1980 का दशक था. अरुणोदय की लालिमा अभी कोटद्वार की तलहटी पर उतर ही रही थी. एक नई सुबह के इंतजार में कोटद्वार के रेलवे स्टेशन पर यात्रियों की चहलकदमी शुरू हो चुकी थी. कोटद्वार, यानी गढ़वाल का प्रवेश द्वार. यहां पहुंचे तो समझो अपनी ‘मैत’ की ‘खुद’ पूरी हो गई.
‘मैत’ लौट रहे ऐसे ही सैकड़ों यात्री उस सुबह कोटद्वार स्टेशन पर गाड़ियों का इंतज़ार कर रहे थे जब ‘डौंर’ के एक स्वर ने सबको अपनी ओर खींचना शुरू किया. एक मधुर गढ़वाली लोकगीत इस सुबह को और भी सुहाना बना रहा था. लोग उस जादुई आवाज की तरफ खिंचते चले गए. उनकी रात भर के सफर की थकान और लंबे समय तक अपनों से दूर रहने की कसक को जैसे इस गीत ने पाट दिया था. स्टेशन पर डौंर बजाते हुए कोई सूरदास गुनगुना रहा था, ‘गढ़वाल म बाग लागौ बाघ की ह्वे डरा… म्यर फ्वां बाग रै…’
इन गायक का नाम था – भरोसीलाल जिन्हें लोग जुग्गी भी कहा करते थे. सत्तर – अस्सी के दशक में कोटद्वार से सतपुली और पौड़ी तक जाने वाला कोई भी यात्री ऐसा नहीं होगा, जो उन्हें न जानता हो. उस दौर में वो कोटद्वार बस अड्डे पर लगभग हर सुबह ऐसे ही मधुर लोकगीत गाया करते थे. आज उनका ‘फ्वां बाघ’ कोटद्वार बस स्टेशन से निकलकर शादी-बारातों, उत्सवों और सांस्कृतिक मंचों से लेकर सात समंदर पार तक लोगों को थिरका रहा है. भरोसी लाल यानी जुग्गी, आज एक नए संदर्भ में फिर से जीवंत हो उठे हैं.
‘फ्वां बाग’ गीत आज जितना लोकप्रिय है, उतनी ही दिलचस्प कहानी इसके मूल गायक की भी है. सत्तर – अस्सी के दशक में जब यातायात और सूचनाएं आज की तरह नहीं थीं, तब भरोसी लाल न केवल अपने लोकगीतों से यात्रियों का मनोरंजन करते थे, बल्कि वे पहाड़ के लोगों के लिये गाइड का काम भी करते थे. हाथ में डौंर थामे भरोसी लाल रोज शाम आठ बजे वाली ट्रेन से नजीबाबाद तक जाते और रात 2 बजे की ट्रेन से कोटद्वार लौट आते.
इस ट्रेन में गढ़वाल के सैकड़ों लोग अपने घर लौटते थे. इनमें सेना के जवानों की संख्या सबसे ज्यादा होती. भरोसी लाल हर डिब्बे में जा – जाकर यात्रियों को गढ़वाली लोकगीत सुनाते. उन दिनों अधिकतर यात्री कोटद्वार के बाजार से अपने घर के लिए सामान भी खरीदा करते थे. ऐसे में भरोसी लाल यात्रियों को कोटद्वार बाजार में गुड़ की भेली, मिसरी, चने आदि का भाव भी बताते और उन्हें बाजार की ठगी से आगाह भी करते. पहाड़ के यात्रियों को रेल में होने वाली लूटपाट के बारे में भी वो सचेत करते थे और गढ़वाल के लिए कौन – सी बस कब, कहां और किस समय जायेगी इसकी भी जानकारी देते.
भरोसी लाल को डौंर बजाते और लोकगीत गाते हुए दो – तीन पीढ़ियों ने देखा-सुना. समय के साथ उनका गीत तो सारी दुनिया में पहुंच गया, लेकिन भरोसी लाल के गीत का वह अंश इसमें से गायब हो गया, जिसमें वे कहते थे, ‘बाब लोगों, साब लोगो, सूबेदार साब, लैप्टन साब, कांण आदिम छू मी / ख्वाट पैस न दियाँ…म्यार फ़्वां बाग रे…’ यानी इस गीत में वो अपनी व्यक्तिगत व्यथा को भी शामिल करते हुए कहते थे, ‘मैं अंधा हूं. मुझे खोटे सिक्के मत दे जाना.’
लोक के चितेरे स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’ ने इस गीत को पहली बार संगीतबद्ध कर गाया. इस गीत को खोजने का श्रेय भी राही जी को ही जाता है. उन्हीं की आवाज में इस गीत ने लोगों के बीच लोकप्रियता की पहली बुलंदी छुई थी. राही जी बताते थे कि पहली बार उन्होंने यह गीत उन्हीं सूरदास यानी भरोसी लाल से सुना था. वे जब भी कोटद्वार से अपने गांव जाते, सूरदास से कई लोकगीतों को सुनते. ऐसे ही एक बार गाँव लौटते हुए उन्होंने पहली बार इस गीत पर गौर किया.
उन्होंने भरोसी लाल से पूछा कि आजकल क्या चल रहा है? भरोसी लाल ने जवाब दिया कि देश में इमरजेंसी लगी है और लैंसडाउन, दुगड्डा और डबरालस्यूं पट्टी में ‘मनस्वाग’ लगा है. मनस्वाग यानी आदमखोर बाघ. इसी बाघ के आतंक को लेकर यह गीत बना था. यहीं से चन्द्र सिंह राही ने यह गीत उठाया.
हम सब जानते हैं कि लोकगीतों को रोमांटिक अंदाज में पेश करने और एक प्रयोग-धर्मी रचनाकार के रूप में राही जी का कोई सानी नहीं. राही जी ने कुछ अपनी तरफ से जोड़कर नए संगीत और अपनी लोक की प्रकृति प्रदत्त आवाज से इस गीत को बड़ा फलक दे दिया. उन्होंने इस गीत को पहली बार मुंबई के एक कार्यक्रम में गाया था. वे लोक सुरों की जिस लोच के साथ इसे गाते थे, वहां से इस गीत की यात्रा अब काफी लंबी हो चुकी है.
यह गीत पिछले तीन – चार सालों से फिर एक नए अंदाज में लोगों के बीच आ पहुंचा है. अपनी असामयिक मौत से कुछ समय पहले कुमाऊं के सुप्रसिद्ध गायक पप्पू कार्की ने इसे अपनी सुमधुर आवाज में गया था. बाद में नीलम कैसेट ने पप्पू कार्की को श्रद्धांजलि देते हुए इस गीत को उनके साथ ही कल्पना चौहान और संदीप सोनू की आवाज में रिकार्ड किया.
सोशल मीडिया के इस दौर में इस गीत ने लोकप्रियता की कई सीमाओं का लांघ दिया है. गढ़वाल में बाघ लगने की त्रासदी और भरोसी लाल के अपने जीवनयापन के लिये लोकगीत के माध्यम से की गई अभिव्यक्ति, अब बाजार में आकर मनोरंजन का रूप ले चुकी है. यू-ट्यूब में ही इसे 5 करोड़ से ज्यादा लोग सुन चुके हैं.
‘फ्वां बाग रे….’ एक गीत मात्र नहीं बल्कि पहाड़ के लोगों के सामूहिक स्वरों की अभिव्यक्ति भी है. लोग अपनी समस्याओं को लोकगीतों के माध्यम से रखते रहे हैं. हिमालय के आदि गायक ‘बेडा’, ‘बद्दी’ या ‘बादी’ इस तरह के समसामयिक और घटना-प्रधान गीतों को रचते-गाते रहे हैं. उनके अलावा हमारे मेले-ठेलों, झोड़े-झुमैलों, चांचरी और लोक-गायन में इस तरह के सवाल उठते रहे हैं. पहाड़ के गांवों में ‘मनस्वाग’,‘मनख्या’ यानी नरभक्षी का आतंक नई बात नहीं है. उससे लोगों में भारी दहशत रही है.
फ्वां बाग गीत से पहले भी इस तरह के गीत गाये जाते रहे हैं. बाघ लगने पर ही हमें एक और भी पुराना बद्दियों का गीत मिलता है जिसके बोल हैं, ‘लोगूं कु खेती कु काम नी होये पूरू/यो निरभागी बाघ होईगे शुरू!’ बाद में लोक गायक सूरदास जगदीश बकरोला ने भी बाघ के आतंक पर गीत लिखा और गढ़रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी का ये गीत तो आपने सुना ही होगा, ‘बंदुकिया जसपाल राणा सिस्त साधी दे, निसणु साधी दे/गढ़वाल मा बाघ लग्युं बाघ मारि दे’.
लोक की सामूहिक अभिव्यक्तियों से ही लोकगीत समृद्ध हुए हैं. ‘फ्वां बाग…’ गाना सत्तर – अस्सी के दशक में लोगों के बीच उस समय आया जब पौड़ी जनपद के लैंसडाउन दुगड्डा क्षेत्र में एक नरभक्षी बाघ का आतंक हो गया था. बताया जाता है कि ‘पुजारी’ नाम के इस बाघ ने उस दौर में 50 से ज्यादा ग्रामीणों को अपना निवाला बनाया. सरकार, वन विभाग और स्थानीय जनता के तमाम प्रयासों के बावजूद इस पर काबू नहीं पाया जा सका.
‘फ्वां बाग’ लैंसडाउन दुगड्डा क्षेत्र का ही नहीं है, उससे पहले भी ‘फ्वां बाग’ का जिक्र होता रहा है. असल में ‘फ्वां’ का मतलब है हवा की तरह उड़कर जाने वाला. सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट ने ऐसे कई बाघों का जिक्र अपनी कहानियों में किया है जो इसी तरह के थे. इनमें चंपावत, पनार और रुद्रप्रयाग के बाघों की कहानियां सबसे ज़्यादा चर्चित हैं. जिम कार्बेट के अनुसार उस दौर में बाघों के आदमखोर हो जाने का एक कारण प्रथम विश्वयुद्ध में फैला इंफ्लुएंजा बुखार भी था जिसे ‘युद्ध ज्वर’ या ‘लाम बुख़ार’ के नाम से भी जाना जाता रहा है.
इस बुख़ार ने गढ़वाल में हजारों लोगों की जान ले ली थी. ऐसे में मरने वाले के शवों को बिना जलाए ही जंगल में छोड़ दिया जाता था. यह बाघ इन्हीं शवों को खाकर नरभक्षी बन गए. रुद्रप्रयाग के नरभक्षी का आतंक 1918 से 1926 तक रहा. आठ सालों में इस बाघ ने लगभग 125 लोगों को अपना निवाला बनाया.
जिम कार्बेट ने इसे 2 मई, 1926 को मारा था. इसे मारने के बाद गढ़वाल में लोगों ने जिम कॉर्बेट को भगवान का दर्जा दिया. इस बाघ के बारे में जिम कार्बेट ने जो लिखा उससे भी ‘फ्वां बाग’ की परिभाषा निकाली जा सकती है. इसके बारे में उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘द मैन ईटिंग लेपर्ड ऑफ़ रुद्रप्रयाग’ में लिखा है कि यह बाघ 500 स्क्वायर किलोमीटर के दायरे में घूमता था. ये एक जगह शिकार करने के बाद दूसरा शिकार उसी इलाक़े में नहीं करता था, बल्कि वहाँ से बहुत दूर चला जाता था. इसीलिये इसे ‘फ्वां बाग’ कहा गया.
ये बाघ इतना चालक था कि जब इसे मारने के लिए साइनाइड का प्रयोग किया गया तो ये उससे भी बच निकला और इतना ताकतवर था कि अपने शिकार को बिना जमीन पर रखे 500 मीटर तक ले जा सकता था. इसे फंसाने के लिए जब 150 किलो का पिंजरा लगाया गया तो उसमें पंजा फंसने के बाद भी ये बाघ उस 150 किलो के पिंजरे को 500 मीटर तक खींचता ले गया था.
ब्रिटिश सरकार इस ‘फ्वां बाग’ से इतनी परेशान थी कि इसे मारने के लिये अखबारों में विज्ञापन निकाला गया. इसके बावजूद सिर्फ तीन शिकारियों ने इसमें रुचि दिखाई. जिम कॉर्बेट ने यहां तक कहा है कि रुद्रप्रयाग का ये बाघ ही एक ऐसा जानवर था जिसे दुनिया में सर्वाधिक प्रचार मिला था. भारत के दैनिक और साप्ताहिक अख़बारों के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, कीनिया, मलाया, होंगकोंग, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड की प्रेस में भी इस बाघ के खूब चर्चे हुआ करते थे. देश के अलग-अलग हिस्सों से बदरीनाथ-केदारनाथ की यात्रा पर आने वाले क़रीब 60 हजार तीर्थयात्री हर साल अपने साथ इस बाघ के किस्से ले जाकर प्रचारित करते थे.
बाघ की कहानी से अब वापस लौटते हैं ‘फ्वां बाघ’ गाने की कहानी पर. देश-दुनिया में गूंज रहे ‘फ्वां बाग’ के संगीत ने अब सुदूर दक्षिण में भी अपनी ऐसी दस्तक दी है कि इसकी तर्ज पर वहां भी एक फिल्म के गाने की धुन बन चुकी है.
इतिहास से वर्तमान तक ‘फ्वां बाग’ की इस छलांग ने कई पड़ाव पार किये हैं. इस गीत के आलोक में कोटद्वार के उस सूरदास की लोक अभिव्यक्ति ने जिस तरह आज के संदर्भो तक को नए रूप में लाने की पृष्ठभूमि रखी है, वह अद्भुत है. लोक से निकले किसी गीत के आज भी इस तरह लोकप्रिय हो जाने का मतलब है कि लोक विधाओं की जड़े बहुत गहरे तक समाई होती हैं और उन्हें जब भी मौका मिले वह अपने उसी रूप में हर काल-खंड में स्फुटित हो सकती हैं. आज भले ही कोटद्वार के रेलवे स्टेशन पर अरुणोदय की लालिमा किसी भरोसी लाल या जुग्गी के गीत से न खुलती हो, लेकिन अब वह पूरी दुनिया में एक बिलकुल नए अंदाज़ में किसी भी समय, किसी भी क्षेत्र और किसी भी समाज में अपनी दस्तक देने सा विस्तार पा चुकी है.
स्क्रिप्ट: चारु तिवारी