‘जाति है कि, जाती नहीं.’ जाति व्यवस्था का ये सच जितना देश भर में लागू होता है, उतना ही उत्तराखंड में भी. जब कभी लगता है कि समाज प्रगतिशील हो गया है, तभी अखबार में खबर पढ़ने को मिलती है, जिसका शीर्षक होता है, ‘वोटों को साधने के लिए ठाकुर बनेगा सीएम तो प्रदेश अध्यक्ष बनेगा ब्राह्मण.’ ऐसी खबरें पढ़ते ही दिल टूट सा जाता है. ऐसा भी नहीं है कि सभी की सोच दक़ियानूसी है. नई पीढ़ियों में जाति की श्रेष्ठता से ज्यादा कॉमन-सेंस की श्रेष्ठता ट्रेंड करने लगी है. लोगों को समझ आने लगा है कि पढ़ाई करके कोई भी बौद्धिक बन सकता है, कसरत करके कोई भी बलवान बन सकता है और सांस्कृतिक वाद्य यंत्रों को अगर सबने मिलकर नहीं संजोया, तो फिर आने वाले दिनों के शुभ-कार्यों में यू-ट्यूब से बरातियों को नचाने की नौबत आ जायेगी. क्योंकि गाने और बजाने वाला तो कोई होगा नहीं. अब सवाल ये उठता है कि जिस जाति ने यहां के समाजिक ताने-बाने में इतनी गहरी पैठ बनाई हुई है, वो जाति व्यवस्था उत्तराखंड में कब आई, क्यों आई और वक्त के साथ उसकी जड़े इतनी गहरी क्यों हो गई? आइए आज हम तमाम इतिहासकारों और शोधकार्यों का हवाला देते हुए आपको बताते हैं कि उत्तराखंड में जाति व्यवस्था का पूरा तानाबाना आखिर कैसे बना.
उत्तराखंड में जाति व्यवस्था कोई पौराणिक काल से नहीं चल रही है. उसका इतिहास लगभग 700 से 800 साल पुराना भर है. ये तो प्रमाणिक तथ्य है कि आदि गुरू शंकराचार्य आठवीं सदी में जब वैष्णव धर्म का पुनरुद्धार करने उत्तराखंड आए, तब तक यहां जाति व्यवस्था नहीं थी. उस काल-खंड में यहां पर सबसे बड़े आराध्य शिव थे, जिनको मानने वाले शैव कहलाये. शंकराचार्य के आने से पहले उत्तराखंड में विभिन्न मानव समूहों के आपसी संघर्षों का दौर था. कोल, किरात और खसों के आपसी संघर्ष के बाद खस मानव समूह यहां पर सबसे बड़ा विजेता बनकर उभरा था. उससे पहले के तमाम मानव समूह खसों के साथ सांस्कृतिक गठबंधन कर चुके थे. जो मानव समूह विजेता होता था, वो ही अपने को श्रेष्ठ समझता था. उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल के अनुसार, उत्तराखंड की सबसे पुरानी या पुरा प्रजाति कोल थी. इस प्रजाति के बारे में उल्लेख वाण भट्ट और कालीदास के काव्य-ग्रंथों में भी मिलता है. पुरा साहित्य में इन्हें मुंड और सवर नाम से संबोधित किया गया है. कोलों के बाद उत्तराखंड में आई किरात प्रजाति, जिसे कीर, किन्नर और किर-पुरूष के नाम से भी जाना जाता है. स्कंद पुराण के केदार खंड में इन्हें भिल्ल नाम से जाना गया है. हालांकि प्रसिद्ध इतिहासकार जार्ज ग्रियूसन के अनुसार, उत्तराखंड में सबसे पुरानी प्रजाति कोल न होकर किरात ही है. इन प्रजातियों पर एक विस्तृत रिपोर्ट जल्द ही बारामासा पर आप देखेंगे. इसलिये फिलहाल हम आगे बढ़ते हैं. अभी इतना जान लेते हैं कि ये ही शिव के सबसे पुराने आराध्य माने गये हैं. शिव के साथ ही नरसिंह और भैरो देवता भी इनके आराध्य थे. उत्तराखंड में मौजूदा शिल्पकार जाति, इन्हीं की वंशज मानी जाती है. इसके बाद उत्तराखंड में आया खस मानव समूह. अब खस कौन थे, इसके बारे में हम पूरा एक कार्यक्रम हाईलैंडर्स सिरीज़ में कर चुके हैं, जिसका लिंक नीचे डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.
कुल मिलाकर 11वीं और 12वीं सदी तक उत्तराखंड बिना जाति या वर्ण व्यवस्था वाला समाज था. जो मुख्य धर्म था, वो था बौन, बौद्ध और शैव. उस समय का कत्यूरी राजवंश खुद बौन धर्म को मानने वाला था. आदि गुरू शंकराचार्य के यहां आने पर कत्यूरी भी उनसे प्रभावित हुए और हिंदू धर्म अपनाने के साथ ही उन्होंने दक्षिण भारत के ब्राह्मण परिवारों को यहां जागीरें दी. लेकिन जाति व्यवस्था अभी भी यहां नहीं आई थी. इसकी आमद हुई कुमाऊँ में चंद राजवंश और गढ़वाल में पंवार राजवंश की शुरुआत के साथ. इसी दौरान यहां पर बाहर से कई राजपूत और ब्राह्मण जातियां आई, जिन्होंने अपने को श्रेष्ठ माना और खसों, कोल और किरातों को अपने से नीचे. लेकिन दिलचस्प तथ्य ये भी है कि जब तक ये दोनों कथित उच्च जातियां उत्तराखंड में नहीं आई थी, तब तक खस किरातों को दास समझते थे. लेकिन वो उनसे अछूता व्यवहार नहीं करते थे. हालांकि वो उनकी सभी जमीनों पर कब्जा कर चुके थे. ऐसे में कोल और किरात खेती के लिए खसों की जमीन पर आश्रित थे. लेकिन जब उत्तराखंड में ब्राह्मण और राजपूत जातियां राजपरिवारों के साथ आई तो इन्होंने कोल, किरात और खसों को एक ही नजर से देखा. लेकिन खसों के पास जमीनों का अधिकार था और छोटी मोटी रियासतों के वो राजा भी थे, लिहाजा इसी हनक के चलते वो अपने को श्रेष्ठ समझते थे. फिर राज्य स्थापित करने के लिए राजा को उनकी जरूरत भी थी. लिहाजा, उच्च जातियों ने उनसे संबंध स्थापित करने में गुरेज नहीं किया. जबकि जमीन विहीन कोल और किरात को उन्होंने शूद्र माना और कालांतर में धार्मिक कर्म-कांडों का हवाला देते हुए उनसे अछूता व्यवहार करने लगे. ब्राह्मण और राजपूत जातियां भी एक दूसरे को पूरा सम्मान देती हों, ऐसा भी नहीं था क्योंकि इनमें भी आपस में जातिगत श्रेष्ठता का बोध था. ये जातिगत श्रेष्ठता कैसी थी, इसके लिये आपको इन कथित उच्च जातियों का वर्गीकरण समझना होगा.
असल में, गढ़वाल के ब्राह्मणों की जातियां तीन भागों में बांटी जाती हैं. पहले सरोला, दूसरे गंगाड़ी और तीसरे खस ब्राह्मण. किसी समय में जातिगत श्रेष्ठता सरोला और गंगाड़ी में सबसे ज्यादा थी. गढ़वाल का इतिहास लिखने वाले और टिहरी राज दरबार में वजीर रहे पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी अपनी प्रसिद्ध किताब गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि सरोला और गंगाड़ी ब्राह्मण मूल रूप से उत्तराखंड में बाहर से आए. वे लिखते हैं कि गढ़वाल में 12वीं सदी में जब राजा कनक पाल के साथ ब्राह्मण यहां आए तो इनमें से कुछ परिवार हिमालय के निकट यानी सात हजार फीट की उंचाई से उपर बसे, जबकि कुछ परिवार नदियों के किनारे बसे. जो नदियों के किनारे बसे उन्हें सामान्य बोल चाल की भाषा में गंगाड़ी कहा गया. गंगाड़ी इसलिये क्योंकि वे गंगा या उसकी सहायक नदियों के किनारे बस गए थे.
पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी ये भी तर्क देते है कि ऐसा नहीं है कि नदियों के किनारे बाहर से आकर बस गये ब्राह्मणों को ही गंगाड़ी कहते हैं. जोशीमठ पैनखंडा से नीचे रहने वाले भोटिया जनजाति के लोगों को भी गंगाड़ी कहा जाता है. गंगाड़ी सम्भवतः किसी जाति विशेष के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द न होकर भूगोल से जुड़ा हुआ है. वैसे, गंगाड़ी और सरोला ब्राह्मणों के गोत्र भी एक हैं और धार्मिक-लौकिक रिवाज भी एक ही हैं. इनमें अंतर बस ये है कि सरोला जाति का पकाया हुआ खाना सब जातियां खा लेती हैं, जबकि गंगाड़ी ब्राहमणों का पकाया हुआ खाना उनकी रिश्तेदारी, खस राजपूत और कुछ जाति क्षत्रियों की भी खा लेती है. इस भेद का कारण यह भी दिखलाया गया है कि सरोला जाति ब्राह्मणों के वह गांव, जिनमें पहले पहल उनके मूल पुरूष लोग आकर बसे थे, वो गांव राजा के ज्यादा पास थे. लिहाजा, उन्हें राज परिवार का खाना बनाने का भी मौका मिला. इसलिये वक्त के साथ उनके अंदर ये श्रेष्ठता आ गई कि हम ब्राह्मणों में भी ऊँचे हैं. जबकि इन्हीं ब्राह्मणों के गांवों से कुछ ब्राह्मण जब नदियों के किनारे बसे तो उन्हें राज्य परिवार का खाना बनाने का मौका नहीं मिला. गंगाड़ी और सरोला ब्राह्मणों की मूल जाति एक ही थी, जिसके बारे में पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि राजा कनक पाल के साथ आए सभी ब्राह्मणों के गांव चांदपुर परगने में चांदपुरगढ़ के आसपास मौजूद हैं. ये सब जातियां जो पहले पहल 12 जातियां थी, चांदपुर गढ़ के सूर्यवंशी राजा भानु प्रताप के गुरू पुरोहितों में शामिल थी. इनके हाथ का पकाया हुआ भोजन राजा और उनकी प्रजा सब खाते थे. इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल अपनी किताब गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि राजा कनक पाल जब गढ़वाल आए थे तो उनके साथ 12 ब्राह्मणों की जातियां भी आई थी. इनमें से कुछ तो गुरू पुरोहित और नाते रिश्तेदार थे. इन सभी को राजधानी चांदपुर-गढ़ के आसपास ही चांदपुर परगने में रहने के लिये गांव दिये थे. बाद में जैसे जैसे पंवारों का राज्य गढ़वाल में फैलता गया, ये जातियां भी राज्य भर में फैल गई. पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी के अनुसार, गंगाड़ी ब्राह्मण राजधानी से दूर रहते थे, ऐसे में राजपरिवार को कभी उनके हाथों से बना खाना नहीं मिला होगा, इसलिये ये परंपरा शुरू हुई. यानी सरोला और गंगाड़ी ब्राह्मणों में महज एक अंतर है और वो है भात और दाल पकाने का. बाकि सामाजिक और धार्मिक रिवाज एक ही हैं.
पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी अपनी किताब में सरोला ब्राह्मणोंकी एक सूचि भी देते हैं जिसके अनुसार, गौड़ जाति यहां की प्रारंभिक जातियों में से थी. इस जाति के सबसे पहले व्यक्ति देवीदास गौड़ या नीलकंठ गौड़ 888 ईसवीं में धार मालवा से राजा कनक पाल के साथ बतौर राज-गुरू आए थे. आने वाले दशकों में जब देवी दास की पीढ़ियाँ अलग अलग गांवों में बसी तो उनकी छह जातियां बनी. इसमें नौटी में बसने वाले बने नौटियाल. इसी तरह ढंगाण, पल्याल, मंजखोला, गजल्डी, चांदपुरी और बौसोली जाति बनी. कुल मिलाकर मतलब ये हुआ कि गौड़ जाति के इन परिवारों ने अब अपनी मूल जाति गौड़ को छोड़कर अपने गांव के नाम जाति के तौर पर अपना लिए.
इसी तरह बंगाल से 918 ईस्वीं में आए रूपचंद त्रयम्बक आद्यगौड़, मैटवाणा गांव में बसे तो मैटवाणी कहलाये. वीरभूम बंगाल से गणपति आद्यगौड़, सेमल्टा गांव में बसे तो सेमल्टी जाति बनी. आद्यगौड़ जाति के ही जया नंद और विजया नंद आद्यगौड़ आए तो बंगाल से ही थे, लेकिन जब गैरोली गांव में बसे तो गैरोला हो गए. धरणीधर, हरमी और बिरमी द्राविड चमोला गांव में बसे तो चमोली कहलाए. इसी तरह कान्यबुज से मूल पुरूष कर्णजित डोभा गांव में बसे तो डोभाल जाति अस्तित्व में आई. अब कई डोभाल लोग ख़ुद को डोवल भी लिखने लगे हैं. जैसे कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल. जानकार बताते हैं कि ऐसा तब से हुआ जब एक अंग्रेज़ अफ़सर ने किसी डोभाल का नाम लिखते हुए डोवल लिख दिया. तब से डोवल भी एक तरह से एक नई जाति बन गई.
बाक़ी थपलियाल, ड्यूँडी, डिमरी, भद्वाल, डंगवाल, बुधाणा, उन्याल, जैस्वाल, सिलौडा, मालीवाल, जसोला, भटट, कैलाखोरा, धम्म्वाण, नैन्याल, खंडूडी, रतूड़ी, सेमवाल, नौनी, हटवाल, कौट्याल, सति, बिजल्वाण, लखेड़ा, कंडवाल, मालगुडी, चौक्याल, मराडूड़ी और पुज्यारी, मैराव के जोशी और श्रीगुरू थे. ये सभी जातियां 888 से 1755 ईं तक उत्तराखंड में आई हैं. इसमें सबसे नई पुज्यारी जाति दक्षिण भारत से 1765 ईं में टिहरी जिले में चंद्रबदनी माता की पूजा करने आई और मैराव के जोशी 1755 में कुमाउं में कान्यकुब्ज से आए. कुल मिलाकर उत्तराखंड में जितनी भी सरोला जातियां हैं, उनके पुरखे सबसे पहले 12 थात यानी नौटी, मैटवाणा, खंडूडा, रतूड़ा, थापली, चमोला, सेमा, लखेसी या लखेड़ी, सेमल्टा, सिरगुरौ, कोटी और डिम्मर गांव में बसे.
हालांकि कुछ इतिहासकारों ने नौवां गांव सेमल्टा के बजाये गैरोली भी बताया है. इसमें एक रोचन इतिहास पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी की किताब में मिलता है कि जब राजा महीपति शाह ने 15वीं या 16वीं शताब्दी में तिब्बत पर हमला किया तो उनकी सेना को एक दर्रे में दुश्मन सेना ने रोक लिया. उसी दर्रे में कई महीनों तक युद्ध होता रहा. जब खाना बनाने वाले सरोला जाति के लोग नहीं बचे तो राजा ने कई गंगाड़ी ब्राह्मणों को सरोला ब्राह्मणों में शामिल कर लिया. लेकिन जब वे भी नहीं बचे तो राजा ने घोषणा कर दी कि आज से रोटी चोखी हो गई. राजा ने राजाज्ञा जारी की कि बिना चौका और बिना कपड़े उतारे सब लोग खाना खायें. उस काल में सरोला जातियों की संख्या 12 से 29 और फिर 29 से 33 हो गई. इस समय गंगाड़ी ब्राह्मणों में मुख्य रूप से बुघाणा, डंगवाल, डोभाल, उनियाल, घिल्डियाल, नैथाणी, जुयाल, सकलानी, जोशी, तेवाड़ी, पैन्यूली, चंदोला, ढौंडियाल, नौडियाल, ममगाईं, बड़थ्वाल, कुकरेती, धसमाना, कैंथोला, सुयाल, बंगवाल, अंथवाल, बौखंडी, जुगरान, मालकोटी, बलोदी, घनसाला, मदवाल, देवरानी, पोखरियाल, डबराल, सुंद्रियाल, कलसी, किमोटी, कवि, पूर्विया, कुठारी या कोठारी, बडोला, पांथरी, बलोणी, पुरोहित, बडोनी, रूड़ोला, सुन्याल, कोटनाला, काला, कौंस्वाल, वैरागी, मालसी, फरासी, बदाणी, कोटवाल, कुड़ियाल, भटट, बौड़ाई, बिजोला, मैकोटी, गोदूड़ा, भदोला, मुसुड़ा, व्यासुडी, सिल्वाल, मिस्सर, मुन्नाद्यूली हैं. 12 मूल परिवारों से अलग हुई इन जातियों के नाम बाद में इनके भूगोल के हिसाब से बदले. उदाहरण के तौर पर डोभाल जाति सरोला भी हैं और गंगाड़ी भी. इसी तरह कई अन्य जातियां भी दोनों ही जगह हैं. कई जातियां तो गंगाड़ी भी हैं और बद्रीनाथ के पंडे भी. अब पंडे कौन हैं इसे भी समझ लेते हैं. असल में, इन सभी जातियों के अतिरिक्त देवप्रयाग के पण्डों की जातियां अलग हैं. इनमें मालिया, टोडरिया, कोटियाल, पुरोहित, ध्यानी, अर्जुन्या, पल्याल, वावलिया, अलखणियां, रैवानी, तिवाड़ी, भटट, द्राविड, कर्नाटक, तैलंग, महाराष्ट, गुजराती और ज्योशी हैं. इन जातियों में धर्मपुत्र और घरजवाईं बनने के कारण कुछ और जातियां शामिल हुई. जिसमें डोभाल, डंगवाल, नौटियाल, खंडूडी, बुघाणा, मिस्सर, उन्याल, खुग्स्याल, डबराल, थपलियाल और बलोणी मुख्य हैं. कुछ जातियां कुमाऊँ से भी आई. जो श्रीनगर, टिहरी और बधाण परगने में बसी. इन जातियों को गढ़वाल में बसे हुए दो से तीन शताब्दी ही हुई हैं. इनमें मुख्य रूप से पाण्डे, पंत, मिस्सर, तिवाड़ी, जोशी, जोगड़ी हैं. ये जातियां क्योंकि गढ़वाल के हिसाब से पूरब दिशा से आई थी, लिहाजा इन्हें पुर्बिया भी कहा गया. पुराने लोगों को पता ही होगा कि पुरानी टिहरी में एक मोहल्ले का नाम पुर्ब्याणा भी था. ये सभी ब्राह्मण जातियां उत्तराखंड में मंदिरों की पुजारी या पंडे के रूप में नियुक्त होते हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उत्तराखंड के हर मंदिर में ब्राह्मण ही पुजारी होते हैं.
उत्तराखंड में महादेव शिव के मंदिरों में अधिकांश या तो खस राजपूत या नाथ सम्प्रदाय के महंत या पुजारी भी होते हैं. इसमें एक रोचक इतिहास केदारनाथ का भी है. ़1889 में गढ़वाल मंडल के असिस्टेंट कमिश्नर गंगादत्त उप्रेती ने सैटेलमेंट रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें उन्होंने लिखा था कि केदारनाथ के पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं. उन्होंने अपनी बातों को सही ठहराने के लिये तर्क भी दिया था कि जिस प्रकार उन्नाव जिले में कुसुम्मी और दुर्गा देवी के प्रसिद्ध मंदिरों में राजपूत लोग पुजारी होते हैं, ऐसे ही टिहरी गढ़वाल जिले में कुंजापुरी माता के मंदिर में भी राजपूत पुजारी भंडारी हैं. जबकि बूढ़ा-केदार में नाथ सम्प्रदाय के राजपूत पुजारी हैं. ब्रिटिश आईसीएस अधिकारी और गढ़वाल हिमालय गजेटियर लिखने वाले एचजी वाल्टन अपनी किताब में लिखते हैं कि गढ़वाल में विष्णु मंदिरों की तुलना में शिव के मंदिर बहुत ज्यादा हैं. वेदों में शिव का कोई जिक्र नहीं है. वो स्थानीय पहाड़ी देवता लगते हैं जो प्रकृति की सबसे भयावह ताकतों का प्रतीक हैं. शिव को पूजे जाने से ज्यादा उसे शांत किया जाता है. उसके पुजारी न तो दक्षिण भारत से आये हैं, जैसे बद्रीनाथ मंदिर के लिये आये और न हिमालय के ब्राह्मण हैं. एटकिंशन और पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी के साथ ही कुमाऊँ का इतिहास लिखने वाले बद्रीदत्त पांडे का भी मानना है कि केदारनाथ को खसिया पहाड़ी मंदिर माना जाता है. इसलिए पौराणिक धर्म ग्रंथों में ‘केदारे खस मंडले’ लिखा गया है. असल में, केदारनाथ मंदिर उस शैव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो यहां पर शंकराचार्य के आने से बहुत पहले से था. उस समय तक यहां पर कोई वर्ण यानी जाति व्यवस्था नहीं थी. लिहाजा, बद्रीनाथ मंदिर की तरह केदारनाथ के पुजारी यहीं के स्थानीय लोग थे, जो खसिया मानव समूह से ताल्लुक रखते थे. एचजी वाल्टन गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि एक वक्त तो ऐसा भी था जब केदारनाथ भगवान को जो चढ़ाया जाता है, उसे ब्राह्मण नहीं खाते थे. असल में यहां पर पौराणिक शैव सम्प्रदाय को मानने वाले ही ज्यादा हैं. समय के साथ साथ शैव पंथ में भी ब्राह्मणवाद आ गया और इसका श्रेय शंकराचार्य के प्रयासों को जाता है.
जिस प्रकार उत्तराखंड में ब्राह्मण तीन भागों में बंटे हैं, उसी तरह क्षत्रिय भी दो भागों में विभक्त है. इसमें एक राजपूत हैं और दूसरे हैं खस राजपूत. एटकिंसन के अनुसार, इनमें से कुछ राजपूत जातियां पंवार शासकों या चंद शासकों के साथ बाहर से आई. जिसमें मुख्य रूप से पंवार या परमार गुजरात के धार से यहां आए. ये वही जाति थी, जिसने गढ़वाल राजवंश की बुनियाद रखी और शासक कहलाई. इसी जाति की उपजाति हुई कुंवर और रौतेला. कुमाऊँ का इतिहास के लेखक बद्रीदत्त पांडे के अनुसार, रौतेला पंवार वंश से नहीं, बल्कि कुमाऊँ के चंद वंश से ताल्लुक रखते थे और सम्भवतः बाद में ये जाति गढ़वाल में आई हो. इसी तरह राजस्थान के रणथम्भौर से 888 ईसवीं में आए नागवंशी बाद में असवाल बने. हालांकि कुछ इतिहासकारों ने इन्हें चौहान भी बताया है. उज्जैन के धारा से आए पंवार क्योंकि बड़ेत गांव में बसे तो बर्त्वाल कहलाए. इसी तरह कुमाऊँ में सूर्यवंशी कत्यूरी शासन के समय से कैन्तुरा जाति थी, जो बाद में गढ़वाल भी आई और इससे ही मंद्रवाल या मनुराल और रजवार जाति अस्तित्व में आई. रमोला जाति का मूल चौहान है जो मैनपुरी उत्तर प्रदेश में है. रमोला पुराने ठाकुरी सरदारों की पीढ़ियां हैं, जो रमोली में रहने के कारण रमोला कहलाये जाने लगे. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि मैनपुरी से आये सभी चौहान रमोली में ही बसे. कुछ उप्पूगढ़ में भी बसे और उनकी मूल जाति चौहान ही रही. इसी तरह मियां जाति के लोग सुकेत और जम्मू से गढ़वाल में इसलिये आये, क्योंकि इनके नाते रिश्तेदार पहले ही यहां आ चुके थे.
उत्तराखंड में रावत जाति के लोग बहुतायत में पाए जाते हैं. लेकिन रावत कोई जाति न होकर एक सरकारी पद था जो राज दरबार से मिला था. इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल की किताब उत्तराखंड का राजनैतिक इतिहास और संस्कृति में लिखा है कि रावत शब्द का मूल रौत है, जिसका अर्थ होता है जागीरदार. अब ये रौत या जागीरदार कोई भी जाति का हो सकता था. असल में, कुछ जातियां ऐसी थी, जो देश के लिये जान देने को हर वक्त तैयार रहती थी. कई बार अपने पराक्रम के कारण उन्होंने ऐसा किया भी, जिससे खुश होकर राजा ने उन्हें रौत प्रदान की और फिर उन्होंने भी सम्मान पूर्वक अपने नाम के अंत में रावत लिखना शुरू कर दिया. ये बात भी साफ कर देना जरूरी है कि ये जागीरदारी उन्हें देश के अलग-अलग राजाओं ने प्रदान की होगी. क्योंकि जब वे गढ़वाल और कुमाऊँ पहुंचे, तब तक वो पूरी तरह से रावत उपनाम बतौर जाति लिखने लगे थे. ये बात इसलिये भी स्पष्ट होती है क्योंकि उत्तराखंड में जो रावत हैं, वो मुख्य रूप से 26 बिरादरी के हैं. इसमें मुख्य रूप से दिकोला रावत, जिनकी पूर्व जाति मरहठा थी और ये महाराष्ट से यहां 358 ईसवीं में आए और दिकोल गांव में बसे तो दिकोला रावत कहलाए.इसी तरह गोर्ला रावत जो पूर्व में पंवार थे और गुजरात से 760 ईसवीं में आए और गुराड गांव में बसे.
उत्तराखंड में रावतों की 24 उपजातियाँ हैं. ऐसे ही नेगियों की 25, बिष्ट की 11, भंडारियों की चार, गुसाईं की पांच और लगभग 35 अन्य राजपूत जातियां उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ में हैं. ये पूरी सूची तो इतनी बड़ी है कि सबके नाम पढ़ना मुमकिन नहीं लेकिन अगर आपको विस्तार से पूरी सूची पढ़नी है तो आप स्क्रीन नजर आ रही इस सूची को वीडियो पॉज़ करके पढ़ सकते हैं.
बहुत सी ऐसी जातियां भी होंगी ही जिनके बारे में हम ब्यौरा नहीं जुटा पाए होंगे. लिहाज़ा कुछ जातियां अगर छूट गई हों तो हम माफी के साथ ये आग्रह करेंगे आप कमेंट बॉक्स में उन जातियों के बारे लिख भेजिएगा और हम पूरी कोशिश करेंगे की आने वाले एपिसोड्ज़ में उन जातियों की जानकारी भी आप तक पहुँचाएँ.
बहरहाल, रावतों की तरह बिष्ट, नेगी, कमीण और भंडारी भी कोई जाति न होकर राज-दरबार से मिले पद हैं. इसमें बिष्ट, नेगी और कमीण सिविल अधिकारियों के पद हैं. भंडारी पद खंजाची या अन्न के भंडार के अधिकारी के पद थे. जबकि रावत जागीरदार के साथ ही सैन्य अधिकारी का पद भी था. गुसाईं भी सैन्य अधिकारियों को दिया जाने वाला पदनाम था. ये सभी पद बाद में जाति के रूप में सामने आए और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सफर करते हुए समाज में रच बस से गए.
उत्तराखंड में अधिकांश लोग राजपूतों को ठाकुर कहकर भी संबोधित करते हैं. सम्भवतः वो समझते हैं कि राजपूत ही ठाकुर होते हैं. इसमें एक बड़ा रोल सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में बनी हिंदी फिल्मों ने भी अदा किया. जहां हवेली के बाहर खड़ा कोई गठीला व्यक्ति अपनी छड़ी से किसी कमजोर गरीब मजलूम को पीट रहा हो और वो गरीब के मुंह ‘ठाकुर साहब, मुझे बख्श दो’ जैसे कराहती आवाज निकल रही हो. असल में, ठाकुर उपनाम कोई विशेष जाति के लिए नहीं, बल्कि जागीरदार को दिया गया एक सम्मानजनक शब्द भर है. मध्य प्रदेश के कई गांवों में यादवों के आगे ठाकुर लगता है तो यूपी, गुजरात और बंगाल में कई जगह ब्राह्मणों को ठाकुर कहा जाता है. जबकि बिहार में ठाकुर का उपयोग अति पिछड़ा जाति करती है. इसी अति पिछड़ा जाति से ही बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी आते हैं. इतिहासकारों के अनुसार, ठाकुर शब्द मूल रूप से तुर्की के उस्मानिया सल्तनत में सबसे पहले उपयोग में लाया गया था. वहां उस्मानिया सल्तनत का खलीफा जिस सरदार को जागीर दिया करता था, उसे तेकुर या टेक्फुर कहा जाता था. वहीं से ये शब्द मध्य पूर्व में तक्वुर हुआ और मध्यकालीन भारत में सम्भवतः मुगल बादशाह बाबर के साथ भारत पहुंचा. उत्तराखंड की बात करें तो यहां सबसे पहले वे लोग ठाकुर हुए, जिन्हें पंवार या चंद वंश ने जागीरें प्रदान की. उस वक्त ऐसे परिवार के लोगों को ठाकुर बुलाया जाने लगा. फिर धीरे-धीरे सभी राजपूत जातियों को ही गलतफहमी में ठाकुर बुलाया जाने लगा.
एटकिंसन और पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी के अनुसार, गढ़वाल में बाहर से आई जातियों की अपेक्षा खसिया जाति अधिक संख्या में है. अनुमान के मुताबिक गढ़वाल की अन्य सब जातियाँ मिलकर भी खसिया जाति के मुक़ाबले में 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होंगी. मतलब, सौ लोगों में बीस अन्य जाति के होंगे और अस्सी खसिया ही होंगे. दिलचस्प बात ये है कि उत्तराखंड में केवल खस राजपूत ही नहीं, बल्कि खस ब्राह्मण भी हैं. एटकिंसन के अनुसार, 12वीं और 13वीं सदी में जब उत्तराखंड में जाति व्यवस्था आई तो उन्होंने खस मानव समूह से ताल्लुक रखने वाले लोगों से शूद्र जैसा व्यवहार किया. लेकिन, क्योंकि ये लोग आक्रांता थे और इनकी छोटी-छोटी रियासतें भी थी, लिहाजा, ब्राह्मण इनके भी जजमान बनते गए और ये राजपूत जातियों में बदलते गए. 14वीं और 15वीं सदी में अधिकांश खस, राजपूत और ब्राह्मण जातियों में बदल गए तो इनके अंदर भी जातिवाद आ गया और ये अन्य मूल जातियों को अछूत मानने लगे. बाद की सदियों में सभी जातियों में ऊँच-नीच बढ़ता गया, लेकिन सांस्कृतिक भी गठबंधन होते गए. मसलन, जो पहाड़ी देवता भैरो और नरसिंह आदि की मूल निवासी पूजा करते थे, उन्हें डर कर ऊंची जाति के लोग भी पूजने लगे. एक तरह से तांत्रिक अनुष्ठानों का घोर विरोधी होने के बावजूद वैष्णव धर्म को अपने विस्तार के लिये इन सभी पहाड़ी देवताओं को अपने अंदर समायोजित करना पड़ा.
तो कुल मिलाकर ये रहा उत्तराखंड की समस्त जातियों का लेखा जोखा. ये भी ध्यान देने वाली बात है कि उत्तराखंड में जिन्हें दलित कहा जाता है, उनकी जमीन अगर खसों ने नहीं क़ब्ज़ाई होती तो आज वे भी दलित न होते. यानी, जातिगत श्रेष्ठता के लिये किसी को शूद्र घोषित करना ही था, तो उन्हें कर दिया गया जो उस वक्त आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा पीड़ित थे.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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