उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कालू महर

  • 2022
  • 7:09

1857 की क्रांति तो हम सबको मालूम है. ब्रिटिश भारत में आज़ादी की चाहत लिए क्रांतिकारियों का ये पहला विद्रोह था. लखनऊ, बरेली, कानपुर, झाँसी, बिहार, ग्वालियर और इलाहाबाद जैसी जगहों पर ये विद्रोह पनपा और बेगम हज़रत महल, तात्या टोपे, मंगल पाण्डेय और रानी लक्ष्मी बाई इस क्रांति के प्रमुख चेहरे बनकर उभरे.

उस दौर में अपने उत्तराखण्ड में भी एक ऐसी जगह थी, जहां अंग्रेजों के ख़िलाफ विद्रोह के बीज फूटे. पहाड़ के एक वीर क्रांतिकारी ने एक गुप्त सैन्य संगठन बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया. उत्तराखंड के इस पहले स्वतन्त्रता सेनानी और क्रांतिकारी का नाम था कालू महर.

‘हुआ यूं था’ एपिसोड में देखिए काली कुमाऊँ के वीर कालू महर की वो कहानी जब उन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ एक गुप्त संगठन बनाकर आंदोलन की नींव रखी.

साल 1790. कुमाऊँ में चन्द वंश का राज हुआ करता था लेकिन आपसी फूट के चलते चंद राजा लगातार कमजोर हो रहे थे. इसी फूट का फ़ायदा नेपाल के गोरखाओं ने उठाया और कुमाऊँ पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया.

कुमाऊँ को जीत लेने के बाद गोरखाओं की नज़र अब गढ़वाल पर थी. साल 1804 आते-आते उन्होंने इसे भी जीत लिया और इस तरह से कुमाऊँ से लेकर गढ़वाल तक, पूरे क्षेत्र में गोरखाओं का शासन स्थापित हो गया. ये शासन तब तक क़ायम रहा जब तक अंग्रेजों ने गोरखाओं को हारकर ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज स्थापित नहीं कर दिया.

साल 1815 में ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज स्थापित होने के साथ ही गढ़वाल दो भागों में बांट दिया गया. एक था ब्रिटिश गढ़वाल और दूसरा था टिहरी गढ़वाल. ब्रिटिश गढ़वाल को कुमाऊँ कमिश्नरी में सम्मिलित कर लिया गया जबकि टिहरी गढ़वाल में परमार वंश की पुनः स्थापना हुई.

इस घटनाक्रम के कुछ दशक बाद इतिहास का बड़ा पड़ाव बना साल 1857. वो 1857 जब अंग्रेजी हुकूमत ने पहली बार विद्रोह की ज्वाला देखी. वो 1857 जिसे आज़ादी की पहली लड़ाई भी कहा गया. हालांकि उत्तराखण्ड में इस ऐतिहासिक घटना का बहुत व्यापक असर देखने को नहीं मिला. लेकिन यहां भी कुछ क्रांतिकारी ऐसे हुए, जिन्होंने पहाड़ में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह को मजबूत किया. ऐसी ही एक क्रांतिकारी थे कालू महर.

लोहाघाट के पास ही महर गांव है. इसी गांव में 1831 में कालू महर का जन्म हुआ था. वो एक संपन्न परिवार में पले-बढ़े थे. उनकी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ने और आज़ादी पाने की छटपटाहट किसी से छिपी नहीं थी. इसी छटपटाहट के चलते साल 1857 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एक गुप्त सैन्य संगठन खड़ा किया. ब्रिटिश हुकूमत को इस बात की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि उत्तराखण्ड जैसी जगह में भी इस क्रांति की चिंगारी पनप उठेगी.

कालू महर को कुछ राजाओं का भी समर्थन प्राप्त था. रुहेला के नवाब खान बहादुर खान, अवध के नवाब वाजिद अली शाह और टिहरी के राजा ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में कालू महर और उनके साथियों को सहयोग देने का वादा किया.

बद्रीदत्त पाण्डे की लिखी किताब ‘कुमाऊं का इतिहास’ में ज़िक्र मिलता है कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने कालू महर को एक पत्र लिखा और कहा कि अगर वे लोग अंग्रेजों के खिलाफ जंग में शामिल होते हैं उन्हें जितना धन भी चाहिए होगा, वो दिया जाएगा. उन्होंने शर्त रखी कि अगर ये इलाका अंग्रेजों से मुक्त करा लिया जाता है, तो पहाड़ी इलाका पर्वतीयों का होगा और मैदानी इलाका नवाबों का.

कालू महर बिसुंग के प्रधान नेता थे. उन्होंने लोगों को जमा करना शुरू किया. चौड़ापित्ता के बोरा, रैघों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी, मौनी, करायत, देव, बोरा और फर्त्याल गांव के लोगों को एकजुट कर उन्होंने बग़ावत की रणनीति पर काम करना शुरू किया.

बताते हैं कि उन्होंने लोगों से दो गुटों में बंट जाने को कहा. उन्होंने सुझाया कि कुछ लोग नवाब की तरफ़ हो जाएं और कुछ अंग्रेजों की तरफ. फिर दोनों पालों से जो कुछ भी हासिल हो, उसे आपस में बांट लिया जाए. इस तरह से कालू महर, आनन्द सिंह फर्त्याल और बिसन सिंह करायत आदि लखनऊ के नवाब के साथ हो गए और माधो सिंह फर्त्याल, नर सिंह लठवाल और खुशाल सिंह जुलाल आदि अंग्रेजों की तरफ.

लोहाघाट के चांदमारी में उस दौरान अंग्रेजों की बैरक हुआ करती थी. कालू महर ने अपने साथियों के साथ इन बैरकों पर हमला बोल दिया और इनमें आग लगा दी. ये हमला अंग्रेजों के लिए बिलकुल अप्रत्याशित था. वहां मौजूद सभी अंग्रेज वहां से भाग गए.

इस घटना के बाद अंग्रेजों ने अल्मोड़ा और नैनीताल के रास्ते अपनी अन्य सैन्य टुकड़ियों को काली कुमाऊँ यानी चंपावत की ओर रवाना किया. कालू महर और उनके साथियों को जैसे ही ये बात मालूम पड़ी, उन्होंने पूरे काली कुमाऊं क्षेत्र के लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया.

इन सभी लोगों का क़ाफ़िला फिर बस्तिया की तरफ़ बढ़ा जहां इन क्रांतिकारियों ने अमोड़ी के पास ही बसे किरमौली गांव में कुछ हथियार और पैसे छिपाए हुए थे. योजना थी कि इन हथियारों और पैसों को लेकर यहां से आगे बढ़ा जाएगा लेकिन अंग्रेजों के किसी मुखबिर ने कालू महर और उनके साथियों की इस योजना की जानकारी अंग्रेजों तक पहुंचा दी. इसके चलते अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों से पहले ही वहां पहुंच कर हथियार और पैसे जब्त कर लिए और क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया गया.

काली कुमाऊँ विद्रोह के नायक कालू महर भी गिरफ़्तार कर लिए गए जबकि उनके साथी आनन्द सिंह फर्त्याल और बिशन सिंह करायत की गोली लगने से मौत हो गई. कुमाऊँ का इतिहास में जिक्र मिलता है कि कालू महर को 52 अलग-अलग जेलों में क़ैद रखा गया और उनके घर को अंग्रेजों ने जला डाला. कालू के छोटे भाई ने पकड़े जाने के डर से फांसी लगा ली. दूसरी तरफ़ माधो और नर सिंह आदि, जो अंग्रेजों की तरफ़ हो गए थे, उन्हें बरेली और पीलीभीत में जागीरें दी गई.

कालू महर और उनके साथियों ने अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत का जो कदम उठाया था उसका असर काली कुमाऊँ की जनता को बाद के कई सालों तक भुगतना पड़ा. 1937 तक इस क्षेत्र के किसी भी व्यक्ति को सेना में शामिल होने का मौका नहीं मिल सका और इस क्षेत्र में जितने भी विकास कार्य संचालित हो रहे थे, उन पर रोक लगा दी गई.

1857 की क्रांति के दौरान कुमाऊँ के कमिश्नर हैनरी रैमजे हुआ करते थे. उन्होंने इस पूरे इलाके में ‘मार्शल लॉ’ यानी फ़ौजी क़ानून लागू कर दिया था. बद्रीदत्त पाण्डे के शब्दों में कहें तो एक ऐसा क़ानून जिसके तहत ‘जिसने भी चीं -चपड़ की या जिस पर भी शक-शुबहा हुआ, उसे या तो जेल में ठूँस दिया गया या चानमारी से मार दिया गया.’ यानी गोली मार कर उसकी हत्या कर दी जाती थी.

नैनीताल का ‘फांसी गधेरा’ तभी से इस नाम से चर्चित हुआ. वहां बग़ावत के दौर में कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी. जबकि गढ़वाल में बाग़ियों को गंगा किनारे की एक ऊंची पहाड़ी पर ले जाकर गोली मार दी जाती थी. बद्रीदत्त पाण्डे की किताब के अनुसार गढ़वाल की इस पहाड़ी से सिर्फ़ एक ही क्रांतिकारी बचने में कामयाब हुआ था जो गंगा में कूदकर और नदी पार करके फ़रार हो गया था.

कालू महर के नेतृत्व में 1857 में बग़ावत की जो आँधी पहाड़ों में उठी थी, उसे जल्द ही थामने में अंग्रेजी शासन कामयाब रहा. लेकिन इस बग़ावत के बाद कालू महर क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक प्रेरणा बन गए और उनका नाम आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया.

कालू महर को याद करते हुए साल 2010 में लोहाघाट चौराहे का नाम उनके नाम पर रखा गया और साल 2021 में कालू महर के सम्मान में डाक विभाग ने एक विशेष लिफाफा भी जारी किया. आज़ादी का अमृत महोत्सव कार्यक्रम और डाक टिकट दिवस के अवसर पर यह लिफाफा जारी किया गया था.

 

स्क्रिप्ट : अमन रावत

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