साल 1842. ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विस्तार अपने चरम पर था और भारत में बग़ावत की चिंगारी भड़कने में अभी देर थी. लिहाज़ा भारत अंग्रेज अधिकारियों के लिए किसी ऐश-गाह से कम नहीं था. उसी दौर में एक ऐसा अंग्रेज अधिकारी भी भारत पहुंचा जो अपनी ही देश की सेना से बचता-बचाता यहां आया था. ये अधिकारी यूं तो ख़ुद भी ब्रिटिश सेना का हिस्सा था लेकिन अफ़ग़ान युद्ध में कुछ ऐसा हुआ था कि इसे अपनी ही सेना छोड़ कर भागने पर मजबूर होना पड़ा. अपनी जान बचाते हुए जब ये अंग्रेज भारत के हिमालयी इलाकों में दाखिल हो रहा था तो उसने ख़ुद भी नहीं सोचा था कि कुछ ही समय बाद वो इस पूरे क्षेत्र पर एक छत्र राज करेगा, उसकी अपनी मुद्रा होगी और उसके नाम का यहां सिक्का चलेगा, वो पहाड़ के इस भूभाग में बसे लोगों की जिंदगियाँ बदल कर रख देगा और एक फ़िरंगी होने के बावजूद भी गढ़वाल के किसी राजा की तरह अपना शासन चलाएगा, अपना साम्राज्य बनाएगा, ‘गढ़वाल का फ़िरंगी राजा’ और ‘किंग ऑफ़ हर्षिल’ जैसी उपाधि हासिल कर लेगा. इस अंग्रेज का नाम था फ़्रेड्रिक विल्सन जिसे पहाड़ के लोगों ने हुलसन साहिब और हुल सिंह साहब के नाम से भी जाना.
मुखवा, भागीरथी घाटी का अंतिम गांव. यहां गंगोत्री के पंडे यानी पुजारी भी रहते हैं. सर्दियों में जब गंगोत्री के कपाट बंद हो जाते हैं तब देवी की प्रतिमा को ला कर इसी गाँव में स्थापित किया जाता है. इस गांव का इतिहास उस समय एक नया मोड़ लेता है, जब फ़्रेड्रिक विल्सन नाम का एक फिरंगी अपनी बंदूक ताने यहां कदम रखता है. उसके लम्बे कद, लाल चेहरे और अजनबी रूप-रंग के कारण गांव के लोग शुरुआत में उससे डरते हैं क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी ऐसा विदेशी नहीं देखा होता. विल्सन 1840 के दशक की शुरुआत में भारत आया था. वो तब ब्रिटिश सेना में एक अधिकारी था. लेकिन 1842 में अफगान युद्ध के दौरान, परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उसे सेना से भागना पड़ा. कुछ इतिहासकार बताते हैं कि विल्सन ने गलती से अपनी ही सेना के एक अधिकारी की हत्या कर दी थी जिसके बाद वो सेना छोड़ कर भाग गया और उसने भारत के हिमालयी इलाकों में शरण ली. साल 1998 में पहाड़ पत्रिका में प्रकाशित डॉक्टर रामेश बेदी अपने लेख में लिखते हैं, ‘1842 में हुए पहले अफ़ग़ान युद्ध में दोस्त मोहम्मद के बेटे अमीर शेर अली के हाथों अंग्रेजों की करारी हार हुई थी. उस अपमानजनक हार के बाद विल्सन उत्तराखंड में शरण लेने चला आया था. गंगोत्री से 13 किलोमीटर पहले मुखवा गांव में उसे शरण मिल गई.’
मुखबा तब एक छोटी-सी बस्ती जहां अधिकतर सेमवाल लोगों के घर थे. इनके अलावा यहाँ कुछ परिवार भी थे जो बाजगी जाति के थे और जिन्हें मन्दिर में देवोत्थान के समय वाद्य यंत्र बजाने के लिए सेमवालों ने यहां बसाया था. डॉक्टर रामेश बेदी लिखते हैं कि ‘मुखवा के ब्राह्मण तो विल्सन को मलेच्छ समझते थे. गांव के मौतगु दास ने उसे आश्रय दिया था.’ मौतगु दास पारंपरिक वाद्य यंत्र जैसे ढोल, नगाड़ा और तुरही बजाते थे. मुखवा के सवर्णों और दासों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में जमीन-आसमान का अंतर था. दास अनपढ़, गरीब, भूमिहीन थे और हर तरह से पण्डों पर आश्रित थे. पण्डों से उन्हें जो अनाज या दान मिल जाता, उस पर गुजर कर उन्हें सन्तुष्ट रहना होता था.
विलसन के आने के बाद मुखवा में बदलाव की बयार चली. उसने शिकार पर जाना शुरू किया और वो अपने साथ गांव के दासों को भी शिकार पर ले जाने लगा. इसके लिए वो उन्हें नकद मजदूरी दिया करता था. उस दौर में जहां सामान्य दैनिक मजदूरी एक आना प्रति व्यक्ति थी, वहीं विलसन ने उन्हें दो आना देना शुरू किया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आने लगा. विलसन का मुख्य शिकार मुनाल पक्षी और कस्तूरी मृग थे. हालाँकि शिकार के समय जो भी जानवर उसके सामने आता वो उसे मार गिराता. जानवरों को मारने के बाद विल्सन खुद ही सावधानी से उनकी खाल निकालता. ये हुनर उसने अपने सहायक शिकारियों और मुखबा के दासों को भी सिखा दिया. खालों का शुरुआती उपचार करके वह उन्हें ठंडी जलवायु में सुरक्षित रखता ताकि वे खराब न हों. जब पर्याप्त खालें और कस्तूरी का नाफा यानि नाभि इकट्ठा हो जाते, तो विल्सन उन्हें मसूरी और देहरादून में बेच आता.
इस दौर तक टकनोरी लोग सिर्फ मांस के लिए ही कस्तूरी मृग का शिकार करते थे और कस्तूरी के नाफों को बहुत मामूली कीमत पर बेच दिया करते थे. विलसन ने उन्हें कस्तूरी की वास्तविक कीमत समझाई. तब बड़ी संख्या में गांव के लोग उसके साथ शिकार में प्रतिभाग करने लगे. ये लोग सामूहिक रूप से मृगों को हांक कर विलसन की तरफ खदेड़ देते. एक ही दिन के शिकार में विल्सन कई मृगों का शिकार कर लेता और उनके नाफे काटकर, खाल और गोश्त सबके बीच बांट देता. इन नाफों को धूप में सुखाया जाता था. इतिहासकार लिखते हैं कि हर्षिल के बंगलों के आंगन में उस दौरान सुखाए गए नाफों की तादाद इतनी ज़्यादा होती कि वे सूखे गेहूं के दानों जैसे लगते थे.
कस्तूरी के व्यापार ने विल्सन की किस्मत बदल दी. जानवरों के अंग और कस्तूरी बेचकर उसने मोटा मुनाफ़ा बनाया. लेकिन उसके व्यावसायिक दिमाग में हिमालय के अछूते जंगलों से लाभ कमाने की एक अन्य महत्वाकांक्षी योजना अभी अधूरी ही थी. इसे पूरा करने के उद्देश्य से वो टिहरी दरबार पहुंचा और उसने भागीरथी घाटी के विशाल देवदार वृक्षों की लकड़ी मैदानों में बेचने की अनुमति मांगी. डॉक्टर रामेश बेदी लिखते हैं कि ‘1850 के आस-पास विल्सन ने अछूते शंकु वनों का 400 रुपए की नाममात्र वार्षिक राशि देकर अप्रतिबंधित पट्टा यानी अनरिस्ट्रिक्टेड लीज़ हासिल कर ली.’ हालाँकि इतिहास की किताबों में इस रक़म के बारे में अलग-अलग जिक्र मिलता है. इतिहासकार शिव प्रसाद दबराल के हवाले से महिपाल नेगी अपनी किताब ‘टिहरी की जलसमाधि’ में लिखते हैं कि ‘राजा सुदर्शन शाह ने सबसे पहले विल्सन को जंगल कटान की अनुमति दी थी. 1851 से 1864 तक 4000 रुपए का वार्षिक राजस्व विल्सन ने राजा को दिया. इसके बाद राजा भवानी शाह ने साल 1865 में दस हज़ार रुपए वार्षिक पर विल्सन को जंगल कटान का ठेका जारी रखा.’ इसी किताब में यह भी जिक्र मिलता है कि विल्सन के बाद भी जंगलों का ये कटान जारी रहा और साल 1931-32 में राजा नरेंद्र शाह ने जंगल कटान का ठेका पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध ठेकेदार गंगाराम खंडूडी को 30 हजार रुपए से भी अधिक में दिया था.
विल्सन के आलोचकों का कहना है कि जंगल का मालिक बनकर उसने ऊंचे पहाड़ों के अनछुए जंगलों को बेतहाशा काटा. कई साल तक लगातार पेड़ काटते हुए उसने टकनोर, बाड़ाहाट, और भंदर्सू के पहाड़ों को पुराने देवदार के वृक्षों से खाली कर दिया.
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि विल्सन ने जंगलों का ज़बरदस्त दोहन किया. लेकिन कुछ लेखकों ने ये भी माना है कि अपने व्यापार के लिए उसे सिर्फ़ वही पेड़ चाहिए थे जो अपनी उम्र लगभग पूरी कर चुके थे. ऐसे में उन पेड़ों के कटान से जंगल में अत्यधिक घनत्व के दुष्प्रभाव कम हुए और बाक़ी पेड़ों को पनपने के लिए अच्छा वातावरण मिला. एस.पी. साही ने नौर्दर्न फॉरेस्ट रेंजर्स कॉलेज मैगजीन के साल 1961-62 के अंक में लिखा है कि ‘विलसन द्वारा छोड़े गए माल में वृक्षों के ठूंठ और पुराने लट्ठों का एक कब्रिस्तान सा बसा हुआ था. मौसम की मार झेलते हुए इन्हें लगभग एक शताब्दी बीत चुकी थी. निरीक्षण से पता चलता था कि अधिकांश वृक्ष या तो अपनी परिपक्व उम्र पूरी कर चुके थे या सघनता के कारण प्राकृतिक विघटन की प्रक्रिया में थे. इसलिए विलसन द्वारा किए गए कार्यों को हमेशा विनाशकारी नहीं माना जा सकता.’
जहां एक तरफ विल्सन को जंगल का विनाश करने वाला समझा जाता है वहीं ये भी माना जाता है कि वह उत्तराखंड के कठिन इलाकों में वनों का सही तरीके से इस्तेमाल करने और कीमती लकड़ी को नदियों के जरिए मैदानों तक पहुंचाने वाला पहला व्यक्ति था. भागीरथी की तेज धारा के सहारे बहा कर वह अपनी लकड़ी को हरिद्वार तक भेजता था, जो वैज्ञानिक तरीके से वनों के दोहन में एक बड़ी उपलब्धि थी. कई वैज्ञानिक तो ये भी मानते हैं कि आज भी टकनोर, बाड़ाहाट और भंदर्सू के इलाकों में देवदार के जो नए पेड़ खड़े हैं, ये सब विलसन के काम का नतीजा है. अगर ऐसे कठोर कदम न उठाए गए होते तो आज इस क्षेत्र में जैसे देवदार के पेड़ों का स्वरूप देखने को मिलता है, वैसा न होता.
विलसन ने पहाड़ों में पुराने रास्तों को भी बदलकर नए रास्ते बनवाए ताकि उसका काम आसान हो सके. उसने इन रास्तों पर पुल बनाए और हर्षिल, कांट बंगला, धरासू, धनोल्टी, काणा ताल, झालकी और मसूरी में बंगले बनवाए. उसने जिन रास्तों को विकसित किया उन्हें ‘विलसन मार्ग’ कहा गया. मसूरी से मुखवा तक भी विलसन मार्ग था जो मसूरी से धनोल्टी, काणा ताल, बन्दवाल गाँव होते हुए भल्डियाणा और फिर वहां से भागीरथी पार करके लम्बगाँव होते हुए नगुणा, धरासू, डुण्डा, उत्तरकाशी, मनेरी, भटवाड़ी, गंगनानी, सुक्खी, झाला और हरसिल होते हुए मुखवा पहुँचता था.
इन रास्तों पर विल्सन के कारिंदे चला करते थे और हर्षिल से हरिद्वार तक हजारों लोग पेड़ों की कटाई, चिराई और लकड़ी को बहाने और ढोने का काम किया करते थे. इस रूट पर दुकानें भी खुलने लगी और उनकी अच्छी कमाई होने लगी थी. विल्सन का यहां ऐसा वर्चस्व हो गया था कि उसकी अपनी मुद्रा यहां चलने लगी थी. किसी भी चीज के लेन-देन में विलसन की हुण्डी और सिक्के चलने लगे थे और हरिद्वार पार तक इनका प्रचलन हो गया था. स्थानीय लोग विलसन की मुद्रा प्रणाली को पहाड़ों के परिवेश और प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यावहारिक और लाभदायक बताते थे. इस प्रणाली में 1, 2, 5 और 10 रुपये की मुद्राएं जारी की गई थीं. भागीरथी घाटी में इस बेताज फिरंगी राजा का बरसों अघोषित राज्य रहा. उसके कार्यों और उपलब्धियों का सिक्का तो गढ़वालवासियों के दिलो-दिमाग में जम गया था साथ ही साथ उसका टकसाली सिक्का भी व्यापारिक लेन-देन में जम गया. लोग उसे ‘सोने की चिड़िया’ कहते थे गढ़वाल में अधिकतर लोग उसे हुल सिंह साहब के नाम से जानने लगे थे. उसके बनाए हुए रास्ते और बंगले आज भी उसकी कहानी बताते हैं. धराली गांव में भागीरथी नदी के किनारे विलसन का दिया हुआ घड़ियाल आज भी पूजा में बजाया जाता है.
रामेश बेदी लिखते है कि ‘हिमालय की यात्राओं के दौरान मैंने हमेशा विल्सन के टोकनों की तलाश की. साल 1988 में मुझे उसका एक टोकन मिला, जो रुपये की जगह इस्तेमाल होता था और भागीरथी घाटी में चलता था. बाकी मूल्य के टोकन अब तक नहीं मिले हैं.’ फ़र्स्ट-पोस्ट में प्रकाशित एक लेख में पत्रकार राजू गुसाईं लिखते हैं कि विल्सन के सिक्के अब लगभग विलुप्त हो चुके हैं सिर्फ़ तीन ही सिक्के बचे हैं जिनकी बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से एक हर्षिल में रहने वाले बालम दास के पास है जबकि दो सिक्के मसूरी में रहने वाले लेखक गणेश शैली के पास.
विलसन जब भागीरथी घाटी में आया था उस दौर में यह क्षेत्र आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ा हुआ था. तब यहां की पहाड़ी भूमि पर थोड़ी-बहुत ही खेती पर होती थी और जंगलों का किसी भी प्रकार का दोहन नहीं होता था. लोग सिर्फ फाफरा यानि कोटू और रामदाना यानि चौलाई जैसी फसलों पर निर्भर थे. लेकिन विलसन ने यहां बागवानी और उन्नत खेती की शुरुआत की. उसने सेब, आलू बुखारा, खुमानी, और नाशपाती के बगीचे लगाए और अपने हर्षिल वाले बंगले के सामने एक बड़ा बगीचा बनाया. उसके लगाए पेड़ सालों तक फल देते रहे.
विलसन से प्रेरणा लेकर दूसरे लोगों ने भी यहां फलों के पेड़ लगाए. मुखवा के लोग बताते हैं कि आजकल उगाए जा रहे सेबों की तुलना में विल्सन के सेब कहीं बेहतर थे. वे आकार और स्वाद दोनों में ही ज्यादा अच्छे हुआ करते थे. विल्सन को भागीरथी घाटी में राजमा, आलू और गेहूं की फसलें लाने का श्रेय भी दिया जाता है. इससे पहले यहां फाफरा और रामदाना ही मुख्य फसलें थीं. रामेश बेदी लिखते हैं कि विल्सन ने टिहरी गढ़वाल के ऊंचे तालों में ट्राऊट मछलियां भी छोड़ीं, जिससे लोगों के आहार में सुधार हुआ और उनका स्वास्थ्य बेहतर हुआ.
विल्सन ने घाटी के लोगों को आरे से लकड़ी चीरना सिखाया और मकान बनाने में सुधार किया. उसने 1864 में हर्षिल में 2560 मीटर की ऊंचाई पर एक शानदार दो मंजिला बंगला बनवाया, जिसमें पत्थर की नींव और देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल हुआ था. उसके घर के बगीचे की हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों की रौनक से बंगला बहुत खूबसूरत लगता था.
मुखवा में एक सोमेश्वर मंदिर है, जो धार्मिक अनुष्ठानों और सामाजिक समारोहों का मुख्य केंद्र है. इस मंदिर की पूजा और देखभाल के लिए हर घर से धन जमा किया जाता था, जिसमें विल्सन भी अपना हिस्सा देता था. हालाँकि उसकी मंदिरों में कोई ख़ास आस्था नहीं थी. एक बार इस मंदिर में एक धार्मिक समारोह के दौरान पंडित पर देवता का अवतरण हुआ. विल्सन ने इस मौके का फायदा उठाते हुए देवता की शक्ति की परीक्षा लेने की सोची. उसने अपनी मुट्ठी में कुछ छिपाया और देवता से पूछा कि मेरी मुट्ठी में क्या है? देवता ने विल्सन की एक मुट्ठी की तरफ इशारा किया और फिर नाचते हुए दर्शकों के घेरे से बाहर चला गया. वह खुमानी के पेड़ के पास पहुंचा और विल्सन की दूसरी मुट्ठी की तरफ इशारा किया. फिर उसने एक महिला की नाक की सोने की नथ की ओर इशारा किया. जब विल्सन ने अपनी दोनों मुट्ठियां खोलीं, तो सब हैरान रह गए कि उसकी एक मुट्ठी में खुमानी की गुठली और दूसरी में सोने की अशर्फी थी. विलसन ने तुरंत देवता को वह अशर्फी भेंट कर दी, जिसे बाद में मंदिर में रख दिया गया. इसके अलावा, विलसन ने मंदिर में एक बड़ा घंडियाल और कई अन्य चीजें भी भेंट की. ये घड़ियाल हर्षिल के बंगले में लटका रहता था और काम के घंटों का संकेत देने के लिए बजाया जाता था. गंगोत्री मंदिर में भी विल्सन की दी हुई एक तलवार आज भी देखी जा सकती है.
विल्सन मुखवा के छोटे से गाँव का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका था. वो उच्च जातियों के लोगों से भी घुलने-मिलने लगा था और दासों के साथ तो उसके घनिष्ठ संबंध बन ही चुके थे. दरअसल मंगितु बाज़गी का घर एक तरह से उसका अपना घर हो चुका था. मंगितु, विलसन के कामों में उसका प्रमुख सहयोगी था. मंगितु की एक बहन थी जिसका नाम सुवदा था. कुछ इतिहासकार इस नाम को संग्रामी भी लिखते हैं. डीसी काला की किताब ‘फ़्रेड्रिक विल्सन: हुलसन साहिब ऑफ़ गढ़वाल’ में प्रकाशित विल्सन की एक वसीयत में भी ये नाम संग्रामी ही लिखा गया है. संग्रामी उर्फ़ सुवदा की शादी भटवाड़ी – गोरसाली गांव में हुई थी. कुछ कारणों से उसने अपने पति का घर छोड़ दिया था और वह मुखवा में आकर रहने लगी. यहां उसका और विलसन का प्रेम विवाह हो गया. रामेश बेदी लिखते हैं कि ‘सुवदा के भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा था. उसके निसंतान मर जाने पर अपना वंश चलाने के लिए विल्सन ने मंगितु की जवान बेटी रायिमता से गंधर्व विवाह कर लिया.’
विल्सन की दूसरी शादी का जिक्र सभी इतिहासकारों ने किया है और इतिहास के लगभग सभी दस्तावेज़ों में यह भी साफ़ है कि उसकी पहली शादी मंगितू की बहन और दूसरी शादी मंगितू की बेटी से हुई थी. यानी उसकी दूसरी पत्नी रायिमता उसकी पहली पत्नी की भतीजी थी. लेकिन रायिमता से विल्सन की शादी पहली पत्नी की मौत के बाद हुई हो, इस बात पर इतिहासकारों में मतभेद है. डीसी काला की किताब में प्रकाशित विल्सन की वसीयत 4 जुलाई 1882 की है और उसमें ये लिखा गया है कि उसकी मौत के बाद उसकी पत्नी संग्रामी को हर छह महीने में 3600 रुपए दिए जाएं. इससे साफ़ है कि उसकी पहली पत्नी संग्रामी उर्फ़ सुवदा तब तक जीवित थी. हालाँकि इस वसीयत में विल्सन ने रायिमता को अपनी दूसरी पत्नी स्वीकारा ही नहीं है. उसने रायिमता का जिक्र किया तो है और उसे हर छह महीने में 400 रुपए देने की बात भी लिखी है, लेकिन उसने रायिमता को अपनी पत्नी नहीं बल्कि अपनी पहली पत्नी संग्रामी की भतीजी कहकर सम्बोधित किया है. इसके साथ ही इतिहासकारों के ब्योरों और इस वसीयत में एक मतभेद और भी है. जहां सभी इतिहासकारों ने माना है कि विल्सन के रायिमता से तीन बेटे हुए, वहीं इस वसीयत में विल्सन ने रायिमता को नहीं बल्कि संग्रामी को अपने बच्चों की मां बताया है.
वैसे कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि विल्सन की दूसरी को कभी भी स्वीकार्यता नहीं मिली क्योंकि उसने अपनी पहली पत्नी की भतीजी से ही दूसरी शादी की थी. इसलिए भी सम्भवतः अपनी वसीयत में उसने रायिमता को अपनी पत्नी नहीं बल्कि पहली पत्नी की भतीजी ही लिखा है.
बहरहाल, रायिमता से शादी के बाद विलसन ने उसके भाई सुबध्यानु को देहरादून के एक कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजा. देहरादून से वापस आकर सुबध्यानु मुखवा में पंडों के बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाता था, इसलिए लोग उसे सुबध्यानु मास्टर कहते थे.
उन दिनों देश के विभिन्न भागों में बसे ईसाई अपने धर्म प्रचार में लगे हुए थे. हिन्दुओं को ईसाई धर्म में दीक्षित किया जा रहा था और उनके हिन्दू नाम बदल कर ईसाई नाम रखने का चलन था. विलसन ने सुबध्यानु मास्टर के बच्चों के नाम मसी, जुन्सी और अम्बी रख दिए थे.
विलसन और रायिमता के तीन बच्चे हुए. चार्ली, ऐन्द्री जिसे हेनरी कह कर भी बुलाते थे और नत्थू. ये तीनों गंगोत्री क्षेत्र में बोले जाने वाली टकनौरी भाषा बोलते थे. इस इलाके से हिमाचल के किन्नौर तक एक पुराना रास्ता है, जिससे अब भी किन्नौरी लोग गंगोत्री की यात्रा पर आते हैं. इसी रास्ते से विलसन कुल्लू से सेब और आलू के बीज हर्षिल लाया था.
विल्सन के सबसे बड़े बेटे चार्ली ने देहरादून और मसूरी में बड़े-बड़े भवन बनाए. उसने मसूरी में चार्ली विला नाम से एक बड़ा होटल बनाया, जो आधी शताब्दी तक भारतीय और विदेशी लोगों की सेवा करता रहा. वही होटल अब लालबहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी यानी लबास्ना है.
मुखवा के पंडे उस दौर में ख़रीददारी के लिए अक्सर देहरादून आया करते थे. ख़रीद का सामान ढोने के लिए बकरियों का इस्तेमाल होता था. वे बकरियों की पीठ पर थैलियों में सामान लादकर लाते थे. पंडे सैकड़ों बकरियों के साथ देहरादून तक का लंबा सफर तय करते थे. उनका मार्ग मुखवा से धरासू, जौनपुर, रायपुर होते हुए देहरादून तक जाता था. देहरादून में वे रिस्पना नदी के किनारे डेरा डालते और वहाँ से गुड़, बूरा, चावल, मसाले, कपड़े और अन्य ज़रूरी चीजें खरीदकर मुखवा ले जाते थे. किसी यात्रा के दौरान विल्सन के बड़े बेटे चार्ली ने मुखबा के किसी पण्डे को पलटन बाज़ार में देखा. चार्ली ने उसकी पीठ पर मज़ाक में अपनी छड़ी चुभाते हुए गढ़वाली में पूछा – ‘तू कयां कु’ मतलब तुम कहाँ के हो? पंडित को आश्चर्य हुआ कि यह अंग्रेज़ गढ़वाली कैसे बोल रहा है. उसने कहा मुखबा से. फिर चार्ली ने टकनौरी में बात करनी शुरू की और बताया कि वह हुल सिंह साहिब का बेटा चार्ली है.
रामेश बेदी लिखते हैं कि चार्ली पंडों के डेरे पर गया और सबको गले लगाया. उसने पुराने लोगों के नाम लेकर उनकी खैरियत पूछी और उन्हें देहरादून का बासमती चावल, दाल और आलू दिए. उसके बाद जब भी मौका मिलता चार्ली मुखवा से आए पंडों से मिलने रिस्पना में उनके डेरे पर चला जाता. वहाँ चाय पीटा और प्यार से फफरोला मांगकर खाता. फफरोला एक मोटी रोटी होती थी, जिसमें थोड़ा सा गुड़ मिलाया जाता था.
विल्सन के बाक़ी दो बेटों की भी एक कहानी है. भागीरथी के बाएँ तट पर मुखवा के सामने धराली गांव है. गाँव के लोग कहते हैं कि उनके पूर्वज मालवा की धारानगरी से आकर यहाँ बसे थे. धराली में ज्यादातर पंवार राजपूत रहते हैं, जिनका टिहरी राज्य के शासक पंवारों से संबंध रहा है. धराली के जीतमल पंवार की दो बेटियाँ थीं – रुदा और गोदावरी. विलसन के छोटे बेटे एन्द्री और नत्थू उनकी सुंदरता पर मोहित हो गए. जीतमल ने रुदा की शादी एन्द्री से कर दी और गोदावरी की नत्थू से. दोनों बहनें एक ही घर में आ गईं. राजपूत हिंदू लड़कियों की शादी फिरंगी ईसाइयों से हुई, जिससे ये विवाह बहुत चर्चा में आ गए और उस घाटी के गाँवों में इन शादियों को पसंद नहीं किया गया. इस अनोखी प्रेम कहानी ने लोक-नर्तकों और गायकों को गाने के लिए एक दिलचस्प विषय दे दिया. उनकी प्रेम कहानी पर एक गीत बना जिसे “रुदा-गोदावरी” के नाम से जाना जाता है.
मुखबा और आस पास के गाँव के लोगों के लिए जहां विलसन का आगमन एक वरदान था, वहीं उसका तीसरा बेटा नत्थू उनके लिए एक अभिशाप बन गया. लोग विलसन और उसके बेटे चार्ली को सम्मान से याद करते हैं, लेकिन नत्थू का नाम अपहरण, बदमाशी और हत्याओं से जुड़ा हुआ है. धराली के पंवार लोग कहते हैं कि नत्थू और गोदावरी की शादी सहमति से हुई थी. लेकिन रामेश बेदी मुखवा के पंडों के हवाले से लिखते हैं कि नत्थू ने रुदा और गोदावरी, दोनों बहनों का अपहरण कर हर्षिल ले गया था. वो उनके सौंदर्य पर इतना मोहित हो गया था कि उसने दोनों बहनों का अपहरण कर लिया. समय के साथ उसकी आपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ती गईं. वो बंदूक उठाता और जो भी उसके सामने आता उसे निशाना बना देता. यात्रा के मौसम में उसने हर्षिल में अपने बंगले के पास कुछ तीर्थयात्रियों की हत्या भी कर दी थी. एक बार उसने भेड़-बकरियों के एक झुंड पर इतनी गोलियां बरसाई कि 150 से ज्यादा जानवरों की मौत हो गई. पागलपन के एक और दौरे में उसने धराली गांव में उत्पात मचाया. इसके बाद, गांव के एक प्रतिनिधिमंडल ने टिहरी के महाराजा से नत्थू की गिरफ्तारी की मांग की. उसे टिहरी जेल में डाल दिया गया, जहां पागलपन में उसकी मौत हो गई.
विलसन के दोनों बड़े बेटे जब मसूरी-देहरादून चले गए और छोटे बेटे नत्थू की पागलपन में मृत्यु हो गई, तो विलसन का मन भी हर्षिल से हटने लगा. उसने अपनी सारी संपत्ति बेचने की सोची और हर्षिल छोड़ने का फैसला किया. लेकिन उसे कोई खरीदार नहीं मिला. गुस्से में उसने कुछ फर्नीचर बंगले के बाहर फेंक कर जला दिया. विलसन के आने से पहले हर्षिल की सारी जमीन मुखबा के पंडों की थी. हर्षिल का मुख्य बंगला और उसके सामने का बगीचा विल्सन को दलीराम पंडे ने दिया था. तो विलसन ने सोचा कि क्यों न अपनी संपत्ति पंडों को ही भेंट कर दी जाए, जो समाज के लिए अच्छा काम कर रहे थे. लेकिन उसके साले और ससुराल वालों ने इसका विरोध किया और दबाव डाला कि वह संपत्ति उनके नाम कर दे. विलसन असमंजस में पड़ गया और पंडों को बंगला न देकर राजा को सौंप दिया, जिसने उसे वन विश्राम भवन बना दिया. हर्षिल में विल्सन का ये बंगला आज भी फ़ॉरेस्ट गेस्ट हाउस के रूप में देखा जा सकता है. हालाँकि 1990 के दशक में इसमें आग लग गई थी जिसके कारण अब ये उस स्वरूप में नहीं है जैसा विल्सन ने इसे बनवाया था.
लोगों का ये भी मानना है कि विल्सन ने जिस बेरहमी से इस इलाके में पेड़ों का कटान किया, जंगली जानवरों का शिकार किया और स्थानीय देवताओं का अपमान किया, उसका दोष उसे ऐसा लगा कि उसका पूरा परिवार खत्म हो गया. उसका बेटा नत्थू तो पागल होकर मरा ही, उसका दूसरा बेटा एंद्री भी जल्द ही मर गया. एंद्री के मरने के बाद उसकी पत्नी रुदा का जीवन बेहद ग़रीबी में गुजरा. रामेश बेदी लिखते हैं कि बाद में उसे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये हिमालय की खूबसूरत घाटी के फ़िरंगी राजा की बहु होगी. उसकी मौत के बाद गांव वालों ने उसके पार्थिव शरीर को ईसाई धर्म के रीति-रिवाजों के तहत गंगा किनारे दफ़ना दिया था. लेकिन कुछ साल बाद उसकी कब्र बाढ़ में बह गई. इसके साथ ही विल्सन ख़ानदान का घाटी में अंत हो गया. नत्थू और गोदावरी की तो एंद्री और रुदा से पहले ही मौत हो गई थी.
विलसन की मौत साल 1883 में हुई. उसके जाने के बाद, बाजगी परिवारों की आय और खुशहाली भी जाती रही और वे फिर से पुराने जीवन में लौट आए. गंगोत्री मंदिर में पूजा के समय नौबत सेवा का अधिकार मुखवा के चार बाजगी परिवारों को मिला हुआ था और उनकी बारी आती थी.
फ्रेडरिक विल्सन ने लगभग 40 साल भारत में बिताए और उत्तरकाशी क्षेत्र के बड़े भूभाग को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. उनके शिकार और लकड़ी के कारोबार ने स्थानीय लोगों को आजीविका का नया साधन भी दिया. विल्सन लगभग चार-पांच दशकों तक हर्षिल में राजा की तरह रहा और उसके क़िस्से आज भी यहाँ लोक में खूब कहे-सुने जाते हैं. उसकी छाप आज भी हर्षिल और मुखवा में देखी जा सकती है जहां उसके कई निर्माणों के अवशेष आज भी जीवित हैं. कुछ ही समय पहले फ़र्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में पत्रकार राजू गुसाईं ने यह भी दावा किया है कि चर्चित गरतांग गाली का निर्माण भी असल में विल्सन ने ही करवाया था. इस बारे में बारामासा ने विस्तार से एक प्रोग्राम भी किया है जिसे आप डिस्क्रिप्शन में दिए गए लिंक पर जाकर देख सकते हैं.
तो ये थी कहानी ‘किंग ऑफ़ हर्षिल’ की जिसे कभी पहाड़ का फ़िरंगी राजा कहा गया तो कभी हुल सिंह साहब और जिसे इतिहास कभी जंगलों और जानवरों के निर्मम हत्यारे की तरह याद करता है तो कभी इस क्षेत्र के कई परिवारों की क़िस्मत बदल देने वाले मसीहा के तौर पर.
स्क्रिप्ट: प्रगति राणा
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