पहाड़ी लोक कथा बूढ़-बुढ़िया और पांच पकोड़ी

  • 2024
  • 6:05

कहते हैं किसी भी समाज को जानना हो तो उस समाज की लोक कथाओं को जानो. तो पहाड़ों को और करीब से जानने के लिए बारामासा लाया है उत्तराखंड की लोक कथाओं से सजा हुआ यह कार्यक्रम, घुघूती-बासूती.

आज की कहानी जिसका नाम है- बूढ़-बुढ़िया और पांच पकोड़ी!

तो दूर पहाड़ में एक छोटा सा गांव था, जहाँ 6  परिवार रहते थे. उनमें से एक परिवार में थे बूढ़-बुढ़िया। दरअसल उनके बेटे बहु शहर में रहते थे और बार त्यौहार अपने मां बाप से मिलने भी आ जाया करते थे.

दोनों पति-पत्नी सुखी से अपने दिन काट रहे थे और एक दूसरे से बहुत प्रेम भी करते थे. उनकी उम्र के हिसाब से वो खेती बाड़ी नहीं कर सकते थे लेकिन साग सगवाडी में मिलजुल कर लगे रहते थे.

एक दुसरे के साथ पहाड़ की धुप छांव में कब वक़्त बीत गया उन्हें पता ही नहीं चला. इतनी आपदाओं और बसंत के साक्षी बनकर दोनों ने सही मायनों में पहाड़ को जी लिया था और अब बचा खुचा जीवन एक दूसरे का हाथ थामे काट रहे थे.

वैसे इन दोनों का प्रेम फिल्मी हीरो हिरोइनों जैसा नहीं था. दरअसल, इन दोनों के बीच अक्सर मज़ेदार नोक-झोंक लगी रहती थी.. हाल ऐसा था कि ज़्यादा देर एक दूसरे के साथ बैठे, तो किसी न किसी बात पर कहा-सुनी तो पक्की थी. बस ऐसा ही एक दिन आया जब उनकी एक छोटी सी नोंक झोंक ने हम सबको ज़िंदगी की एक मज़ेदार सीख दे दी…

दरअसल हुआ ये कि बाबा हमेशा चलते फिरते आमा को कह देते थे कि अब तो मेरी ज़िंदगी के कुछ ही पल बचे हैं… ये कर दे वह कर दे.. और ऐसी बातें सुनकर भला आमा कैसे उनकी बात न मानें.. तो एक बरस बहुत कड़ाके की ठंड पड़ी जिसे देखकर बाबा ने कहा “बुढ़ली मीते लगणू की ये जाड़ा मा म्यार प्राण चली जाला.. मेरे बसे की तो भै ये साल काटणू”. इस पर आमा को गुस्सा आया और आमा बोली.. “तुम्हारा मुख मा कबी क्वे भली बात नी ऐई…कुछ नी होण तुमते”
आमा की बात सुनकर बाबा ने थोड़ा और बोल दिया कि “बुढली यन च वक्त कू क्वे भरोसू नी.. अब भोल क्या होण कैते पता च.. इले जू कन मन बोल दू.. कर दी चैण”.. ये बात सुनकर  आमा समझ गई कि बाबा को कुछ चाहिए.. इसलिए घुमा फिराकर … सच कहूं तो ईमोशनल ब्लैकमेल करके अपनी बात रख रहे हैं.

इतने में आमा बोली… सही बोना छ तुम.. क्या च तुमारा मन मा जो तुम कन चांद…

ये बात सुनकर बाबा की आँखें चमक गई और वे एकदम से बोल पड़े… अरे बुढली, म्यार मन पकोड़ा खाणू कू बोनू… अहा कन स्वाद होंदा तेरा हाथ का पकोड़ा…
बाबा की बात सुनकर आमा खुश हो गई और फट से रसोई में जाकर दाल के पकोड़े बनाने की तैयारी करने लगी.. लेकिन ये क्या दाल तो बहुत कम थी.. ऐसे में आमा ने सोचा कि जितने पकोड़े बनेंगे बना देती हूं.. इसी बहाने बाबा का मन तो खुश हो जाएगा..
अब जब पकोड़े बने.. तो वो बने पाँच. ऐसे में बाबा ने कहा. बुढली.. चल यूं पकोड़ी तें गाँव मा बांट देंदा..नीथर गौं वाला बुरा माण जाला..  इस पर आमा कहती है.. चुप रवा.. 5 तो कुल पकोड़ी च..यों ते बांट देला तो हमते कुछ न बचलू.. टुप करीके खैल्या .. कैते बतौण की ज़रूरत नी…

ये सुनकर बाबा आमा की बात मान जाते हैं और खुश होकर अपनी थाली में पकोड़े देखते हैं… और ये क्या उनकी थाली में 3 पकोड़े थे और आमा की थाली में दो… ऐसे में सिलसिला शुरू हो जाता है और वह बोलते हैं कि ये क्या तेरी थाली में दो ही पकोड़े हैं.. इस पर आमा उनको कहती है कि अरे तुम्हारा इतना मन था.. तुम तीन खा लो.. लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है.. बाबा बिल्कुल नहीं मानते हैं. और एक पकोड़ी आमा की थाली में डाल देते हैं. ये देखकर आमा आग बबूला हो जाती है और वापस वह पकोड़ी बाबा की थाली  में डाल देती है.. पकोड़ी इस थाली से उस थाली की यात्रा करते-करते मानो मोक्ष को प्राप्त कर जाती है. लेकिन दोनो मियां बीवी अपनी बात पर अडिग रहते हैं. इतने में बाबा कहते हैं एक काम करते हैं ढ़ाई-ढ़ाई खा लेते हैं.. लेकिन इस पर आमा कहती है.. बिल्कुल नहीं… आधा-आधा करने से भाग्य भी आधा हो जाता है.

अब करें तो करें क्या.. कोई मानने को तैयार नहीं था. इतने में बाबा कहते हैं.. ऐसा करते हैं.. जो सुबह सबसे पहले उठेगा वह 3 पकोड़ी खाएगा.. आमा इस बात को मान जाती है..
अब आती है अगली सुबह.. मज़ेदार बात यह कि दोनों कि नींद खुल जाती है. लेकिन कोई उठता नहीं है. सुबह से दोपहर हो जाती है लेकिन दोनों में से कोई उठने को तैयार नही होता..

इतने में गाँव वाले देखते हैं कि सुबह-सुबह उठने वाले आमा-बाबा आज दोपहर तक नहीं उठे.. चिंता के मारे गाँव वाले उनके घर पहुंचे और देखा कि वे दोनों चुपचाप लेटे हुए हैं. गाँव वालों को लगता है कि दोनों बैकुंठ सिधार गए हैं. फिर क्या था सबका रोना-धोना शुरू हो जाता है और एक तरफ दोनों के अंतिम संस्कार की तैयारी भी.

दोनों मियां बीवी लेटे-लेटे सोच रहे होते हैं कि ये लोग तो हमें जलाने की तैयारी कर रहे हैं और फिर इतने में बाबा बोलते हैं.. बुढली मैं तीन खालू तू द्वी खा… ये सुनकर गांव वालों की हालत खराब हो जाती हैं. उन्हें लगता है दोनों आमा-बाबा भूत बन गए हैं और अब उनको खाने की बात कर रहे हैं.. डर के मारे सब भूत-भूत चिल्लाकर इधर उधर भागने लगते हैं. इतने में बाबा सबको समझाते हैं कि वो लोग भूत नहीं है.. और फिर 5 पकोड़ी की कहनी बताते हैं.. गांव वाले हंस-हंस के लोट-पोट हो जाते हैं और फिर आमा से कहते हैं कि उन्हें भी थोड़ी पकोड़ी चखा दे.. फिर क्या था आमा को सबको थोड़ी-थोड़ी पकोड़ी बांटनी पड़ती है.. जिसके बाद आमा बाबा के पास एक भी पकोड़ी नहीं बचती.. और दोनों एक दूसरे की शक्ल देखने लगते हैं…

तभी कहते हैं जिसके भाग्य में लिखा है उसे को मिलता है.

 

स्क्रिप्ट: प्रियंका गोस्वामी

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