कुमाऊं की बेटी जो पाकिस्तान की ‘फ़र्स्ट लेडी’ बनीं

  • 2022
  • 20:05

8 जुलाई 1947 का दिन था. यानी देश की आज़ादी से ठीक 38 दिन पहले. अंग्रेज़ी बैरिस्टर सिरिल रैड्क्लिफ़ इस दिन भारत पहुंचे. उन्हें जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि अगले पांच हफ़्तों में वो बंगाल और पंजाब को चीरती हुई एक ऐसी लकीर खींचें, जो इस देश के भूगोल, इसके समाज और इसके लोगों को हमेशा के लिए दो अलग-अलग देशों में बांट दे.

रैड्क्लिफ़ के नेतृत्व में ‘बाउंड्री कमिशन’ तेजी से विभाजन की प्रक्रिया में जुट गया और इसके साथ ही शुरू हुई दुनिया की सबसे त्रासद घटनाओं में दर्ज, बंटवारे की त्रासदी. करोड़ों लोगों की दुनिया हमेशा के लिए बदल रही थी. एक आज़ाद सुबह का सूर्योदय देखने से पहले इन लोगों को विभाजन की कई स्याह रातें गुज़ारनी पड़ी और अपना सब कुछ पीछे छोड़ एक अनिश्चित भविष्य की ओर पलायन करना पड़ा.

एक नए मुल्क में जा बसने के लिए जो लोग अपना-अपना सामान बांध रहे थे, उनमें 43 साल की एक महिला भी थी. कुमाऊँ के अल्मोड़ा में जन्मीं इस महिला के पूर्वज कुमाऊनी ब्राह्मण थे, माता-पिता ईसाई और पति मुस्लिम लीग के सबसे बड़े नेताओं में से एक. ये महिला जो अब पाकिस्तान की ‘फ़र्स्ट लेडी’ बनने जा रही थी और जिसे आगे चलकर ‘मादर-ए-पाकिस्तान’ का ख़िताब मिलने वाला था, वो थी कुमाऊँ की बेटी आइरीन पंत जो अब बेगम राणा लियाक़त अली खान हो चुकी थी.

साल 1871 की बात है. एक खबर ने पूरे कुमाऊँ में हलचल मचा दी थी. खबर ये थी कि ऊंची नाक और बड़ी धोती वाले पंत ब्राह्मण परिवार के एक व्यक्ति ने ईसाई धर्म अपना लिया है. अंग्रेज़ी और अमरीकी मिशनरी उस दौर में सक्रिय होने लगी थी और कुमाऊँ में धर्मांतरण का ये कोई पहला मामला नहीं था. लेकिन अब तक हुए धर्मांतरण सिर्फ़ गरीब या दलित परिवारों तक ही सीमित थे इसलिए कुमाऊनी समाज ने इन्हें कभी अपनी पहचान या धर्म पर ख़तरे की तरह से नहीं देखा था. लेकिन इस बार मामला अलग था. इस बार एक संपन्न परिवार और ब्राह्मण समाज यानी ‘ठुल जात’ के व्यक्ति का धर्मांतरण हुआ था. ये धर्मांतरण हुआ तो बनारस में था लेकिन इसकी खबर जंगल की आग की तरह पूरे कुमाऊँ में फैल गई थी.

ईसाई धर्म अपनाने वाले इस व्यक्ति का नाम था तारादत्त पंत. उनके पिता पंडित हरि राम नेपाल के राजा के प्रमुख वैद्य थे लिहाज़ा तारादत्त को भी आयुर्वेद का ज्ञान विरासत में मिला था. उनकी शादी अल्मोड़ा के उस जोशी परिवार की बेटी से हुई थी जो कुमाऊँ के दीवान हुआ करते थे.

तारादत्त के धर्मांतरण की भी एक दिलचस्प कहानी है. ईसाई धर्म अपनाने से पहले उन्हें हिंदू धार्मिक ग्रंथों का प्रकांड विद्वान माना जाता था. वे कई धार्मिक वाद-विवादों और शास्त्रार्थों में अपना लोहा मनवा चुके थे. उस दौर में बनारस धार्मिक वाद-विवादों का एक अहम केंद्र हुआ करता था और तारादत्त भी अक्सर इसमें हिस्सा लेने बनारस जाया करते. ऐसी ही एक यात्रा के दौरान उनकी मुलाक़ात नीलकंठ शास्त्री नाम के व्यक्ति से हुई. नीलकंठ स्वयं हिंदू धर्म ग्रंथों के विद्वान माने जाते थे लेकिन उन्होंने ‘चर्च मिशनरी सोसाइटी’ के साथ जुड़कर ईसाई धर्म अपना लिया था. नीलकंठ से मिलकर तारादत्त इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने भी ईसाई धर्म अपना लिया.

तारादत्त ने तो ईसाई धर्म स्वीकार लिया लेकिन इसके बाद उनके परिवार और उनके समाज ने उन्हें कभी नहीं स्वीकारा. उन्हें समाज से बेदख़ल कर दिया और उनके परिवार ने उनका ‘घटा-श्राध’ करके उन्हें मरा हुआ घोषित कर दिया. इसके बाद वो अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर नैनीताल से अल्मोड़ा चले आए जो उस दौर में कुमाऊँ का सबसे बड़ा शहर हुआ करता था.

सामाजिक बहिष्कार के चलते तारादत्त और उनके परिवार को कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ा लेकिन एक आयुर्वेदिक डॉक्टर होने के चलते उनके सामने आजीविका का संकट कभी नहीं रहा. धर्मांतरण से उन्हें ये लाभ जरूर हुआ कि उनके बच्चों के लिए आधुनिक शिक्षा के कई दरवाज़े खुल गए. उनकी बेटी हरप्रिया मेडिकल कॉलेज में दाख़िला लेने वाली देश की सबसे पहली महिलाओं में से एक बनी और उनके बड़े बेटे डैन्यल पंत ने पहले अल्मोड़ा और फिर लखनऊ से अपनी पढ़ाई पूरी करके उत्तर प्रदेश, जो उस दौर में यूनाइटेड प्रोविंस हुआ करता था, उसके PWD विभाग में नौकरी पाई.

ये तो हुई तारादत्त पंत के एक उच्च कुमाऊनी ब्राह्मण से ईसाई बन जाने की कहानी. अब शुरू करते हैं कहानी आइरीन पंत की. कुमाऊँ की वो बेटी जो आगे चलकर पाकिस्तान की फ़र्स्ट लेडी बनी.

आइरीन डैन्यल पंत की बेटी थी. यानी तारादत्त पंत की पोती. फरवरी 1905 में जब उनका जन्म हुआ तो उन्हें नाम मिला था आइरीन रूथ मार्ग्रेट पंत. इस नाम में आइरीन उनके पिता ने सुझाया था, रूथ उनकी नानी ने, मार्ग्रेट उनकी माँ ने और पंत उन्हें उस विरासत में मिला था जो धर्मांतरण के बाद भी उनकी थी.

आइरीन के पिता सरकारी सेवा में थे. उस दौर में यूनाइटेड प्रोविंस का सचिवालय छह महीने लखनऊ और छह महीने नैनीताल से काम किया करता था. लिहाज़ा आइरीन की स्कूली पढ़ाई भी इन्हीं दो शहरों से हुई. ये वो समय भी था जब भारतीय समाज में आज़ादी की छटपटाहट दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी. महात्मा गांधी साउथ अफ़्रीका से लौट चुके थे, लखनऊ पैक्ट पर हस्ताक्षर हो चुके थे, चंपारन सत्याग्रह शुरू हो चुका था, जलियाँवाला बाग़ हो चुका था, असहयोग आंदोलन हो चुका था और आज़ादी के लिए तमाम मतवाले बेख़ौफ़ आवाज़ें उठाने लगे थे. इन सभी आंदोलनों के साथ-साथ स्कूल में पढ़ने वाली आइरीन की राजनीतिक चेतना भी आकार ले रही थी.

आइरीन उस वक्त लखनऊ के लाल बाग़ हाई स्कूल में पढ़ा करती थी. लेकिन अपने जन्म-स्थान अल्मोड़ा से उनका हमेशा गहरा जुड़ाव रहा. वो अक्सर अपने परिवार के साथ अल्मोड़ा आया करती जहां आधुनिक पंत बहनों की खूब चर्चा थी.

चर्चित उपन्यासकार शिवानी की बेटी इरा पांडे ने उनकी जीवनी ‘दिद्दी’ में उनके हवाले से लिखा है, ‘मेरे नाना के बग़ल वाला घर डैन्यल पंत का था जो ईसाई थे. लेकिन एक जमाने में वो मेरी मां की तरफ से रिश्तेदार हुआ करते थे. जब उन्होंने ईसाईयत को अपना लिया तो हमारे दक़ियानूसी नाना ने हमारे घरों के बीच एक दीवार बना दी. हमें दीवार के दूसरी तरफ देखने की भी मनाही थी. इस दीवार से बिलकुल लगता हुआ ही उनका किचन था जहां से ज़ायक़ेदार मीट पकने की पागल कर देने वाली महक आती थी और हमारे बोरिंग ब्राह्मण किचन में पक रही फीकी-सी दाल, आलू की सब्ज़ी और भात पर हावी हो जाती थी. ‘बर्लिन की उस दीवार’ के दूसरी तरफ वाले बच्चों को हम जानते थे. कुछ तो इसलिए कि आख़िरकार हम सब मूलतः एक ही परिवार के थे. और कुछ इसलिए भी कि उनकी मुक्त जीवनशैली हम ब्राह्मण परिवारों की रूढ़िवादी जीवनशैली से कहीं ज़्यादा आकर्षक थी. वो बहनें जब जॉर्जेट की साड़ी पहन कर अल्मोड़ा के बाजार में टहलने निकलती थी तो हम लोग तो जलन से मानो मर ही जाते थे.’

अल्मोड़ा शहर आइरीन की जन्मस्थली थी लेकिन उनके व्यक्तित्व के निर्माण में लखनऊ की ज़्यादा अहम भूमिका रही. उन्होंने न सिर्फ़ स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई लखनऊ से की बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन से भी उनका जुड़ाव इसी शहर में हुआ. साल 1928 में जब साइमन कमिशन भारत आया तो लखनऊ के जो छात्र ‘साइमन गो बैक’ की हुंकार भरते हुए प्रदर्शन कर रहे थे, आइरीन भी उनमें से एक थी. साइमन कमिशन पर जब UP विधानसभा में बहस चल रही थी तो आइरीन भी इस बहस को सुनने विधानसभा पहुंची थी. यहीं उन्होंने पहली बार लियाक़त अली खान को देखा.

ऑक्सफोर्ड से पढ़ कर लौटे करनाल के नवाब रुस्तम अली खान के बेटे लियाक़त अली तब UP विधान परिषद के सदस्य थे और लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए किसी हीरो से कम नहीं थे. आइरीन ने जब उन्हें पहली बार विधानसभा में देखा और भाषण देते सुना तो वो उनसे काफ़ी प्रभावित हुई.

इसके कुछ समय बाद ही दोनों की मुलाक़ात भी हुई. उन दिनों बिहार में बाढ़ आई थी और लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए बाढ़ पीड़ितों के लिए फंड जुटा रहे थे. इसी सिलसिले में नाटक के कुछ टिकट बेचने जब आइरीन विधानसभा गई तो लियाक़त अली खान से उनकी मुलाक़ात हुई. लियाक़त ने नाटक का एक टिकट ख़रीदा तो आइरीन बोली, ‘कम से कम दो टिकट तो ख़रीदिए और नाटक देखने किसी और को भी अपने साथ लाइएगा.’ इस पर जब लियाक़त ने कहा कि ‘मैं ऐस किसी व्यक्ति को नहीं जानता जिसे इस शो पर साथ ला सकूँ’ तो आइरीन ने जवाब दिया, ‘मैं आपके लिए एक साथी खोज लूँगी. और अगर कोई नहीं मिला तो मैं ख़ुद ही आपके बग़ल में बैठकर शो देखूँगी.’

आइरीन के इतना कहने के बाद लियाक़त ने उनसे दो टिकट ख़रीद लिए. उसी शाम गवर्नर ने विधान परिषद के सदस्यों के लिए एक डिनर रखा था. इसके बावजूद लियाक़त छात्रों के इस कार्यक्रम में पहुंचे. हालाँकि वो कुछ देर से यहां पहुंचे थे और जब आइरीन ने लॉरेंस होप का लिखा मशहूर गाना ‘पेल हैंड्स आई लव्ड बिसाइड द शालीमार’ गाया तो उसे सुनने के लिए लियाक़त वहां मौजूद नहीं थे. लेकिन तमाम व्यस्तताओं के बीच भी वो आए, इससे आइरीन बेहद खुश हुई और उन्होंने लियाक़त को इसके लिए विशेष शुक्रिया कहा.

आइरीन और लियाक़त की मुलाक़ात का शुरुआती सफर बस इतना ही था. लखनऊ से एमए की पढ़ाई पूरी करने के बाद आइरीन ‘ग्रैजूएट टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स’ करने कलकत्ता चली गई और इसे पूरा करने के कुछ समय बाद दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में पढ़ाने लगी. यहां उन्होंने लगभग डेढ़ साल पढ़ाया और इसी दौरान लियाक़त अली से उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला दोबारा शुरू हुआ. लियाक़त अब तक UP विधानसभा के उपाध्यक्ष बन चुके थे. ये खबर जब आइरीन ने सुनी तो उन्होंने लियाक़त को बधाई देते हुए एक ख़त लिखा. लियाक़त ने तुरंत ही ख़त का जवाब भेजा और लिखा कि यह उनके लिए एक सुखद आश्चर्य है कि आइरीन दिल्ली में हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि दिल्ली तो करनाल से काफ़ी नज़दीक है जहां मैं अक्सर आया करता हूँ. लिहाज़ा हमें कभी चाय पर मिलना चाहिए.

यहां से शुरू हुआ मुलाक़ातों का सिलसिला फिर जल्द ही दोनों की शादी में बदला. लेकिन आइरीन का परिवार उनके इस फ़ैसले से बेहद नाराज़ था. लियाक़त अली न सिर्फ़ उम्र में आइरीन से काफी बड़े थे बल्कि वो पहले से शादीशुदा भी थे और एक बेटे के पिता भी. हालाँकि उनकी पहली पत्नी काफ़ी समय से उनसे अलग रह रही थी लेकिन दोनों का तलाक़ नहीं हुआ था.

आइरीन में अपने दादा तारादत्त पंत वाले ही गुण थे. परिवार और समाज के तमाम विरोध के बाद भी वो अपने फ़ैसले पर अडिग थी. उन्होंने इस्लाम धर्म अपनाया और 16 अप्रैल 1933 के दिन लियाक़त अली से निकाह कर लिया. इसके बाद आइरीन फिर कभी अल्मोड़ा नहीं गई. वैसे अब उनका नाम भी आइरीन नहीं रह गया था. धर्मांतरण के बाद उनका नाम गुल-ए-राणा हुआ और आगे चलकर वो राणा लियाक़त अली खान के नाम से ही जानी गई.

शादी के बाद लियाक़त अली ने दिल्ली के हार्डिंग एवेन्यू में एक आलीशान बंगला बनवाया और उसे नाम दिया ‘गुल-ए-राणा’. ‘गुल-ए-राणा’ में ही आज पाकिस्तानी उच्चायोग स्थित है. बहरहाल, आज़ादी से पहले लियाक़त अली और राणा का ये घर कई अहम पड़ावों का गवाह बना. देश के तमाम बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी यहां आए दिन मौजूद रहते. राणा की असल राजनीतिक पारी भी इसी घर से शुरू हुई. वो सिर्फ़ लियाक़त अली खान की बेगम ही नहीं थी  बल्कि उस दौर की तमाम राजनीतिक गतिविधियों में सीधा दखल रखती थी.

ये वो दौर भी था जब आज़ादी के आंदोलन में हिंदू-मुसलमान की फूट बढ़ने लगी थी. मोहम्मद इक़बाल मुस्लिम लीग के सत्र में ‘टू नेशन थ्योरी’ का प्रस्ताव रख चुके थे और चौधरी रहमत अली पाकिस्तान नाम सुझा चुके थे. लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना इस दौरान सक्रिय राजनीति से लगभग अलग-थलग होकर लंदन में जा बसे थे और इस कारण मुस्लिम लीग का काम काफी धीमा हो गया था. जिन्ना को भारत लौटने के लिए मनाने का मुख्य श्रेय लियाक़त अली और राणा को ही दिया जाता है.

साल 1935 में जिन्ना भारत लौटे और इसके बाद से लियाक़त अली और राणा से उनके बेहद नज़दीकी संबंध रहे. एक बार जब लियाक़त अली ने जिन्ना से कहा कि उन्हें अपना अकेलापन दूर करने के लिए फिर से शादी कर लेनी चाहिए तो जिन्ना का जवाब था, ‘मैं शादी जरूर कर लेता अगर मुझे कोई दूसरी राणा मिल सकती.’

जिन्ना के भारत लौटने से मुस्लिम लीग में नई ताक़त आने लगी थी और देश भर में बढ़ रहा सांप्रदायिक तनाव लीग और कांग्रेस के बीच की दूरियों को लगातार बढ़ा रहा था. 1930 का दशक खत्म होते-होते लीग के नेताओं के भाषणों से ये स्पष्ट होने लगा था कि वो मुसलमानों के लिए अलग देश चाहते हैं. फरवरी 1941 में ‘गुल-ए-राणा’ में ही मुस्लिम लीग वर्किंग कमिटी की एक अहम बैठक हुई जिसमें पाकिस्तान की मांग को मजबूत करने के लिए कई प्रस्ताव पारित किए गए.

साल 1941 में जिन्ना और लियाक़त अली ने मिलकर ‘डॉन’ अख़बार की शुरुआत की ताकि लीग के संदेशों को बेहतर तरीक़े से लोगों तक पहुँचाया जा सके. ये अख़बार जल्द ही बेहद लोकप्रिय हो गया और पाकिस्तान की मांग को मजबूत करने में फिर इसने बेहद अहम भूमिका निभाई.

आज़ादी का दिन जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा था, देश में हो रहे सांप्रदायिक दंगे भी बढ़ते जा रहे थे. बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और रावलपिंडी जैसी कई जगहों पर दंगे हुए जिनमें 5 हजार से ज़्यादा लोग मारे गए और एक लाख से ज़्यादा बेघर हुए. इस भीषण नरसंहार के बाद कांग्रेस ने यह स्वीकार लिया कि बंटवारा अब अटल है और सरदार वल्लभ भाई पटेल यह स्वीकार करने वालों में सबसे पहले थे.

सत्ता के हस्तांतरण और देश के बंटवारे की औपचारिकताएं पूरी होने लगे तो मुस्लिम लीग के नेता भी एक-एक करके दिल्ली से कराची का रुख़ करने लगे. जिन्ना ने औरंगज़ेब रोड का अपना घर तीन लाख रुपए में रामकृष्ण डालमिया को बेचा और एक डकोटा विमान में सवार होकर वो 7 अगस्त 1947 के दिन कराची चले गए. लियाक़त अली खान ने अपना घर बेचा नहीं बल्कि पाकिस्तान सरकार को दान कर दिया. ये आज भी दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के निवास के रूप में इस्तेमाल होता है.

अपने घर के साथ ही घर का सारा सामान भी लियाक़त अली ने दान कर दिया था. सिर्फ़ अपने कपड़े, कुछ व्यक्तिगत चीज़ें और जिन सिगरेट लाइटरों को जमा करने के वो शौक़ीन थे, उन लाइटरों से भरी एक अटैची ही उन्होंने अपने साथ रखी. राणा भी जो एक मात्र चीज़ अपने साथ ले गई वो एक पुरानी क़ालीन थी जिसे रोल करते हुए उन्होंने कहा, ‘ये मेरी माँ ने मुझे दी थी, इसे मैं नहीं छोड़ सकूँगी.’

बंटवारे के बाद लियाक़त अली और राणा के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ. लियाक़त अली पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने और राणा हुई पाकिस्तान की ‘फ़र्स्ट लेडी.’ राणा ने शुरुआत से ही पाकिस्तान की महिलाओं के लिए दिन-रात काम किया. शरणार्थियों की मदद करने के साथ ही उन्होंने महिलाओं को बतौर नर्स ट्रेनिंग दिलवाना शुरू किया और पाकिस्तान नर्सेज़ फ़ेडरेशन की स्थापना करवाई.

राणा ने ही Pakistan Women’s National Guard और Pakistan Women’s Naval Reserve की भी शुरुआत करवाई जिनमें से एक वहां की फौज के अंतर्गत था और दूसरा नेवी के. राणा को इन दोनों का ही चीफ कंट्रोलर बनाया गया जो कि एक ब्रिगेडियर की रैंक के बराबर था.

महिलाओं के लिए राणा ने हस्तशिल्प से लेकर कई औद्योगिक इकाइयों की भी शुरुआत की और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में बेहद अहम भूमिका निभाई. पाकिस्तान के निर्माण में राणा दिन-रात एक किए हुए थी जब एक दिन अचानक उनका सब कुछ तबाह हो गया.

16 अक्टूबर 1951 का दिन था. रावलपिंडी के कंपनी बाग़ में मुस्लिम लीग की सभा हो रही थी और जिन्ना की मौत के बाद अब पाकिस्तान के सबसे बड़े नेता लियाक़त अली को सुनने के लिए एक लाख से ज़्यादा लोग वहां मौजूद थे. लियाक़त जैसे ही मंच पर आए और उन्होंने अपनी बात की शुरुआत करते हुए बस ‘बिरादरान-ए-मिल्लत’ ही कहा था कि तभी एक के बाद दो गोलियां उनके सीने में आ धंसी और वो वहीं मंच पर गिर पड़े. उस पल को महसूस करने के लिए आप रेडियो पाकिस्तान का ये ऑडियो सुनिए जिसमें लियाक़त अली के आख़िरी शब्द और उन्हें लगी गोलियों की आवाज़ क़ैद है.

जिस जीवनसाथी के भरोसे राणा अपना घर, परिवार, समाज, देश और नाम तक पीछे छोड़ आई थी, उस जीवनसाथी कुछ दहशतगर्दों ने उनसे हमेशा के लिए छीन लिया था. राणा अब बिलकुल अकेली थी और उन पर अपने दो नाबालिग बच्चों की जिम्मेदारी भी थी. संकट ये भी था कि लियाक़त अली खान भले ही नवाबों के ख़ानदान से थे लेकिन बंटवारे के दौरान वो अपना सब कुछ दान कर आए थे. पाकिस्तान में लियाक़त अली या राणा की कोई निजी सम्पत्ति नहीं थी. लियाक़त की मौत के समय राणा के बैंक खाते में इतने पैसे भी नहीं थे कि घर के महीने भर का खर्चा चल सके.

लियाक़त अली की हत्या के कुछ दिनों बाद ही राणा ने 10 विक्टोरिया रोड पर स्थित प्रधानमंत्री आवास खाली कर दिया और एक बार फिर वो अपना सीमित सामान, लियाक़त अली की किताबें और उनका सिगरेट लाइटरों से भरा सूटकेस लेकर एक अनिश्चित भविष्य के मुहाने पर आ खड़ी हुई. पाकिस्तान सरकार ने उन्हें दो हजार रुपए महीने देने का प्रावधान तो कर दिया था लेकिन इस रक़म से राणा अपने बच्चों को वहां नहीं पढ़ा सकती थी, जहां का उन्होंने सपना देखा था. राणा की ये मुश्किलें तब कुछ दूर हुई जब तीन साल बाद उन्हें हॉलैंड में पाकिस्तान का राजदूत नियुक्त किया गया. इसके बाद वो इटली में भी बतौर राजदूत तैनात रही.

पाकिस्तान की महिलाओं के लिए राणा All Pakistan Women’s Association यानी APWA की स्थापना काफी पहले ही कर चुकी थी. पाकिस्तान में महिलाओं को आरक्षण मिलने से लेकर तीन तलाक़ जैसे क़ानूनों पर पाबंदी और कई अन्य महिला अधिकारों को सुनिश्चहित करने का श्रेय APWA को ही जाता. लियाक़त की मौत के बाद भी राणा ने इस संस्था के साथ अपना काम जारी रखा. महिलाओं की शिक्षा पर भी उन्होंने लगातार काम किया और वो अक्सर ये दोहराती थी कि जब आप एक लड़के को शिक्षित करते हैं तो आप सिर्फ़ एक व्यक्ति को शिक्षित कर रहे होते हैं लेकिन जब आप एक लड़की को शिक्षित करते हैं तो आप एक पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं.’

राणा लियाक़त अली को इसलिए भी याद किया जाता है कि वो अयूब खान और ज़िया उल हक़ जैसे तानाशाहों से लोहा लेने में भी पीछे नहीं रही. पाकिस्तान में उन्होंने महिला अधिकारों के लिए काम करने के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी काम किया और सिंध की गवर्नर रहते हुए वो कराची यूनिवर्सिटी की चांसलर भी रही. देश-विदेश के कई सम्मान उन्हें मिले जिनमें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ भी शामिल है और ‘मादरे-पाकिस्तान’ का ख़िताब भी.

पाकिस्तान में जा बसने के बाद से राणा तीन बार भारत आई लेकिन कभी अल्मोड़ा नहीं जा सकी. हालाँकि अल्मोड़ा हमेशा उनके दिल के बेहद क़रीब रहा. कोदे की रोटी, गहत की दाल और दाड़िम की चटनी उन्हें हमेशा पसंद रही. पाकिस्तान से अपने भाई को भेजे एक टेलीग्राम में उन्होंने लिखा था, ‘आई मिस अल्मोड़ा.’

30 जून 1990 के दिन अल्मोड़ा की आइरीन और पाकिस्तान की राणा लियाक़त अली खान ने आख़िरी सांस ली. उनकी आज भी जब चर्चा होती है तो लोगों की उनके बारे अलग-अलग राय होती है. राणा ख़ुद भी ये जानती थी और इस बारे में उन्होंने अपने अंतिम दिनों में कहा था कि ‘मैं सारी उम्र एक पोलिटिकल मिस्ट्री रही हूं. मेरा बस चले तो मैं ये सब कुछ दोबारा करूँ. दस बार करूँ.’

 

स्क्रिप्ट: राहुल कोटियाल

 

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