1970 के दशक का उत्तरार्ध था. आज़ाद भारत की राजनीति में पहली बार इतनी उथल-पुथल हो रही थी. आपातकाल के अंधियारे से देश अभी-अभी बाहर निकला था, कांग्रेस का अजेय रथ लड़खड़ा कर गिर चुका था, पहली बार कोई गैर-कांग्रेसी देश का प्रधानमंत्री बना था और तमाम राजनीतिक दल एक बार फिर से चुनावी समर में उतरने को तैयार थे.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिमालयी इलाकों में भी राजनीतिक हलचल तेज हो रही थी. प्रथक राज्य की मांग उठने लगी थी और उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हो चुका था. नए-नए बने इस दल ने भी चुनावी समर में उतरने की ठानी और अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ सीट से चुनाव लड़ने उतरे ख़ुद इस दल के संस्थापक, इसके पहले अध्यक्ष, प्रख्यात वैज्ञानिक और सेकंड वर्ल्ड वार के कबाड़ से ही वर्ल्ड क्लास लेबोरेटरी बना डालने वाले डॉक्टर देवी दत्त पंत.
ये 1980 का वो चुनाव था जब कांग्रेस दोबारा बेहद मजबूत होने लगी थी. जनता पार्टी की लहर पूरे देश में जितनी तेजी से उठी थी, उसी तेज़ी से ये लहर वापस भी लौट चुकी थी. डीडी पंत के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वालों में युवा नेता हरीश रावत और पूर्व सांसद मुरली मनोहर जोशी शामिल थे. एक के पीछे कांग्रेस पार्टी के तमाम संसाधन थे तो दूसरे के पीछे आरएसएस का मजबूत संगठन. डीडी पंत के पास न तो चुनाव लड़ने का कोई पूर्व अनुभव था, न पैसा और न ही कोई संगठन. एक बार तो यूं भी हुआ कि एक रैली से लौटते हुए जब उन्होंने अपनी जेब टटोली तो उसमें मात्र एक रुपया बचा था.
ऐसी मुफ़लिसी में चुनाव लड़ रहे डीडी पंत के लिए वो पाल किसी सुखद आश्चर्य जैसा था जब एक परिचित उनके पास पहुंचा और उन्हें एक लिफ़ाफ़ा थमाते हुए बोला, ‘बहुगुणा जी ने यह आपको देने को कहा है.’ लिफ़ाफ़े में दस हजार रुपए थे और यह रुपए भिजवाए थे उस दौर के दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने.
बहुगुणा खुद गढ़वाल की पौड़ी सीट से चुनाव लड़ रहे थे और उत्तराखंड क्रांति दल का एक प्रत्याशी उनके ख़िलाफ़ भी चुनाव में उतरा था. लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने यूकेडी के अध्यक्ष को बिन बोले ये मदद पहुँचाई, क्योंकि ये एक दिग्गज नेता का एक महान भौतिक-विज्ञानी, एक शिक्षक और लोक चेतना के नायक के प्रति सम्मान था. ये सम्मान था डॉक्टर पंत के क़द का, उनके व्यक्तित्व का और पहाड़ के प्रति उनके समर्पण का.
साल 1919. प्रथम विश्व युद्ध से मची वैश्विक उठापटक अब थम चुकी थी. लेकिन ग़ुलाम भारत में दमन और शोषण का दौर अब भी जारी था. ब्रितानिया हुकूमत के ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन तेज हो रह थे. उधर गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की तैयारियाँ हो रही थी तो इधर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कुली बेगार और जंगलात के आंदोलन तेज हो रहे थे.
इसी माहौल में कुमाऊँ के गणाई गंगोली क्षेत्र के द्योराड़ी पंत गांव में एक बच्चे का जन्म हुआ. वैद्य पिता के घर जन्में इस बच्चे को नाम मिला देवी दत्त. लोकोक्ति है कि पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं. नन्हें देवी दत्त जब कक्षा चार में थे तो गणित के एक सवाल में ऐसे उलझे कि स्कूल की छुट्टी कब हुई ये तक भूल गए. वो खाली कक्षा में तब तक बैठे रहे जब तक उन्होंने वो सवाल हल नहीं कर लिया. उन्हें ऐसा करता देख नैन सिंह मास्साब बेहद प्रभावित हुए. फिर वे ही उनके पहले प्रेरक और शिक्षक भी बने.
देवी दत्त की आगे की स्कूली पढ़ाई अल्मोड़ा शहर में हुई. इस शहर की उनके जीवन और उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना के विकास में अहम में भूमिका रही. गांधी जी के प्रति आकर्षण इसी शहर में बढ़ा, बद्री दत्त पांडे, हर गोविंद पंत, मोहन सिंह मेहता, और गोविंद बल्लभ पंत जैसे नेताओं को उन्होंने इसी शहर में देखा-सुना और साल 1937 में अल्मोड़ा जेल से रिहा हुए खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान को भी उन्होंने अल्मोड़ा के नंदा देवी मैदान में ही देखा जिनके भाषण से वे ताउम्र प्रभावित रहे.
साल 1938 में जब देवी दत्त पंत इंटर की परीक्षा पास करने के बाद अपने गांव लौटे तो उन्हें बताया गया कि पिता जी ने उनकी शादी तय कर दी है. काली नदी के पार नेपाल के एक गांव में उनका रिश्ता पक्का कर दिया गया था. अपने एक संस्मरण में वे लिखते हैं, ‘शादी को लेकर मैं उत्सुक था. पहला कारण यह था कि ससुराल से आगे की पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद मिल जाएगी. दूसरा कारण मेरी वह उम्र थी, जब शादी के प्रति आकर्षण होता है.’
देवी दत्त के परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. जैसा कि उन्होंने अपने संस्मरण में भी जिक्र किया है, शादी से उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिलने की उम्मीद थी. लेकिन उनकी इन उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब शादी के बाद उनके ससुर बलदेव भट्ट ने बताया कि वे भी इस वक्त किसी तरह की आर्थिक मदद करने में असमर्थ हैं. हालाँकि आगे चलकर देवी दत्त की सास ने उन्हें काफ़ी सहयोग किया और इसी सहयोग से उनकी कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी हुई.
उस दौर में उच्च शिक्षा की चाह रखने वाले उत्तराखंड के नौजवानों के लिए इलाहाबाद, बनारस और लाहौर सबसे करीबी केंद्र हुआ करते थे. देवी दत्त उच्च शिक्षा के लिए बनारस पहुंचे जहां गोविंद बल्लभ पंत के हस्तक्षेप के उनकी फ़ीस माफ़ भी हो गई लेकिन मेस का आठ रूपये प्रति माह का खर्च उन्हें चुकाना होता था जिसके लिए उनकी सास उन्हें पैसा भेजा करती.
1942 में फ़िज़िक्स से एमएससी की डिग्री हासिल करने के साथ ही देवी दत्त के जीवन में प्रो. आरके आसुंदी का सानिध्य आ चुका था. प्रो. आसुंदी ने बीएचयू में Molecular Spectroscopy पर रिसर्च की शुरुआत की थी. वे चाहते थे कि देवी दत्त भी भी रिसर्च करें. उन्होंने देवी को वजीफ़े की मंज़ूरी के लिए कुलपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पास भेजा लेकिन यहां बात नहीं बनी. इसके बाद प्रो आसुंदी ने ही उन्हें नोबेल विजेता चंद्रशेखर वेंकट रमन के पास इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ़ साइंस, बैंगलोर जाने की सलाह दी.
सीवी रमन के साथ डीडी पंत ऐसे रमे कि फिर उनके ही सानिध्य में उन्होंने कई शोध किए. उनके कुछ शोध कार्य तो इतने चर्चित हुए कि इसके इर्द-गिर्द किंवदंतियाँ और अफ़वाहें तक पनपने लगी. कई लोग यह कहते थे कि उन्होंने फ़िज़िक्स में एक नई खोज की है जिसे ‘पंत रे’ या ‘पंत रेज़’ नाम दिया गया है. हालाँकि ये बात सच नहीं थी. उनकी रिसर्च का टॉपिक था, ‘ Photoconductivity of Diamond and the Luminescence Spectra of Uranyl Salts.’
सीवी रमन चाहते थे कि देवी दत्त भारतीय मौसम-विज्ञान विभाग में अच्छे पद पर नौकरी करें ताकि उन्हें अच्छा वेतन मिल सके. लेकिन देवी दत्त ने उन्हें बताया कि वे भी रमन की तरह ही एक शिक्षक और शोधार्थी बनना चाहते हैं. इस पर रमन ने मुस्कुराते हुए उनसे कहा, ‘तुम जीवन भर गरीब और उपेक्षित ही रहोगे.’
सीवी रमन की कही हुई यह बात सही भी साबित हुई. अपनी विलक्षण प्रतिभा से डीडी पंत ने देश-दुनिया में नाम तो कमाया लेकिन अपने परिवार के लिए वे न्यूनतम कर पाए. उनकी एक मात्र अचल सम्पत्ति उनका मकान था और वह भी साथी शिक्षकों के सहयोग से किसी तरह बन सका था.
साल 1944 में डीडी पंत आगरा कॉलेज में फ़िज़िक्स के प्रवक्ता बने जहां उन्हें मात्र सौ रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता था. देश की आज़ादी के बाद जब नैनीताल में देब सिंह बिष्ट यानी डीएसबी कॉलेज की स्थापना हुई तो डीडी पंत फ़िज़िक्स के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट बनकर यहां आए. इसके बाद नैनीताल से उनका ताउम्र रिश्ता बना रहा.
डीडी पंत का नैनीताल आना ही उत्तराखंड में साइंस में रिसर्च के एक नए दौर का शुरू होना भी है. उन्होंने डीएसबी कॉलेज में फ़ोटो फ़िज़िक्स प्रयोगशाला की स्थापना कर स्पैक्ट्रोस्कोपी में रिसर्च की नींव रखी. दिलचस्प बात ये भी है कि इस प्रयोगशाला के सभी उपकरण दूसरे विश्वयुद्ध के कबाड़ से तैयार किए गए थे. इस लैबोरेटरी की दुनिया भर में चर्चा हुई और यहां हुई रिसर्च का दुनिया ने लोहा माना.
डीडी पंत ने कनाडा में फ़्रेड्रिक हर्जबर्ग के साथ भी काम किया जिन्हें आगे चलकर नोबेल पुरस्कार मिला और अमेरिका में माइकेल काशा के साथ भी जिन्हें फ़िज़िक्स की दुनिया में ‘ल्यूमैनीसैंस मैन’ के नाम से जाना जाता है. साल 1962 में पंत डीएसबी कॉलेज के प्रिन्सिपल बनाए, 1971-72 में वे उत्तर प्रदेश के शिक्षा निदेशक नियुक्त हुए और साल 1973 में वे कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पहले कुलपति बने. वे 1977 तक इस पद पर रहे. यहां से उनका निकलना भी एक राजनीतिक घटना के चलते हुए.
साल 1977 में तत्कालीन राज्यपाल एम चेन्ना रेड्डी ने कुलाधिपति की हैसियत से डीडी पंत पर दबाव बनाया कि वे आंध्र प्रदेश के एक ज्योतिषी को यूनिवर्सिटी से मानद डिग्री दें. डीडी पंत इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं हुए और उन्होंने कुलपति के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. उनके इस्तीफ़े का ऐसा असर हुआ कि लोग उनके समर्थन में सड़कों पर उतर आए. अंततः सरकार को झुकना पड़ा और कुलपति पर बनाए रखा गया. लेकिन इस घटना के बाद उनका कार्यकाल दोहराया नहीं गया जिसकी उस वक्त सबको उम्मीद थी.
डीडी पंत के 140 रिसर्च पेपर देश और दुनिया के कई जर्नल्ज़ में पब्लिश हुए. 20 से ज़्यादा शोधार्थियों ने उनके निर्देशन में पीएचडी की जो फिर देश और दुनिया भर में कई बड़े पदों पर कार्यरत रहे. कुलपति के पद से हटने के बाद उनके जीवन में वो दौर भी आया जब वे सक्रिय राजनीति में उतरे. हालाँकि उनमें राजनेता वाले गुण कभी नहीं रहे थे.
उनके इस राजनीतिक सफर के बारे में डॉक्टर शेखर पाठक लिखते हैं, ‘डॉक्टर पंत कभी राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं रहे. उनमें कहीं से भी राजनेता बनने की प्रतिभा नहीं थी. बल्कि राजनेताओं से वे मिलने भी नहीं जाते थे. लेकिन 1979 में जब 25 मई को राज्य समर्थक लोगों ने उत्तराखंड क्रांति दल नाम से मसूरी में एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल की स्थापना की तो उस समूह में उनकी ऊँचाई का तथा निर्विवाद कोई और व्यक्ति न था. वे संयोग से ही वहां गए थे. इस तरह वे उत्तराखंड क्रांति दल के कार्यवाहक अध्यक्ष बनने को मजबूर हुए. वे कहते भी रहे कि वे किसी राजनैतिक दल के संचालन की प्रतिभा नहीं रखते हैं, पर उनकी कौन सुनता. लेकिन इसने उनको एक नया अनुभव दे दिया. अगले ही साल उन्हें लोक सभा चुनाव लड़ाया गया.’
इन चुनावों में डीडी पंत की हार हुई लेकिन उन्होंने उत्तराखंड क्रांति दल में कई निर्विवाद और भले लोगों को जोड़ा. इंद्रमणि बडोनी, काशी सिंह ऐरी और विपिन त्रिपाठी जैसे लोगों को इस पार्टी से जोड़ने का श्रेय डीडी पंत को ही जाता है. उन्होंने एक नए तरीक़े से इस दल को चलाना चाहा लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि राजनैतिक दलों का ढर्रा और मिज़ाज एक जैसा ही होता है. जहां बड़े दल अति केंद्रित या अंध राष्ट्रवादी हो जाते हैं वहीं क्षेत्रीय दल अति संकुचित क्षेत्रवादी.
डीडी पंत के राजनीतिक विचारों और विशेष तौर से महात्मा गांधी के प्रति उनके समर्पण के बारे में उनके दामाद और गढ़वाल यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति प्रो एसपी सिंह लिखते हैं, ‘प्रो. पन्त का गांधी जी से भावनात्मक जुड़ाव था. वे गांधी के विरुद्ध किसी भी तर्क को नहीं सुन सकते थे. उन्होंने गांधीवाद को अपने जीवन में अपने ही तरीक़ों से उतारा था. उदाहरण के लिए, उनको कुलपति पद से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्होंने तत्कालीन राज्यपाल चेन्ना रेडी के दबाव में आने से इनकार कर दिया. गांधी जी की शिक्षा का पालन करते हुए उन्होंने निश्चय किया कि अपने पद को बचाए रखने के लिए वे किसी से संपर्क नहीं करेंगे.
हालाँकि गांधी जी से इतर प्रो पंत को खाने में काफी दिलचस्पी थी, अपने भौतिक आकर्षणों का उन्हें भान था और अच्छे कपड़े पहनना उन्हें पसंद था. वे भारतीय क्रिकेट में दिलचस्पी लेते थे, अच्छी फ़िल्में देखते थे और कमाल का ब्रिज खेलते थे. लेकिन उनकी पहली मोहब्बत विज्ञान ही था जिसके लिए वे सब कुछ छोड़ देते थे अगर हमारी अकादमिक व्यवस्था ने उन्हें रिसर्च का अच्छा माहौल दिया होता.’
11 जून 2008 के दिन हल्द्वानी में डॉक्टर डीडी पंत का देहांत हुआ.
उनकी जन्म शताब्दी पर ‘पहाड़’ संस्था ने एक स्मारिका प्रकाशित की है. इस कार्यक्रम के लिए अधिकतर जानकारियाँ इसी स्मारिका में छपे डॉक्टर शेखर पाठक, डॉक्टर एसपी सिंह व अन्य लोगों के लेखों से ली गई हैं.
स्क्रिप्ट : राहुल कोटियाल
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