतु में उपलब्ध खीरे खा कर ऋतु का उत्सव मनाना भी स्वाभाविक है.
खतडुवा के साथ साथ उत्तराखंड में और भी पर्व है जो प्राचीन कुमाउंनी समाज पर सीथियन या रोमन प्रभाव की झलकी देते हैं. उत्तर कुमाऊँ के पैनखण्डा, दारमा, जोहार, व्यांस और चौदांस घाटी के शौका और मार्च्छा जिन्हें कभी-कभी भोटिया कह दिया जाता है, ल्हासा से लेह व्यापार करते रहे हैं. इनके क़ाफ़िले प्राचीन काल में गांधार, फारस और दमिश्क होते हुए पूर्वी रोम राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनियाँ तक आते-जाते थे. इन जातियों में देवी-देवताओं की पूजा से लेकर वैवाहिक संस्कारों तक, आज भी प्राचीन सीथियन या रोमन प्रभाव देखने को मिलता है. ये टखनों तक का ऊनी चोगा पहनते हैं जिसे रोमन में टोगा कहा जाता है. इसके साथ ही यहां की बोली में कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो न तो तिब्बती भाषा से मिलते हैं और न ही हिन्दी से. तो हो सकता है कि इन प्रभावशाली यायावर लोगों ने प्राचीन कुमाऊँ के शासकों को रोमन सम्राटों से मित्रता करने को विवश किया होगा. क्योंकि पर्वतीय राज्यों की सारी अर्थव्यवस्था कभी इसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर थी.
एटकिन्सन ने भी अपनी ‘हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स’ नामक किताब में लिखा है कि रोमन सम्राट अगस्टस के दरबार में इन पर्वतीय शासकों ने अपने विशेष दूत द्वारा पार्चमेंट पर लिखा अपना मैत्री संदेश भेजा था.
प्राचीन सीरिया में ईसाई धर्म के प्रभाव के पहले सृष्टि के उत्पादन और वृद्धि के प्रतीक एक शिला, एक दंड और एक हरी शाखा की किसी खुले स्थान पर देवता के प्रतीक के रूप में पूजा की जाती थी. हो सकता है कि यही प्रथा परिवर्तित रूप में यहाँ मौजूद हो. इतना ही नहीं, पूरे भारत में सप्ताह के दिनों के रविवार, सोमवार आदि नाम रोमन शासकों की ही देन हैं. इसके अलावा रोमन लोगों ने ही अलग-अलग देवी-देवताओं की उपासना के लिए अलग-अलग दिन निर्धारित किए थे.
पहाड़ी संस्कृति पर रोमन प्रभाव की ये झलकियाँ कई बार देखी जा सकती हैं. खतडुवे की ही तरह एक उत्सव सीरिया के रोमन सम्राटों के समय में हर साल 14 सितम्बर को मनाया जाता रहा है. ये ज्ञात होता है कि 306 ई० में रोमन सम्राट कोन्स्टेन्टीन ने जब पूर्वी रोम साम्राज्य की नई राजधानी कुस्तुनतुनिया बनाई तो बासफोरस तट पर बसे इस नए रोम का महत्व इटली की टाइबर नदी के तट पर बसे प्राचीन रोम से भी ज्यादा हो गया था. सम्राट ने सन् 325 में एक धर्म सम्मेलन किया जिसमें दूर-दूर के देशों से धर्माधीश बुलाए गए. इसके ज़रिए सब धर्मों के प्रति अपनी सहन-शीलता दिखाई गई. इसी अवसर पर सम्राट की मां हेलेना ने ईसाई धर्म की दीक्षा ली और यरूसलेम की यात्रा की. जिस क्रास पर ईसा को लटकाया गया था, उसका धार्मिक अभिसिंचन करके हेलेना ने उसे अपने बेटे सम्राट कान्स्टन्टीन को समर्पित किया. और इन्होंने ही यरूसलेम में सबसे पहले रोमन चर्च का निर्माण कराया.
कालान्तर में पूर्वी फारस के पार्थियनों ने सीरिया पर अधिकार कर लिया. पार्थियन शासक क्रोसोस द्वितीय ने सन् 611 से 624 ईस्वी तक अनेक आक्रमण करके सीरिया को रौंद डाला. सीरिया, दमिश्क, यरूसलेम आदि अनेक नगरों को लूटकर उसने अपार धन इक्कठा किया. ईसा की समाधि से लूटी हुई बहुमूल्य सम्पत्ति के साथ ही वो उस क्रास को भी उठा लाया जिसका राजमाता हेलेना ने तीन सौ वर्ष पहले उद्धार किया था.
विजण्टाइन के रोमन सम्राटों ने फारस से बदला लेने के लिए अनेकों विफल प्रयास किये. सम्राट हेराक्लियस को पूर्व के इन आक्रमणों में कई बार पराजय का सामना करना पड़ा. आखिर में 14 सितम्बर, 629 को वो ईसा के पवित्र क्रास को वापस लाकर यरूसलेम में फिर स्थापित करने में सफल हुए. क्रास के उद्धार की स्मृति में 14 सितम्बर का दिन तभी से सीरिया में उत्सव का दिन बन गया.
सीरिया के इतिहास में इस पर्व का उल्लेख करते हुए फिलिप के हिट्टी ने लिखा है, ‘इस देश के मूल ईसाई उस दिन त्यौहार मनाते है. दावतें दी जाती हैं और पर्वत श्रेणियों पर अग्नि प्रज्वलित की जाती है. कहा जाता है कि पहाड़ों की एक चोटी से दूसरी चोटी पर आग जलाकर सर्वप्रथम सन् 326 में राजमाता हेलेना ने गड़े हुए ईसा के क्रास के प्राप्त होने पर ईसा की सूली के उद्धार के उत्सव का आरम्भ किया था.’
यमुनादत्त वैष्णव की किताब ‘संस्कृति संगम उत्तरांचल’ में ये भी जिक्र मिलता है कि खतडुवे की तरह पश्चिम एशिया के ईसाई भी एक पर्व मनाते हैं. इसके अलावा उत्तर अफ्रीका के हब्श देश में भी उसी महीने अलातों और मशालों को जलाकर इसी रूप में एक पर्व मनाया जाता है. हब्श उत्तर अफ्रीका में इस्लाम धर्म के अभ्युदय से पहले से ही ईसाई धर्मावलम्बी देश है. कुश या हब्श देश से भारत के अति प्राचीन व्यापारिक संबंध रहे हैं. दक्षिण भारत में समुद्र मार्ग से हब्श के दास-दासियाँ, हाथी दाँत और अगरु बिकने आते थे. मुगल दरबार के फ्रांसीसी चिकित्सक डॉ० बर्नियर ने फ्रांस से भारत आते समय रास्ते में हब्श देश में उतरना आवश्यक समझा था. उनके दिल्ली प्रवास के समय हब्श का राजदूत भी मुगल दरबार में आया था. हब्श देश में खतडुवा पर्व को ‘मस्कल’ कहा जाता है.
इन तमाम उदाहरणों के आधार पर वैष्णव ने माना है कि खतडुवा पर्व ऋतु परिवर्तन पर खुश होने की स्वाभाविक प्रवृति का पर्व है. खतडुवे को समय के साथ राजनैतिक और धार्मिक रूप दिया जाना भी मानव की सहज प्रकृति की विकृति है जो कुछ मायनों में संस्कृति की संज्ञा है. कुमाऊँ में ये पर्व किसी विशेष मानव समूह या किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों का नहीं है. बल्कि खतडुवे के त्यौहार में मानव की वो शाश्वत संस्कृति स्पष्ट होती है जिसे यजुर्वेद ने ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’ यानी दुनिया की पहली और सर्वोच्च संस्कृति कहा है.
अब समय के साथ इस त्योहार को मनाने का चलन कुछ कम हो गया है या फिर ये सिर्फ औपचारिकता तक सीमित रह गया है. लेकिन कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में इसे आज भी उतनी ही धूम धाम से मनाया जाता है. इसके साथ ही यह पर्व कुमाऊँ क्षेत्र पशुपालकों के अलावा नेपाल, दार्जिलिंग और सिक्किम के पशुपालक भी मनाते हैं. नेपाल के लोग खतडुवा के दिन एक साथ ज़ोर से बोलते है: “लुतो लागयो, लुतो भाग्यों’ जिसका मतलब है बरसात में जो जानवरों को लुता यानि बाल गिरने की बीमारी होती है, वो ख़त्म हो जाए.
खतडुवा त्योहार पर गढ़वाल बनाम कुमाऊँ वाली चर्चा आज भी प्रचलित तो है लेकिन तमाम इतिहासकारों के साथ ही समाज शास्त्री भी इस कहानी को नकारते रहे हैं. खतडुवा से जुड़ी इस बहस पर बंशीधर पाठक जिज्ञासु ने एक कविता भी लिखी है जिसके बोल हैं:
अमरकोष पढ़ो, इतिहासा पत्र पल्टी
खतड़सींग नि मिल, गैड़ नि मिल!
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन-
गणत करै, जागर लगा-
बैसि भैट्यूं, रमौल सुणौं भारत सुणौं-
खतड़सींग नि मिल, गैड नि मिल।
स्याल्दे बिखैति गयूं, देवधुरै बग्वाव गयूं,
जागसर गयूं, बागसर गयूं
अल्मोडै कि नंदेबी गयूं
खतड़सिंह नि मिल, गैड़ नि मिल!
तब मैल समझौ
खतड़सींग और गैड़ द्वी अफवा हुनाल!
लेकिन चैमास निड़ाव
नानतिन थैं पत्त लागौ-
कि खतडुवा एक त्यार छ-
उ लै सिर्फ कुमूंक ऋतु त्यार.
बंशीधर पाठक जिज्ञासु की ये कविता खतडुवा पर्व की गढ़वाल बनाम कुमाऊँ वाली बहस को बेहद सरलता से सुलझाने का काम कर देती है.
स्क्रिप्ट: प्रगति राणा
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