देश के सबसे अमीर घरानों का जिक्र आता है तो ज़हन में स्वतः ही टाटा, बिरला, अड़ानी और अंबानी जैसे नाम उभर आते हैं. यह वो नाम हैं जो देश ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शुमार हैं. लेकिन आज से क़रीब आधी सदी पहले इस फ़ेहरिस्त में एक नाम अपने पहाड़ों से भी आता था. उत्तराखंड के सुदूर सीमांत क्षेत्र में एक व्यक्ति ऐसा हुआ जिसका बचपन तो मुफ़लिसी में बीता था लेकिन जवानी पैसों से ऐसी गुलज़ार हुई कि उसका नाम ही मालदार पड़ गया. उसने इतना धन अर्जित किया कि कभी दर्जनों गाँव एक साथ ख़रीद लिए, कभी शहर का शहर ख़रीद डाला तो कभी रजवाड़ों की पूरी रियासत. वो जब व्यापारी हुआ तो ऐसा हुआ कि पूरी दुनिया को अपने व्यापार से जीतने वाले ब्रितानियों ने भी उसकी प्रतिभा को सलाम किया. वो जब लकड़ी के व्यापार में उतरा तो ‘टिम्बर किंग ऑफ़ इंडिया’ कहलाया और जब उसने चाय के बाग़ान लगाए तो चीन के चाय पर एकाधिकार को ध्वस्त करते हुए पूरे यूरोप को अपनी चाय की ख़ुशबू से महका दिया. वो दानवीर भी हुआ तो ऐसा कि कई स्कूल और कॉलेज खुलवाकर हजारों बच्चों को स्कॉलरशिप बाँटी.
पहाड़ का यह अरबपति, जिसका व्यापार कभी जम्मू कश्मीर से लाहौर और पठानकोट से वज़ीराबाद तक फैला था और जिसकी अकूत संपत्ति के निशान पिथौरागढ़, टनकपुर, हल्द्वानी, नैनीताल, मेघालय, असम और काठमांडू तक थे, उसका नाम था दान सिंह बिष्ट और दुनिया ने उसे जाना दान सिंह मालदार के नाम से.
ये कहानी शुरू होती है बीसवीं सदी की शुरुआत से. नेपाल के बैतड़ी में राय सिंह नाम के एक व्यक्ति रहा करते थे. उनका घी का छोटा-मोटा कारोबार था जिससे परिवार की मूलभूत ज़रूरतें भी बमुश्किल पूरी हो पाती थी. मुफ़लिसी में ज़िंदगी कट रही थी कि तभी प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया. ये युद्ध जहां करोड़ों के लिए त्रासदी बनकर आया, वहीं कुछ लोगों के लिए इसने अपार अवसरों के दरवाज़े भी खोल दिए. राय सिंह भी उन चुनिंदा लोगों में थे जिनके लिए विश्व युद्ध अवसर बनकर आया था.
दरअसल विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश इंडियन आर्मी में घी की मांग बढ़ रही थी. ऐसे में राय सिंह को किसी ने सलाह दी कि वे आर्मी को घी सप्लाई करना शुरू करें. राय सिंह को ये सुझाव पसंद आया और उन्होंने पिथौरागढ़ के वड्डा में घी का डिपो शुरू कर आर्मी को घी बेचना शुरू किया. उनके बेटे देव सिंह ने भी इस काम में उनका साथ दिया और देखते ही देखते उनका कारोबार चल निकला.
घी की सप्लाई से अच्छी आमदनी होने लगी तो देव सिंह ने ठेकेदारी का काम भी शुरू कर दिया. बताते हैं कि देव सिंह संबंध बनाने में माहिर थे. उन्होंने जल्द ही एक ऐसे ठेकेदार के रूप में ख़ुद को स्थापित कर लिया जिसका नाम पूरे क्षेत्र में चर्चित होने लगा. मुफ़लिसी के दिन अब पीछे छूट रहे थे और राय सिंह का परिवार संपन्न होने लगा था. उनका बेटा देव सिंह ठेकेदारी से नाम भी कमा रहा था और पैसा भी. लेकिन इस परिवार का बुलंदियों पर पहुंचना अब भी बाक़ी था. इन बुलंदियों को छूने की शुरुआत तब हुई जब देव सिंह के बेटे और राय सिंह के पोते दान सिंह व्यापार में उतरे.
दान सिंह का जन्म साल 1906 में पिथौरागढ़ जिले के वड्डा में हुआ था जहां उनके पिता और दादा कुछ साल पहले ही आकर बसे थे. 12 साल की उम्र में ही दान सिंह ने अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी. तब वो सिर्फ़ कक्षा पाँच तक पढ़े थे. उनके पिता अब तक ठेकेदारी शुरू कर चुके थे और देश-विदेश के व्यापारियों से उन्होंने अच्छे सम्बंध बना लिए थे. इन्हीं संबंधों के चलते दान सिंह एक ब्रिटिश लकड़ी व्यापारी के साथ बर्मा चले गए और इस व्यापार की बारीकियाँ सीखने लगे.
कुछ समय बाद जब दान सिंह वापस लौटे तो उनके पिता ने अपने व्यापारिक जीवन का सबसे बड़ा दांव खेला.
19 सितम्बर 1919 के दिन उन्होंने एक ब्रिटिश कंपनी से 2000 एकड़ का फार्म खरीदने के लिए कर्ज उठाया. इसके साथ ही दान सिंह बिष्ट ने भी कैप्टन जेम्स कॉर्बेट के एस्टेट से सटा बेरीनाग एस्टेट खरीद लिया. दान सिंह ने इस एस्टेट खरीद की इस प्रक्रिया का बेहतरीन प्रबंधन किया था. यहीं से बिष्ट परिवार की बुलंदियों का सफर शुरू हुआ और पूरे कुमाऊँ में तब उनकी तूती बोलने लगी जब उन्होंने बड़ी रक़म देकर अंग्रेजों से 22 गांवों की हकदारी ले ली.
ये बहुत बड़ी बात थी क्योंकि उस दौरान कई रियासतें कुल 20 गांवों की हुआ करती थी.
दान सिंह और उनके पिता ने बेरीनाग और चौकोड़ी में चाय के बागान भी खरीदे. इन बागानों में चाय तो चीनी मूल की उगाई जाती थी लेकिन उसका स्वाद चीन की चाय जैसा नहीं होता था. दरअसल चीन के चाय व्यापारी पत्तियों से चाय बनाने की प्रक्रिया में कोई ऐसा फार्मुला इस्तेमाल करते थे कि उनकी चाय की धाक एशिया से लेकर यूरोप तक थी. दान सिंह चाय के व्यापार में उतरे तो उन्होंने इसका भी तोड़ खोज निकाला. उन्होंने वो मसाले और तरीक़े खोज निकाले जिनके चलते चीनी लोग अपनी चाय में वो दिलकश रंग और ज़ायक़ा पैदा किया करते थे जिसका जमाना मुरीद था. इसके बाद उन्होंने कुमाऊँ में चाय की ऐसी पैदावार की कि बेरिनाग की चाय चीन और यूरोप तक के बाजार में छा गई. भारत सरकार के टी बोर्ड के दस्तावेजों में आज भी इसका ज़िक्र देखा जा सकता है.
दान सिंह बिष्ट जहां एक तरफ चाय के कारोबार में अपना वर्चस्व बना रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ लकड़ी का व्यापार भी उन्हें आकर्षित कर रहा था. इसी दौरान अंग्रेज़ शासन ने कुमाऊँ के जंगलों के कटान का एक टेंडर जारी किया. ये तब देश की सबसे बड़ी नीलामियों में से एक होने जा रही थी. अंग्रेज़ नहीं चाहते थे कि यह टेंडर किसी भारतीय के हाथ लगे. उन्होंने नीलामी की शुरुआती बोली ही इतनी ऊंची रखी कि देश के बड़े-बड़े व्यापारियों ने भी इस नीलामी से अपने हाथ छींच लिए. लेकिन दान सिंह और उनके पिता ने पांच करोड़ की बोली लगाकर यह टेंडर अपने नाम किया और सबको हैरत में डाल दिया.
यह टेंडर मिल जाने के बाद तो बिष्ट परिवार अकूत संपत्ति का मालिक हो गया. उनका लकड़ी का व्यापार दिनों-दिन बढ़ता ही गया. दान सिंह ने सुदूर पहाड़ी इलाक़ों से पेड़ के तनों को रेल्वे स्टेशन तक पहुँचाने के लिए वही तरीक़ा अपनाया जो कभी फ़्रेड्रिक विल्सन ने अपनाया था. जिस तरह विल्सन ने हर्षिल के जंगलों से पेड़ काट कर उन्हें नदी के सहारे ऋषिकेश पहुँचाया था, ठीक उसी तरह दान सिंह ने भी पेड़ों को काठगोदाम पहुँचाने के लिए नदी का इस्तेमाल किया. बल्कि काठगोदाम का भी काठगोदाम तभी पड़ा जब दान सिंह बिष्ट ने वहां अपना लकड़ी यानी काठ का गोदाम बनवाया. उससे पहले काठगोदाम का नाम चौहान पाटा हुआ करता था. दान सिंह बिष्ट ने लकड़ी की ढुलाई के लिए किसनई से मेहंदी पत्थर तक एक शॉर्टकट रोड का भी निर्माण करवाया जिसे आज भी ‘बिष्ट रोड’ कहा जाता है.
दान सिंह बिष्ट इस वक्त तक दान सिंह मालदार के नाम से चर्चित हो चुके थे. उनके लकड़ी के डिपो सिर्फ़ काठगोदाम ही नहीं बल्कि लाहौर से वजीराबाद तक पूरी हिमालय पट्टी में दूर-दूर तक फैल चुके थे. इनमें जम्मू कश्मीर, असम और बिहार तक के इलाके शामिल थे. कुमाऊँ के तो लगभग हर क्षेत्र में उनकी निजी सम्पत्तियाँ थी जिनमें उनके ऑफ़िस और मैनेजर या ख़ुद के रहने के लिए विशाल बंगले हुआ करते थे. इस दौर तक दान सिंह का ऐसा रसूख़ हो चुका था कि वो जब भी किसी नीलामी में हिस्सा लेने जाते तो अंग्रेज़ अधिकारी उनके लिए अलग से सोफ़ा लगाया करते. कई ब्रिटिश अधिकारियों से उनके बेहद आत्मीय संबंध बन चुके थे जिनमें चर्चित शिकारी जिम कोर्बेट भी एक थे. वो जब भी किसी आदमखोर बाघ के शिकार के लिए नैनीताल या भाबर क्षेत्र में आते तो उनका रहना दान सिंह मालदार के पास ही होता.
मालदार उस वक्त भी काफी चर्चा में आए जब साल 1945 में उन्होंने मुरादाबाद के राजा गजेन्द्र सिंह की जब्त हुई संपत्ति को 2,35,000 रुपये में खरीद लिया था. राजा गजेन्द्र सिंह के ऊपर अंग्रेजी सरकार का इतना कर्ज हो चुका था कि उनकी संपत्ति जब्त कर के नीलाम की जा रही थी. मालदार नहीं चाहते थे कि ये संपत्ति किसी अंग्रेज के कब्जे में जाए इसलिए उन्होंने इसे ख़रीदा.
मालदार अपनी अकूत दौलत के लिए जितना चर्चित हुए, उतनी ही चर्चा उन्हें अपने दानवीर होने के चलते भी मिली. जन कल्याण के लिए उन्होंने कई स्कूल खुलवाए, अस्पताल बनवाए, धर्मशालाएँ बनवाई और पहाड़ में बच्चों के खेलने खेल के मैदान तक तैयार करवाए. नैनीताल में डिग्री कॉलेज के लिए उन्होंने ही 12 एकड़ ज़मीन और पांच लाख रुपए दान किए थे. ये कॉलेज आज भी उनके पिता ठाकुर देव सिंह बिष्ट के नाम पर DBS कॉलेज कहलाता है. इसके अलावा उन्होंने पिथौरागढ़ में अपनी मां और पिता के नाम से सरस्वती देव सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का भी निर्माण करवाया.
इस स्कूल को बनवाने के बाद उन्होंने स्कूल के पास की जमीन खरीद कर एक खेल का मैदान भी बनवाया. ये वही मैदान है जिसने अनेक ऐसी प्रतिभाओं को जन्म दिया जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त की. उन्होंने अपनी मां के नाम पर श्रीमती सरस्वती बिष्ट छात्रवृति बंदोबस्ती ट्रस्ट भी शुरू किया जिसके ज़रिए द्वितीय विश्वयुद्ध में पिथौरागढ़ के शहीद हुए सैनिकों के बच्चों को पढ़ने के लिए कई छात्रवृति दी गई.
बेहिसाब धन अर्जित कर लेने के बाद दान सिंह मालदार ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी उड़ान देने की एक कोशिश की थी. 1935 के एक्ट में संसोधन के बाद उन्होंने हरगोविंद पंत के खिलाफ चुनाव लड़ा. लेकिन इस चुनाव में जमकर पैसा और संसाधन झोंकने के बाद भी दान सिंह की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई. इसके बाद उन्होंने कभी दोबारा चुनाव नहीं लड़ा. ये वही चुनाव था जिसके बाद गोविंद बल्लभ पंत संयुक्त प्रांत यानी यूनाइटेड प्राविन्स के मुख्यमंत्री बने थे. उनके दान सिंह मालदार से बेहद अच्छे संबंध थे. भारत छोड़ो आंदोलन में जब गोविंद बल्लभ पंत जेल गए तो उनके परिवार को दान सिंह मालदार ने ही संरक्षण दिया. पंत उनकी इस दरियादिली को कभी नहीं भूले. कहा जाता है कि एक बार तो उन्होंने पूरे कुमाऊँ के जंगल के ठेके मालदार को देने के लिए यह भी प्रयास किया कि बिना किसी टेंडर के ही सीधे दान सिंह मालदार को ये काम सौंप दिया जाए. लेकिन इसका भारी विरोध हुआ और उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका.
इतिहास जब दान सिंह मालदार का मूल्यांकन करता है तो अक्सर उन पर पर्यावरण विरोधी होने के आरोप भी लगते हैं. हालाँकि कई लोग यह भी मानते हैं कि उस दौर में जंगल को लेकर पर्यावरण वाला विचार आज जैसा मजबूत नहीं था और अंग्रेज़ शासन में जंगलों का दोहन एक स्वीकार्य प्रक्रिया थी. इसी प्रक्रिया ने दान सिंह मालदार को अकूत दौलत का मालिक भी बनाया. लेकिन जिस तेज़ी से मालदार का उदय हुआ था, लगभग उसी तेज़ी से उनका साम्राज्य खत्म भी हुआ.
उनके व्यापारिक साम्राज्य को पहला झटका तब लगा जब उनकी कम्पनी डी.एस. बिष्ट एंड संस ने साल 1956 में किच्छा में ‘बिष्ट इंडस्ट्रियल कारपोरेशन लिमिटेड’ नाम से एक शुगर मिल शुरू करने का लाइसेंस लिया. उनका सपना था कि 2000 टन प्रतिदिन की क्षमता वाली इस शुगर मिल से स्थानीय किसानों को भी लाभ पहुंचे. इसके लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान यानी आज बांग्लादेश से भारी मशीनें मँगवाई. उन्हें उम्मीद थी कि भारत सरकार इन मशीनों के इंपोर्ट पर उन्हें कुछ छूट देगी. लेकिन उनकी इन उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब मशीनों से लदे जहाज़ को कलकत्ता के बंदरगाह पर मशीनें उतारने की अनुमति ही नहीं दी गई. मालदार एक दिन भी यह शुगर मिल नहीं चला सके और कुछ साल बाद उन्हें इसके सभी शेयर बेचने पड़े. बताते हैं कि यही घटना उनके तनाव और बीमारी का कारण भी बनी. इस घटना के एक साल बाद ही 10 सितंबर 1964 के दिन उनका देहांत हो गया.
दान सिंह मालदार की सात बेटियाँ थी जो उनकी मौत के वक्त कम ही उम्र की थीं. ऐसे में उनके छोटे भाई मोहन सिंह और उनके बेटों ने उनका कारोबार सँभाला. लेकिन दान सिंह जैसा व्यापारिक कौशल उनके उत्तराधिकारियों में नहीं था, लिहाज़ा धीर-धीरे उनका पूरा साम्राज्य सिमटता चला गया. उनकी संपत्ति के बंटवारे को लेकर न्यायालय में भी वाद-विवाद हुए. उनकी कम्पनी डीएस बिष्ट एंड संस भी मंदी के आगोश में समाती चली गई और इस तरह एक साधारण से घी बेचने वाले के बेटे का खड़ा किया विशाल साम्राज्य एक बार फिर से मिट्टी में मिल गया.
जाते-जाते दान सिंह मालदार के जीवन से जुड़ी एक दिलचस्प घटना आपको और बताते हैं. साल 1951 में मालदार नाम की एक हिंदी फ़िल्म रिलीज़ हुई थी. इस फ़िल्म ने हिमालयी इलाकों में ज़बरदस्त कारोबार किया क्योंकि इसके बारे में अफ़वाह थी कि यह फ़िल्म दान सिंह मालदार के जीवन पर ही बनी है और मालदार ने ही इसमें पैसा लगाया है. ये अफ़वाह शायद इसलिए भी फैली क्योंकि एक फ़िल्म डिस्ट्रिब्यूटर ने सच में दान सिंह से 70 हजार रुपए उधार लिए थे.
स्क्रिप्ट : मनमीत
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