90 का दशक. उत्तराखंड राज्य निर्माण की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव. वो पड़ाव जिसमें उत्तराखंड आंदोलन ने अपने चरम को छुआ, बच्चे-बूढ़े-महिलाएं सब आंदोलन में कूदे, हर गाँव – हर क़स्बे से आंदोलनकारी निकले और पूरा हिमालय इन आंदोलनकारियों के बलिदान का साक्षी बना.
‘कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे’, ‘बाडी-मंडुआ खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे’ जैसे नारे पैदा हुए. वो नारे जो बताते थे कि पहाड़ की जनता को अब किसी भी क़ीमत पर प्रथक राज्य से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं. लेकिन ये मांग और प्रथक राज्य का आंदोलन जैसे-जैसे तेज हो रहा था, इसे कुचल देने के सरकारी हथकंडे और दमन के तरीक़े भी बढ़ते जा रहे थे. एक समय तो ये दमन इतना बढ़ गया कि तत्कालीन सरकार आंदोलनकारियों पर गोलियां चलने से भी नहीं चूकी. राज्य आंदोलन के इतिहास में कई गोली कांड हुए, जिनमें सबसे पहला था खटीमा गोली कांड.
उत्तराखंड राज्य की मांग देश की आज़ादी के कुछ समय बाद से ही उठने लगी थी. 90 का दशक आते-आते इस माँग को व्यापक जन समर्थन भी मिलने लगा. लेकिन इस मांग ने एक आंदोलन स्वरूप तब लिया जब तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण देने की घोषणा की. इस आरक्षण का ज़बरदस्त विरोध शुरू हुआ और जब जनता सड़कों पर उतर आई तो आंदोलन की मुख्य मांग आरक्षण की वापसी नहीं बल्कि प्रथक राज्य का निर्माण हो गई.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. आंदोलनकारियों ने 23 अगस्त 1994 को पूरे उत्तराखण्ड बन्द का आवाहन किया. इसका ज़बरदस्त हुआ लेकिन इसी के साथ शुरू हुआ सरकारी दमन का सिलसिला. जगह-जगह आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज होने लगे.
इसके बाद आया 1 सितम्बर 1994 का दिन. जगह थी कुमाऊँ मण्डल का खटीमा क़स्बा. राज्य आंदोलनकारियों ने यहाँ एक रैली आहूत की थी. खटीमा समेत आसपास के तमाम गांव-कस्बों से सैकड़ों लोग इस रैली में शामिल होने पहुंचे थे. सुबह करीब 11 बजे सैंकड़ों आंदोलनकारियों का प्रदर्शन शुरू हुआ और मुट्ठी भींचे लोगों ने सरकार के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज करना शुरू किया.
प्रदर्शन की शुरुआत रामलीला मैदान से हुई. जैसे ही पुलिस वालों के सामने से आंदोलनकारियों गुजरते, उनकी आवाज़ और भी ज्यादा जोशीली और भारी हो जाती. अलग-अलग जगहों को पार करने के बाद करीब 12 बजे आंदोलनकारियों का ये काफिला सितारगंज रोड से तहसील की तरफ बढ़ा.
रैली में मौजूद कुछ लोग आगे तहसील परिसर के पास पहुंच चुके थे, तो कुछ पीछे थाने के पास नारेबाजी करते हुए आ रहे थे. तभी थाने की तरफ से अचानक आंसू गैस के कुछ गोले दागे गए. इसके साथ ही मौक़े पर पथराव शुरू हो गया. बताते हैं कि इसके बाद तो आस-पड़ोस के घरों से भी पत्थरबाज़ी शुरू हो गई. ऐसे में आग-बबूला हुई पुलिस ने आंदोलनकारियों के काफिले पर न सिर्फ़ लाठी चार्ज शुरू कर दिया बल्कि सीधे गोलियां तक बरसा दी. भीड़ में अफरा-तफरी मच गई और भगदड़ की स्थिति बन पड़ी. कई सारे लोग इस भगदड़ में घायल हुए.
पुलिस ने करीब 60 राउंड फायर किए. इस गोलीकांड में सैकड़ों लोग घायल हुए और 8 आंदोलनकारी शहीद हो गए. इनमें प्रताप सिंह, सलीम अहमद, भगवान सिंह, धर्मानंद भट्ट, गोपीचंद, परमजीत सिंह, रामपाल और भुवन सिंह शामिल थे.
आगे चलकर जब इस मामले की जांच हुई तो यह भी सामने आया कि इस घटना को एक षड्यंत्र के तहत अंजाम दिया गया था. पुलिस की वायरलैस रिकॉर्डिंग में कई सारी बातें झूठ पाई गई, जैसे एक रिकॉर्डिंग में कहा जा रहा था कि पुलिस वालों पर फायरिंग की जा रही है, जबकि किसी भी पुलिसवाले को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था और न ही आंदोलनकारियों की तरफ से कोई गोली ही चलाई गई थी.
यह भी बताया जाता है कि इस बर्बर गोलीकांड में मारे गए 4 लोगों को पुलिस ने छिपा कर थाने की ही किसी कोठरी में रख दिया था और देर रात को उनके शव शारदा नदी में फेंक दिए थे. घटनास्थल पर सिर्फ 4 शव बरामद हुए. ऐसे में कई सालों तक पुलिस ने अपने इस कुकृत्य को छिपाने की कोशिश की और शहीद हुए आंदोलनकारियों की संख्या 4 ही बताई. खटीमा में हुए इस गोली कांड के बाद कई प्रदर्शनकारियों को राज्य की अलग-अलग जेलों में ठूंस दिया गया और उन पर कई आपराधिक मुक़दमे लाद दिए गए.
खुद को सही ठहराने के लिए पुलिस ने सारा दोष आंदोलनकारियों में मौजूद पूर्व सैनिकों और महिलाओं पर डालने की भी कोशिश की. पुलिस का कहना था कि पूर्व सैनिकों के पास लाइसेंसी बन्दूकें थीं और गोलीबारी पहले उन्हीं की तरफ से शुरू की गई लिहाज़ा जवाबी कार्रवाई में हमें भी गोलियां चलानी पड़ी. महिलाओं के बारे में पुलिस ने कहा कि उनके पास दरांतियाँ थी, जिससे महिलाओं ने पुलिस पर हमले के प्रयास किए.
उत्तराखण्ड के इतिहास में 1 सितम्बर 1994, काले दिवस के रूप में जाना जाता है. खटीमा गोलीकांड स्थल की एक दीवार पर आज भी पुलिस द्वारा बर्बरता से चलाई गई गोलियों के निशान मौजूद हैं. एक दीवार पर खून से लिखा गया उत्तराखण्ड इस बात की गवाही देता है कि उस दौर में यहां की जनता में अलग राज्य के लिए जोश और जुनून किस कदर था.
उत्तराखंड आंदोलन की लड़ाई में खटीमा गोली कांड एक अहम पड़ाव माना जाता है. इस घटना के बाद मसूरी और मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे में भी गोली कांड हुए जिनमें दर्जनों आंदोलनकारियों की शहादत हुई. लेकिन सबसे ज़्यादा अफ़सोस की बात ये है कि राज्य बन जाने के 22 साल बाद भी शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय नहीं मिल सका है. आंदोलनकारियों पर गोली चलाने वाले किसी भी पुलिस कर्मी को आज तक सजा नहीं हो सकी है और इनसे जुड़े मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले सभी शहीदों को बारामासा परिवार श्रद्धांजलि अर्पित करता है.
स्क्रिप्ट : अमन
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