सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक की कुछ यादें आपके ज़हन में कहीं छिपी होंगी, जब अल्मोड़ा, ऋषिकेश, हल्द्वानी कोटद्वार, पौड़ी, पुरानी टिहरी, या रामनगर के किसी बस अड्डे पर सवारियों से ठसाठस भरी बस में आप, अपने परिवार के साथ गांव जाने के लिये बैठे हों. हो सकता है कि आप मायूस हों कि आपको खिड़की वाली सीट नहीं मिल पाई. उधर आपकी बहन या छोटे भाई का खड़ी बस में ही जी मचलाने लगा हो, क्योंकि बस में कहीं कोई लुक-छुप कर बीड़ी पी रहा था. बस अड्डे की तरफ बेतरतीब-सी लगी हलवाई की दुकान पर आपके पिता बर्फ़ी लेने गए हों और आप बस में बैठकर उस दुकान पर सुर्ख लाल जलेबियों और पेठों पर भिनभिनाती मक्खियों को देख रहे हों. तभी बस में बैठे यात्रियों की चिल्लम-पौं को चीरते हुए आवाज आती है – नारियलें, नारियलें, नारंगी – संतरे, करारी मूंलफली. आपकी मां ने जैसे ही एक रुपए की मूँगफली ली, उतने में बस स्टार्ट हो गई और उसके चलते ही ठंडी हवा का जो झोंका आपके चेहरे से टकराया, उसकी शीतलता के आगे आज की तमाम एसी गाड़ियों की ठंडक फीकी है. ऋषिकेश बस अड्डे से चली बस के यात्रियों को गर्मी से असल राहत आगराखाल में मिलती, तो कोटद्वार से चली बस वालों दुगडडा में.
आज के दौर में कार से सफर करने वाली युवा पीढ़ी शायद उस दौर के रंगों को कभी महसूस न कर सके, जिन रंगों ने उनके माता-पिता और बड़े भाई-बहनों के बीत चुके वक्त के कैनवस पर यादों की कभी न भुलाने वाली तस्वीरें बनाई. ये वो दौर था जब उत्तराखंड के पर्वतीय कस्बों में इक्का-दुक्का मालदारों के पास ही अपनी एंबेसडर कार हुआ करती थी. उस वक्त पूरे उत्तराखंड के समाज को एक दूसरे से जो जोड़ती थी, वो बसें ही थी. जीएमओ, टीजीएमओ और केएमयू सरीखी बस सेवायें ही थी, जो एक गांव से दूसरे गांव समलौण भी पहुंचाती थी और सीमा पर तैनात फ़ौजियों फौजी की चिट्ठी भी. राज्य के दुर्गम पहाड़ों पर तैनात प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूल के टीचर सुबह तय समय पर बसों में चढ़ते और सटीक समय पर स्कूल पहुंच जाते. वो स्कूल में बिना चिंता किए इसलिए तसल्ली से पढ़ा पाते, क्योंकि वो निश्चिंत होते कि निर्धारित समय पर उन्हें लेने बस सर्विस आ जाएगी. हालाँकि उनकी ये बेचैनी तब जवाब देने लगती जब आखिरी पीरियड के बीच में ही बस का हॉर्न दूर किसी धार से सुनाई पड़ जाता. तब आनन-फानन में बच्चे टाट-पट्टी उठाते और बाहर लगे मास्साब के टेबल-चेयर अंदर स्कूल में बंद कर दिए जाते.
उत्तराखंड में बस सेवाएँ भले ही आज दम तोड़ने लगी हों, लेकिन किसी दौर में ये पहाड़ी समाज की धमनियों में अनिवार्य जरूरत की तरह थी. न केवल समाज, बल्कि सांस्कृतिक विरासत के विस्तार और आंदोलनों को मज़बूती देने में भी इन्हीं बसों ने उल्लेखनीय योगदान दिया है. तभी तो इन बसों पर तमाम उपमाओं से सुसज्जित दर्जनों लोकगीत बने हैं और कविताएँ रची गई हैं. लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का वो चर्चित गीत ‘चली भै मोटर चली, सरा रारा प्वां प्वां’ भला कौन भूल पाया होगा. इस एक ही गीत में नेगी जी ने बस के भीतर पूरे उत्तराखंड के समाज को समायोजित कर लिया था.
आज हम आपको इन्हीं ऐतिहासिक बस सेवाओं की एक इतिहास यात्रा पर ले चलेंगे. ये बस सेवाएँ कैसे शुरू हुई और कैसे इसने पूरी आधी सदी तक पहाड़ों में एक गांव से दूसरे गांव के दुख-सुख साझा किए. कभी सीमा पर तैनात बेटे की चिट्ठी को उसकी मां तक पहुंचाकर मुरझाए हुए चेहरे पर ख़ुशियाँ बिखेरी, तो कभी मनी ऑर्डर पहुँचाकर वो बूढ़े बाप की लाठी बन गई. एक ऐसी बस सेवा, जिसने उत्तराखंड आंदोलन की गति बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बग़ावती सुर अपनाते हुए सबसे पहले इन्हीं बसों पर ‘उत्तराखंड सरकार’ लिख कर पृथक राज्य आंदोलन का बिगुल फूंक दिया गया था.
इस वीडियो की शुरुआत में हम आपको 70 के दशक की कुछ स्मृतियों में ले गए थे. हालांकि उत्तराखंड में बसों का ये सफर इससे भी करीब तीस साल पहले, यानी चालीस के दशक में शुरू हो गया था. इस शुरुआत की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. उत्तराखंड में सबसे पुरानी संगठित बस सेवा केमू यानी ‘कुमाऊं मोटर ओनर्स यूनियन लिमिटेड’ थी. केमू की शुरुआत इसलिए भी गढ़वाल की बस सेवाओं से पहले हो गई थी, क्योंकि कुमाऊँ क्षेत्र में अंग्रेजों ने सड़कों का विस्तार 20 वीं सदी की शुरुआत में ही कर दिया था. काठगोदाम से नैनीताल की ओर मोटर मार्ग बनाए जाने की शुरुआत 1911 में ही हो गई थी और साल 1915 में इसी मार्ग पर कुमाऊं की पहली यातायात सेवा शुरू हुई. इसके पांच साल बाद यानी 1920 में मुंशी लालता प्रसाद टम्टा ने हिल मोटर्स ट्रांसपोर्ट कंपनी की शुरुआत. इसके अंतर्गत हल्द्वानी और काठगोदाम से अल्मोड़ा और रानीखेत तक लॉरियाँ चलने लगी. फिर साल 1922 में ‘द कुमाऊँ मोटर सर्विस कंपनी’ के साथ ही ‘ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन कंपनी’ और ‘नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी’ की भी स्थापना हो गई. पर्वतीय मार्गों पर उस दौर में सबसे पहले पेट्रोल इंजन वाली ‘आधा टन’ लॉरी चलती थी. असल में इस वाहन की भार क्षमता आधा टन होती थी, इसलिए स्थानीय बोल-चाल में इसका नाम ही ‘आधा टन’ ही पड़ गया. ये गाड़ी न तो बस थी और न ही कार. इसके टायर ठोस रबर के होते थे. उस वक्त तक आज की तरह ट्यूब वाले या ट्यूबलेस टायर नहीं हुआ करते थे. ये वाहनों के अविष्कार का भी शुरुआती दौर ही था. इसलिए आज की तुलना में इन वाहनों का डिज़ाइन कुछ अजीब होता था. इस आधे टन की अधिकतम गति सीमा सिर्फ़ 12 किलोमीटर प्रति घंटा थी. साल 1920 तक एक टन की पेट्रोल से चलने वाली लेलैंड लॉरी चलना शुरू हुईं. इसमें ड्राइवर और कंडक्टर सहित कुल 12 लोग बैठ सकते थे. अब टायर भी हवा से भरी ट्यूब वाले होने लगे थे.
इसी रूट पर 1920 से 1938 तक डेढ़ टन की शेवरले लॉरी चलने लगीं. इन गाड़ियों में 18 लोग बैठ सकते थे. इन सवारी गाड़ियों में 42 मन भार की अनुमति होती थी. फिर 1938 में दो टन की मोटर गाड़ियों के संचालन की अनुमति दी गई और कुछ समय बाद 44 लोगों को ले जाने की अनुमति मिली. साल 1936 तक पूरे कुमाऊँ में 13 बस कंपनियां अस्तित्व में आ चुकी थी. लेकिन आपसी प्रतिस्पर्द्धा के चलते इनमें से अधिकांश कंपनियाँ डूबने लगी. ऐसे में साल 1939 में इन 13 कंपनियों का विलय हुआ और ‘कुमाऊं मोटर्स ओनर्स यूनियन लिमिटेड’ अस्तित्व में आई जो फिर अगले सत्तर सालों तक कुमाऊं के सभी जिलों और दूरस्थ गांवों के समाज का अभिन्न अंग बन गई. इसमें सबसे दूरस्थ ज़िले पिथौरागढ़ में सम्भवतः 1951 में पहली बस पहुंची. पहले टनकपुर से पिथौरागढ़ के लिए पैदल ही जाया जाता था और इसमें तीन दिन का समय लगता है. पहाड़ में प्रकाशित अपने लेख ‘मेरा सोर-कुछ यादों’ में भवानी दत्त खर्कवाल लिखते हैं कि ‘टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग 1950-51 में बनकर तैयार हुआ. स्थानीय लोगों में भारी उत्साह था. जबकि अल्मोड़ा से पिथौरागढ़ सड़क मार्ग तो इससे भी देर में बना.’
गढ़वाल क्षेत्र की बात करें तो यहां साल 1939 में बस कंपनियों के संचालन की शुरुआत तब हुई जब कोटद्वार-सतपुली और पौड़ी के बीच सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ. ये वो दौर भी था जब बसों में तीन तरह की सीटें हुआ करती थी. जैसे आज के वक्त में हवाई जहाज में दो श्रेणियाँ होती हैं, वैसे ही कभी इन बसों में भी हुआ करती थी. बल्कि इनमें दो नहीं, तीन श्रेणियाँ हुआ करती थी. ड्राइवर के बिल्कुल पीछे की एक पंक्ति को फर्स्ट क्लास कहते थे. इसे वीआईपी सीट भी कह सकते हैं क्योंकि इस पंक्ति में सिर्फ़ एक ही सीट हुआ करती थी. इसका टिकट सबसे महँगा होता था और इसे लेने वाला अक्सर बस से उतर कर इसका टिकट अपने कुर्ते की जेब में आधा बाहर इसलिए रखा करता था समाज में अपना आर्थिक रुतबा दिखा सके. ठीक वैसे ही जैसे इन दिनों कई लोग हवाई यात्रा करने के बाद अपने बैग पर लगी एयरलाइन की चिप्पी को कई-कई दिनों तक लगा रहने देते हैं.
फर्स्ट क्लास के बाद पीछे की दो पंक्तियों में सीट दूसरी दर्जे की होती थी. पहली और दूसरे दर्जे की सीटों के बीच में एक जाली होती थी जो दोनों श्रेणियों को विभाजित करती थी. इन सब के पीछे होती थी कथित ‘कैटल क्लास’ यानी तीसरे दर्जे की सीट जो लकड़ी के फट्टों से बनी होती थी. इसमें यात्री आमने-सामने एक दूसरे की तरफ मुंह करके बैठते थे और बीच में उनका सामान रखा होता था. इस तीसरे दर्जे की यात्रा में सवारियों को बेहिसाब ठूस दिया जाता था. कई बार तो उसमें बकरियां, कुत्ते और छोटी बछड़ियां तक यात्रियों के साथ सवारी करती थी.
पहले-पहल जब किसी कस्बे या गांव में बस पहुँचती तो कई दिलचस्प वाक़ये होते. ऐसा ही एक वाक़या कोटद्वार-पौड़ी मोटर मार्ग का भी है. यूं तो इस मोटर मार्ग का निर्माण 1930 के दशक में ही पूरा कर लिया गया था. लेकिन तब इस पर सिर्फ़ अंग्रेज अधिकारियों के ही वाहन चला करते थे. नियम इतने सख़्त थे कि किसी स्थानीय भारतीय को इस सड़क पर पैदल चलने की भी अनुमति नहीं थी. लेकिन साल 1942 में जब पूरे देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो अंग्रेजों की सामंतवादी ठसक कुछ कम हुई. तब उन्होंने कोटद्वार से दुगडडा होते हुए पौड़ी तक के मोटर मार्ग पर निजी वाहन चलाने की अनुमति दे दी. लेकिन दिक्कत ये थी कि उस दौर में किसी के पास निजी वाहन होते ही नहीं थे तो चलते क्या? तब दुगडडा के बड़े व्यापारी मोती राम और कोटद्वार के सेठ सूरजमल ने मिलकर एक लॉरी खरीदी. लेकिन इस लॉरी को ख़रीदने से भी समस्या का समाधान नहीं हुआ. क्योंकि पहाड़ों के कच्चे रास्ते पर लॉरी चलाने के लिए कोई ड्राइवर तैयार ही नहीं हुआ. ऐसे में पौड़ी के ब्यासू गांव के राजा राम मलासी सामने आए और उन्होंने इस लॉरी को कोटद्वार से पौड़ी तक पहुंचाया. वे उस वक्त इस पूरे क्षेत्र के इकलौते ड्राइवर थे जो मैदानों में अंग्रेजों के वाहन चलाया करते थे.
1940 के दशक में जब पहली बार ये बस सर्विस कोटद्वार से पौड़ी के लिए रवाना हुई तो एक रात उसे सतपुली बाजार में रोका गया. वो इसलिये कि बस महज 15 से बीस किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से ही चल सकती थी. ऐसे में गंतव्य तक पहुंचने में कई बार दो-दो दिन लग जाते थे. कई बार तो बस में बैठी सवारियों को आधे रास्ते में कहीं धर्मशाला और कहीं किसी अन्य आश्रय में रात बितानी होती. अब सतपुली में हुआ ये कि जहां पर बस को खड़ा किया गया, वहां बड़ी संख्या में आसपास के गांव से लोग बस को देखने पहुंच गए. बताते हैं कि इनमें से कुछ महिलाओं ने तो बस के आगे हरी घास और पानी की बाल्टियां रख दी थी. ये कहते हुए कि बहुत दूर से आई है बेचारी, थक गई होगी. ऐसे ही क़िस्से पौड़ी में भी हुए.
बहरहाल, इसके कुछ समय बाद कोटद्वार निवासी रामशरण माहेश्वरी, चौधरी राजाराम, लाला मक्खन लाल, जीएच सैमुअल, प्रयाग दत्त धस्माना, ईएच सैमुअल और पण्डित छाजूराम ने एक यातायात कंपनी शुरू की. कंपनी के पंजीकरण के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पूर्व सांसद प्रताप सिंह नेगी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल लखनऊ गया. कंपनी का रजिस्ट्रेशन संभव न होने पर शिष्टमंडल तत्कालीन प्रीमियर गोविन्द बल्लभ पंत के पास पहुंचा और उनके निर्देश पर जीएमओयू लिमिटेड को पंजीकृत कर लिया गया. जीएमओयू लिमिटेड यानी ‘गढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन लिमिटेड.’
जनरल मैनेजर ऊमा नंद बड़थ्वाल के निर्देशन पर 11 अगस्त 1942 से इस कंपनी ने कार्य शुरू कर दिया. शुरुआत में कंपनी के पास 16 सीटों वाली 18 बसें थीं. 1944 और 45 में कुछ सदस्यों ने ‘गढ़वाल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी’ का गठन किया, जिसे बाद में ‘गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन लिमिटेडड’ में ही शामिल कर लिया गया. 16 सितंबर 1947 को जब इस कंपनी का पुनर्गठन किया गया, तब तक इसमें 22 सीट वाली 110 बसें शामिल हो चुकी थी. 1954 में कंपनी की बसों की संख्या 172 हो गई और वर्तमान में कंपनी के पास 423 बसों का बेड़ा है.
कोटद्वार यातायात कंपनी जीएमओयू ने 1973 और 74 में एक करोड़ का व्यवसाय कर कीर्तिमान स्थापित किया था. दूसरा कीर्तिमान 1994 में इसने दस करोड़ का व्यवसाय कर बनाया. लेकिन कंपनी का 75 वर्षों का सफर हमेशा खुशनुमा भी नहीं रहा. साल 1951 में नयार नदी में आई भीषण बाढ़ में कंपनी के सदस्यों की 22 बसें बह गई थी. चालक-परिचालकों समेत 32 व्यक्ति अकाल मौत का शिकार हुए. इसी तरह की देवीय आपदा का सामना कंपनी को 1970 में बेलाकूची में भी करना पड़ा था, जहां अलकनंदा में आई बाढ़ कंपनी के नौ वाहन बहा ले गई. 2013 की केदारनाथ आपदा में भी जीएमओयू को खासा नुकसान झेलना पड़ा था.
उधर, फट्टों वाली सीट से शुरू हुई बदरीनाथ यात्रा का इतिहास भी 64 साल पुराना है. उस समय टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह ने 1947 में पहाड़ की सड़कों पर चार बसों को चलाने की राजाज्ञा दी. हालांकि इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल अपनी किताब ‘टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दो’ में लिखते हैं कि दिसंबर 1939 तक नरेंद्र नगर से आगे और टिहरी से 12 किलोमीटर पहले, चंबा तक मोटर गाड़ियां चलने लगी थी. 16 अप्रैल 1940 को पहली बार मोटर गाड़ी टिहरी पहुंची. टिहरी में भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम पर मौजूद पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था. लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया. इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेंदु शाह कार ड्राइव कर टिहरी बाजार होते हुए राजमहल पहुंचे थे.
इन मार्गों पर सबसे पहले सहारनपुर के ‘जंग ब्रदर्स’ ने अपनी बसें चलाई. पहले जंग ब्रदर्स’ ने ऋषिकेश से नरेंद्र नगर और ऋषिकेश से देवप्रयाग तक बसें संचालित की. बद्रीनाथ और केदारनाथ जाने वाली यात्री भी इन्हीं बसों से देवप्रयाग तक पहुंचते थे. ऋषिकेश से देवप्रयाग तक के महज सत्तर किलोमीटर के सफर को पूरा करने में ये बस एक पूरा दिन लगाती थी. बाद में कीर्तिनगर तक रोड बनी तो बसें वहां तक पहुँचने लगी. उधर जंग ब्रदर्स की बसें टिहरी राजा से राजाज्ञा प्राप्त करने के बाद चंबा तक भी आने लगी थी. 1942 में जब बाबा नागार्जुन तिब्बत के प्रसिद्ध बौद्ध मठ थोलिंग की यात्रा पर गए तो उन्होंने ऋषिकेश से टिहरी तक लॉरी में सफर किया था. उनका एक यात्रा वृतांत जो पहाड़ में भी प्रकाशित हुआ, उसमें वे लिखते हैं,
‘टिहरी के लिए लॉरी मिलने में दिक्कत इसलिये हुई क्योंकि पेट्रोल की कमी के कारण बस सर्विस अनियमित हो गई थी. साढ़े चार रूपया बस का किराया था. हम आगे की सीट पर बैठे कि नज़ारे देखते हुए चलेंगे. कुछ दूर आगे बढ़ने पर नरेंद्र नगर दिखाई देने लगा. ऊंची-नीची, टेढ़ी-मेढी पहाड़ियों की परिक्रमा करती हुई हमारी लॉरी शाम को टिहरी पहुंची. ऋषिकेश यहां से अस्सी किलोमीटर पीछे रह गया था. टिहरी की आबादी मुश्किल से दो हजार रही होगी. शिक्षा का अनुपात बहुत पिछड़ा हुआ है. मुझे गढ़वालियों की जिस नवचेतना का परिचय ब्रिटिश गढ़वाल में मिला, वह इस रियासती गढ़वालियों में नहीं मिला.’
1950 के दशक में जंग ब्रदर्स के साथ कुछ अन्य मोटर मालिक जुड़े और 14 मार्च 1953 को ‘टिहरी गढ़वाल मोटर्स ओनर्स’ यानी TGMO की शुरुआत हुई. इस कंपनी के पहले अध्यक्ष बने सहारनपुर के जगत प्रसाद. चारधाम यात्रा की पहली बस सेवा को शुरू करने का कीर्तिमान भी टीजीएमओ के खाते में ही दर्ज है.
आज के वक्त में बसों का संचालन कम हो गया है. अब लोगों के पास अपने निजी वाहन हैं और बसों में बैठकर सफर करने का धैर्य भी कम ही बचा है. काफी हद तक टैक्सी-मैक्स ने भी बसों के व्यापार को सीमित कर दिया है. इसलिए पहाड़ के कई रूट्स पर बसों का संचालन बंद ही हो गया. किसी जमाने में गांव के लोग बसों के आने पर समय का अंदाजा लगाते थे, क्योंकि अधिकांश घरों में घड़ियाँ नहीं होती थी. आज वो ही समय का आभास कराने वाली बसें, वक्त के आगे दम तोड़ने लगी हैं और पीछे रह गई है हमारे और आपके बचपन की धुंधली-सी वो यादें, जो हमने गांव जाते वक्त बसों के सफर में संजोई थी.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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