गोरखा राज : जब कुमाऊं और गढ़वाल के लाखों लोगों को मंडियों में बेच दिया गया

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साल 1806. जून की एक दोपहर में अल्मोड़ा के गांवों में ढोल-दमाऊ के साथ गोरखा सेना की एक टुकड़ी मुनादी कर रही थी. जनता को चेतावनी दी जा रही थी कि आज के बाद कोई भी महिला अपने घर की छत पर न जाए. और अगर कोई महिला कपड़े सुखाने, धूप सेकने या किसी भी काम से छत पर जाती है तो उससे भारी जुर्माना वसूला जाएगा. इस मुनादी के बाद अगले कई सालों तक कुमाऊँ और गढ़वाल की महिलाओं के लिए अपने ही घरों की छत पर निकलना वर्जित हो गया. जिस भी महिला ने इस वर्जना को तोड़ा, उसके परिजनों को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. कभी उन्हें दास बनाकर बेच दिया गया तो कभी मृत्युदंड तक दे दिया गया.

गोरख शासन में महिलाओं पर पाबंदी सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं थी. कोई विवाहित महिला अगर किसी अंजान व्यक्ति से बात करते हुए देख ली जाती तो तलवार से उसकी नाक काट दी जाती और उस पुरुष की गर्दन उतार कर चौराहे पर टांग दी जाती. लोगों की ऐसी निर्मम हत्या करने के बाद उनके शरीर को किसी ऊँचे स्थान पर लटका दिया जाता ताकि गिद्ध उसे नोच सकें.

हॉलीवुड की पीरियड फिल्म सरीखी ये बातें आपको शायद तालिबान के शासन की याद दिला रही हों. लेकिन ये दमन हमारे ही पुरखों के ऊपर सालों तक होता रहा है. उस दौर में जिसे इतिहास गोर्खाणी के नाम से जानता है. वही गोर्खाणी, जो दुनिया के सबसे क्रूर शासनकालों में से एक है, जहां लोगों की हत्या कर देना और उन्हें ग़ुलाम बनाकर बेच देना एक सामान्य चलन था और जहां अनाजों से ज़्यादा महिलाओं और बच्चों की मंडियाँ सजा करती थी.

आज हम आपको उसी गोर्खाणी की कहानी सुनाने जा रहे हैं. लेकिन इस कहानी को आगे बढ़ाने से पहले ये बता देना भी ज़रूरी है कि इसे इतिहास में घटित हुए एक कालखंड के रूप में ही देखा जाए. वह कालखंड जब नेपाल के राजाओं और सेना ने गढ़वाल और कुमाऊँ में शासन किया, लूट की और अत्याचार भी किए. लगभग वैसे ही अत्याचार जैसे गढ़वाली सेना ने कभी सिरमौर रियासत पर किए तो कभी तिब्बत पर, जिसे उस वक्त दोलपा भी कहा जाता था. लिहाज़ा आज की कहानी में इतिहास के जिस काले अध्याय का जिक्र है, उसे किसी भी तरह वर्तमान में द्वेष का कारण या आधार न बनाया जाए.  वैसे भी ये अध्याय गोरखा समाज या नेपाल की आम जनता की बात नहीं करता. वहां की जनता तो उस दौर में ख़ुद भी वही दमन झेल रही थी जो हर राजशाही में जनता झेलती ही है. इसलिए इस कहानी में आगे बढ़ने से पहले ये दोहराना जरूरी है कि ‘दमन हमेशा सत्ता करती हैं, कोई समाज नहीं.’

साल 1790. गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने कुमाऊं की राजधानी अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया था. गोरखाओं की नजर अब गढ़वाल पर थी जहां के राजनीतिक हालात इस दौर में छिन्न-भिन्न थे. ऐसे में 1791 में हर्ष देव जोशी की सहायता से गोरखाओं ने गढ़वाल पर हमला करने की योजना बनाई. उन्होंने गढ़वाल में लंगूरगढ़ पर घेरा भी डाला लेकिन उसे हथियाने पर सफल न हो सके. उन्हें ये सफलता इसके करीब दस साल बाद 1804 में मिली. तब गढ़वाल एक विनाशकारी भूकंप की चपेट में आया था. हजारों लोग इस भूकंप में मारे गए थे और श्रीनगर में स्थित गढ़वाल के राजा का महल तक ढह चुका था. इसी का फ़ायदा उठाकर गोरखाओं ने आक्रमण किया कुमाऊँ से गढ़वाल तक अपना शासन स्थापित कर लिया.

यहां उन्होंने अस्थाई राजा या गवर्नर को सत्ता में बैठाने के बजाए, सीधे अपने सेनापतियों को सत्ता सौंप दी. इन सेनापति सामंतों को सुब्बा कहा जाता था. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और ‘उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास’ किताब के लेखक प्रो अजय रावत लिखते हैं कि गोरखाओं ने कुमाऊ के चंदों की नीतियों और प्रशासनिक तौर-तरीकों की नकल नहीं की बल्कि अपने ही प्रशासनिक तंत्र की यहां स्थापना की. उन्होंने यहां बड़ी सख्ती से शासन किया. इसका प्रमुख कारण ये भी था कि सामाजिक दृष्टि से हिंदू लोग गोरखाओं को अपनी तुलना में कमतर समझते थे. इस कारण गोरखा प्रशासक हिन्दुओं को दमित कर आतंकित रखना चाहते थे. प्रो अजय रावत लिखते हैं कि उनका राजा अवश्य राजपूत था. वो भारतीय मूल का एक राजस्थानी राजपूत था जिसके वंशज तब नेपाल की पहाड़ियों में चले गए थे जब अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को घेर लिया था. यही राजपूत वंश कालांतर में ‘शाह’ की उपाधि धारण कर नेपाल का शासक बन बैठा.

जिस तरह से गढ़वाल और कुमाऊं के लोग गोरखाओें को धर्म के लिहाज से कमतर समझते थे, उसी तरह गोरखा शासक भी यहां के लोगों को विधर्मी समझते थे. इसका एक बड़ा कारण कुमाऊं और गढ़वाल में समाज की बनावट और यहां की सांस्कृतिक पद्धतियां थीं जो गोरखा-पद्धति से मेल नहीं खाती थी. गोरखाओं के लिए कुमाऊं के ब्राह्मण, जो उस समय चंद वंश के राज शासन में प्रमुख भूमिका निभाते थे, ऐसे देशद्रोही और धोखेबाज थे जिनका दमन करना गोरखा नितांत आवश्यक समझते थे.

लिहाज़ा 1806 में बड़ा बमशाह के ‘सुब्बा’ यानी सेनापति बनने तक, उससे पहले के सुब्बा – काजी, जमादार, फौजदार, नानी हवलदार, दफ्तरी आदि ने काफी नृशंस ढंग से कुमाऊँनी रियासत पर शासन किया. इसका नतीजा ये हुआ कि पाली पछाऊं सल्ट और आस-पास के गांवों के थोकदार, सयाने और प्रधान, सब भागकर पलायन कर गए. अंततः चौतरिया बड़ा बमशाह को राज-काज अपने हाथ में लेना पड़ा. लेकिन नेपाली सेनापति बड़ा बमशाह के सत्ता अपने हाथ में लेने के बाद भी क्रूरता कम नहीं हुई. उसने चंद रियासत के दीवानों, राज कर्मचारियों, फर्त्यालों और महरा राजपूतों को कुचल दिया.

कुमाऊं का इतिहास लिखने वाले बद्री दत्त पांडे लिखते हैं कि बड़ा बमशाह ने जब चंद रियासत के खास दीवानों और कर्मचारियों के साथ ही उन तमाम लोगों को कुचल दिया जो गोरखा सत्ता को चुनौती दे सकते थे, तो आम कुमाऊंनी लोगों ने इसका विरोध नहीं किया. कारण स्पष्ट था. सामान्य जनता के लिए जैसे चंद राजा थे, वैसे ही गोरखे भी थे. उनके लिए केवल राजा बदले थे. चंदों के समय भी उनका दमन-चक्र कोई कम नहीं था.

सयाने, थोकदार और प्रधान राजस्व वसूली के नाम पर जनता का बहुत उत्पीड़न करते थे. गांवों के प्रधान, सयानों या थोकदारों के अधीन होते थे, जिन्हें ‘राज कर’ के अलावा सयानों और थोकदारों को भी ‘दस्तूर’ देना पड़ता था और राजाज्ञा के अनुसार उन्हीं के हुक्म और आदेशों का पालन करना पड़ता था. लेकिन बाद में आम जनता का जो उत्पीड़न हुआ, उसमें गोरखाओं ने कुमाऊं के चंद वंश और इधर गढ़वाल के परमार वंश को भी बहुत पीछे छोड़ दिया.

1791 में जब अल्मोड़ा पर गोरखाओं का अधिकार हुआ तब नेपाल नरेश रण बहादुर शाह की उम्र मात्र 15 वर्ष की थी. ऐसे में उसका चाचा चौतरिया बहादुर शाह उसके संरक्षक की हैसियत से शासन करता था. अल्मोड़ा पर अधिकार कर लेने के बाद वो कुमाऊँ का राजकाज सेनापति अमरसिंह थापा को सौंपकर नेपाल लौट गया. अपने साथ में बोझ ढोने के लिए कुमाऊँ के अनेक काश्तकारों को भी वो नेपाल ले गया. इधर अमर सिंह थापा ने विद्रोहियों का दमन किया और चंदों के समय से चले आ रहे कुशासन को सुव्यवस्थित किया. इसके लिए उसने शूरवीर थापा और जगजीत पांडे का सहयोग लिया. उसने गोरखा-आक्रमण से भयभीत और पलायन कर चुकी जनता को अपना फरमान जारी कर दोबारा अपने-अपने गांवों में आकर बसने का आहवान किया. इस प्रकार राजधानी अल्मोड़ा में धीरे-धीरे शान्ति स्थापित होने लगी और लोग दोबारा अपने घर-बार बसाने लगे.

गोरखाओं के राज में कुमाऊं में जैसे ही शांति स्थापित होने लगी, आम लोगों पर टैक्स थोपने का सिलसिला भी शुरू हो गया. गोरखा शासक केवल जमीन और जंगल के मालिकों से ही सख्ती से नकद लगान वसूल करते थे. शिल्पकारों से नकद धनराशि नहीं ली जाती थी बल्कि उनसे हस्तकारी का कार्य यानी वो जो काम करते थे, वही काम रियासत के लिए फ्री में करवाया जाता था.

जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि कुमाऊँ में खेती-किसानी करने वाली बड़ी आबादी को इस बात से कोई सरोकार नहीं रह गया था कि सत्ता किसके हाथ में है. चंद राजाओं की लगातार अदला-बदली और खाली खजाने को भरने के लिए अनेक तरह के करों के कारण जनता वैसे भी बहुत परेशान थी. लेकिन गोरखाओं ने तो कहर ही ढा दिया. एक्टिंसन अपने हिमालयन गजेटियर में लिखते हैं कि गोरखाओं ने एक नया कर लगाया. लेकिन जब किसी ने भी ये कर नहीं चुकाया तो गोरखाओं ने एक दुस्हासिक कदम उठाया. उन्होंने कुमाऊँ के 1500 गांवों के मुखियाओं को फरमान भेजा कि वे तुरंत अल्मोड़ा पहुँचें ताकि उन्हें बताया जा सके कि इस नए टैक्स से उनके गांव का क्या फायदा हो सकता है. तय तारीख को जब सभी मुखिया वहां पहुंचे तो सभी की बेरहमी से हत्या कर दी गई. इतना ही नहीं, इन सभी मुखियाओं के शवों को उनके गांव भेजा गया ताकि गोरखाओं की दहशत को पूरा क्षेत्र महसूस कर सके.

एटकिंसन लिखते हैं कि उच्च वर्ग के बहुत से लोग तब मैदानों की तरफ निकल भागे. करों का भुगतान न करने वालों को दास बनाकर रुहेलखंड में बेचा जाने लगा. खेतों के जो मालिक किसान लगान चुकाने में असमर्थ रहते थे, या हीलाहवाली करते थे, उन पर कोड़ों की मार पड़ती थी. कभी-कभी तो गांव के बीच में सभी लोगों को बुलाया जाता और सबके सामने उन्हें नंगा कर पीटा जाता. लोगों को पकड़-पकड़ कर रूहेलखंड के बरेली और बहेड़ी के बाजारों में ले जाया जाता और सपरिवार आबाल-वृद्ध रूहेलों, गूजरों, वन-गूजरों, पठानों और डकैतों के हाथ बेच दिया जाता. सुंदर राजपूत स्त्री-पुरूषों को अपने पास रखकर उन्हें व्यक्तिगत उपयोग में लाया जाता और फिर बाद में नेपाल भेज दिया जाता. वहां उन्हें खसिया कहा जाता था. इसी तरह गढ़वाल के लोगों को हरिद्वार में लगी मंडियों में बेच दिया जाता. ईस्ट इंडिया के अधिकारी जेबी फ्रेजर लिखते हैं कि इस दौरान गोरखाओं ने दो लाख से ज्यादा मासूम बच्चों को अपनी मां से अलग कर हरिद्वार की मंडियों में महज दस से डेढ़ सौ रूपये प्रति बच्चे की दर से बेच दिया.

एडविन एटकिंसन अपने गजेटियर में लिखते हैं कि साल 1791 में सेनापति जोगा मल्ल ने कुमाऊं में भू-राजस्व का पहला बंदोबस्त लागू किया. उसने कृषि जमीन पर एक रुपए प्रति एकड़ टैक्स लगाया. इसके साथ ही जिन पुरूषों की उम्र 18 साल से उपर थी, उन्हें भी हर महीना एक रुपए टैक्स देना होता था. जो ब्राह्मण किसान थे, उन पर पांच रुपए टैक्स लगाया जाता. हालांकि ये टैक्स उन ब्राह्मण परिवारों पर ही लगाया जाता था, जिनके खिलाफ मुखबिरों ने ये सूचना दी होती कि वे आजकल राजनीति पर कुछ ज्यादा ही बात कर रहे हैं.

गोरखे कुमाऊँ एवं गढ़वाल का सारा तांबा और सोना- चाँदी लूटकर नेपाल ले गए थे. तांबे के बर्तनों से उन्हें विशेष लगाव था और उनके द्वारा जारी किए गए ताम्रपत्रों में भी विशेष प्रकार का तांबा इस्तेमाल होता था जो सुडौल और वजन में काफी भारी होता. यूरोप के महान यात्री हार्डविक और रेपर ने गोरखाओं के शासन के दौरान गढ़वाल और कुमाऊँ की यात्रा की थी. बाद में उन्होंने अपनी किताब में गोरखाओं के कुकृत्यों का बड़ा ही हृदय विदारक वर्णन लिखा है. इन यात्रियों के अनुसार गोरखे ज़बरदस्ती घरों में घुसकर सारा अनाज लूट ले जाते थे और अगर कोई इनका विरोध करता तो खुखरी से उसकी हत्या कर देते. गढ़वाल में उनके अत्याचार यहां तक बढ़ गए थे कि हजारों लोग भूख से अकाल मौत के मुंह में चले गए. कई सालों तक लोगों ने जंगली तौड़, खिनुवा, तिमुले, हिसालू और कंडाली खाकर जीवन यापन किया.

गढ़वाल पर ब्रिटिश विजय के तुरंत बाद गढ़वाल के गोर्खाली सूबेदारों के शासन के बारे में कुछ जानकारी हमें जेबी फ्रेजर की डायरियों से भी मिलती है. वो लिखते हैं कि गोरखालियों के बारे में शिकायत करते हुए गढ़वाली लोग बहुत तैश में आ जाते हैं. लेकिन इतने अत्याचार झेलने के बाद अब गढ़वालियों की आदतों और उनके विचारों में जो ग़ुलामी आ गई है, उससे लगता है कि उनमें शायद ही कभी प्रतिरोध या आजादी के लिए लड़ने की बात आ पायेगी. गढ़वाल के गांव गोरखालियों द्वारा किए गए विनाश की कहानी कहते हैं. हर तरफ बंजर खेत और खंडहर झोपड़ियां ही दिखाई देती हैं. केवल मंदिरों की जमीन पर अच्छी खेती दिखाई पड़ती है. इस पूरे क्षेत्र को देखकर ऐसा लगता है कि पूरा इलाके ने यु़द्ध की विभीषिका को बुरी तरह झेला है.

ये तो हुए गोरखाओं के वो तमाम अत्याचार जो उन्होंने गढ़वाल और कुमाऊं पर राज करने के दौरान किए. अब लाजमी है कि जब उन्होंने राज किया तो उनकी कोई न्याय व्यवस्था भी रही होगी. न्याय व्यवस्था आम लोगों को दंड देने की एक प्रक्रिया है. जैसे आज के वक्त में भारत में भारतीय दंड संहिता जिसे आईपीसी भी कहते हैं, उसके तहत सजा दी जाती है. उसी तरह गोरखाओं की क्या संहिता थी? प्रो अजय रावत लिखते हैं कि गोरखों की न्याय-प्रणाली कोई सुव्यवस्थित प्रणाली नहीं थी, जैसे कि बाद में अंग्रेजों के समय हुई. गोरखों से पहले चंद राजाओं के समय भी न्यायालय नाम की कोई संस्था तो नहीं थी, लेकिन उस समय पंचायत-प्रणाली चलती थी. चंद-दरबार में महरा और फर्त्याल, इन दो राजपूत दलों को राजा की मान्यता प्राप्त थी. उन्हें श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित नागरिक की ‘पगड़ी’ दी गई थी. वे जो भी फैसला करते थे, उसी के अनुरूप दंड निर्धारित होता था. हालाँकि मृत्यु दंड देने का अधिकार सिर्फ़ राजा को प्राप्त था. लेकिन गोरखों ने चंदों की नकल नहीं की. उनकी न्याय-व्यवस्था प्रांतों में सेना के कमांडर तय करते थे. अल्मोड़ा में उस समय गोरखों की एक अदालत जरूर थी, जिसके जज या न्यायाधीश को ‘विचारी’ कहा जाता था. एटकिंसन के अनुसार, 1805 के एक अदालती पत्र से मालूम चलता है कि किसी भी ‘वाद’ को वादी जब पंचों की अदालत में पेश करता था, तो बैठे हुए पंचों से दारू व बकरे का संकल्प लेकर अपने ऊपर पानी छिड़कवाया जाता था. अदालत शुरू होने से पहले भी दारू और बकरे का प्रबंध भोजन के लिए करना होता था. इसके अलावा अदालत में वादी और प्रतिवादी को बुलाकर उनकी परीक्षा ली जाती थी. अगर किसी गवाह के बयान पर संदेह पैदा होता, तो उसके सिर में महाभारत का एक भाग ‘हरिवंश’ उसे सही-सही कसम खिलाने के लिए रखा जाता था. सही-सही बयान देने के लिए हिंदू गवाह के सिर में ‘हरिवंश’ रखने की यह प्रथा उत्तरवर्ती काल में अंग्रेजों के समय भी प्रचलित रही. जहां चश्मदीद गवाह नहीं मिलते थे, या जमीन जायदाद के झगड़ों में गवाह सच-सच नहीं बता पाते थे, वहां ‘दिव्य’ या ‘दीप’ नाम की अग्नि-परीक्षा होती थी. इसके लिए तीन तरह के ‘दिव्य’ प्रचलित थे –

पहला – गोला दीप. इसमें एक हाथ में गरम लोहे का डंडा पकड़ कर कुछ दूर तक चलना पड़ता था. दूसरा- कढ़ाई दीप. इसमें कढ़ाई में उबलते तेल में हाथ डालना पड़ता था. यदि हाथ जल गया, तो दोषी, और नहीं जला तो निर्दोष. तीसरा – तराजू का दीप. इस दिव्य के जरिए दोषी व्यक्ति को तराजू में पत्थरों से तौला जाता था. तोलने का ये समय शाम के लिए मुकर्रर होता था. जिन पत्थरों से उसे तौला जाता था उन पत्थरों को सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया जाता. अगले दिन सुबह उन्हीं से पुनः दोषी को तौला जाता. अगर दूसरे दिन वह भारी हुआ, तो निर्दोष घोषित होता, और अगर हल्का होता तो दोषी ठहराया जाता.

देहरादून में मौजूद गुरू राम राय दरबार के महंत को भी हत्या के एक जुल्म में कढ़ाई दीप का सामना करना पड़ा, जिससे उनके हाथ जल गए और उन्हें भारी दंड अदा करना पड़ा था. दिव्य-जन्य फैसले को तत्काल दर्शकों के समक्ष एक पर्चे में दर्ज कर दिया जाता था और हारे हुए व्यक्ति से उसकी सम्पत्ति के अनुसार दंड वसूला जाता. व्यवसाय और उत्तराधिकार के मामलों में भी पंचायत बैठती थी जिसमें कागज के दो बराबर टुकड़ों में वादी और प्रतिवादी के नाम लिखकर उन्हें ‘न्याय के देवता’ गोलू के थान या मंदिर में रखा जाता था. इसके बाद लंबी शिखा वाला पुरोहित उनमें से एक को पकड़ता था. जो नाम पहले आ गया वहीं जीतता था. मंदिर में कसम खाने, बच्चे के सिर पर हाथ रखकर कसम खाने या विवादित वस्तु को ही ‘न्याय के देवता’ के मंदिर में रखकर भी फैसले होते थे.

ब्रिटिश कुमाऊँ के दूसरे कमिश्नर जीडब्ल्यू टेल ने भी अपनी किताब में गोरखाओं के न्याय के कई अन्य तरीके बताए हैं. उनके अनुसार सबसे पहला तरीका है ‘तीर-का-दीप.’ इसमें अभियुक्त को पानी के तालाब में अपना सिर तब तक डुबाये रखना पड़ता था जब तक कि दूसरा व्यक्ति छोड़े गए बाण के ठीक पास तक पहुंच कर वापस न आ जाए. दूसरा तरीका उन्होंने बताया है ‘बौं काटि हारया का दीप.’ इसमें गोरखाली सुब्बा पानी से मामला हल करते थे. दोनों पक्षों के ऐसे लड़कों को पानी के कुंड में डुबाया जाता था, जिन्हें तैरना नहीं आता हो. इनमें जो देर तक पानी में रह कर जीवित रहता, वह विजयी घोषित होता. हालांकि इन सभी तरीकों में बहुत कम ही लोग जीवत बच पाते थे. इसके अलावा देश-द्रोह के लिए मौत की सजा मिलती थी और यदि कोई ब्राह्मण किसी की हत्या करता, तो उसका देश-निकाला किया जाता. यह दंड ‘मनुस्मृति’ के अनुरूप था. अन्य अपराध करने पर ब्राह्मण की सम्पत्ति जब्त की जाती थी और जुर्माना भी वसूला जाता था. चोरी में पकड़े गए ब्राह्मण की शिखा काट दी जाती थी और कभी कभी उसकी जनेऊ भी उतार ली जाती थी. गोरखे अपने निजी ब्राह्मणों, मिश्र और उपाध्याय के अलावा कुमाऊँ के अन्य ब्राह्मणों  की कद्र नहीं करते थे. चंदों के समय तो पेड़ पर लटका कर या सिर कलम कर मृत्यु दंड दिया जाता था. लेकिन गोरखों ने अपराधी को सूली पर चढ़ाने के अलावा उसके अंग-भंग द्वारा भी दंडित करने की प्रथा चलाई. गोरखों के समय हर किसी जाति को मौत की सजा का सामना करना पड़ता था. अपराधियों को आतंकित करने के लिए उनके हाथ व नाक काट लिए जाते. किसी महिला से अवैध संबंध रखने पर पुरूष को मौत की सजा मिलती और महिला की नाक काट ली जाती. आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिवार से जुर्माना वसूला जाता. हालांकि चंदों के समय भी कुमाऊँ के समाज में कुछ ऐसी कुप्रथा चली आ रही थी, जिसमें पति का अपनी पत्नी पर पूरा अधिकार माना जाता. अगर कोई अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरूष के साथ देख लेता तो उसे छूट होती कि वो अपनी पत्नी और उस पुरूष की हत्या कर दे और राज्य से उसे कोई दंड नहीं मिलता.

गढ़वाल और कुमाऊँ को गोर्खाणी से मुक्ति तब मिली जब अंग्रेजों के साथ गोरखाओं का युद्ध हुआ. उस वक्त नेपाल में प्रधानमंत्री भीमसेन थापा के संरक्षण में राजकाज चल रहा था. भीमसेन थापा के नेतृत्व में नेपाल ने विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए तराई के पूर्व गोरखपुर में करीब 200 गांवों पर कब्जा कर लिया. इसी को लेकर साल 1814 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध छिड़ गया. कई महीनों चले इस युद्ध का अंतिम मोर्चा देहरादून में खलंगा के किले के लिए लड़ा गया. ये एक ऐतिहासिक युद्ध था जिसमें पांच सौ गोरखा सैनिक किले की पहरेदारी कर रहे थे. इन सैनिकों का नेतृत्व बलभद्र सिंह थापा कर रहा था. मेजर जनरल रॉलो जिलेस्पी ने खलंगा और नालापानी के किलों में एक साथ हमला कर दिया. लेकिन गोरखाओं की खुकरियों की मार से अंग्रेज सेना में भगदड़ मच गई और जनरल जिलेस्पी की मौत हो गई. बाद में तोपों की मदद से अंग्रेजों ने इस अंतिम मोर्चे को भी जीत लिया. इस युद्ध में 420 गोरखा सैनिक मारे गए. गोरखा ये युद्ध हारे जरूर थे, लेकिन दुनिया के युद्ध इतिहास में इसे सबसे खतरनाक युद्ध की श्रेणी में आज भी याद किया जाता है. अंग्रेजों ने भी बाद में इस युद्ध में लड़े सेनापति बलभद्र सिंह थापा और अन्य गोरखा सैनिकों की बहादुरी की याद में खलंगा में ही एक वॉर मेमोरियल बनवाया, जो आज भी यहां मौजूद है.

इसी युद्ध के बाद 27 अप्रैल 1815  को अंग्रेज अधिकारी एडवर्ड गार्डनर, बम शाह, चामू भंडारी और जशमदन थापा के नेतृत्व में अंग्रेजो और गोरखों के बीच संधि हुई जिसे सिगौली की संधि कहा गया. इस संधि के बाद गोरखो का राज गढ़वाल और कुमाऊँ से खत्म हुआ. गढ़वाल को अंग्रेजों ने राजा प्रद्युमन शाह के बेटे सुदर्शन शाह को एक विशेष संधि के साथ सौंप दिया जिसे अलकनंदा की संधि कहा गया. इस संधि की भी एक खास कहानी है. असल में, गोरखों को गढ़वाल से भगाने के बाद अंग्रेजों ने राजा सुदर्शन से युद्ध हर्जाने के रूप में बड़ी रकम मांगी. राजा सुदर्शन शाह यह रक़म चुकाने में असमर्थ थे. लिहाजा, अलकनंदा की संधि के तहत ये तय हुआ कि अब अलकनंदा के पश्चिमी इलाके यानी टिहरी और उत्तरकाशी पर ही राजा का राज रहेगा. जबकि पौड़ी गढ़वाल, चमोली और देहरादून पर अंग्रेज़ी हुकूमत होगी. वहीं कुमाऊँ में गोरखों के जाने के बाद अंग्रेजों ने खुद ही वहां की सत्ता अपने हाथों में ले ली और एडवर्ड गार्डनर वहां के पहले कमिश्नर नियुक्त हुए.

स्क्रिप्ट: मनमीत

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