पहाड़ी लोक गीतों में सर्दियों के रंग

  • 2024
  • 13:56

ह्यूंद का दिना फिर बौड़ी ऐ गैना
ह्यूंद का दिना फिर बौड़ी ऐ गैना
ज्यू नि लगदू स्वामीजी तुम बिना.
हो ज्यू नि लगदू स्वामीजी तुम बिना…

उत्तराखंड में ह्यूंद यानी सर्दी भरपूर अंगड़ाई लेने के बाद अब पूरी तरह जाग चुकी है. और पहाड़ में सर्दी जब आती है तो अपने साथ कई तरह के भाव भी समेट लाती जिन्हें लोक गीतों से लेकर कविताओं तक में खूब व्यक्त किया गया है. तो चलिए आज आपको गढ़वाल – कुमाऊँ के ऐसे कुछ गीतों और कविताओं से रूबरू करवाते हैं जिनमें सर्दियों के ये तमाम भाव छिपे हैं.

ह्यूंद का ये मौसम जहां दिन छोटे हैं, रातें बड़ीं और हवा नाक-कान काटने वाली.

मफलर से लेकर मंकी कैप तक तमाम गर्म कपड़े बक्सों से निकलकर बदन पर चढ़ चुके. खेती-बाड़ी का काम धीमा हुआ. ये अब थोड़ी सी फुरसत का समय है. सो सग्गड़ और अंगीठियां सुलगने लगी हैं. चाय अब दिन भर उबलेगी – कहीं चूल्हे पर चढ़ी केतली के भीतर तो कहीं गैस पर रखे पैन में.

ह्यूंद लगते ही खाने-पीने का स्वाद भी बदल गया है. अब पालक, मेथी और लाई जैसी हरी सब्जियों की बहार है. ये मौसम गहत, भट्ट, सुंटा और लोबिया जैसी मोटी दालों की खूब पूछ का भी है.

बाकी ऋतुओं की तरह उत्तराखंड की लोक संस्कृति में ह्यूंद के भी अपने रंग हैं. इनमें सबसे गाढ़ा रंग है उदासी का. जीवन में उजाला कम होने लगे तो मन पर उसका ऐसा असर स्वाभाविक भी है. वैसे किसी साल को अगर इंसान मान लें तो ह्यूंद या जाड़ा उसका बुढ़ापा है, जो बार-बार पीछे मुड़कर देखता है और अक्सर उदास होता है.

कौंपदू-कौंपदू थर थर फिर ह्यूंद आई -२
त्यारा बाँठोँ ह्यूं बी मैमा ढोली ग्याई
टप -टप पठाल्यूँ कु ह्युं सी गळणु रौं मी
मौल्यार आई त लटुलि फुलिं ग्येनी
लटुलि फुलिं ग्येनी

यानी,

हाड़ कंपाता सर्द मौसम आया और तेरे हिस्से की बर्फ भी मुझ पर गिरा गया
पठाल्यूं यानी छत के पत्थरों पर पड़ी बर्फ की तरह मैं गलता रहा
फिर बसंत आ गया. लेकिन उसका कोई फायदा न था क्योंकि तब तक उम्र बीत गई थी.

यह एक ऐसे इंसान की व्यथा है जिसका प्रेम समय से परवान न चढ़ सका. उसने जीवन का ह्यूंद झेला, इस उम्मीद में कि जल्द ही किस्मत उस पर मेहरबान होगी. लेकिन ह्यूंद बीतते-बीतते और बसंत यानी मौल्यार आते-आते बहुत देर हो गई.

ह्यूंद की इसी उदासी को आगे बढ़ाता है वह गाना जिससे हमने अपनी बात शुरू की थी.
ह्यूंद की राति, लंबी-लंबी होंद
आंख्यों कु पाणी, तर-तर चूंद
घुट-घुट मिथैं  बाडुली लगदिना
हो ज्यू नि लगदू स्वामीजी तुम बिना.
ह्यूंद का दिना फिर बौड़ी ऐ गिना
ज्यू नि लगदू स्वामीजी तुम बिना.

जिस दौर के ये गीत हैं वह ऐसा समय था जब उत्तराखंड को मनीऑर्डरी अर्थव्यवस्था कहा जाता था. पहाड़ के पुरुषों की एक बड़ी संख्या परदेस यानी मैदानी शहरों में होती थी. ये लोग जो मनीऑर्डर घर भेजते उससे ही परिवार की गाड़ी थोड़ा ठीक से चल पाती थी. साल के ज्यादातर दिन वे अपने घर से दूर रहते. इस दूरी की पीड़ा कई गीतों में फूटी है. जैसे ये गीत.

ह्यूंद का मैंनों की लंबी-लंबी राति
कनु क्वैक काटलि झझरालि गाति
परदेस छोड़ी, कब आला बौड़ी
देवतौं मनाणि होली
धकध्यांदी जिकुड़ी
रगर्यांदी आंखि
कैतें खोज्याणी होली

जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, ह्यूंद में खेती-बाड़ी का काम थोड़ा हल्का हो जाता है. इसलिए साल का ये वक्त थोड़ी सी फुरसत लेकर आता है. यही समय होता है किस्से-कहानियों का.

भुला-भुल्यों, बिज्यां रावा
कथा सूणा, हुंगरा द्यावा
चौमासू ग्याई, कुरेड़ू भागी
जाडू आई, ह्यूंद लागी.

हयूंद की जरा सी फुरसत महिलाओं के लिए बड़ी राहत लेकर आती है. परंपरागत रूप से इन महीनों में वो अपने मायके जाती रही हैं. लेकिन जिन बदकिस्मत बेटियों को ये मौका नहीं मिल पाता, उनकी पीड़ा भी गीतों में गूंजती रही है.

बेट्यों का खुदेड़ मैना
चैत-पूस ऐना गैना
मैंत्यों का सासा छाई
तौन रैबार नी द्याई
दगड़्या भग्यानि मेरी मैत गैना
म्यारा सदानि इनी दिन रैना

इतिहास देखें तो शीत ऋतु शुरू होते ही पहाड़ के कई क्षेत्रों में लोग कुछ समय के लिए भाबर की तरफ चल देते थे. हिमालय की जड़ में फैले इस इलाके में दिन में अच्छी धूप खिलती. यहां पर जंगल, नदी और उपजाऊ धरती भी होती. हिमालयी लोग यहां जंगलों में पशु चराते और ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करते. साथ ही इन अस्थायी बसेरों में वे थोड़ी-बहुत सब्जी और अनाज भी उगा लेते. इन लोगों को हल्के-फुल्के अंदाज में ‘घमतपुवा’ भी कहा जाता था.

नरेन्द्र सिंह नेगी के एक गीत में एक नवविवाहित युगल इसी प्रवास पर बहस करता है. पति कहता है कि कुछ काम-धाम करने भाबर चले जाते हैं. वहीं पत्नी ‘भाबर नि जौंला’ की टेक लगाए रखती है.

यख पहाड़ मा जड्डू ह्वैगे भारी
चार-छै मैना सुवा
मैंना चारेक सुवा
भाबर जयोंला
भाबर जयोंला
तुम्हारी माया मा
ह्यूंद क्या उमर भी
यखी कटि जालि सुवा
यखी रै जौंला सुवा
भाबर नि जौंला

बात आगे बढ़ाते हैं. देश के बाकी हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी जनसरोकारों का एक बड़ा हिस्सा शराब की समस्या रही है. राज्य में इसके खिलाफ कई आंदोलन भी चले. पहाड़ी समाज में शराब का इस्तेमाल सर्दी भगाने के बहाने भी होता रहा है. इससे सचेत करते एक लोकगीत का अंतरा कुछ यूं है.

आलु मंगसीर, रणु ढंगसीर, उद्मतु नि हुइंयां
पूस च प्यारू, पियां न दारू, दारु-दरोल्या न हुइंयां
हरि बोला जी
हरि बोला जी, हरि बोला जी

ये तो हुई गढ़वाल क्षेत्र की बात. अब उत्तराखंड के कुमाऊं इलाके की बात करते हैं जहां ह्यूंद, ह्यून हो जाता है. वहां भी इस पर बहुत सारे गीत-कविताओं की रचना हुई है. इन गीतों में प्रकृति का चित्रण तो है ही, कई जगह जनजीवन के कष्ट भी हैं. अभावों में रह रहे लोगों के लिए ह्यून किस तरह के संकट लेकर आता है उसे सुप्रसिद्ध लोक कवि शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ की इस चर्चित कविता से समझा जा सकता है-

न्हैं झगुली न्हैं सुर्याव
कसी काटूं ह्यून-हिङाव.
टुटी घर छू-फुटी द्वार, उसै भितैर-उसै भ्यार.
ख्वारन च्वीनै पाणी धार, जाड कै है रौ जती मार.
कसी काटीं आजै ब्याव,
कसी कांटी ह्यून-हिङाव.

गांव में अभावों के बीच रहने वाले उस परिवार की यह व्यथा है, जिसके पास ओढ़ने-बिछाने के लिए कुछ नहीं है. टपकती छत के कारण उसके लिए जिस तरह घर के अंदर रहना है, वैसा ही कड़कती ठंड में बाहर पड़ी तुषार में रहना.

कुमाउनी के आदि कवि माने जाने वाले लोकरत्न गुमानी ने भी ह्यून पर लिखा. उन्होंने इस मौसम का वह पक्ष रखा जिसमें गांव के लोग बहुत सकून के साथ अपना दिन बिता सकते हैं. उनका ह्यून ऐसा है, जिसमें गुनगुनी धूप में भात के साथ टपकिया का आनंद लिया जाता है. घर के बाड़ों में लगने वाली हरी सब्जियों से ह्यून का पूरा महीना भरा है. उनकी कविता है-

पानी लग जस हो निमैन अरड़ो,
घर का नजिक नौल हो.
ह्यूना म्हैंण प्रभात घाम देलि में,
या ब्याल को तैल हो.
रत्ते भात भरो टपकिया,
भटिया भलो जौल हो.
घर बाड़ो सब कुनकी,
साग हर बखत हरियां हो.

कुमाउनी के सुप्रसिद्ध कवि कृपालु दत्त जोशी ने तो ह्यून के कई पक्षों पर एक लंबी कविता लिखी. उन्होंने ह्यून को कई अर्थों में परिभाषित किया है. जिस दौर में वह इस कविता को लिख रहे थे, पहाड़ में लोगों की आर्थिकी अपने प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर थी. लोगों के लिए हर मौसम का अपना महत्व था. ह्यून एक तरह से पहाड़ के लोगों के लिए वर्ष का आरामदेह महीना है. आपसी मिलन का भी और संवाद का भी.

शरद रितु को अन्त देखी
ह्यून झटपट जागि उठो,
बगड़ गाडन हौल छाई
दीन थरथरै कांपि उठो.
मासन में छू मगसीर मैकैं
श्रीकृष्ण मुख त्वीलै सुणो
सुणि कृष्ण वाणी गर्व त्वै भै
दीन पीड़न प्रण करो.

कुमाऊं के एक प्रसिद्ध रचनाकार हुए हैं नंद कुमार उप्रेती. उनकी रचनाओं ने कुमाऊं के साहित्य को बहुत समृद्ध किया है. उन्होंने ह्यून को बहुत सारे बिंबों के साथ देखा है. उनके ह्यून में प्रकृति और मानव के अन्तर्सबधों का सजीव चित्रण है. उसमें ऐपण, देई, थुलुम, चिड़िया, घोंसले सबकुछ समाहित है-

बर्ख में जो डानकान पाणिक हारनकि
ऐपण हालि देई जास देखींछि
आब ऊं ह्यूक थुलुम ढकी बेर
स्याता-स्याता और सुंदर है गयीं
चाड़ प्वाथनक चिचाट थामी गो
कैं उड्यार कती पातन भितर लुकी हुन्याल.

 

स्क्रिप्ट: विकास बहुगुणा और चारु तिवारी

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