पहली भारतीय महिला के एवरेस्ट चढ़ने की कहानी

  • 2023
  • 16:20

माउंट एवरेस्ट. दुनिया की सबसे ऊंची चोटी. 8848.86 मीटर की गगनचुंबी ऊँचाई वाली इस चोटी को ही सागरमाथा भी कहा जाता है. ब्रिटिश सर्वेयर सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रखा गया था. इस विशाल चोटी को सबसे पहले फतह करने वाले शख्स थे सर एडमंड हिलेरी. उनके साथ नेपाल के पर्वतारोही तेनजिंग नॉर्गे भी शामिल थे और इन दोनों ने ये इतिहास 29 मई 1953 को दर्ज किया.

वहीं लेफ्टिनेंट कर्नल अवतार एस चीमा और नवांग गोम्बू शेरपा माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले भारतीय थे. उन्होंने 20 मई 1965 के दिन ये इतिहास रचा था. माउंट एवरेस्ट फतह करने वालों में महिलाएं भी पीछे नहीं रही. दुनिया की इस सबसे ऊंची चोटी को फतह करने वाली पहली भारतीय महिला थी उत्तराखण्ड की बेटी, बछेंद्री पाल.

26 मार्च 1984. लगभग 30 साल की बछेन्द्री पाल, एवरेस्ट अभियान के दौरान अपने दल के साथ 4371 मीटर की ऊंचाई पर पूर्वी नेपाल में मौजूद पैरिच पहुंची. दुनिया के सबसे ऊँचे स्थान तक पहुंचने के लिए बछेंद्री बेहद उत्सुक थीं. मगर पैरिच पहुंचते ही उन्हें एक बुरी खबर सुनाई दी. ये खबर उनके हौंसले को पस्त करने के लिए काफी थी. खबर थी कि खुम्बु ग्लेशियर से गुजर रहा एक पर्वतारोहण दल बर्फ़ की एक विशाल चट्टान की चपेट में आ गया है. इस दल के एक सदस्य की मौत हो गई है और चार बुरी तरह जख़्मी हुए हैं. ये खबर सुनकर बछेंद्री के अभियान दल के सभी सदस्य भयभीत हो गए.
लेकिन उनके ग्रुप लीडर कर्नल खुल्लर ने अभियान दल को हताश नहीं होने दिया. उन्होंने सभी का मनोबल बढ़ाते हुए कहा कि ऐसे अभियानों के दौरान खतरों और कभी-कभी मौत को भी इंसान को सहजता से स्वीकार करना चाहिए. ऐसी घटनाओं से घबराकर अपने हौंसले को टूटने नहीं देना है.

ठीक इसी दिन यानी 26 मार्च को बछेंद्री से पहले गए दल का नेतृत्व करने वाले प्रेमचन्द वापस पैरिच लौट आए थे. उन्होंने बछेंद्री के दल को उन चुनौतियों से अवगत कराया जो एवरेस्ट फतह करने की राह में पहले मुश्किल पड़ाव, खुम्बु ग्लेशियर को पार करते हुए आती हैं. उन्होंने कहा कि उनके दल ने कैम्प 1, जो कि 6000 मीटर की ऊंचाई पर ग्लेशियर के ठीक ऊपर मौजूद है, तक रास्ता साफ कर दिया है. साथ ही वहां रस्सियां बांधकर और झंडियों से चिन्हित कर रास्ता कुछ आसान भी कर दिया है. मगर वहां अब भी हिमपात हो रहा है और ये हिमपात कब थमेगा ये निश्चित नहीं है. इसलिए ये भी संभव है कि हमें दोबारा रास्ता खोलने की कोशिश करनी पड़े. ये सब सुनकर दल के सदस्य विचलित तो हो रहे थे, लेकिन उनकी उत्सुकता भी वक्त के साथ प्रबल हो रही थी.

बेस कैम्प तक पहुंचने से पहले ही एक और बुरी खबर इस दल तक पहुंच गई. ये खबर थी एक रसोई सहायक की मौत की. जलवायु के साथ शरीर का तालमेल न बैठ पाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी. कुछ आशंकाएं और बहुत सारा हौसला लिए ये दल आगे बढ़ता रहा.
अगली रात करीब 5164 मीटर की ऊँचाई पर मौजूद गोरखशेप पहुँचकर ये दल रूका. यहां बछेन्द्री ने जलवायु अनुकूलन के अभ्यास के लिए ‘कालापत्थर’ पर रोहण किया. इस पर चढ़ने के बाद एक अनोखा नज़ारा बछेन्द्री की आंखों में तैर रहा था. यहां से एवरेस्ट, साउथ कोल और ल्होत्से साफ़ नज़र आ रहे थे. एवरेस्ट को अब तक बछेन्द्री ने सिर्फ़ दूर से ही देखा था. वे पहली बार इस विराट पर्वत को इतने क़रीब से निहार रही थीं. उन्होंने एवरेस्ट को सिर झुकाकर प्रणाम किया और आगे के सफर के लिए ख़ुद को कुछ और मजबूत पाया.

आगे का सफ़र बेस कैंप्स का था. इनमें पहला था बेस कैम्प 1 जिसे 6000 मीटर की ऊंचाई पर ग्लेशियर के ऊपर लगाया गया था. इसके बाद ‘वैस्टर्न कूम’ नाम की बर्फीली घाटी में 500 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद ये दल कैम्प 2 तक पहुंचा. और फिर 7200 मीटर की ऊंचाई पर ल्होत्से के सामने कैम्प 3 था. एवरेस्ट और ल्होत्से के बीच 7906 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद साउथ कोल था. यही साउथ कोल इस दल का अन्तिम बेस कैम्प यानी कैम्प 4 था. साउथ कोल सबसे अधिक ऊंचाई पर मौजूद ग्लेशियर है. यहां पहुंचे पर्वतारोहियों को अक्सर बर्फीले तूफानों से दो-चार होना पड़ता है और कई बार हिमस्खलनों से भी.

बछेन्द्री, साउथ कोल ग्लेशियर के पास पहुंचने के लिए बेहद आतुर थी. अपने कुछ साथियों के साथ शाम तक वो उस जगह पहुंच गई जहां से इस ग्लेशियर की शुरूआत होती है. कीलों से लैस अपने उपकरण उन्होंने पहन लिए. अभियान दल में मौजूद डॉ मीनू मेहता ने सभी सदस्यों को आगे के सफर के लिए जरूरी जानकारियां दी. जिनमें एल्यूमिनियम की सीढ़ियों से टेम्पररी ब्रिज बनाना, डंडों और रस्सियों का सही ढंग से उपयोग करना, बर्फीली दीवारों पर रस्सियों को सही ढ़ंग से टिकाना आदि शामिल था.

बछेन्द्री और साथियों के बेस कैम्प के पास ही एक बल्गेरियन बेस कैम्प था. बल्गेरियन पर्वतारोही कठिन पश्चिमी रास्ते से एवरेस्ट पर चढ़ाई करने की मंशा लिए थे, और जिस रास्ते बछेन्द्री का दल एवरेस्ट तक पहुंचने वाला था, उस रास्ते से वो लोग वापस लौटने वाले थे. बल्गेरियन पर्वतारोहियों के दल में से 5 पर्वतारोही शिखर तक पहुंचने में सफल हुए भी. मगर उनके एक साथी क्रिस्टो प्रोडोनो जो कि बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट शिखर तक पहुंचे थे, वापसी में मारे गए.

रास्तों को खोलना और ऊंचाई पर स्थापित किए गए कैम्पों तक सामान पहुंचा पाना बेहद चुनौतीपूर्ण था. तमाम मुश्किलों के बाद अंग दोरजी, लोपसांग और मगन बिस्सा अंतत: 29 अप्रैल को साउथ कोल में पहुंच कर कैम्प 4 स्थापित करने में सफल हुए.

बेस कैम्प में जब एक दिन तेनजिंग पहुंचे, तो वो दल के सभी सदस्यों से बातचीत कर रहे थे. जब बछेन्द्री पाल की बारी आई. तो उन्होंने तेनजिंग से कहा कि ‘मैं बिल्कुल नौसिखिया हूं और एवरेस्ट का ये मेरा पहला अभियान है.’ ऐसे में तेनजिंग हंसे और कहा ‘एवरेस्ट मेरा भी पहला अभियान है. तुम एक जीवट पहाड़ी लड़की लगती हो, तुम्हें तो पहले ही प्रयास में एवरेस्ट पर पहुंच जाना चाहिए.’ तेनजिंग की इन बातों ने बछेन्द्री के जोश और जुनून को चार गुना बढ़ा दिया था.

फिर आया 1 मई, 1984 का दिन. शिखर पर चढ़ने की तैयारियां पूरी कर ली गई थी. कर्नल खुल्लर ने साउथ कोल तक पहुंचने के लिए आरोहण दल के सदस्यों को दो अलग-अलग दलों में बांट दिया. 5 और 6 मई को इन दोनों दलों को आगे के सफर के लिए निकलना था.

प्रेमचन्द, रीता, फू दोरजी, चन्द्रप्रभा ऐतवाल और अंग दोरजी का दल 7 मई को साउथ कोल पहुंचा. 8 मई को प्रेमचन्द, रीता और अंग दोरजी को अग्रिम दल के रूप में शिखर पर चढ़ने का प्रयास कर शाम तक वापस लौटना था. और इसी दिन फू दोरजी, चन्द्रप्रभा ऐतवाल और आठ शेरपाओं को 8500 मीटर की ऊंचाई पर कैम्प 4 को स्थापित करना था और रात को वहीं रूककर अगले दिन शिखर पर चढ़ने का प्रयास कर शाम तक वापस आना था.

चन्द्रप्रभा ऐतवाल और प्रेमचन्द कुछ कारणों से वापस लौट आए, लेकिन फू दोरजी, रीता और अंग दोरजी 9 मई की सुबह 7 बजे अपने लक्ष्य की ओर बढ़े. करीब 1 घंटा चढ़ने के बाद अंग दोरजी के पैर ठंडे होने लगे. हिमस्खलन की आशंका के चलते उन्होंने वापस लौटने का फैसला किया. रीता पीछे थीं और फू दोरजी उनसे लगभग 20 मीटर आगे थे. बर्फ़ीली हवाएं 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उनसे टकरा रही थी और चारों तरफ कोहरा छाने लगा था. मौसम की अनिश्चितता के चलते रीता भी वापस लौटने लगी. फू दोरजी लक्ष्य से केवल 20 मीटर के फासले पर थे, मगर उनके पास उपलब्ध ऑक्सीजन खत्म हो गई. विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हार नहीं मानी, और दोपहर 12 बजे वो दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंच चुके थे. फू दोरजी इतिहास रच चुके थे. इस अभियान दल को एवरेस्ट को पहली बार बिना ऑक्सीजन के फतह करने का श्रेय भी मिला.

दूसरे दल में शामिल थे एनडी शेरपा, लोपसांग, मगर बिस्सा, तशारिंग और बछेन्द्री पाल. इस दल को 8 मई को साउथ कोल तक पहुंचना था और 9 मई को चोटी पर चढ़ने का प्रयास करना था. सभी सदस्य कैम्प 3 से निकल चुके थे. बर्फीली हवाओं के बीच भी उनका सफर जारी रहा. साउथ कोल अब बस एक घंटा दूर था लेकिन बछेन्द्री को चलने में भारीपन महसूस होने लगा था. गैस की कमी थी, इसलिए बछेन्द्री पाल बिना ऑक्सीजन के ही चल रही थीं. उनकी चाल धीमी होने लगी थी और उन्हें अभी चढ़ाई के सबसे कठिन हिस्से को पार करना था. बर्फ़ीली हवाएँ उनके सफर को और भी कठिन बना रही थी. तभी एक इंसान उन्हें नीचे की ओर आते दिखा. वो आश्चर्य में पड़ गईं कि इस वक्त साउथ कोल की ओर से आने वाला इंसान कौन हो सकता है. ये शख्स थे एनडी शेरपा जो उनके लिए ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर आ रहे थे. ऑक्सीजन मिलते ही अब उन्हें चढ़ाई काफी आसान लगने लगी.

बल्गेरियन पर्वतारोहियों का एक जोड़ा जो पश्चिमी रास्ते से चोटी पर चढ़ रहा था. अपने निर्धारित समय से 24 घंटे पीछे था. लिहाजा वे काफी थक भी चुके थे. ऐसे में शिखर से वापसी के दौरान दोरजी ने बल्गेरियनों की मदद की. और इसके लिए एनडी शेरपा और लोपसांग को उनकी मदद के लिए भेजा. इस वजह से 9 मई की यात्रा को रद्द कर दिया गया औऱ बछेन्द्री पाल को साथियों के साथ कैम्प 3 की ओर वापस लौटना पड़ा.

15 मई, 1984. बुद्ध पूर्णिमा का दिन था. बछेन्द्री ल्होत्से में कैम्प 3 में थी. उनके साथ 10 अन्य सदस्य भी थे. जिनमें लोपसांग और तशारिंग उनके टेन्ट में ही थे. वहीं एनडी और आठ शेरपा दूसरे टेन्ट में. रात साढ़े बारह बजे के करीब बछेन्द्री पाल को सिर पर अचानक किसी सख्त और ठंडी चीज के टकराने का एहसास हुआ. साथ ही एक जोर का धमाका भी सुनाई दिया. उन्हें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी. दरअसल एक विशालकाय बर्फ का टुकड़ा ग्लेशियर से टूट कर नीचे आ गिरा था. उनके टेन्ट्स के चारों ओर बर्फ के टुकड़े मौजूद थे और उनके सारे कैम्प ध्वस्त हो चुके थे. बछेन्द्री एक हिमखण्ड में दबी हुई थीं. लोपसांग से अपने स्विस चाकू की मदद से रास्ता बनाया और उन्हें वहां से बाहर निकाला. जरा सी भी देर होती तो बछेन्द्री की जान जा सकती थी. रसोई के अलावा सब कुछ तहस-नहस हो चुका था. लोपसांग और बछेन्द्री पाल जैसे-तैसे इस रसोई के ऊपर पहुंचे. उन्होंने देखा कि एनडी कैम्प 4 के ग्रुप लीडर से वॉकी-टॉकी पर बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उनकी पसलियां और एक शेरपा के पैर की हड्डी टूट गई है.

चारों ओर से दल के सदस्यों के कराहने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. कई लोगों को गम्भीर चोटें आई थी. मगर एनडी के हौसले अब भी बुलंद थे. उन्होंने कैम्प 2 तक ये संदेश पहुंचाया कि सब ठीक है. सभी लोग आगे का सफर तय करेंगे. उस रात रसोई में बिताकर सभी सदस्यों ने एक-दूसरे की चोटों की प्राथमिक चिकित्सा की. इस भयावह घटना के बारे में सुनकर कैम्प 1 से जय और बिस्सा, और कैम्प 2 से एक रसोईया चार अन्य सदस्यों के साथ बचाव दल के रूप में उनकी मदद के लिए रवाना हुआ. कुछ ही घंटों में ये बचाव दल वहां पहुंच चुका था. 16 मई की सुबह 8 बजे सभी सदस्य कैम्प 2 में थे. जिन शेरपा के पैर की हड्डी टूट गई थी, उन्हें एक कामचलाऊ स्ट्रेचर की मदद से नीचे लाया गया. ग्रुप लीडर कर्नल खुल्लर ने इतनी ऊंचाई पर अंजाम दिए गए इस साहसिक बचाव कार्य की खूब सराहना की.

उस रात बछेन्द्री पाल के सिर पर जो चोट आई थी, ठंड की वजह से उस जगह पर दर्द और ज्यादा होने लगा था. इस कारण हाथ से ही वो उस जगह को मलने लगती. उनके दल के सभी 9 सदस्यों को ज्यादा चोट आने के कारण बेस कैम्प भेज दिया गया. कर्नल खुल्लर ने जब बछेन्द्री पाल से पूछा कि क्या तुम्हें डर लग रहा था? तो बछेन्द्री ने कहा – जी, हां. उन्होंने फिर से पूछा – क्या तुम वापस जाना चाहती हो? बछेन्द्री ने पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया – नहीं.

अब जब कई सारे सदस्य वापस जा चुके थे, तो ऐसे में कुमार, जय बहुगुणा, मगन बिस्सा और डॉ. मीनू मेहता को साथ में लेकर अगला पर्वतारोहण दल बनाया जाना था. ल्हाटू, पुलजर और अन्य शेरपाओं को सहायक की भूमिका निभानी थी. बछेन्द्री महिला सदस्यों में काफी अहम थीं, इसलिए उन्हें कुछ विशेषाधिकार दिए गए. ऑक्सीजन को बचाए रखने के लिए सभी पुरूष सदस्यों को साउथ कोल तक का सफर बिना ऑक्सीजन के ही तय करना था. आधी चढ़ाई चढ़ जाने के बाद बिस्सा के पैर ठंडे पड़ने शुरू हो गए, ऐसे में उन्हें ऑक्सीजन लेने की सलाह दी गई. बछेन्द्री पाल को अगले दिन की चढ़ाई के लिए ऊर्जा बचाए रखनी थी, इसलिए उनसे कहा गया कि वे दो लीटर प्रति मिनट के औसत से ऑक्सीजन का प्रयोग करें.

साउथ कोल पहुंचते ही बछेन्द्री पाल ने अभ्यास शुरू कर दिया और खाने का सामान, कुकिंग गैस और ऑक्सीजन सिलेंडर समेट कर अपने पास रख लिया. जय और मीनू काफी पीछे थे, क्योंकि उनके पास काफी बोझ था और बिना ऑक्सीजन के आ पाने में उन्हें दिक्कतें हो रही थी. उनकी धीमी गति को देखकर बछेन्द्री परेशान थी, क्योंकि अगले दिन बछेन्द्री को उन्हीं के साथ चढ़ाई चढ़नी थी.

दोपहर के बाद अपने दल के सदस्यों की मदद के लिए बछेन्द्री ने नीचे लौटने का फैसला लिया. तेज बर्फीली हवाओं के बीच बछेन्द्री नीचे आ रही थी, कैम्प के पास ही मीनू उन्हें दिख गईं. जेनेवा स्पर की चोटी के ठीक नीचे उन्हें जय दिखा. जय ने बछेन्द्री को सलाह दी कि वो और ज्यादा नीचे ना आए. मगर उन्हें कुमार से भी मिलना था. बछेन्द्री, जय की सलाह को दरकिनार कर थोड़ा और नीचे उतरीं. इतने में उन्हें कुमार भी दिख गया. कुमार ने बछेन्द्री से कहा –  तुमने इतना जोखिम क्यों लिया? बछेन्द्री ने कहा – औरों की तरह ही मैं भी पर्वतारोही हूं. शारिरीक रूप से फिट हूं. मुझे अपने साथियों की मदद क्यों नहीं करनी चाहिए.

कुछ देर बाद साउथ कोल कैम्प से ल्हाटू और बिस्सा भी नीचे उतर आए. यहां रात रुककर अगले दिन बछेन्द्री पाल सुबह 4 बजे उठीं. बर्फ को पिघलाकर उन्होंने चाय बनाई. कुछ बिस्किट और चॉकलेट का नास्ता करके करीब साढ़े पांच बजे जब बछेन्द्री टेंट से बाहर आईं तो बाहर अंग दोरजी खड़ा था. दोरजी बिना ऑक्सीजन के ही चढ़ाई चढ़ने वाला था. उसे या तो उसी दिन चोटी फतह कर साउथ कोल की ओर वापस लौटना था, या फिर ये विचार अपने मन से त्याग देना था. अंग दोरजी ने बछेन्द्री से पूछा क्या वो उनके साथ चलना पसंद करेंगी.

एक ही दिन में एवरेस्ट शिखर तक पहुंच पाना और वापस साउथ कोल तक लौटना बेहद चुनौतीपूर्ण था. मगर बछेन्द्री, दोरजी की पर्वतारोहण क्षमता से वाकिफ़ थी. बछेन्द्री ने दोरजी पर भरोसा किया और उनके साथ चलने को राजी हो गई.

23 मई 1984, सुबह करीब 6 बजकर बीस मिनट. दोरजी और बछेन्द्री अपने कैम्प से बाहर निकले. दोनों ने चढ़ाई शुरू की. दोरजी अच्छी तरह से चढ़ाई चढ़ रहे थे, बछेन्द्री को भी उनके साथ चलने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी. कुछ जगह बर्फ बेहद सख्त थी, जिस वजह से फावड़े का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. ये रास्ता बड़ा खतरनाक था. दो घंटे से भी कम वक्त के अन्दर दोनों शिखर कैम्प तक पहुंच चुके थे. कैम्प तक पहुंचने के बाद दोरजी ने बछेन्द्री से पूछा – क्या तुम थक चुकी हो? बछेन्द्री ने जवाब दिया – नहीं. दोरजी ने कहा – इससे पहले वाले दल ने यहां तक पहुंचने में 4 घण्टे लगाए थे. अगर इसी गति के साथ हम आगे बढ़ते रहे तो दोपहर 1 बजे तक हम शिखर पर खड़े होंगे.

दोनों फिर से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चले. दक्षिणी चोटी के नीचे कुछ वक्त के लिए दोनों ठहरे. इतने में उनके पीछे से आ रहा ल्हाटू भी वहां पहुंच गया. उसके पास नॉयलॉन की रस्सी थी. बछेन्द्री और दोरजी रस्सी के सहारे चढ़ने लगे और ल्हाटू एक हाथ में रस्सी के सहारे चढ़ने लगा. उसने रस्सी अपने सुरक्षा के बजाय उनके सही संतुलन के लिए पकड़ी हुई थी. दक्षिणी शिखर के ऊपर हवा काफी तेज गति से बह रही थी. और इन हवाओं में बर्फ के अनगिनत कण मौजूद थे. इतने में अचानक दोनों ने यह महसूस किया कि चढ़ाई अब खत्म हो चुकी है. कोई ढलान अब मौजूद नहीं था. दोनों ही एवरेस्ट के शिखर पर पहुंच चुके थे.

23 मई 1984 का दिन था, दोपहर करीब 1 बजकर 7 मिनट हो रहे थे. बछेन्द्री पाल इतिहास रच चुकी थी. वो अब विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर चढ़ने वाली दुनिया की पांचवीं और भारत की पहली महिला बन चुकी थी. एवरेस्ट की चोटी पर इतनी जगह भी नहीं थी कि दो लोग वहां एक साथ खड़े हो सकें. ऐसे में दोनों ने वहां बर्फ़ को कुछ खोदकर थोड़ा जगह बनाई, ताकि वहां पर खड़ा हुआ जा सके. बछेन्द्री अपने घुटनों के बल बैठी और एवरेस्ट शिखर को चूमा. करीब 43 मिनट वे दोनों इस चोटी पर रहे. यहां से ल्होत्से, नुपत्से और मकालू जैसे विशाल शिखर भी बौने प्रतीत हो रहे थे. चोटी के पास से ही उन्होंने पत्थरों के कुछ नमूने इकट्ठा किए और 1 बजकर 55 मिनट पर एवरेस्ट शिखर से नीचे को चल दिए.

बछेन्द्री पाल का जन्म 24 मई 1954 को उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के नकुरी गांव में हुआ था. अपने गांव से स्नातक पास करने वाली वो पहली महिला थीं. इसके बाद उन्होंने संस्कृत से एमए किया. उनके परिवार वाले कभी नहीं चाहते थे कि वो पर्वतारोही बनें. मगर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था. उन्होंने माउंटेनियरिंग करने की सोची और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में आवेदन किया. सालों लगे लेकिन फिर वो वक्त भी आया जब पूरे देश ने उनकी काबिलियत को पहचाना. अपनी इस उपलब्धि के लिए उन्हें साल 1984 में पद्म श्री, 1986 में अर्जुन पुरस्कार और साल 2019 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.

वर्तमान में बछेन्द्री पाल टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन, जमशेदपुर में बतौर संस्थापक निदेशक काम कर रही हैं, और हजारों लोगों को पर्वतारोहण के गुर सिखा रही हैं. बछेन्द्री पाल आज अनेकों ऐसी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं, जो बहुत कुछ करना तो चाहती हैं मगर परिस्थितियां उनका साथ नहीं देती. विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे कोई मुकाम हासिल किया जा सकता है, ये बछेन्द्री पाल से सीखा जा सकता है.

 

स्क्रिप्ट: अमन रावत

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