चिपको आंदोलन के 50 साल: जब रैणी गांव ने इतिहास रचा

  • 2024
  • 15:39

साल 1974. तारीख़ 26 मार्च. दोपहर के लगभग 11 बजे थे. चमोली ज़िले के रैणी गाँव की महिलाएं दोपहर के भोजन की तैयारी कर रही थी. तभी गाँव की एक बच्ची दौड़ती हुई महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरा देवी के पास पहुंची और उसने बताया कि अभी-अभी कुछ लोग हाथों में आरियाँ और कुल्हाड़ी लिए जंगल की तरफ गए हैं. गाँव के सभी पुरुषों को प्रशासन ने बड़ी चालाकी से मुआवज़ा देने के बहाने चमोली बुला लिया था. ठेकेदार अपने आदमियों के साथ आरियाँ और कुल्हाड़ियाँ लिए जब जंगल की ओर बढ़ रहा था तो रैणी गाँव में कोई पुरुष उसे रोकने के लिए मौजूद नहीं था. लेकिन गौरा देवी तत्काल अपने घर से निकली और उनके साथ ही अनेक महिलाएँ इकट्ठा हो गईं. किसी ने कालीन बुनना छोड़ा तो किसी ने कपड़े धोना और ये सभी महिलाएं जंगल की तरफ बढ़ गई. अपनी माताओं को दौड़ते हुए देख गाँव की सात छोटी-छोटी बच्चियाँ भी उनके पीछे दौड़ पड़ीं.

ये महिलाएं जब ऊपर जंगल पहुंची तो देखा कि पेड़ कटान के लिए लाए गए औज़ार वहां बिखरे पड़े हैं. ठेकेदार के कारिन्दे और जंगलात के कर्मचारी शराब पिए हुए थे. उन्होंने इन महिलाओं के साथ छेड़खानी की कोशिश की और काम में रुकावट पर गुस्सा जताया. इन्हें गिरफ्तार करने की धमकी देने के साथ ही बंदूक़ दिखाते हुए वहां से लौट जाने को कहा गया.

औरतों के मन में मंथन चल ही रहा था कि तभी गौरा देवी आगे बढ़ी और उन्होंने अपनी आंगड़ी के बटन खोलते हुए कहा, ‘लो मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका.’ चारों तरफ एक चुप्पी छा गई थी. नीचे बहती ऋषिगंगा और ऊपर नन्दादेवी की तरफ उठते पहाड़ के बीचों-बीच ये प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुँचने की चुप्पी थी. इतिहास का एक असाधारण अध्याय लिखा जा रहा था. ऐसा अध्याय जो 13 जनवरी 1921 को बागेश्वर में या फिर 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में लिखा गया था. लगता था जैसे गौरा देवी और उनके साथियों के मार्फत सिर्फ रैणी नहीं, पूरा उत्तराखण्ड बोल रहा था. बल्कि देश के तमाम वनवासी बोल रहे थे. चिपको आंदोलन की सबसे सशक्त तस्वीर इस दिन उभार रही थी. वो तस्वीर जो आगे चलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रतिरोध और अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई का सबसे बड़ा प्रतीक बनने वाली थी.

गोपेश्वर, मण्डल और फाटा में चिपको आंदोलन को जब शुरुआती सफलताएँ मिली तो  प्रशासन के षड्यंत्र भी बढ़ने लगे. प्रशासन किसी भी क़ीमत पर रैणी गाँव में पेड़ों का कटान चाहता था. लेकिन उसे डर था कि चंडी प्रसाद भट्ट जैसे ज़मीनी कार्यकर्ता, गोविंद सिंह रावत जैसे ज़मीनी नेता और साम्यवादी-सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की संयुक्त शक्ति इसमें बड़ी रुकावट पैदा कर सकती है. ऐसे में प्रशासन ने योजना बनाई कि चंडी प्रसाद भट्ट को अगर रैणी पहुँचने ही न दिया जाए तो आंदोलन को तोड़ा जा सकता है.

24 मार्च 1974 का दिन था. चंडी प्रसाद भट्ट को बताया गया कि फ़ॉरेस्ट कॉन्सर्वेटर चैन सिंह सौन्दाल दो दिन बाद यानी 26 मार्च को गोपेश्वर में उनसे मिलना चाहते हैं. इस बातचीत के बहाने से उन्हें गोपेश्वर में ही रोक लिया गया. दूसरी तरफ़ प्रशासन ने एक और चालाकी की.
1962 के चीनी आक्रमण के बाद भारतीय सेना ने सीमांत के ग्रामीणों की जमीन ली थी. लेकिन इसका मुआवजा सैकड़ों ज्ञापनों, प्रतिनिधि मंडलों और घिराव के बाद भी लटका ही था. पूरे 12 साल बाद जिला प्रशासन ने इस मामले को निपटाने के लिए ठीक 26 मार्च 1974 का ही दिन तय किया और मलारी, रैणी, लाता सहित तमाम गाँवों के पुरुषों को मुआवज़ा देने के बहाने चमोली बुला लिया. इस कारण नीती घाटी और विशेष रुप से रैणी में 26 मार्च के दिन सिर्फ महिलाएँ और बच्चे-बूढ़े ही रह गए थे.

प्रशासन की तीसरी चालाकी थी गोविन्द सिंह रावत पर सरकारी जासूसों द्वारा लगातार नजर बनाए रखना और उनकी गतिशीलता को प्रभावित करना. इस तरह से आंदोलनकारियों को प्रशासन ने बड़ी चालाकी से अलग-अलग कर दिया था. फ़ोन पर भी प्रशासन का नियंत्रण था लिहाज़ा आंदोलनकारियों को एक-दूसरे से सम्पर्क भी नहीं कर पा रहे थे.

रेणी जंगल को काटने की तैयारी हो चुकी थी. यह सब नियोजित तरीके से किया गया था. चंडी प्रसाद भट्ट को गोपेश्वर में ही रोक लिया गया था, जोशीमठ में सी.आई.डी गोविंद सिंह रावत पर नजर बनाए हुई थी, नीती घाटी के लोगों को एक दशक से अटका मुआवज़ा देने के बहाने शहर बुला लिया गया था और उप अरण्यपाल ने खुद ही पेड़ों के कटान के लिए मजदूरों को जंगल में पहुँचाने की व्यवस्था कर दी थी.

26 मार्च 1974 की सुबह 10 बजे हिमाचली मजदूरों को जोशीमठ से रैणी के लिए बस में लाया गया. ये व्यवस्था यमुनानगर के ठेकेदार भल्ला के आदमी कर रहे थे. मजदूरों की हिमाचली टोपी उतारी गयी ताकि वे पहचाने न जाएं. उन्हें एक घंटा पहले ही बस में बैठा कर खिड़कियाँ बंद कर दी गई थी. ये बस जब जोशीमठ से निकली तो इसके पीछे-पीछे जंगलात की जीप चल रही थी जिसमें कर्मचारी सवार थे. प्रशासन इतनी चालाकी से काम कर रहा था कि उसने बस और जीप को रैणी गांव से पहले ही रोक लिया. तमाम मज़दूर और जंगलात के लोग मुख्य रास्ते से नहीं बल्कि गांव वालों की नज़रों से बचते हुए, ऋषिगंगा के किनारे एक पगडंडी से होते हुए ऊपर जंगल की तरफ़ चढ़ने लगे. चिपको आन्दोलन का डर मजदूरों से ज्यादा मुंशियों और जंगलात के कर्मचारियों में था.

रैणी गाँव की एक लड़की ने मजदूरों को ऊपर चढ़ते हुए देख लिया. पिछले नवम्बर से ही गाँव में हो रही हलचल से वो बालिका परिचित थी और गाँव का सामुदायिक जीवन हमेशा की तरह कायम था. गाँव के पुरुष जब गाँव में नहीं थे तो ये कौन अजनबी थे जो जंगल कि तरफ बढ़ रहे थे. संदेह होते ही वो लड़की दौड़कर महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के पास पहुंची और उसने परदेसियों के जंगल की ओर आने की बात बताई. महिला मंगल दल एक छोटा सा संगठन था. चिपको की इस गाँव में हुई सभाओं में कभी कभी महिलाएं पीछे बैठा करती थीं. स्वयं गौरा देवी भी अब तक किसी बैठक में नहीं जा पायी थी. हालांकि उनके बेटे ने उन्हें सब कुछ बताया था.

दोपहर लगभग 11 चुके थे. गाँव में भोजन बनाने का समय था. गौरा देवी तत्काल अपने घर से निकली और उनके साथ ही कई महिलाएँ इकट्ठा हो गईं. इन सबसे आपण रोज़मर्रा का काम छोड़ा और जंगल की तरफ बढ़ने लगी. अपनी माताओं को दौड़ते और गंभीर देख कर सात छोटी-छोटी बच्चियाँ भी उनके पीछे दौड़ पड़ीं. गौरा देवी के साथ 20 महिलाएँ और 7 बच्चियाँ थी. इनमें घट्टी देवी, भादी देवी, बिदुली देवी, डूका देवी, बाटी देवी, गौमती देवी, मूसी देवी, नौरती देवी, मालमती देवी, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, फगुणी देवी, मंता या मैता देवी, फली देवी, चन्द्री देवी, जूठी देवी, रुप्सा देवी, चिलाड़ी देवी, इंद्री देवी शामिल थी. बच्चियों में  पार्वती, मेंथुली, रमोती, बाली, कल्पति, झड़ी और रुद्रा थीं. ये सभी लोग सितेल जंगल को जाने वाली पगडंडी में आ गए और शार्टकट से ऊपर चढ़कर मजदूरों के पास पहुंच गए.

कुछ मजदूर खाना बना रहे थे और ठेकेदार के मुंशी जंगलात के कर्मचारियों के साथ दिन के काम की योजना तैयार कर रहे थे. कटान-गिरान के औजार आसपास बिखरे पड़े थे. चढ़ी हुई साँस में महिलाओं को देखकर मुंशी और जंगलात कर्मचारी स्तब्ध रह गए लेकिन उन्होंने घबराहट को ज़ाहिर नहीं होने दिया.

महिलाओं ने इन लोगों से निवेदन किया कि इस जंगल को मत काटो. ये जंगल हमारा मायका है. इससे हमें लकड़ी, घास, जड़ी-बूटी और सब्जी मिलती है. अगर यह जंगल कटा तो ये पहाड़ हमारे गाँव पर आ गिरेंगे और बाढ़ आयेगी. हमारे बगड़ यानी नदी किनारे के खेत बह जाएंगे. हमारे मायके को बर्बाद मत करो. हमारे घर को बर्बाद मत करो.

महिलाओं ने इन लोगों से ये भी निवेदन किया कि आप सभी लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ नीचे चलो. जब हमारे मर्द लौट आएँगे तब फैसला कर लेंगे. ठेकेदार के कई कारिन्दे और जंगलात के कर्मचारी शराब पिये हुए थे. उन्होंने महिलाओं के साथ छेड़खानी की कोशिश की और काम में रुकावट पर गुस्सा जताने लगे. उन्होंने इन महिलाओं को गिरफ्तार करने की भी धमकी दी और इस दल में शामिल बन्दूक वाला नशे में लड़खड़ाते हुए महिलाओं की ओर आने लगा.

गांव की इन औरतों के मन में मंथन चल ही रहा था कि तभी गौरा देवी ने आगे आकर अपनी आंगड़ी के बटन खोलते हुए कहा, ‘लो मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका!’ इसके साथ ही चारों तरफ एक चुप्पी छा गई. नीचे ऋषिगंगा बह रही थी और ऊपर नन्दादेवी की तरफ उठते पहाड़ खड़े थे. बीच में यह प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुँचने की चुप्पी थी. इतिहास का एक असाधारण क्षण था. लगता था जैसे गौरा देवी के मार्फत सिर्फ रैणी नहीं, पूरा उत्तराखण्ड बोल रहा था. बल्कि पूरे देश के वनवासी बोल रहे थे.

गौरा देवी की हिम्मत और साहस देख मज़दूर और जंगलात के कर्मचारी घबरा गए थे. एक कर्मचारी ने तब बन्दूकधारी डाँटा और उसके हाथ से बन्दूक छीन ली. धीरे-धीरे मजदूर नीचे की तरफ़ खिसकने लगे थे. इस बीच गाँव से कुछ और महिलाएँ भी आ गईं. जब सभी मज़दूरों को नीचे उतारने में महिलाएं कामयाब हो गई तो उन्होंने पगडंडी के मोड़ पर भूस्खलन से टूटे हिस्से पर बने उस सिमेंट के पट्टे को भी तोड़ दिया जो एक तरह से यहां पुल का काम कर रहा था. इस तरह महिलाओं ने जंगल को जाने वाले अकेले रास्ते को बन्द कर दिया.

ठेकेदार के कारिन्दों और जंगलात कर्मचारियों को ऊपर मार्ग बंद होने की जानकारी हो गई थी. वे सब सड़क पर आ चुके थे. उनका नशा अब उतर गया था और बदतमीजी की गुंजायश भी अब नहीं थी. मजदूर और सभी कर्मचारी भयभीत थे. 50 साल की गौरा देवी, 52 साल की मूंगा देवी और अपेक्षाकृत युवा बाली देवी, रुपसा, भादी, मूसी, हरकी, मालमती, फगूणी आदि सभी सड़क पर आ गईं. लगता था कि वे सब तब सिर्फ औरतें ही नहीं थीं, बल्कि वे अपने पतियों, बेटों और भाईयों की प्रतिनिधि भी थी.

ठेकेदार के कारिंदे ने शाम को गौरा देवी को अलग बुलाकर डराया-धमकाया और चलते-चलते उनके मुख पर थूक भी दिया. ठेकेदार के कारिन्दे को लगा कि यह महिला ही इस सबके लिए जिम्मेदार है क्योंकि वह बन्दूक से भी डरी नहीं थी. गौरा देवी ने चुपचाप यह सहन किया. तमाम महिलाएं रात भर महिलाएँ पगडंडी के पास बैठी पहरा देती रही और नन्दादेवी के गीत गाती रहीं. गौरा देवी कहती थी कि उस रात उन्होंने कोई नारे नहीं लगाये. दरअसल चिपको आन्दोलन की कार्यवाही ही इसका नारा बन गई थी. शब्द जब कर्म बनते हैं तो उन्हें उच्चारित करने की जरुरत नहीं रहती.

27 मार्च 1974 की सुबह हुई. धौली के उस पार पहाड़ के शिखर से धूप धीरे-धीरे नीचे उतर रही थी. महिलाओं ने देखा कि उनका जंगल मुस्कुरा रहा है. मुस्कान महिलाओं के चेहरों पर भी थी, लेकिन इसमें अभी गंभीरता भी शामिल थी. 9-10 बजे के बीच जोशीमठ से गोविन्द सिंह रावत और गोपेश्वर से चंडी प्रसाद भट्ट व अन्य लोग आ गए. मार्क्स या लेनिन का नाम न जानने वाली और गाँधी या विनोबा के विचार से भी लगभग अपरिचित इन महिलाओं के काम से वे सभी गौरवान्वित थे. हालांकि इसके पीछे उन्हीं का काम था. रैणी गाँव के जमाई हयात सिंह ने चंडी प्रसाद और अन्य को महिलाओं के पास ले जाने में देरी नहीं की. महिलाओं ने हाथ जोड़ सबका स्वागत किया.

गौरा देवी ने आगे बढ़कर कहा कि ‘हमने जो किया ठीक किया. हमें पछतावा नहीं है और न डर है. हमने किसी आदमी को नहीं मारा. उनसे प्रेम से ही बात की. अब पुलिस पकड़ भी ले जाए तो चिन्ता नहीं. हमने अपना मायका बचा लिया, अपने खेत और बगड़ बचा लिये.’ फिर वे सबको उत्साह से उस पगडंडी की ओर ले गयी, जिसमें सीमेन्ट का बना पट्टा उखाड़ दिया था. इस बीच पूरी बातें महिलाओं ने बता दी लेकिन बन्दूक तानने तथा मुंह पर थूकने की बात नहीं बताई. शायद जंगलात के कर्मचारियों की नौकरी चले जाने की बात उनके मन में आई थी.

इन महिलाओं ने गोविन्द सिंह के साम्यवाद व राजनैतिक कर्म और चंडी प्रसाद भट्ट के सर्वोदय व सामाजिक कर्म, दोनों की लाज रखी और कुछ समय के लिए इनके ‘वादों’ और ‘व्यक्तित्वों’ के विस्तार को अपनी कार्यवाही से ढक दिया. शाम को उस जगह प्रदर्शन हुआ, जहाँ मजदूर, राशन की बोरियाँ और भल्ला ठेकेदार के कारिन्दे विराजमान थे. हिमाचली मजदूर अपने पहाड़ी बिरादरों को देखकर घबरा गये थे. चंडी प्रसाद ने उनका डर खत्म करना चाहा, क्योंकि मजदूरों को लग रहा था कि ये महिलाएँ अब उन्हें पिटवायेंगी. मजदूरों को बताया गया कि आन्दोलनकारियों की उनसे लड़ाई नहीं है. न ही उनके मालिक या जंगलात वालों से है. हमें अपना जंगल बचाना था और हमने बचा लिया है. इसलिए आपको यहाँ डरना नहीं चाहिए. चंडी प्रसाद बोल ही रहे थे कि मजदूर सामने दरी पर बैठ गए. जंगल को काटने में असफल लोग और जंगल को बचाने में सफल समूह, एक साथ भट्ट को सुन रहे थे. लगता था जैसे मजदूर भी कार्यकर्ता की तरह हो गये थे. भट्ट महिलाओं द्वारा की गई कार्रवाही की प्रशंसा के साथ इस लड़ाई को आगे ले जाने की बात कर रहे थे. गोविन्द सिंह ने कहा कि वे किसी और घटना से इतने प्रसन्न नहीं हुए जितने कि कल के प्रतिरोध से. उनके चेहरे पर इतनी खुशी कभी नहीं खिली. बैठक में 31 मार्च को इसी स्थान पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया. अब तक गोपेश्वर-चमोली से रैणी गाँव के अनेक मर्द भी आ गए थे. उन्हें अपनी महिलाओं के काम पर गर्व हो रहा था पर ताजा इतिहास के इस असाधारण पृष्ठ पर पूरा विश्वास नहीं. कुछ के मन में जंगलात विभाग, पुलिस और ठेकेदार के कारिन्दों का भय अंकुरा रहा था. लेकिन जन उत्साह और तमाम लोगों के रैणी आ जाने के कारण ये भय तिरोहित हो गया.

अगले चार दिन आन्दोलनकारी और मजदूर यहीं रहे. 27 से 30 मार्च 1974 तक अलग अलग समूहों को जंगल की निगरानी की जिम्मेदारी सौंपी गयी. प्रकारान्तर में मजदूरों तथा 1800 बोरे राशन की सुरक्षा भी हो रही थी. महिलाएँ गाँव से आती जाती रहीं और भोजन की व्यवस्था करती रहीं. अब रोज़ नारे लगते, बातचीत होती और गीत गाये जाते. फिर 31 मार्च 1974 को इस घाटी का सबसे बड़ा और भव्यतम प्रदर्शन हुआ. जैसे पूरी धौली घाटी रैणी की सड़क पर इकट्ठा थी. धौली घाटी के सभी गाँवों से ग्रामीण पहुँचे तो जिले के अन्य क्षेत्रों से भी कार्यकर्ता आये. सुराई ठूठा, लाता, रैणी, पैंग, मुरांडा, सुभाई, तपोवन, ढाक, रिंगी, करछी, तुगासी, भंग्यूल, रेगड़ी आदि के ग्रामीण ऋषिगंगा के किनारे जमा हो रहे थे. हर ओर से परम्परागत और रंग-बिरंगे कपड़े पहने आदमी, औरतें, बच्चे आ रहे थे. गाजे-बाजों के साथ कुछ समूह नन्दादेवी के गीत गा रहे थे, कुछ समूह उन नारों को दोहरा रहे थे, जिन्हें कार्यकर्ताओं ने पिछले महीनों में गाँवों में बोया था. ‘वन जागे, वनवासी जागे’ इसमें सबसे ज्यादा दोहराया जाता था.

आज जैसे उनके विचारों की फसल अंकुरित हो आई हो. जंगलात के कर्मचारी तो जरूर भाग गये थे पर ठेकेदार के कारिंदे और मजदूर यह सब देखते रहे. उन्हें 28 महिलाओं और बेटियों के पीछे खड़े समाज का अन्दाजा हुआ. उन्हें स्पष्ट लगा कि जंगलात की नीति के खिलाफ कुछ लोग नहीं, पूरा समाज लड़ रहा था. जब ग्रामीणों की सब धाराएँ इकट्ठा हो गई तो सभा हुई. ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं ने अपनी तरह से आन्दोलन को परिभाषित और प्रस्तुत किया. रैणी की इस जीत पर सभी प्रसन्न थे और अनेक वक्ताओं ने मंडल, फाटा और रैणी के सिलसिले को समझा. उनके अन्तर्सम्बन्ध को जोड़ा और आगे की तैयारी की जरूरत बताई. कार्यकर्ताओं को पता था कि ये तीन सफलताएँ कम नहीं है पर अभी सरकारी जंगलात नीति टस से मस नहीं हुई है.

सभी ने समझदारी से संघर्ष को आगे ले जाने की जरुरत बताई. वक्ताओं ने कहा कि जब तक सरकार की ओर से व्यापक और व्यवहारिक फैसले नहीं होंगे, तब तक जंगलों की सुरक्षा की गारंटी नहीं है. कुछेक वक्ताओं ने इसे एक अप्रत्याशित घटना भी कहा. रैणी के प्रतिरोध ने चिपको आन्दोलन को एक स्पष्ट चेहरा और चमक देने में कामयाबी पाई.

इस बीच चारों ओर से चिपको आन्दोलन को अपना नैतिक समर्थन मिला. सरकार की ओर से दो साल से ठप्प पड़ी लीसा इकाईयों को लीसा दिया गया और ये इकाईयां चालू हो गई. ये आन्दोलन की पहली सफलता थी. इससे पहले लीसे के दाम एक किए गए.

रैणी की जीत चिपको आन्दोलन के पहले सफल अध्याय की पराकाष्ठा थी. गोपेश्वर, मण्डल और फाटा होकर चिपको यहां पहुंचा था. रैणी से पहले फाटा में भी महिलाओं की हिस्सेदारी हो चुकी थी लेकिन यहाँ महिलाओं को इतिहास रचने का मौका मिला. गौरादेवी इसकी प्रतीक माता बनी. सर्वोदयी, साम्यवादी और अन्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओें की इस सामूहिकता को जन समर्थन ने ताकत दी. दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की केन्द्रीय भूमिका और पृष्ठभूमि में सर्वोंदयी कार्यकर्ताओं का योग अपनी जगह था. भट्ट और रावत का नेतृत्व, तमाम सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं, महिलाओं और विद्यार्थियों की गहन हिस्सेदारी आन्दोलन को इस बिन्दु तक ले गई.

चिपको आन्दोलन की पहली सफल लहरों के 50 साल पूरे होने के मौके पर चिपको आन्दोलन, उसके नेतृत्व, कार्यकर्ताओं और उसमें सतत हिस्सेदार समाज को हम सभी का सलाम.

चिपको आंदोलन से जुड़ी ये तमाम जानकारी प्रोफ़ेसर शेखर पाठक के लेख से ली गई थी. इस आंदोलन के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप उनकी किताब ‘हरी भरी उम्मीद’ देख सकते हैं जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

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