पहाड़ी लोगों का चाय से बेहद गहरा रिश्ता है. स्टील के बड़े ग्लास में गर्मागर्म चाय पिए बिना न तो पहाड़ियों की सुबह मुकम्मल होती है और न ही उनकी शाम ख़ुशनुमा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये रिश्ता कितना पुराना है? चीन की चाय आख़िर भारत कब और कैसे आई और कैसे ये पहाड़ के घर-घर का हिस्सा हो गई? आज के हुआ यूं था के इस एपिसोड में आपको चाय की एक इतिहास-यात्रा करवाते हैं.
चाय की शुरुआत चीन से मानी जाती है. कहा जाता है कि आज से लगभग 2700 साल पहले इत्तेफ़ाकन हुई एक घटना ने इंसान को चाय का चस्का लगाया था. हुआ यूं कि चीन के राजा शैन नुंग के लिए उनके बगीचे में पानी गर्म किया जा रहा था. तभी चाय का एक पत्ता उड़कर गर्म पानी से भरे एक छोटे बर्तन में आ गिरा. इससे उस पानी का रंग कुछ बदल गया और उसमें से मनमोहक ख़ुशबू आने लगी.
राजा शैन नुंग ने इस पानी का स्वाद चखा तो उन्हें ये बेहद पसंद आया. इसके बाद वे इस पेय का सेवन रोजाना करने लगे और अपने साथियों को भी इसे पिलाने लगे. यहीं से चाय पीने का चलन शुरू हुआ और आज स्थिति ये है कि एक रिसर्च के मुताबिक पानी के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय चाय ही है. रोजाना लगभग दो अरब लोग सुबह की शुरुआत चाय से करते हैं.
चीन में पैदा हुई चाय के चीन से बाहर निकलने की भी एक दिलचस्प कहानी है. दरअसल एक समय तक चाय पर चीन का एकाधिकार हुआ करता था. अंग्रेजों को चाय का चस्का तो लग चुका था लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी को भी चीन से ही चाय खरीदनी पड़ती थी. लंबे समुद्री रास्तों से निर्यात होने वाली चाय काफी महंगी पड़ती थी लिहाज़ा अंग्रेज़ किसी भी तरह चीन से चाय के पौधे और उसकी खेती की तकनीक को हासिल करने की जुगत में थे. बताते हैं कि इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने रॉबर्ट फॉर्च्यून नाम के एक जासूस को चीन भेजा. रॉबर्ट चाय की पौध चुराने और इसकी पैदावार की तकनीक सीखने में कामयाब भी रहा. इसके बाद ही अंग्रेजों ने दुनिया भर में चाय की पैदावार और इसकी बिक्री शुरू की.
भारत में चाय लाने का श्रेय भी अंग्रेजों को ही जाता है. साल 1815 के आसपास उन लोगों के ज़रिए चाय भारत पहुंची थी. हालांकि नॉर्थ ईस्ट के कुछ इलाक़ों जैसे असम और दार्जिलिंग में चाय, जंगली घास के रूप में काफी पहले से मौजूद थी और वहां के लोग इसे पेय के रूप में उपयोग भी करने लगे थे.
अंग्रेजों की नज़र जब इस पर पड़ी तो 1834 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारत में चाय की विधिवत शुरुआत करने और इसके उत्पादन की संभावनाओं को देखते हुए एक समिति का गठन किया. इसके बाद साल 1835 में असम में चाय की खेती शुरू की गई. नॉर्थ ईस्ट रीज़न के साथ-साथ साउथ के कुछ इलाकों में और उत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों में भी चाय की खेती की जाने लगी.
लगभग इसी दौर में उत्तराखंड में भी चाय की खेती शुरू की गई. ये वो समय था जब गोरखों को हराकर अंग्रेजों ने कुमाऊं में अपना राज स्थापित कर लिया था. साल 1827 में डॉ रॉयल, जो कि सहारनपुर में सरकारी वानस्पतिक उद्यान में बतौर अधीक्षक कार्यरत थे, उन्होंने सरकार से ये आग्रह किया कि कुमाऊं क्षेत्र की ऐसी जमीनें जो बंजर पड़ी हुई हैं और जिन पर खेती नहीं की जाती, उन्हें गांव-वालों से लेकर चाय की खेती के लिए अंग्रेजों को सौंप दिया जाए. उनका मानना था कि गढ़वाल और कुमाऊं की ठंडी जलवायु में जब चाय की खेती की जाएगी, तो यहां इसकी बढ़िया और स्वादिष्ट किस्म पनपेगी.
इसके बाद साल 1834 में गर्वनर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा बनाई गई समिति के विशेषज्ञों ने उपजाऊ भूमि का चुनाव करना शुरू किया. समिति के विशेषज्ञों द्वारा चीन से चाय के स्पेशलिस्ट बुलाए गए और खेती में उनकी मदद ली गई.
कुमाऊं कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने समिति को सरकार की तरफ से हर संभव मदद देने का भरोसा जताया. वे चाहते थे कि सबसे पहले चाय की पौधों की नर्सरी हवालबाग और भीमताल में लगे. मिस्टर बिल्किवॉर्थ जो कि 1822 से अल्मोड़ा में पौध संग्रहकर्ता के पद पर कार्य रहे थे और डॉ फाल्कनर जो कि सरकारी वानस्पतिक उद्यान के सुप्रिटेंडेंट थे, पहले ही गढ़वाल और कुमाऊं में चाय बागानों की नर्सरी के लिए कई जगहों का चुनाव कर चुके थे.
1834 में बनी समिति ने देहरादून के राजपुर रोड और मसूरी के बीच मौजूद झड़ीपानी को चाय की नर्सरी के लिए दिए जाने वाले प्रशिक्षण के लिए सबसे उपयुक्त जगह बताया. फिर दिसम्बर 1835 में कलकत्ता से चाय के दो हजार पौधे मंगवाए गए. इन्हें अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर और भीमताल में भरतपुर की नर्सरी में लगाया गया. इसी साल गढ़वाल के टिहरी में भी चाय की कई सारी पौधशाला बनाई गईं.
उत्तराखंड और विशेष तौर से अल्मोड़ा में पैदा हुई इस चाय को जानकारों ने असम और दार्जिलिंग में पैदा हो रही चाय से भी ज्यादा बेहतर माना. जब इसकी कुछ पौधों को इंग्लैण्ड भेजा गया तो वहां के लोगों को ये काफी पसंद आई. इस चाय को चीन की विश्वप्रसिद्ध ओलांग चाय जितना उत्तम क्वालिटी का माना गया.
चाय की खेती को सरकार की ओर से काफी प्रोत्साहित किया जाने लगा. 1830 से 1856 के बीच ब्रिटेन से कई सारे परिवार रानीखेत, भवाली, अल्मोड़ा, कौसानी, दूनागिरी, बिनसर, लोहाघाट, मुक्तेश्वर, घोड़ाखाल और रामगढ़ जैसी जगहों में बसने लगे. सरकार द्वारा चाय एवं फलों की खेती के लिए इन लोगों को जमीनें भेंट स्वरूप दी जा रही थीं. भवाली में मिस्टर न्यूटन और मिस्टर मुलियन, घोड़ाखाल में जनरल व्हीलर, भीमताल में मिस्टर जोन्स, रामगढ़ में मिस्टर डेरियाज के चाय बागान प्रमुख थे. रानीखेत के चौबटिया में ट्रूप परिवार द्वारा चाय का एक बड़ा बगीचा भी लगाया गया था जिसे स्थानीय लोग चहाबगिच कहते थे. इन ब्रिटिश परिवारों को चाय की खेती के लिए जो जमीनें दी गई थीं उन्हें फ्री सैम्पल स्टेट कहा गया.
इधर गढ़वाल में 1843 के आसपास पौड़ी और गडोलिया में कैप्टन हडलस्टन चाय की खेती शुरू कर चुके थे. इसके अगले साल यानी 1844 में देहरादून के कौलागीर में सरकारी चाय बागान की स्थापना हुई जो कि करीब 400 एकड़ में फैला हुआ था.
उत्तराखंड में चाय का उत्पादन तेजी से बढ़ने लगा था. साल 1843 में जहां कुमाऊं में चाय का कुल उत्पादन 190 पोंड के आसपास था वहीं अगले ही साल ये बढ़कर 375 पोंड हो चुका था. साल 1880 आते-आते 3342 एकड़ क्षेत्रफल में चाय की पैदावार होने लगी थी. अल्मोड़ा के मल्ला कत्यूर में 506 एकड़, कौसानी में 390 एकड़ और देहरादून टी कंपनी में 1200 एकड़ में चाय बागान फैल चुके थे. धीरे-धीरे कुमाऊं के बेरीनाग, सानी उड्यार, चौकोड़ी, डोल, गौला पालड़ी, जलना, डोल, स्याही देवता, ग्वालदम, लोहाघाट और बिन्सर में चाय बागान बन चुके थे. कौसानी और बेरीनाग की चाय इनमें सबसे उत्तम क्वालिटी की मानी जाती थी.
बेरीनाग में चाय की शुरुआत साल 1864 में हिल नाम के एक अंग्रेज ने की थी. इसके लिए उन्हें 200 एकड़ ज़मीन दी गई थी. हिल ने बेरीनाग और चौकोड़ी में चाय के बागान लगाए थे जिन्हें 1916 में प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट को सौंप दिया गया. जिम कॉर्बेट इन चाय बाग़ानों की सही देखभाल नहीं कर सके और उन्होंने स्थानीय निवासी मुरलीधर पंत को ये चाय बागान सौंप दिया.
चौकोड़ी और बेरीनाग के चाय बागान आगे चलकर ठाकुर देव सिंह बिष्ट द्वारा खरीद लिए गए. 1940 से 1965 तक बेरीनाग में चाय का उत्पादन काफी ज्यादा हुआ.
उत्तराखंड में चाय के उत्पादन के इस स्वर्णिम दौर पर अल्पविराम लगना तब से शुरू हुआ जब काठगोदाम और बरेली के बीच रेल यातायात शुरू हुआ. रेल के आने से पहाड़ों में पैदा होने वाले उत्पादों को बाहर भेजने के रास्ते खुल गए.
इसके चलते धीरे-धीरे यहां फलों के बागानों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा क्योंकि चाय की तुलना में फलों से ज्यादा मुनाफा उठाने की सम्भावनाएँ थी. लिहाज़ा आड़ू, प्लम, माल्टा, खुबानी, चेरी, अखरोट, बादाम और अनार जैसे फलों का उत्पादन अधिक होने लगा. इन फलों से हो रहे मुनाफे में अंग्रेज इतना रम गए कि चाय बागानों की अनदेखी होने लगी और साल 1949 तक उत्तराखण्ड के कुछ इलाकों को छोड़कर चाय की खेती नगण्य हो गई.॰
हाल की बात करें तो फरवरी 2004 को उत्तराखण्ड में चाय विकास बोर्ड का गठन हुआ. ये बोर्ड काश्तकारों से तीन साल के लिए भूमि लीज़ पर लेकर चाय की खेती करता है. आज प्रदेश में क़रीब 14 हजार हेक्टेयर भूमि पर चाय की खेती की जा रही है जिससे सालाना 90 हजार किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है. चमोली जिले की कुछ जगहों में ग्रीन जैविक चाय भी पैदा की जा रही है जिसकी मांग काफी ज्यादा है.
स्क्रिप्ट: अमन रावत
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