उत्तराखंड की पहली फ़िल्म के बनने की कहानी

  • 2022
  • 9:42

भारत की पहली फ़िल्म कौन-सी थी? ये सवाल आप गूगल करेंगे तो जवाब मिलेगा ‘राजा हरीश चंद्र’. लेकिन इस जवाब के साथ ही कुछ किंतु-परंतु भी आपको चिपके मिलेंगे. वो इसलिए कि ‘राजा हरीश चंद्र’ से क़रीब एक साल पहले ‘श्री पुंडलिक’ नाम की फ़िल्म आ चुकी थी. इसलिए कई लोग इसे ही पहली भारतीय फ़िल्म बताते हैं. लेकिन आलोचक कहते हैं कि ‘श्री पुंडलिक’ कोई फ़िल्म नहीं बल्कि चर्चित मराठी नाटक की रिकॉर्डिंग भर थी. इसे जॉन्सन नाम के एक ब्रिटिश कैमरामैन ने रिकॉर्ड किया था और इस पर काम भी लंदन में हुआ था. लिहाज़ा इसे पहली भारतीय फ़िल्म होने का दर्जा नहीं दिया जा सकता. भारत सरकार भी आधिकारिक तौर से ‘राजा हरीश चंद्र’ को ही पहली भारतीय फ़िल्म मानती है.

‘राजा हरीश चंद्र’ को भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने बनाया था. लेकिन ये एक मूक फिल्म थी. यानी साइलेन्ट फिल्म. कोई आवाज़ नहीं. क्योंकि उस वक्त तक फ़िल्मों में ऑडियो को कैसे इस्तेमाल करना करना है, ये तकनीक इज़ाद नहीं हो सकी थी. ये बात है साल 1913 की. इसके बाद साल 1931 में भारत की पहली बोलती फिल्म बनी जिसका नाम था आलम-आरा और इसका निर्देशन किया था आर्देशिर ईरानी ने.

ये तो हुई भारतीय फ़िल्म जगत के शुरुआती सफ़र की बात. लेकिन क्या आपको अपने उत्तराखण्ड में बनी पहली फिल्म के बारे में मालूम है? ये किसने बनाई थी? इसका नाम क्या था? इसे बनाने में कितना खर्च आया था? इसकी कहानी क्या थी और ये किस भाषा में थी? नहीं जानते? तो चलिए हम बता देते हैं.

देश की तुलना में देखें तो उत्तराखंडी सिनेमा जगत का सूर्योदय काफी देर से हुआ. जैसा कि हमने बताया कि देश की पहली ऑडीओ-विज़ूअल फ़िल्म 1931 में ही बन चुकी थी, वहीं पहली उत्तराखंडी फ़िल्म इसके करीब पचास साल बाद 1980 के दशक में बनी. लेकिन 80 का ये दशक उत्तराखंडी सिनेमा जगत के लिए एक नई उम्मीद लेकर आया. हालांकि इससे पहले तक यहां गढ़वाली-कुमाऊंनी थिएटर खूब होने लगा था. लेकिन फ़ीचर फ़िल्मों की दस्तक 80 के दशक से ही हुई.

तारीख़ थी 4 मई और साल था 1983. उत्तराखण्ड तब अलग राज्य नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था. कई सारे पहाड़ी लोग हायर एजुकेशन के लिए या नौकरी की चाह में लखनऊ, मेरठ, इलाहाबाद, कानपुर और दिल्ली जैसे शहरों का रुख़ करते थे. आज की ही तरह उस दौर में भी दिल्ली में उत्तराखण्ड मूल के लोगों का एक बड़ा तबका निवास करता था.

4 मई 1983 के दिन, दिल्ली के रफ़ी मार्ग में स्थित मावलंकर हॉल में एक फिल्म दिखाई जा रही थी. इस फिल्म के टिकट को पाने के लिए सैकड़ों लोगों की भीड़ हॉल के बाहर जुटी हुई थी. फ़िल्म देखने का लोगों में इतना उतावलापन था कि धक्का-मुक्की रोकने के लिए पुलिस तक बुलानी पड़ गई थी. ये उतावलापन इसलिए था क्योंकि दिल्ली के एक हॉल में पहली उत्तराखंडी फ़िल्म दिखाई जा रही थी.

गढ़वाली भाषा में बनी इस फ़िल्म की लोगों में कैसी दीवानगी थी, इसका अंदाज़ा ऐसे लगाइए कि 5 रुपए का फ़िल्म टिकट हॉल के बाहर 100 रुपए तक में ब्लैक हो रहा था. इस फ़िल्म का नाम था ‘जग्वाल’ और इसके निर्माता थे पाराशर गौड़. वो खुद जब मावलंकर हॉल पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां एक भी सीट खाली नहीं थी. सारा हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. कहा ये भी जाता है कि फ़िल्म के टिकट के लिए कुछ लोगों ने उनके साथ भी छिना-झपटी भी की और इसमें उनका कुर्ता तक फट गया था.

गढ़वाली शब्द ‘जग्वाल’ का मतलब होता है ‘एक लंबा इंतज़ार’. इस फ़िल्म का एक चर्चित गीत है. सुनिए इसकी कुछ पंक्तियाँ:

बौहे नि जाणु नि जाणु, बौहे कत्तेई नि जाणु, मेरी बौ सुरेला.बौहे सतपुली नि जाणु, बौहे पंचमी कु म्याला मेरी बौ सुरेला..

फ़िल्म ‘जग्वाल’ में बतौर मुख्य किरदार अपनी शानदार प्रस्तुति दी थी कुसुम बिष्ट और विनोद बलोदी ने. और इस फ़िल्म के गीतों में अपनी आवज देकर चार चांद लगाए थे बॉलीवुड के मशहूर गायक उदित नारायण और अनुराधा पौडवाल ने.

‘जग्वाल’, पहाड़ में रहने वाली इंदू नाम की एक महिला की कहानी को बयां करती है. जो अपने पति का लम्बे समय तक इंतज़ार करती है. यही लंबा इंतज़ार ‘जग्वाल’ है.

‘जग्वाल’ फ़िल्म बनाने से पहले इसके निर्माता पाराशर गौड़ लगभग 20 साल तक थिएटर से जुड़े रहे. इसमें गढ़वाली थिएटर भी शामिल था. इस दौरान उन्होंने कई सारे नाटक लिखे भी और उनका निर्देशन भी किया. साल 1960 से 1980 तक वे 50 से भी ज्यादा हिन्दी-गढ़वाली नाटक लिख चुके थे. ये आईडिया कई बार उनके दिमाग में आया कि जब बाक़ी राज्यों के निर्माता-निर्देशक अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में बनाते हैं तो फिर उत्तराखण्ड में ऐसे प्रयास क्यों नहीं हो सकते.

बारामासा के साथ हुई बातचीत में पाराशर बताते हैं कि गढ़वाली भाषा में भी कोई फ़िल्म बने इसके लिए वो 1975 से प्रयासरत थे. लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पा रहे थे. उस दौर में फ़िल्म बनाना बेहद चुनौतीपूर्ण था. इस फ़िल्म के बजट के लिए उन्होंने कई लोगों से बातचीत की. वे कहते हैं कि जग्वाल का आईडिया जब वो अपने साथियों को बताते थे तो कई लोग उनका मज़ाक़ उड़ाया करते और कहते, ‘देखो जी, आ गया गढ़वाली प्रॉड्यूसर.’ वे आगे कहते हैं कि, ‘मैं ऐसे सभी लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिन्होंने बार-बार मेरा मजाक उड़ाया. क्योंकि अगर वो नहीं होते तो मेरे अन्दर जग्वाल बनाने का साहस भी नहीं आ पाता.’

साल 1982 में जग्वाल फिल्म की शूटिंग शुरू हुई थी और मात्र 28 दिनों में ये पूरी फ़िल्म शूट की गई. फ़िल्म की करीब 80 प्रतिशत शूटिंग पौड़ी में हुई थी, पौड़ी के अलावा बुवाखाल, श्रीनगर, दुगड्डा, कोटद्वार और मुम्बई में भी इसकी शूटिंग हुई. जग्वाल फिल्म कुल एक घण्टा 20 मिनट की थी. इसमें लगभग साढ़े आठ लाख रुपए का खर्च आया था.

जग्वाल फ़िल्म का एक दिलचस्प वाक़या आशा भोंसले से भी जुड़ता है. हुआ ये कि एक गीत के लिए पराशर गौड़ मुम्बई गए और उन्होंने आशा भोंसले से ये गीत रिकॉर्ड भी करवा लिया. जिसके लिए उन्होंने 10,000 रूपए चार्ज किए. लेकिन ये गाना हिन्दी में था और इसीलिए पाराशर इसे लेकर संशय में थे. गाना रिकॉर्ड करवाने के बाद जब वो घर पहुंचे तो उन्होंने काफी सोच विचार किया और ये तय किया कि एक गढ़वाली फ़िल्म में हिन्दी गाना रखना सही नहीं होगा. इसके बाद उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल और कुछ अन्य लोक गायकों ने इस फिल्म के लिए गढ़वाली में गीत गाए. पाराशर कहते हैं कि उदित नारायण और अनुराधा पौडवाल ने इस फिल्म में गाना गाने के लिए 6-6 हजार रूपए लिए थे. फिल्म का निर्देशन तुलसी घिमरे ने किया और संगीत रंजीत गजमेर ने दिया.

पाराशर गौड़ के अनुसार ये फिल्म उन्होंने लोगों से चन्दा लेकर बनाई थी. एक इंटर्व्यू में उन्होंने बताया था कि करीब 300-400 लोगों ने इसमें उन्हें आर्थिक सहयोग किया और साढ़े आठ लाख रुपए जुटा लिए गए. इसी पैसे से फिर उत्तराखण्ड की पहली फ़िल्म बनाई गई.
अगर हम आज के समय की बात करें तो कोई शॉर्ट फ़िल्म या डॉक्यूमेन्ट्री बनाना अब काफी काफी आसान हो गया है. क्योंकि अगर आपके पास कोई बड़ा एक्सपेन्सिव कैमरा नहीं भी है तो भी आप बस एक स्मार्टफोन के ज़रिए एक स्तरीय फ़िल्म बना सकते हैं. दुनिया भर में इन दिनों मोबाइल के माध्यम से ही कई फ़िल्में बनने भी लगी हैं. लेकिन 1980 का दौर आज जैसा नहीं था.

उस वक्त कोई ऐसी फ़िल्म बनाना जिसे बड़े पर्दे पर रिलीज़ किया जाना हो, बेहद महंगा और चुनौतीपूर्ण सौदा होता था. जग्वाल के लिए भी कैमरा टेक्नीशियन्स, क्रू, साउंड डिजायनर्स और वीडियो एडिटर जैसे तमाम अनुभवी लोगों को मुम्बई से बुलाया गया. तमाम इक्यूपमेंट्स जो एक फ़िल्म को बनाने के लिए चाहिए होते हैं, मसलन रिफ्लेक्टर, लाइट्स, कैमरा, साउंड सिस्टम आदि सब कुछ मुम्बई से लाया गया था.
इस फ़िल्म को एक हिन्दी नाम भी दिया गया था. इसके पोस्टर पर गौर करने पर आप देखेंगे कि ब्रैकेट में फ़िल्म का हिंदी नाम लिखा हुआ है, प्रतीक्षा.

दिल्ली के मावलंकर हॉल में करीब दो हफ्ते तक इस फ़िल्म के तीन शो हर दिन चलाए गए थे. मावलंकर हॉल के अलावा, दिल्ली के ही नटराज हॉल और उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, रूद्रप्रयाग, श्रीनगर और देहरादून के दिग्विजय हॉल में ये फ़िल्म दिखाई गई थी. देहरादून के घण्टाघर के दिग्विजय सिनेमा हॉल में ये फ़िल्म करीब एक महीने तक दिखाई गई थी.

शुरूआत में इस फ़िल्म का एक ही प्रिंट था, लेकिन जब कुछ पैसे आ गए तो इस फ़िल्म का एक और प्रिंट बनाया गया. तब एक साथ दो जगहों में ये फ़िल्म दिखाई जाने लगी थी.

उत्तराखण्डी सिनेमा में जग्वाल एक बिलकुल नया प्रयोग था जो काफी हद तक सफल भी रहा. इस फ़िल्म के बाद गढ़वाली-कुमाऊंनी भाषा में कई सारी फ़िल्में बनीं. इनमें घरजवैं, मेघा आ, सुबेरो घाम, तेरी सौं जैसी फ़िल्में खूब चर्चित रही.

जग्वाल को 1985 में दिल्ली में आयोजित हुए इंटरनेशन फिल्म फेस्टिवल का इन्विटेशन भी मिला था. इस आयोजन में बतौर ज्यूरी शशि कपूर और सांईं परांजपे जैसी शख़्सियतें शामिल थीं.

साल 2015 में जब गढ़वाल फ़िल्म महोत्सव आयोजित हुआ, तो आयोजकों ने इस फ़िल्म का प्रिंट नीलम कैसेट्स कंपनी के प्रबन्धकों से मांगा था. लेकिन उनके पास भी इस फ़िल्म का प्रिंट कुछ सालों तक ही था. फ़िल्म के दो ही प्रिंट तैयार किए गए थे जो कि वक्त के साथ नष्ट हो गए.
करीब 38 साल बाद पाराशर गौड को जग्वाल का एक प्रिंट अपने किसी दोस्त के माध्यम से मिला, इतने सालों में ये प्रिंट कुछ खराब हालत में था. इसे आप उनके यूट्यूब चैनल ‘AnchalikFilms’ में देख सकते हैं. जो कि कुछ ही महीने पहले अपलोड किया गया है.

जग्वाल में प्रसिद्ध रंगकर्मी प्रेम मोहन डोभाल की भी छोटी सी झलक आपको देखने को मिलेगी. इस फ़िल्म में उन्होंने फौज़ के किसी बड़े अफ़सर का रोल निभाया है. प्रेम मोहन डोभाल, उत्तराखण्ड के चर्चित म्यूज़िक प्रोडक्शन हाउस और बैण्ड पाण्डवाज़ से पहाड़ की संस्कृति को सहेज़ने के लिए प्रयासरत डोभाल ब्रदर्स के पिता हैं.

स्क्रिप्ट : अमन रावत

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