स्वामी मन्मथन | केरल का संत जिसने पहाड़ों की तस्वीर बदली

  • 2025
  • 28:42

साल 1967. नवरात्रों के दिन थे और हर साल की तरह इस बार भी टिहरी ज़िले के सुप्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक, माँ चंद्रबदनी मंदिर में जानवरों की बलि दिए जाने की तैयारियाँ चल रही थी. प्रचलन था कि माता को प्रसन्न करने के लिये 1 भैंस और 9 बकरों की बलि देना ज़रूरी है. इसी प्रथा को दोहराया जाना था इसलिए मंदिर में स्थानीय श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जमा थी. मंदिर प्रांगण में मेले जैसा माहौल था लेकिन इस बार के नवरात्र पहले की तुलना में कुछ अलग थे. इस बार यहां के माहौल में एक अलग-सा तनाव महसूस किया जा सकता था. ऐसे में जब जानवरों को बलि के लिये ले जाया जाने लगा, तो अचानक भीड़ को चीरता हुआ एक पतली काया और लम्बी दाढ़ी वाला व्यक्ति सामने आया और उसने उद्घोष किया कि ‘अगर माता को प्रसन्न करने के लिए किसी निरीह जानवर की बलि दी जानी है तो उससे पहले तुम लोगों को मेरी बलि देनी होगी.’

ये बोल थे स्वामी मन्मथन के जिन्होंने जीवन भर उत्तराखंड के पहाड़ों में व्याप्त रूढ़ियों और कुरीतियों के खिलाफ समाज को जागरूक करने का काम किया और पहाड़ में लोगों के आर्थिक उत्थान, विशेषकर महिलाओं के लिये ‘भुवनेश्वरी महिला आश्रम’ की स्थापना की.

उदय मंगलम चन्द्र शेखरन मन्मथन का जन्म 18 जून 1939 के दिन केरल में एक अध्यापक के घर हुआ था. उस वक्त के समाज में व्याप्त छुआ-छूत, असमानता, शोषण, अंधविश्वास और कुरीतियों ने युवा मन्मथन को इतना विचलित किया कि इन तमाम कुप्रथाओं के कारण समझने की जिज्ञासा में उन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही घर छोड़ दिया.

घर से निकलकर उनका पहला प्रवास बंगाल में हुआ. यहां स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण आश्रम के सिद्धांतों से वे काफी प्रभावित हुए और यहीं से समाज-सुधार के बीज भी उनके व्यक्तित्व में अंकुरित हुए. हालाँकि सत्य और ज्ञान की खोज में निरंतर भटकते रहना ही उनकी नियति में था इसलिए कुछ समय बंगाल में बिताने के बाद वे महर्षि अरबिन्दो से मिलने पांडिचेरी पहुंचे. यहां भी वे कुछ समय रहकर गहन अध्ययन में लीन रहे. यही वो समय भी था देश में गांधी जी का मजबूत प्रभाव था और उनके स्वदेशी आंदोलन छाप देश भर में देखी जा सकती थी. युवा मनमंथन भी इससे प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी जीवनशैली में इसे उतारने का मन बनाया. एक साधारण-सा कुर्ता-पजामा पहने और कंधे पर एक झोला लटकाकर वे समाज को जागरूक करने निकल पड़े. पांडिचेरी से निकलकर सबसे पहले मन्मथन नागालैंड गए. लेकिन वहाँ उनके सुधारवादी विचारों का स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया जिसके चलते उन्हें जल्द ही नागालैंड छोड़ना पड़ा. ऐसे में मन्मथन दार्जिलिंग होते हुए हरिद्वार पहुंचे जहां एक महात्मा ने अध्ययन में उनकी रुचि देखते हुए उन्हें बिजनौर स्थित विदुर कुटी जाने का सुझाव दिया.

इसी सुझाव पर मन्मथन हरिद्वार से निकलकर बिजनौर के दारागंज में स्थित विदुर कुटी पहुंच गए. वे यहां अध्ययन के उद्देश्य से आए थे लेकिन लाइब्रेरी की खस्ता हालत से परिचित होने के बाद उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब वे क्या करें? विदुर कुटी के आस पास गरीब मछुआरों और हरिजनों की बस्ती थी. बस्ती के लोग गंदगी के बीच रहकर बमुश्किल दो वक्त की रोटी कमा पाते थे. आस-पास की सफ़ाई और साफ पानी की सुविधा तो उनके लिए किसी सपने जैसा था. बस्ती के बच्चे दिन भर गंदगी में सने रहते. मन्मथन ने उन बच्चों को आश्रम लाकर नहलाने-धुलाने और पढ़ाने का एक सिलसिला शुरू किया. लेकिन हरिजन बच्चों का आश्रम में प्रवेश वहाँ के प्रबंधको को लगातार अखर रहा था. लिहाज़ा मन्मथन और आश्रम प्रबंधन के बीच अनबन होने लगी. ऐसे में मन्मथन को ये आश्रम भी छोड़ना पड़ा. लेकिन अब तक बिजनौर में उनके कुछ अच्छे मित्र भी बन चुके थे जिनमें से गुरदीप बक्शी एक थे. मन्मथन को जब आश्रम छोड़ना पड़ा तो बक्शी साहब उन्हें अपने घर ले आए.

मन्मथन ने यहां भी आसपास के निर्धन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और जल्द ही बक्शी साहब के घर पर भी आश्रम की ही तरह आस-पास के बच्चे बेरोकटोक आने लगे. ‘स्वामी मन्मथन – चरित्र और कथा के कुछ अंश’ पुस्तक में वीरेन्द्र पैन्युली लिखते हैं कि ‘गुरदीप बक्शी जी के घर में रहते हुए स्वामी जी वहाँ के लोगों से नहाने का साबुन और तौलिया मांग लिया करते थे और कई बार सरकारी नलों पर ही किसी गंदे दिखने वाले बच्चे का मुह-हाथ धोने और उसे नहलाने लगते थे.’ मन्मथन बड़े मनोयोग से बिजनौर के गांवों का भ्रमण करते रहे और वहाँ के लोगों की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करते रहे. बिजनौर में नूरपुर और चाँदपुर के बीच आदोपुर नाम का एक गाँव पड़ता है जहां उन्होंने एक प्राथमिक पाठशाला भी बनवाई.

साल 1962 में जब भारत–चीन युद्ध छिड़ा तो पूरे देश में अन्न का संकट गहरा गया था. मन्मथन उस समय बिजनौर में ही रह रहे थे. यहां के लोगों की गरीबी और असहायता को उन्होंने काफी करीब से देखा था. आम जनता का इतना बुरा हाल हो गया था कि लोग अनाज की मंडियां तक लूटने लगे थे. यह सब देखकर एक दिन उन्होंने दारागंज में एक आम सभा आयोजित की और फिर लोगों को एक जुलूस के लिए तैयार किया. ये जुलूस जब 13 किलोमीटर पैदल चलकर बिजनौर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के घर के आगे रुका तो स्थिति को भाँपकर डीएम साहब को तुरंत ही लोगों में अनाज बंटवाना पड़ा.

स्वामी मन्मथन के बिजनौर प्रवास से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा उमा मैठानी की किताब ‘स्वामी मन्मथन – जानी अनजानी यात्रा- सागर से शिखर तक’ में भी दर्ज मिलता है. वो लिखती हैं, ‘उस समय बाबू सिंह चौहान वहाँ ‘बिजनौर टाइम्स’ समाचार पत्र निकाला करते थे और समय-समय पर प्रशासन के भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखा करते थे. एक बार उन्हें शासन द्वारा ‘भारत सुरक्षा कानून’ के अंतर्गत बंदी बनाकर बिजनौर जेल भेज दिया गया. ऐसे समय में मन्मथन चौहान जी के घर जाकर उनके बच्चों को लगभग प्रतिदिन ही बिस्किट आदि दिया करते और उनके परिवार की देखभाल किया करते. हालाँकि उनकी खुद की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी. कई बार तो वे स्वयं भी भोजन नहीं करते और पूरा दिन सिर्फ एक चाय पीकर गुज़ार देते. लेकिन बाबू चौहान के बच्चों का वे पूरा ख़याल रखते जबकि इस वक्त तक मन्मथन और चौहान एक दूसरे से कभी मिले भी नहीं थे. इसीलिए जब चौहान जी जेल से छूटे तो मन्मथन जी से मिले और उनके प्रगाढ़ मित्र बन गए.’

बाबू चौहान की तरह ही स्वामी मन्मथन भी समय-समय पर बिजनौर प्रशासन और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ स्थानीय अख़बारों में लेख लिखते थे. इसके चलते उनके कई दुश्मन भी बने जिन्होंने उन्हें परेशान करना शुरू किया. आख़िरकार स्वामी मनमंथन का बिजनौर से भी मन उचट गया. साल 1965 में 26 साल के मनमंथन बिना किसी को बताए बिजनौर छोड़ कर ऋषिकेश चले आए.

अब तक उनके नाम के साथ ‘स्वामी’ जुड़ चुका था और लोग उन्हें स्वामी मन्मथन के नाम से जानने लगे थे. ऋषिकेश आने के बाद वे अपने मित्र स्वामी चिदानंद के ‘डिवाइनल लाइफ संघ’ पहुंचे और यहीं समाज सेवा के कार्य करने लगे.

ऋषिकेश – देवप्रयाग मार्ग पर गूलर दोगी नामक स्थान पड़ता है जहां महर्षि वशिष्ठ गुफा है. महर्षि वशिष्ठ को भगवान राम का कुलगुरु माना गया है. पौराणिक मान्यता है कि अपने बच्चों के निधन के बाद महर्षि वशिष्ठ गंगा किनारे स्थित इसी स्थान पर आए और उन्होंने यहाँ एक गुफा में रहकर ध्यान किया. यह गुफा आज भी यहीं स्थित है और इसे वशिष्ठ गुफा नाम से जाना जाता है. देशभर के श्रद्धालू और विदेशी पर्यटक तक आज भी यहाँ आते हैं और ध्यान करते हैं.

ऋषिकेश में भ्रमण के दौरान जब स्वामी मन्मथन को गूलर स्थित वशिष्ठ गुफा की जानकारी मिली तो वे यहां पहुंच गए. इसी जगह पर स्वामी पुरुषोत्तमानंद ने उन्हें दीक्षा दी. लगभग 2 साल गूलर में बिताने के बाद स्वामी मन्मथन का अगला ठिकाना बना टिहरी ज़िले में स्थिति माँ चंद्रबदनी मंदिर. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है.

प्राचीन काल से भारत के विभिन्न हिस्सों में पशुबलि की प्रथा रही है. माना जाता रहा है कि यथा समय देवी- देवताओं को बली चढ़ाए जाने पर वे प्रसन्न होते हैं और मनोकामनाएं पूरी करते हैं. यही प्रथा टिहरी जिले में स्थित शक्ति पीठों में से एक मा चंद्रबदनी के मंदिर में भी मनाई जाती थी और प्रथा के तहत मंदिर परिसर में हर साल नवरात्रों में बकरो और भैंसों की बलि दी जाती थी.

साल हालाँकि कई स्थानीय लोग ऐसे भी थे जो इस प्रथा को ग़लत मानते थे और इस पर रोक लगाए जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. इन्हीं में से एक थे गोविंद प्रसाद गैरोला जो ‘क्षेत्र समिति देवप्रयाग – हिंडोलाखाल’ के प्रमुख थे. साल 1966 में उन्होंने पशुबलि प्रथा के विरोध में एक सभा बुलाई और इस कुप्रथा के खिलाफ ठोस कदम उठाने का निर्णय लिया गया. गोविंद गैरोला स्वामी मन्मथन से पूर्व परिचित थे. इस सभा मे उन्होंने स्थानीय लोगों को स्वामी जी और उनके समाज सुधार के कार्यों के बारे बताया और तभी यह प्रस्ताव रखा गया कि अगर पशुबलि विरोधी आंदोलन में स्वामी जी को भी सम्मिलित कर लिया जाए तो आंदोलन को सफलता मिलने के आसार बढ़ जाएंगे. जन मानस की सम्मति से गोविंद गैरोला ने तब गूलर में निवास कर रहे स्वामी मन्मथन से संपर्क कर किया और उनका सहयोग मांगा. स्वामी मन्मथन ने भी सहर्ष यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.

उन्होंने यहाँ आते ही पशुबलि के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की और ‘पशुबलि प्रथा विरोधी संघर्ष समिति’ का गठन किया. सर्वसम्मति से स्वामी मन्मथन को ही इस समिति का अध्यक्ष चुना गया और गोविंद गैरोला को मंत्री बनाया गया. इस समिति में  मातवार सिंह लिंगवाल, चूड़ामणि भट्ट, सत्य प्रकाश शास्त्री, खेम सिंह जयाड़ा  और मातवार सिंह बागड़ी आदि भी शामिल थे.

स्थानीय लोगों को बलि प्रथा के खिलाफ समझाने के लिए स्वामी मन्मथन ने गाँव-गाँव जाकर जन सभाएं करना शुरू किया. वे लोगों को समझाते थे कि कैसे बलि प्रथा की आड़ में ज़मींदार आम लोगों को कर्जे में डुबोए रखते हैं. लोग देवी और पितरों के कोप से बचने के लिए चाहे उधार लेकर ही सही, लेकिन नवरात्रों में बलि के लिये पैसे खर्च करते हैं और इसी बात का फायदा गाँव के ज़मींदार और मुंशी लोग उठाया करते हैं. मान्यता ये भी थी कि बली के लिए सिर्फ़ स्वस्थ पशु ही स्वीकारे जाते हैं. ऐसे में ज़मींदार स्वस्थ पशुओं को महँगे दामों पर बेचा करते और स्थानीय लोग मान्यताओं के चलते यह रक़म चुकाने को विवश होते.

स्वामी मन्मथन और समिति के अथक प्रयासों के चलते धीरे-धीरे ही सही लेकिन पशुबलि के खिलाफ लोग जागरूक होने लगे. इस काम में समिति को सबसे ज़्यादा सहयोग स्थानीय महिलाओं और विद्यार्थियों से मिला. हालाँकि साल 1967 और 68 में लगातार दो साल अनवरत प्रयास करते रहने के बाद भी समिति को सफलता नहीं मिली और मंदिर मे पशुबलि होती रही. लेकिन स्वामी मन्मथन और उनके साथियों ने भी हार नहीं मानी.

साल 1969 आते-आते पशु बलि का मामला काफी गरमा चुका था. इस साल चैत्र महीने के नवरात्रों के समय बलि के पक्षधर जहां बाली के लिए बकरे और भैंस लेकर आने लगे, वहीं दूसरी तरफ इस प्रथा के विरोधी लोगों ने भी मंदिर परिसर में धरना देना शुरू कर दिया. स्वामी मन्मथन स्वयं उस स्थान पर बैठ गए जहां पशुओं की बली होती थी. कई बार लोगों को समझाने की कोशिश होती थी और कई बार पशुओं को अंदर ले जाने से रोकने के लिए जबरदस्ती भी करनी पड़ती थी. इससे धीरे धीरे यहां का माहौल संघर्षमय होने लगा. आंदोलन के उग्र हो जाने की संभावना देखकर देवप्रयाग से लेकर अंजनीसैण तक पूरे क्षेत्र में धारा 144 लागू कर दी गई थी और नरेंद्र नगर के तत्कालीन उप-जिलाधिकारी अपने दल-बल के साथ अंजनीसैण पहुंच चुके थे.

इसी संघर्ष वाली स्थिति के बीच एक समय ऐसा भी आया जब बलि का समर्थन करने वाले एक ग्रामीण ने अपनी दरांती उठाई और एक बकरे को आगे ले जाते हुए ऊंची आवाज में घोषणा की,‘कोई मुझे रोके तो जानूँ.’ मंदिर का माहौल अब उग्र होने लगा था. तभी स्वामी मन्मथन आगे आए और उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर माता को प्रसन्न करने के लिए किसी निरीह जानवर की बलि दी जानी है तो उस से पहले तुम लोगों को मेरी बलि देनी होगी.’ उनकी बातों को अनसुना कर वो व्यक्ति अपने बकरे को लेकर आगे बढ़ ही रहा था कि स्वामी मन्मथन के संकेत पर स्थानीय विद्यार्थियों ने उससे बकरे की रस्सी छीन ली. बलि के समर्थकों और विरोधियों के बीच संघर्ष इतना बध गया कि इसी छीना-झपटी में उस बकरे की मौत हो गई. मंदिर का माहौल उं दिनों इतना गरमा गया था कि लोग कई बार रात मे पशुओं को लाने लगे ताकि चुपके से उनकी बली दे सकें. ऐसे में समिति के लोग भी रात भर मंदिर में बैठकर निगरानी करने लगे. एक रात तो मंदिर परिसर में पशु बलि के लिए आए लोगों और समिति के लोगों के बीच कहा-सुनी इतनी बढ़ गई कि तत्काल ही उप-ज़िलाधिकारी को आकर बीच बचाव करना पड़ा.

स्वामी मन्मथन और उनके जैसी सोच रखने वाले स्थानीय लोगों के लम्बे प्रयास आखिरकार सफल हुए और एक समय ऐसा आया जब पशु बलि का विरोध करने वालों और मंदिर समिति के लोगों के बीच सदियों पुरानी इस प्रथा को खत्म करने की सहमति बन गई. 1969 में गांधी जी के जन्म शताब्दी वर्ष मे मंदिर परिसर में एक विशेष पूजा के द्वारा पशुबली को सदा-सदा के लिए खत्म कर दिया गया.

स्वामी मन्मथन के मंदिर से जुड़े सुधारवादी कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें मंदिर का प्रशासक भी नियुक्त किया गया. फिर उनकी देख रेख में ही मंदिर जीर्णोद्धार कराया गया और मंदिर परिसर में पानी की व्यवस्था के साथ ही यात्रियों के लिए गेस्ट हाउस का भी निर्माण हुआ.

चंद्रबदनी मंदिर में पशु-बलि खत्म करवाकर स्वामी मन्मथन पूरे गढ़वाल में एक सुधारवादी के तौर पर लोकप्रिय हो चुके थे. उत्तराखंड तब अलग राज्य नही बना था और अविभाजित उत्तर प्रदेश का ही एक हिंसा था. सरकार तब लखनऊ से चलती थी. पहाड़ों में राजस्व कुछ खास मिलता नही था इसलिए हुक्मरानों का पहाड़ों पर कोई खास ध्यान भी नहीं होता था. लिहाजा यहां अन्य सरकारी व्यवस्थाओं की तरह ही शिक्षा व्यवस्था भी कुछ खास नहीं थी. स्कूली शिक्षा के लिए तो फिर भी कुछ गिने चुने स्कूल होते थे, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए गढ़वाल के श्रीनगर में एक माधव प्रसाद बिरला जी द्वारा बनवाया गया ‘राजकीय बिरला डिग्री कॉलेज’ ही था और वहां भी सिर्फ स्नातक स्तर की ही कक्षाएं चला करती थी. इससे ऊपर यानि पोस्ट-ग्रैजूएशन और PhD के लिए कोई संस्थान नहीं था. उच्चतर शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को तब देहरादून, बनारस, लखनऊ या इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों का रुख करना पड़ता था. ऐसा कर पाना भी सिर्फ़ समृद्ध वर्ग के लिए ही सम्भव था. आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी आर्थिक तौर पर निम्न वर्ग के लड़कों और ज्यादातर लड़कियों को इन्हीं कारणों से उच्च शिक्षा से वंचित रहना पड़ता था.

1970 के दशक की शुरुआत से ही उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलो में एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए आंदोलन चल रहा था. विश्वविद्यालय की मांग को लेकर कृष्णा नन्द नौटियाल की अध्यक्षता में रिटायर्ड DFO मित्रानंद घिल्डियाल,  कृष्णा नन्द मैठानी,  कैलाश चंद्र जुगरान आदि लोगों को मिलाकर एक समिति बनी थी जो जुलूस और अनशन जैसे कार्यक्रम आयोजित कर रही थी. लेकिन इस आंदोलन को कुछ खास सफलता अभी तक नहीं मिली थी.

चंद्रबदनी और आस-पास के अन्य मंदिरों मे पशु-बलि को खत्म करवाकर स्वामी मन्मथन की स्वीकार्यता जनमानस में बढ़ चुकी थी. इसे देखते हुए कृष्णा नन्द मैठानी ने स्वामी मन्मथन को अपने घर बुलवाकर उनसे विश्वविद्यालय आंदोलन को आगे बढ़ाने की विनती की जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया.

आंदोलन को और सक्रिय बनाने के लिए ‘विश्वविद्यालय आंदोलन केन्द्रीय संघर्ष समिति’ का गठन किया गया. प्रेमलाल वैद्य को समिति का अध्यक्ष, भास्करानंद मैठानी और स्वामी मन्मथन को संरक्षक और विद्यासागर नौटियाल, कृष्णा नन्द मैठानी, प्रताप सिंह पुष्पवान, हजारीलाल जोशी, ऋषि बल्लभ सुन्दरियाल आदि इसके अन्य पदाधिकारी नियुक्त किए गए. विश्वविद्यालय की मांग को लेकर समिति के सदस्यों ने नगर में क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठना शुरू कर दिया.

फिर 26 जुलाई 1971 के दिन श्रीनगर में स्वामी मन्मथन के आह्वान पर एक विशाल जनसभा बुलाई गई और सम्पूर्ण नगर बंद का आह्वान किया गया. लोगों ने इस आंदोलन को पूर्ण समर्थन देते हुए बाजार, विद्यालय और यहाँ तक कि सरकारी कार्यालय भी बंद रखे. इसके बाद तो जुलूसों और प्रदर्शनों का एक सिलसिला शुरू हो गया. स्वामी मन्मथन ने पूरे गढ़वाल का भ्रमण करना भी शुरू कर दिया ताकि लोगों उच्च शिक्षा का महत्व समझाकर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस आंदोलन से जोड़ा जा सके. इस कड़ी में 8 अगस्त को नारायण बगड़, नैनीसाईं, कर्णप्रायग, रुद्रप्रयाग और अन्य जगहों पर पूर्ण हड़ताल की गई.

15 अगस्त 1971 को आज़ादी के दिन स्वामी मन्मथन ने टिहरी में एक विशाल जनसभा बुलाई और वहाँ के लोगों को विश्वविद्यालय की माँग के लिए 19-20 अगस्त को श्रीनगर में होने वाले सम्मेलन में शामिल होने कहा. सम्मेलन वाले दिन पूरे गढ़वाल क्षेत्र में भारी बारिश हुई और कई जगह सड़कें अवरुद्ध हो गई. इसके बावज़ूद भी लोग सम्मेलन में भाग लेने के लिए लोग बड़ी संख्या में श्रीनगर पहुंचे. 20 अगस्त की सुबह 10 बजे तक तो लगभग 15000 लोगों की भीड़ एकत्र हो गई थी. सम्मेलन की अध्यक्षता विश्वविद्यालय समिति के अध्यक्ष प्रेम लाल वैद्य ने की. उनके अलावा ऋषि बल्लभ सुन्दरियाल, विद्यासागर नौटियाल, भार्गवी दत्त बहुगुणा, गोविंद प्रसाद गैरोला, जगत सिंह नयाल, वीरेंद्र पैन्यूली, ओंकारनन्द आदि यहां मौजूद थे. सम्मेलन खत्म होने के बाद आंदोलनकारियों द्वारा एक जुलूस निकाला गया जो श्रीनगर बाजार से होता हुआ बिरला डिग्री कॉलेज के प्रांगण में पहुंचा जहां पर पिछले कई दिनों से 5-5 व्यक्ति मिलकर 24-24 घंटे की भूख हड़ताल कर रहे थे. आंदोलन जैसे-जैसे तेज हो रहा था प्रशासन का दमन भी उसके साथ बढ़ने लगा था. सितंबर 1970 में स्वामी मन्मथन को गिरफ़्तार कर रामपुर जेल भेज दिया गया.

लम्बे संघर्ष के बाद जनवरी 1973 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने विश्वविद्यालय समिति की मांग मान ली. लेकिन कुछ महीनों बाद ही केन्द्रीय शिक्षा मंत्री नरुल हसन ने वक्तव्य दिया कि सिर्फ कुमाऊँ के नैनीताल में एक विश्वविद्यालय खोला जाएगा. उनके वक्तव्य में गढ़वाल का कोई जिक्र ही नहीं था जिससे गढ़वाल के लोग आक्रोशित हुए. ये लोग गढ़वाल के टिहरी, पौडी, उत्तरकाशी, चमोली जैसे जिलों के लिए गढ़वाल क्षेत्र में ही एक आवासीय विश्वविद्यालय की माँग कर रहे थे. शिक्षा मंत्री की घोषणा के बाद आंदोलन और भी तेज हो गया. विश्वविद्यालय की मांग को लेकर संघर्ष समिति द्वारा कई बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चिट्ठियाँ भी लिखी गई. इस दौरान गढ़वाल में जगह जगह जुलूस, अनशन और हड़तालें जारी रही.

विश्वविद्यालय आंदोलन में लोगों के संघर्ष को उजागर करते हुए श्रीमती विद्यावती उनियाल ने एक कविता भी लिखी थी जिसका एक अंश है:

अक्टूबर 1973 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गढ़वाल भ्रमण का कार्यक्रम बना. उस समय गढ़वाल के बड़े नेता हेमवती नंदन बहुगुणा उनकी सरकार में संचार मंत्री थे और इंदिरा गांधी के गढ़वाल भ्रमण की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी. वे चाहते थे कि प्रधानमंत्री का भ्रमण बिना किसी व्यवधान के हो लेकिन तब पूरे गढ़वाल में विश्वविद्यालय आंदोलन अपने चरम पर था. इस संबंध में हेमवती नंदन बहुगुणा ने विश्वविद्यालय संघर्ष समिति से मुलाकात की. लेकिन यह वार्ता ज्यादा सफल नहीं रही. समिति के लोग इस बात पर अडिग थे कि वो इंदिरा गांधी के सामने अपनी मांग हर हाल में रखेंगे. उधर प्रशासन भी प्रधानमंत्री के दौरे की वजह से काफी चिंतित था. ऐसे में प्रशासन ने समिति के सामने शर्त रखी कि अगर आप लोग शिष्टता से अपनी बात रखेंगे तो आपके 5 लोगों के प्रतिनिधि मण्डल को इंदिरा गांधी से मिलवाया जा सकता है. समिति ने यह शर्त मान ली और प्रधानमंत्री के आगमन पर सबसे पहले श्रीनगर के  SSB कैम्प में इस प्रतिनिधि मण्डल की उनसे मुलाक़ात हुई. इसमें अवध बिहारी पंत, वीरेंद्र पैन्यूली, कृष्णा नन्द मैठानी, चंद्र प्रकाश डबराल और राजेन्द्र नैथानी शामिल थे. इंदिरा गांधी ने उनकी मांग मानते हुए गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए हामी भर दी. उन्होंने खुद इसके तुरंत बाद हुई जनसभा में कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों जगह विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की.

आख़िरकार एक लंबे संघर्ष के बाद नवंबर 1973 में गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी गई. साल 1989 में हेमवती नंदन बहुगुणा की स्मृति में इसका नाम बदलकर हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय रखा गया और साल 2009 में इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया.

गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना में स्वामी मन्मथन के सफल योगदान ने लोगों के बीच उनकी स्वीकार्यता और बढ़ा दी थी. लोग अपने-अपने क्षेत्र की समस्याएँ लेकर उन तक पहुँचने लगे थे और स्वामी मन्मथन भी लोगों की हर संभव मदद किया करते.

क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने को सुधारने का बीड़ा भी अनचाहे ही उनके कंधों पर आ गया था. गढ़वाल में रहते रहते उन्होंने यहाँ की महिलाओं के जीवन में कठोरतम श्रम और उसके बदले में न्यूनतम सुख देखा. पहाड़ की महिलाओं की पीड़ा स्वामी मन्मथन के मन में बैठ गई थी. उन्होंने एक संगठन के माध्यम से नारी शक्ति को संगठित करने का निश्चय किया और इसके लिए एक आश्रम बनाने की सोची. इस कार्य के लिए मेजर हरिशंकर जोशी ने चंद्रबदनी मंदिर के पास ही अंजनीसैण में अपनी 10 एकड़ पैत्रिक भूमि स्वामी मन्मथन को दान में दे दी. मेजर साहब की एक ही शर्त थी कि स्वामी मन्मथन जब भी कोई संस्था बनाएं तो उसके नाम में माँ भुवनेश्वरी का नाम जरूर जोड़ा जाए क्योंकि माँ चंद्रबदनी का एक नाम भुवनेश्वरी भी है. ऐसे में 27 दिसंबर 1977 के दिन स्वामी मन्मथन द्वारा ‘भुवनेश्वरी महिला आश्रम’ की स्थापना की गयी और 23 नवंबर 1978 को इसका आधिकारिक पंजीकरण ‘आश्रम सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन’ में हुआ.

वीरेन्द्र पैन्युली अपनी पुस्तक ‘स्वामी मनमथन- चरित्र और कथा के कुछ अंश’ में लिखते हैं, ‘मेजर जोशी स्वामी मन्मथन से काफी प्रभावित थे और इसलिए जब आस-पास के कुछ लोगों ने उन्हें स्वामीजी और उनके आश्रम के खिलाफ भड़काने की कोशिश की तब भी मेजर साहब उन सब से अप्रभावित रहे और आश्रम की स्थापन के लिए भूमि दान की. उन्होंने स्वामी मन्मथन के जीवित रहते आश्रम की हर संभव मदद की और स्वामी जी के जाने के बाद भी मेजर साहब ने आश्रम के प्रति अपना स्नेह बनाये रखा.’

मेजर जोशी ने जब आश्रम के लिए जमीन दी थी तब वो एक बंजर जमीन थी और वहाँ पर सिर्फ जंगली झाड़ियाँ हुआ करती थी. स्वामी मन्मथन स्वयं इन झाड़ियों को काटते और कुदाल से जमीन को समतल करते. उन्हें खुद परिश्रम करता देख धीरे धीरे स्थानीय लोग भी उनके इस कार्य में सहयोग करने लगे और देखते ही देखते वहाँ एक सुंदर आश्रम तैयार हो गया.

आश्रम की स्थापना बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों को संरक्षण देने के लिये की गयी थी. पहाड़ की महिलाओं को उत्पीड़न और शोषण के चक्रव्यूह से निकाल कर उन्हें कौशल प्रशिक्षण देकर स्वावलंबी बनाना ही आश्रम का मुख्य उद्देश्य था. आश्रम के माध्यम से स्वामी मन्मथन महिलाओं को सदुपयोगी कार्यों का प्रशिक्षण देने लगे. पशुपालन, सिलाई-बुनाई, अचार बनाना आदि काम उन्हें यहां सिखाया जाता. उन्होंने समय समय पर महिला मंगल दल और आश्रम द्वारा संचालित आंगनवाड़ियों की मदद से घास, लकड़ी, और पानी की कमी को दूर करने के लिए भी क्षेत्र भर में महत्वपूर्ण कार्य किये. स्वामी मन्मथन ने पद यात्राओं के माध्यम से शराबबंदी के बारे में भी लोगों को जागरूक किया. इसके अलावा आश्रम के नज़दीक ही एक प्राइमरी पर्यावरण विद्यालय की स्थापना भी की गई जो आज भी संचालित होता है. इसमें आठवीं तक की कक्षाएं चलती हैं. इस स्कूल में पाठ्यक्रम के साथ साथ रोजगार उन्मुख शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य, संस्कृति, विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती है. आश्रम की तरफ से कई बालवाड़ी भी खोली गई जो आज भी संचालित हैं. स्वामी मन्मथन स्वयं आश्रम में 16 से 18 घंटे कठोर परिश्रम करते थे और उनका व्रत था कि ‘कठोर परिश्रम करते हुए जहां दिन का अंत होगा वहीं विश्राम करूंगा.’

स्वामी मन्मथन के रहते-रहते ही आश्रम का अस्तित्व इतना बड़ा हो चुका था कि उन्होंने सेना में क्षेत्र के युवाओं को रोजगार दिलाने हेतु गढ़वाल राएफल्स का भर्ती शिविर तक आश्रम में आयोजित करवाया. आश्रम में काम करने वाली बीना काला के अनुसार ‘किसी समय में आश्रम में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 800 लोग काम किया करते थे और यह एशिया का सबसे बड़ा NGO था.’ इसके कार्यों को देखने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, पत्रकार सुश्री नलिनी सिंह, मारग्रेट अल्वा, अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘save the children fund’ के भारत के निदेशक जिमी केंपवेल भी यहां आ चुके हैं. साइरिल रिफिल जो कनाडा से भारत भ्रमण पर आए थे, वो तो स्वामी मन्मथन और उनके आश्रम से इतने प्रभावित हुए कि फिर कभी वापस नहीं गए और हमेशा के लिए आश्रम और गढ़वाल के होकर ही रह गए. स्वामीजी मन्मथन के गुजर जाने के बाद वे ही आश्रम के सचिव बने और उनकी देखरेख में भी आश्रम ने विकास कार्य किए.

यह आश्रम आज भी गढ़वाल प्रोजेक्ट के नाम से अलग अलग जगहों पर अपने कार्य कर रहा है। आज भी आश्रम में पहाड़ के मुद्दों को लेकर राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार और गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. यहाँ समय-समय पर महिलाओं के लिए सिलाई-बुनाई, अचार बनाने, नर्सरी, डेयरी, पशुपालन आदि के प्रशिक्षण कैंप भी आयोजित किए जाते हैं.

स्वामी मन्मथन का जीवन जितना संघर्षमय और अप्रत्याशित रहा, उनकी मृत्यु भी उतनी ही अप्रत्याशित साबित हुई. 6 अप्रैल 1990 की रात जब वे आश्रम में अपने कमरे में सो रहे थे तब किसी सिरफिरे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी. इसके साथ ही भारत के दक्षिण से उदय हुआ सूर्य उत्तर में आकर अस्त हो गया. स्वामी मन्मथन की मृत्यु से संबंधित कई भ्रांतियाँ बनी लेकिन इनमें क्या सच था और क्या झूठ, कोई नहीं जान सका.

स्वामी मन्मथन की मौत के बाद उनके  बिजनौर के समय के साथी और बिजनौर टाइम्स के संपादक रहे बाबू सिंह चौहान ने लिखा था, ‘जब यह दुखद समाचार सुना कि भुवनेश्वरी आश्रम के संत स्वामी मन्मथन की हत्या कर दी गई है, हृदय को आघात लगा, यह लिख देना बड़ी हल्की बात होगी. स्वामी मन्मथन की हत्या तो परम्परा, समाज सेवा की एक विद्या और संन्यास के स्वरूप को रक्त में डुबो देना है. स्वामी मन्मथन केरल से चलकर गढ़वाल की पर्वत श्रृंखला की वादियों तक पहुंचे थे. उनके कंधे पर एक थैला था जिसमें उनके एक जोड़ी वस्त्र थे और कोई गर्म कपड़ा नहीं था. लेकिन उनका गढ़वाल की जनता की सेवा के भाव ने उनमें ऐसी उष्णता भर दी थी कि शांत हवाओं ने भी उनके चरण नहीं रोके. वर्षों तक केवल चाय पीकर जीवित रहने वाले डॉ० मन्मथन मेनन गढ़वाल में सादा भोजन करने लगे थे. उनके पास हंसी का, अट्टहास का भंडार था. हर समय मुस्कराते रहना उनका स्वभाव था और जन साधारण की सेवा करने में उन्हें आनन्द आता था.

स्क्रिप्ट: गौरव नेगी

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