केदारनाथ! बर्फीले पहाड़ों की ओट में बसा भगवान शिव का वो धाम, जहां हर साल लाखों श्रद्धालू दर्शन के लिए पहुँचते हैं. लेकिन साढ़े तीन हज़ार मीटर की ऊँचाई पर बसे इस मंदिर तक पहुंचना कई लोगों के लिए जानलेवा भी साबित होता है. हर साल केदारनाथ आने वाले दर्जनों यात्रियों के लिए ये उनकी अंतिम यात्रा साबित होती है. इस साल भी यात्रा के शुरुआती एक महीने में ही केदारनाथ आए 49 यात्रियों की मौत हो चुकी है. उत्तराखंड सरकार के लिए ये हमेशा एक चुनौती रहती कि केदारनाथ में होने वाली मौतों को कैसे कम से कम किया जाए. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब केदारनाथ में कई यात्री अपने प्राण त्यागने के लिए ही आया करते थे. केदारनाथ मंदिर के पास ही महापंथ चोटी के रास्ते में एक पहाड़ी धार है आती है जिसे ‘भैरव-झांप’ कहा जाता है. एक समय था जब कई श्रद्धालू इस पहाड़ी पर सिर्फ़ इसलिए पहुँचते थे ताकि यहां से कूद कर अपने प्राण त्याग सकें. मान्यता थी कि यहां आत्म विसर्जन करने से मोक्ष मिलता है.
क्या थी ये मान्यता? इस पर रोक कैसे और कब लगी? क्या है केदारनाथ का इतिहास और क्यों ये मंदिर देश के सबसे चर्चित मंदिरों में शामिल है. इन तमाम सवालों के जवाब तलाशेंगे विस्तार से.
केदारनाथ सिर्फ़ एक मंदिर नहीं बल्कि भक्ति, धैर्य और वास्तुशिल्प का भी एक अद्वितीय प्रतीक है. उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ये मंदिर समुद्र तल से 3,583 मीटर की ऊंचाई पर बसा है जिसके पास ही चोराबाड़ी ग्लेशियर भी है जो मंदाकिनी नदी का स्रोत है. मंदिर के एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी है, दूसरी तरफ कराचकुंड और तीसरे छोर पर इससे भी ऊँचा भरतकुंड. इन तीन पर्वतों से पांच नदियाँ निकलती हैं जिनके नाम हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी.
केदारनाथ में कई कुंड भी हैं जो अपने धार्मिक महत्व के लिए जाने जाते हैं. इनमें शिव-कुंड, रेत-कुंड, हंस-कुंड, उदक-कुंड और रुधिर-कुंड सबसे महत्वपूर्ण हैं. केदारनाथ से थोड़ी ही दूरी पर भैरव नाथ को समर्पित एक मंदिर भी है जिनकी केदारनाथ के कपाट खुलने और बंद होने पर औपचारिक पूजा की जाती है. मान्यता है कि जब बाबा केदार के कपाट बंद होते हैं तो उस दौरान भैरव नाथ ही केदारनाथ भूमि की रक्षा करते है. भैरव के इसी मंदिर से कुछ ऊपर और केदारनाथ मंदिर से करीब 6 किलोमीटर दूर स्थित है भैरव-झांप नाम की वो पहाड़ी चोटी है जहां से कूदकर कभी लोग अपने प्राण त्याग दिया करते थे. मान्यता थी कि इस पवित्र भूमि में, जहां पांडवों को भी मुक्ति मिली थी, वहां अगर प्राण त्यागे जाएं तो जन्म-जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति और मोक्ष मिलता है.
एडविन एटकिंसन के ‘हिमालयन गज़ेटियर’ और एचजी वाल्टन ने ‘गढ़वाल हिमालय का गज़ेटियर’, दोनों में ही जिक्र मिलता है कि आत्म विसर्जन यानी भैरव झांप से कूद कर अपने प्राण त्यागने के लिए कभी सैकड़ों लोग यहां आया करते थे. कूद मारने से पहले आस-पास के मंदिरों में अपना नाम और तिथि दर्ज करने का भी चलन था. गोपेश्वर मंदिर में इस तरह के लेख मिले हैं जिनमें मुख्यतः दक्षिणी और बंगाली यात्रियों के नाम दर्ज हैं. इनमें सबसे ताज़ा लेख साल 1820 का मिलता है. आत्म हत्या करने की इस प्रथा को कुमाऊँ कमिश्नर रहे विल्यम ट्रेल ने प्रतिबंधित करवाया था. लेकिन बताया जाता है कि इस प्रतिबंध के बाद भी काफी समय तक लोग चोरी-छिपे यहां पहुँचकर आत्महत्या किया करते थे. उत्तर प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री रहे डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने भी अपनी केदारनाथ यात्रा का ब्यौरा दर्ज करते हुए इस बारे में लिखा है कि देश की आज़ादी के बाद भी कुछ लोग भैरव झांप आकर आत्म हत्या किया करते थे. यानी अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंध लगाने के सौ – डेढ़ सौ साल तक बाद ये प्रथा दबे-छिपे जारी रही.
केदारनाथ मंदिर का इतिहास सदियों पुराना है और इसकी निर्माण की मान्यता आदि शंकराचार्य से लेकर पांडवों तक से जुड़ती हैं. कुछ अभिलेखों के अनुसार, मंदिर की स्थापना पांडवों ने युद्ध के पापों से मुक्ति पाने के लिए की थी. एक अन्य मान्यता के अनुसार इसका निर्माण पाण्डवों के पौत्र महाराजा जन्मेजय ने कराया था. हालाँकि मंदिर की वर्तमान संरचना का श्रेय 8वीं शताब्दी के हिंदू दार्शनिक आदि शंकराचार्य को दिया जाता है. उनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और उसे उसके वर्तमान स्वरूप में पुनर्स्थापित किया. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12वीं या 13वीं शताब्दी का है. मंदिर की बड़ी धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा भी है, जिसे स्पष्ट रूप से जानना मुश्किल है. दिलचस्प बात यह है कि केदारनाथ मंदिर की दीवारों पर तमिल शिलालेख भी हैं. ये शिलालेख तमिल तीर्थयात्रियों और विद्वानों द्वारा छोड़े गए हैं, जिनमें भक्ति गीत, दान-दाताओं के नाम और ऐतिहासिक रिकॉर्ड शामिल हैं. ये मंदिर की विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक मान्यता को स्थापित करते हैं.
केदारनाथ का सबसे पहला उल्लेख प्राचीन हिंदू शास्त्रों में मिलता है. इसके इतिहास के बारे में हिंदू पौराणिक कथाओं के प्रमुख ग्रंथ वायु पुराण से लेकर केदार-कल्प और केदारखंड में कई सारी कथाएं है. पुराणों में जिक्र मिलता है कि जब मानव सृष्टि की उत्पत्ति हुई, उस समय नर और नारायण को इसकी रक्षा के लिए भेजा गया. तब उन्होंने जगत के कल्याण के लिए तप किया जिससे भगवान शिव प्रसन्न हुए और नर-नारायण के सामने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा. नर-नारायण ने विनम्रता से कहा, कि प्रभु, हम विश्व के कल्याण के लिए आपका स्मरण करते हैं. यदि आप हमारी सेवा से प्रसन्न हैं, तो कृपया इन पर्वतों पर हमेशा विराजमान रहें, ताकि संसार के लोग आपके दर्शन से मुक्ति पा सकें. भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और इस केदार-भूमि को अपना निवास स्थान बना लिया. तभी से यह पवित्र तीर्थ केदारनाथ के नाम से जाना गया.
इसके अलावा महाभारत महाकाव्य में भी केदारनाथ का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसे कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद पांडवों की मुक्ति की खोज से जोड़ा गया है. इसके अनुसार महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बार सभी पांडव गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे पांडवों से रुष्ट थे. भगवान शंकर के दर्शन पाने के लिए पांडव पहले काशी गए, लेकिन उन्हें शिव नहीं मिले. तब वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे. भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से भी अंतर्ध्यान हो कर केदार में जा बसे. लेकिन पांडव भी अपनी लगन के पक्के थे. वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच गए. भगवान शंकर ने तब बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले. पांडवों को इसका संदेह हो गया था. अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण किया और दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया. अन्य सभी गाय-बैल तो निकल गए, लेकिन शंकर रूपी बैल भीम के पैरों के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुआ. तब भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे. जब बैल धरती में समाने लगा तो भीम ने इसकी त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया. भगवान शंकर पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प देख कर प्रसन्न हुए और उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप से मुक्त किया. तभी से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति के पिंड रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ जहां अब पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है. शेष भाग हिमालय में चार और जगह पूजे जाते हैं. भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में. इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंच-केदार कहा जाता है और इन सभी की यात्रा करने से यात्रा पूर्ण-यात्रा कही जाती है. इसके अलावा केदार मन्दिर के अधीन कुछ और मंदिर भी आते है जिनकी देख-रेख और खर्च सब केदार मन्दिर के अधीन है. जैसे अगस्तमुनि मंदिर, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण, लक्ष्मीनारायण, गौरीदेवी, कालीमठ, गोपेश्वर, ऊषीमठ.
केदारनाथ छोटा चार धाम यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री शामिल हैं. यह तीर्थयात्रा अपार सांस्कृतिक महत्व रखती है, जो हर साल लाखों भक्तों को आकर्षित करती है. मंदिर अप्रैल या मई में खुलता है और नवंबर के आसपास बंद हो जाता है. केदारनाथ की संस्कृति गढ़वाल क्षेत्र की परंपराओं के साथ गहराई से जुड़ी हुई है. स्थानीय लोककथाएँ और गीत अक्सर मंदिर की कथाओं और उससे जुड़ी दिव्य कहानियों को बयां करते हैं. स्थानीय लोग मानते हैं कि केदारनाथ मंदिर केवल एक भौतिक संरचना नहीं है, बल्कि स्वयं एक दिव्य इकाई है. देश भर में भगवान शिव के जो बारह ज्योतिर्लिंग हैं, केदारनाथ उन्हीं में से एक है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन सभी जगहों पर भगवान शिव ज्योति के रूप में स्वयं विराजमान है. इन बारह ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ के अलावा सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, भीमाशंकर, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वर, घृष्णेश्वर शामिल हैं. ये सभी ज्योतिर्लिंग देश के अलग अलग राज्यों में स्थित है.
पांडवों से जुड़ी इन चर्चित कथाओं के से इतर, कई दिलचस्प मान्यताएँ और भी हैं. जैसे किंवदंती है कि नारद मुनि एक बार केदारनाथ आए और भगवान शिव को श्रद्धांजलि देने के लिए अपनी वीणा बजाते हुए भजन गाने लगे. नारद की भक्ति से प्रभावित होकर शिव प्रकट हुए और उस स्थान को आशीर्वाद दिया कि जो भी सच्ची भक्ति के साथ केदारनाथ आएगा, वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाएगा.
केदारनाथ के साथ मंदाकिनी नदी का भी एक पौराणिक संबंध है. कहा जाता है कि यह नदी भगवान शिव की जटाओं से निकलती है. एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार तपस्या कर रहे ऋषियों की प्यास बुझाने के लिए, शिव ने अपनी जटाओं से नदी को प्रवाहित किया. इससे न केवल ऋषियों को पानी मिला बल्कि वह पूरा क्षेत्र भी पवित्र हो गया और तीर्थ की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई.
स्थानीय लोक कथाओं में केदारनाथ से जुड़ी एक और दिलचस्प मान्यता है. इसके अनुसार यहाँ एक रहस्यमयी प्रकाश है जो सर्दियों के महीनों में मंदिर बंद होने और बर्फ से ढके रहने के दौरान मंदिर से निकलता है. गाँव वालों का मानना है कि ये प्रकाश एक दिव्य उपस्थिति का संकेत है और इस अवधि के दौरान देवता स्वयं मंदिर में पूजा करते हैं.
आर्किटेक्चर से लिहाज़ से भी केदारनाथ मंदिर किसी चमत्कार से कम नहीं है. मंदिर का डिज़ाइन प्राचीन भारत के उन्नत इंजीनियरिंग कौशल का प्रमाण है. ये मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना है. मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है. बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं. मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है: गर्भ गृह, मध्यभाग और सभा मण्डप. गर्भ गृह के बीच में भगवान केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग मौजूद है. इसके आगे वाले भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही पार्वती जी का श्री यंत्र बना है. केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह है जिस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है. इस बात का जिक्र कुछ स्थानीय लोक गीतों में भी मिलता है. ज्योतिर्लिंग के चारों तरफ चार विशालकाय स्तंभ है जिनको चारों वेदों का प्रतिनिधि माना जाता है और जिन पर विशालकाय कमलनुमा मन्दिर की छत टिकी हुई है. ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो हजारों सालों से निरंतर जलता रहता है. इसकी देख-रेख और निरन्तर जलते रहने की जिम्मेदारी पूर्व काल से तीर्थ पुरोहितों की है.
ये भी कहा जाता है कि केदारनाथ मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी तक पूरी तरह से बर्फ़ के नीचे दबा रहा था. आज अगर आप गूगल करेंगे तो ऐसी ढेरों खबरें आपके सामने होंगी जिनमें बताया गया है कि केदारनाथ मंदिर 400 सालों तक बर्फ़ या ग्लेशियर के नीचे दबा रहा. इन खबरों की शुरुआत तब हुई जब साल 2009 में विज्ञान की दुनिया के चर्चित जर्नल ‘करेंट साइयन्स’ में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित हुआ. ये पेपर लिखा था वाडिया इन्स्टिटूट ऑफ़ हिमालयन जीआलॉजी के वैज्ञानिक रविंद्र कुमार चौजर ने. उन्होंने अपने शोध के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला था कि 14वीं से 17वीं सदी के बीच केदारनाथ मंदिर कम से कम 400 सालों तक पूरी तरह से बर्फ़ के नीचे दबा रहा. उनके इस पेपर के प्रकाशित होने के बाद दुनिया भर में ये नैरटिव फैलने लगा. लेकिन भूवैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं कि आज वैज्ञानिकों में मतैक्य है कि इस रिसर्च पेपर के निष्कर्ष सही नहीं हैं. मंदिर के पत्थरों की जिन आकृतियों के चलते ये निष्कर्ष निकाला गया था, वो दरसल उस शेल की कुदरती आकृतियाँ है और किसी ग्लेशियर से नहीं बनी हैं. वाडिया institute के ही चार अन्य वैज्ञानिकों ने भी साल 2012 में एक संयुक्त रिसर्च पेपर लिखा, जिसमें बताया गया कि केदारनाथ के 400 साल बर्फ़ में दबे रहने की बात के कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं.
वैसे इस मंदिर के सदियों तक बर्फ़ में दबे रहने की बात भले ही ग़लत हो, लेकिन ये तो साबित हुआ ही है मंदिर की निर्माण शैली इतनी बेजोड़ है जो सदियों से कई प्रलय और तबाही देखने के बाद भी पूरी मज़बूती से अपना अस्तित्व बचाए हुए है. जून 2013 भी इसमें से एक है जब केदारनाथ को एक विनाशकारी बाढ़ का सामना करना पड़ा. उस वक्त औसत से 375 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई थी जिसके चलते इस क्षेत्र में लगभग सब कुछ तहस-नहस हो गया था. तब बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ था. लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ. भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित पाया गया.
मंदिर के प्रशासन की बात करें तो केदारनाथ के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं. उनके पूर्वज भगवान नर-नारायण और दक्ष प्रजापति के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं. मान्यता है कि पांडवों के पौत्र राजा जन्मेजय ने उन्हें इस मंदिर की पूजा अर्चना का अधिकार दिया था और सम्पूर्ण केदार क्षेत्र दान स्वरूप दिया था.
पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी किताब ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं कि केदारनाथ के रावल और पूजक दक्षिण मालावार के जंगम जाति के होते हैं. रावल को एक से ज़्यादा शिष्य रखने का अधिकार होता है. उसके शिष्य भी उसी जंगम जाति के दक्षिणी लोग होते हैं. रावल को विवाह करने का अधिकार नहीं होता, न उसके शिष्यों को इस प्रकार का अधिकार होता है. लेकिन रावल स्वयं पूजा नहीं करता, बल्कि उसके शिष्य और गुरु भाई पूजा करते हैं. रावल का उत्तराधिकारी उसके चेलों में से ही कोई होता है. पहले बड़े चेले को उत्तराधिकार मिलता है. लेकिन कभी-कभी बड़े शिष्य में अयोग्यता हो तो इस पद के लिए चुनाव पंचों के मतों पर भी होता है. रावल को मन्दिर पर सर्वाधिकार होता है लेकिन अगर कभी रावल ही अयोग्य हुआ तो ‘मैनेजर’ भी मन्दिर का प्रबन्ध करते हैं. केदारनाथ के पांडे अन्य जातियों के गृहस्थ लोग हैं जो गढ़वाली हैं और उखीमठ के आस-पास के गाँवों में रहते हैं.
वैदिक और पौराणिक काल में इस केदारक्षेत्र में केदारलिङ्ग का पूजन-अर्चन कौन करता था इसका पता लगाना असम्भव है. लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि ये बात अनुमान से तो सिद्ध होती है कि उस समय में केदारलिङ्ग की सेवा सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर लोग किया करते थे. पुराणों के अनुसार हिमालय में इन्हीं की सृष्टि बताई गई है. बाद का जो इतिहास केदारनाथ की बहियों से प्राप्त हुआ है, वो बताता है कि जब पांडव स्वर्गारोहण को गये थे तो उस काल में गणों के स्वामी वीरभद्र से कुछ अवज्ञा हुई. तब शिवजी ने उन्हें शाप दिया कि तुम मानव जीवन ग्रहण करो. यानी मनुष्य जन्म लेकर इस अवज्ञा का प्रायश्चित करो. ऐसे में वीरभद्र ने भगवान शिव की स्तुति की. तब शिव जी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम चौल देश में जाकर वेदपाठी ब्राह्मण के घर जन्म लोगे और भुकुण्ड नाम से प्रसिद्ध होगे. इसके बाद तुम दृढ़ भक्ति से मेरी आराधना करते हुए उसी देह से मेरे पास आओगे.
गणाधीश ने भगवान शिव की आज्ञा को सिर-माथे लिया और चौल देश में एक वेदपाठी ब्राह्मण के घर उनका जन्म हुआ. जैसा कि पहले से तय था, उनका नाम भुकुण्ड हुआ. वेद शास्त्रों से सम्पन्न होकर युवा अवस्था में ही ब्रह्मचर्य धारण करते हुए भुकुंड वाराणसी चले गए. कुछ दिन वहाँ रहने के बाद वो गंगोत्री गए और उसके बाद केदारपुरी, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर आदि स्थानों में भक्तिपूर्ण साधना करते रहे. यहां से फिर वो काशी गए और वहां पहुँचकर उन्होंने पूजा अर्चना के लिए कुछ शिष्य भी रख लिये. कुछ समय बाद वो अपने शिष्यों के साथ फिर से केदारपुरी आए और उन्होंने शिवजी को प्रसन्न करने के किए उग्र तपस्या की. तब शिवजी ने प्रसन्न होकर भुकुण्ड को दर्शन दिए और मनचाहा वरदान माँगने को कहा.
भुकुंड ने कहा कि, प्रभु यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे इस मानवी देह से विमुक्त करके अपनी सेवा में ले लीजिए. साथ ही भविष्य में केदारलिंग की पूजा की प्रथा हमेशा के लिए मेरे ही शिष्य सम्प्रदाय में रहने की आज्ञा दीजिए. भगवान शिव ने भुकुंड को मानव देह से मुक्त किया और केदार लिंग की पूजा प्रथा भुकुण्ड के शिष्य सम्प्रदाय में चलने की आज्ञा भी दे दी. तभी से यह प्रथा भुकुण्ड के शिष्य सम्प्रदाय में चली आती है. सिर्फ़ पौराणिक कथा में ही नहीं बल्कि केदारनाथ मन्दिर की प्राचीन बहियों में भी ऐसा ही जिक्र मिलता है. इनके अनुसार केदारनाथ के रावलों का मूलपुरुष भुकुण्ड था जो ईसा से 1270 साल पहले और विक्रमी सम्वत् से 1214 साल पहले हुआ हो.
भुकुण्ड का जन्म पाण्डवों के स्वर्ग चले जाने के बाद ही बताया गया है. पौराणिक कथाओं के अनुसार जब कलियुग आने लगा तो युधिष्ठिर ने राज्य अभिमन्यु के पुत्र जन्मेजय को दिया और द्रोपदी सहित पाँचों भाई हिमालय स्वर्गारोहण को चले गये. कलियुग का आरम्भ हुए पञ्चागों में 5021 वर्ष लिखा जाता है. इससे भुकुण्ड का होना ईसा से 3101 साल पहले होना प्रतीत होता है. रमेशचन्द्र दत्त ने अपनी किताब ‘भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता का इतिहास’ में महाभारत का समय ईसा से 1250 वर्ष पहले लिखा है. पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी का अनुमान भी लगभग यही दर्शाता है.
ये भी दिलचस्प है कि केदारनाथ के रावल पहले पूजक या महन्त कहलाते थे. सम्भवतः साल 1833 में जब बदरीनाथ के पूजकों को श्रीनगर दरबार से रावल पदवी मिली तभी से केदारनाथ के पूजकों या महन्तों को भी रावल पदवी दी गई हो.
तो ये थी केदारनाथ से जुड़ी तमाम मिथकों, अफ़वाहों, मान्यताओं और हक़ीक़तों की कहानी.
स्क्रिप्ट: प्रगति राणा
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