क्यों इतना मशहूर हुआ ‘बेड़ु पाको बारामासा’?

दिसम्बर 1955. दिल्ली की एक सर्द दोपहर. तीन मूर्ति भवन के सभागार में बर्फ़ के फ़ॉहों जैसी मखमली आवाज़ों में ये गीत एक कोरस में गूंज रहा था.

‘बेड़ु पाको बारामासा ओ नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.’

इस सभागार में एक ऐसा स्वागत समारोह चल रहा था जिस पर पूरी दुनिया की नज़र थी. सोवियत संघ के प्रमुख, निकोलाई बुल्गैनिन और निकिता ख्रुश्चेव हाल ही में आज़ाद हुए भारत के मेहमान थे, जिनका भारत में पूरी गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया.

भारतीय लोक संगीत के चुनिंदा गीतों को इन मेहमानों के स्वागत के लिए चुना गया था. इन्हीं में शुमार था, जादुई संगीत में पिरोया, सुदूर उत्तर के पहाड़ी अंचल कुमाऊँ का ये खूबसूरत गीत.

कुमाऊँ के लोक कलाकारों की इस टुकड़ी का नेतृत्व कर रही थी इस गीत के संगीतकार कॉमरेड मोहन उप्रेती और नईमा खान की जोड़ी.

तीन मूर्ति के सभागार से उस रोज़ उठी ‘बेडू पाको’ की गूंज फिर पूरे देश में कुमाऊँ और आगे चलकर उत्तराखंड का ही पर्याय बन गई.

1952 की कोई एक पहाड़ी शाम थी. अल्मोड़ा में जाखनदेवी मंदिर के पास उद्दा यानि उदे सिंह की चाय की टपरी में चुल्हे पर रखी चाय खौल रही थी. उदे सिंह ने केतली उठाकर कॉंच के दो गिलासों में चाय उडेली और सामने लकड़ी के लंबे बैंच पर बैठे दो नौजवानों की ओर लहराते हुए बढ़ा दी. चाय की टपरी पर पहुंचे ये दोनों नौजवान एक दूसरे से अनजान थे. लेकिन सर्द शाम में चाय की तलब और इसकी गर्मी को दोनों ही करीब से जानते थे. यहीं से दोनों के बीच बातों का सिलसिला शुरू हुआ.

इनमें से मोहन उप्रेती की शाम तो अक्सर उदे सिंह की चाय की टपरी पर गुजरती थी. लेकिन दूसरे महाशय नए थे. वो गवर्न्मेंट नार्मल स्कूल में टीचिंग की ट्रेनिंग के सिलसिले में अल्मोड़ा आए हुए थे. दोनों के बीच थोड़ी बातचीत बढ़ी तो परिचय हुआ. मोहन उप्रेती ने संगीत और ख़ासकर कुमाऊँनी के लोक संगीत में अपनी दिलचस्पी के बारे में जब इन महाशय को बताया तो उन्होंने पूछा, ‘क्या आपने ‘बेड़ु पाको बारा माशा’ गीत सुना है?’ मोहन उप्रेती पहली बार ये बोल सुन रहे थे. उन्होंने इनकार किया और इन महाशय से गुजारिश की क्या वे इसे गाकर सुना सकते हैं? इस सख़्स ने अपनी लोक शैली में ‘बेडू पाको’ की पहली पंक्ति गा कर सुना दी और फिर कुछ झेंपते हुए ठहरे और मुस्कुराकर बोले, ‘आगे के बोल तो मुझे याद नहीं.’

मोहन उप्रेती अपनी किताब ‘कुछ मीठी यादें, कुछ तीती’ में उस शाम का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, ‘मुझे बोलों के बजाय धुन अधिक आकर्षक लगी. एक कागज़ के पुर्जे पर मैंने वह पहली पंक्ति लिख कर अपने पास रख ली. गीत के प्रारम्भ के ये बोल और वह धुन मेरे अन्दर बड़ी तीव्रता से चक्कर लगाने लगी.’

लोक की स्मृतियों में तैरते इस गीत की आमद लोक कलाओं के एक भावी पुरोधा के दिमाग में हो चुकी थी. इस गीत की शुरूआती पॅंक्ति और धुन ने मोहन उप्रेती को भीतर कहीं बेचैन कर दिया.

उन्हीं दिनों अल्मोड़ा की एक और विलक्षण प्रतिभा से मोहन उप्रेती की नई-नई दोस्ती हुई थी. ये शख़्स थे रंगकर्मी, लेखक और कवि, ब्रजेंद्र लाल शाह.

उद्दा की उसी टपरी पर फिर ब्रजेंद्र लाल शाह और मोहन उप्रेती अक्सर मिलने लगे जहां एक अनजान आदमी से उन्होंने पहली बार ‘बेडू पाको’ की पहली पंक्ति सुनी थी. मोहन उप्रेती की ज़ुबान पर वही धुन चढ़ी हुई थी. अपने संस्मरण, ‘मेरी लोकयात्रा: माटी से मंच तक’ में ब्रजेंद्र लाल शाह लिखते हैं,

‘अल्मोड़ा में मोहन उप्रेती ने उदेसिंह (जाखनदेवी वाले) की चाय की दुकान में उक्त गीत की स्थाई धुन को द्रुत लय में मुझे सुनाया. धुन सुन कर मैं फड़क उठा और उस गीत के लिए अंतरा जुटाने में लग गया. इस कार्य में मैंने, कुमाऊँनी लोकगीतों, पहेलियों और मुहावरों के संकलनकर्ता स्वर्गीय चौधरीलाल वर्मा, द्वारा मुझे लिखवाई गई कुछ न्योलियों को अंतरे के रूप में जोड़ा और विश्व शॉंति आंदोलन के लिए अंतिम अंतरा खुद लिखा।’

ये भी दिलचस्प है कि वो अंतिम अंतरा अब अक्सर इस गीत के साथ नहीं गाया जाता जो बृजेंद्र लाल शाह ने इसमें जोड़ा था. लेकिन मोहन उप्रेती की किताब ‘कुछ मीठी यादें, कुछ तीती’ में इसका ज़िक्र मिलता है और ये कुछ यूँ है —

”लड़ मरी के होलो
नरैणा लड़ाई छौ धोखा मेरी छैला
हरी भरी रईं चैछ
नरैणा धरती की कोख मेरी छैला”

इसी किताब में मोहन उप्रेती आगे लिखते:

‘जब गीत में नए चरण जोड़े जा रहे थे तो मुझे लगा कि पुरानी धुन भी बदल देनी चाहिए और मैंने उसे बदल दिया. एक नई धुन का निर्माण कर उसमें वे सारे बोल बैठा दिए. गीत का कलेवर ही बदल गया था. गीत पूरा हुआ और कालान्तर में न मालूम कहॉं-कहॉं और कितनी बार इसे गाया गया.’

ब्रजेंद्र लाल शाह के रचनाकर्म पर शोध करने वाले लेखक कपिलेश भोज, अपनी किताब ‘लोक का चितेरा: ब्रजेंद्र लाल शाह’ में ज़िक्र करते हैं,

‘पहली बार इस गीत का प्रदर्शन मोहन उप्रेती और ब्रजेंद्र लाल शाह ने राजकीय इंटर कॉलेज, अल्मोड़ा की छात्राओं के साथ अक्टूबर 1952 में नैनीताल में शरदोत्सव के अवसर पर ‘रिंक हॉल’ में किया. सभी दर्शकों के साथ ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शिक्षामंत्री डॉ. सम्पूर्णानन्द इस नृत्य-गीत को सुनकर झूम उठे थे.’

धीरे-धीरे इस गीत की शोहरत इन दोनों कलाकारों की शोहरत भी बनती गई. हालॉंकि वे कुमाऊँ के लोक में पसरे कई और गीतों और कहानियों पर नाटक और नृत्य नाटिकाएँ बनाने और उनके मंचन का काम लगातार करते रहे.. लेकिन इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह बना कि अब यह गीत इस मंडली के हर एक कार्यक्रम गाया जाने लगा.. और बाद में इसकी प्रसिद्धि तीन मूर्ति भवन के उस एतिहासिक समारोह तक भी जा पहुंची.

कहा जाता है कि उस सभागार में मौजूद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के ज़हन में ये गीत कुछ ऐसे दर्ज हुआ कि यह उनका भी सबसे पसंदीदा लोक गीत बन गया. इसके गायक और संगीतकार मोहन उप्रेती को उन्होंने ‘बेड़ू पाको बॉय’ के नाम से नवाज़ा.

तीन मूर्ति भवन में मोहन उप्रेती, उनकी पार्टनर नईमा खान और उनकी मंडली ने जब इस गीत की तान छेड़ी तो इसकी धुन को रूबी दत्त की ख़ूबसूरत नृत्य प्रस्तुति ने संगत दी थी. रूबी दत्त, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के जनरल सेक्रेटेरी कॉमरेड पीसी जोशी की पत्नी और चिटगॉंव विद्रोह की अभियुक्त रहीं क्रॉंतिकारी कल्पना दत्त की बहन थीं.

मोहन उप्रेती, कुमाऊँ की लोक कलाओं की ओर अपने रूझान को और गहरे ले जाने का श्रेय Indian People’s Theatre Association यानी इप्टा से बनी करीबी और कॉमरेड पीसी जोशी को देते रहे. दूरदर्शन को दिए उनके इस इंटरव्यू की एक झलक देखिए.

कपिलेश भोज अपनी किताब में लिखते हैं कि कॉमरेड पीसी जोशी की पहल पर ही बाद में, बेड़ु पाको का ‘नृत्य गीत रूस भी ले जाया गया और मॉस्को रेडिया और दूसरे समाजवादी देशों के रेडियो स्टेशनों से कई सालों तक इसे प्रसारित किया जाता रहा.’

‘बेडू पाको’ गीत की इस यात्रा में भारत-चीन युद्ध की भी एक भूमिका है. हुआ यूँ कि साल 1962 में जब भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ा तो सीमावर्ती क्षेत्रों में काम कर रहे कम्युनिस्ट लोगों को नज़रबंद कर लिया गया. और बाद में जब उन्हें छोड़ा गया तो कई लोगों के ख़िलाफ़ Externment orders जारी कर दिए गए. मोहन उप्रेती के साथ भी ऐसा ही हुआ और उन्हें दिल्ली आना पड़ा.

लेकिन दिल्ली आने के इस संयोग ने उनकी प्रतिभा को और भी व्यापक मंच दिया और यही बात ‘बेड़ु पाको’ गीत के लिए भी लागू हुई. 1968 में मोहन उप्रेती और प्रवासी उत्तराखंडी कलाकारों ने दिल्ली में ‘पर्वतीय कला केंद्र’ की स्थापना की. पहाड़ी लोक संस्कृति को राष्ट्रीय मंच दिलाने के लिए ये एक बेहद महत्वपूर्ण संस्था साबित हुई.

‘बेड़ु पाको’ के सफर में लोकप्रियता का दूसरा दौर तब आया जब कुमाऊँनी गायकी के सबसे मशहूर गायकों में शुमार गोपाल बाबू गोस्वामी ने अपनी आवाज़ में इसे रिकॉर्ड किया. इसके बाद तो ये गीत रेडियो और रिकॉर्ड्स की शक्ल में पहाड़ों के कोने-कोने में बजने लगा.

‘बेडु पाको’ इतना मशहूर हुआ कि इसे कुमाऊँ रेजिमेंट का ऑफ़िशियल सॉंग भी बनाया गया और गढ़वाल राइफ़ल्स का बैंड भी अक्सर इस गाने की धुन बजाता सुनाई देता है.

उत्तराखंड और पहाड़ का ज़िक्र आते ही कई मशहूर हस्तियॉं ‘बेड़ु पाको’ गुनगुनाने लगती हैं. चाहे वो पहाड़ी जवानों के बीच अनुष्का शर्मा हों, मंच पर गाती उवर्शी रौतेला या किसी कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन जैसे मशहूर कलाकार. सिर्फ़ देश भर में ही नहीं बल्कि कई विदेशी मंचों पर भी ‘बेड़ु पाको’ विदेशी उच्चारणों में गाया जाता सुनाई देता है.

 

स्क्रिप्ट : रोहित जोशी

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