साल 1958, बॉलीवुड की चर्चित फिल्म ‘मधुमती’ फ़िल्मी पर्दे पर रिलीज़ हुई. दिलीप कुमार और वैजयंती माला अभिनीत इस फ़िल्म को निर्देशित किया था बिमल रॉय ने. जब भी बिमल रॉय को शूटिंग से फुरसत मिलती थी तो वो नैनीताल आ जाया करते थे. यहां की शांत वादियां उन्हें खूब भाती. दरअसल बिमल रॉय के जीजा उस वक्त नैनीताल से करीब 48 किलोमीटर दूर मुक्तेश्वर में भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान में नौकरी करते थे. अपनी बहन और जीजा से मिलने के बहाने नैनीताल उनका आना-जाना लगा रहता था.
फ़िल्म मधुमती की शूटिंग के दौरान जब वो कुछ वक्त के लिए नैनीताल पहुंचे तो अचानक उनके मन में एक ख्याल कौंधा. वो ये कि क्यों ना इस फ़िल्म के एक गीत की शूटिंग नैनीताल में ही की जाए. बस फिर क्या था उसी दिन फिल्म की कास्ट समेट पूरी यूनिट को नैनीताल बुला लिया गया और यहां की वादियों में फ़िल्माया गया गीत ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’.
शूटिंग के दौरान पूरी टीम कुछ दिन तक नैनीताल में ही थी. इस दौरान अभिनेता दिलीप कुमार ने नैनीताल के फेमस पैडल रिक्शों की सवारी कर नैनीताल शहर की सैर की. मुम्बई वापस लौटते हुए उन्होंने नैनीताल के रिक्शों की खूब तारीफ़ की. उनकी इस बात को स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में खूब प्रकाशित किया गया.
नैनीताल की माल रोड पर दौड़ रहे इन साईकिल रिक्शों का सालों पुराना इतिहास रहा है. नेहरू, इंदिरा गांधी, अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार जैसी शख्सियतें इन पैडल रिक्शों की सवारी के गवाह रहे हैं. मगर ये ऐतिहासिक रिक्शे अब इतिहास की बात होने जा रहे हैं.
दरअसल करीब एक महीने पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने शहर के बढ़ते ट्रैफिक को देखते हुए साईकिल रिक्शों के संचालन को बन्द करने के आदेश दिए हैं और इन साईकिल रिक्शों की जगह ई-रिक्शों की संख्या 11 से बढ़ाकर 50 करने को कहा है. अभी तक नैनीताल में 60 पैडल रिक्शा और 11 ई-रिक्शा का संचालन होता रहा है.
साल 1942 से नैनीताल में साईकिल रिक्शा या पैडल रिक्शा का संचालन हो रहा है. उससे पहले 1858 से यहां हाथ रिक्शा चला करते थे और अब सालों पुराना इतिहास समेटे ये साईकिल रिक्शे भी अपनी अंतिम सांस ले रहे हैं.
नैनीताल की खोज 19 वीं सदी के चौथे दशक में मानी जाती है. जब पी बैरन नाम का एक अंग्रेज व्यापारी यहां पहुंचा था. हालांकि ऐसा माना जाता है कि बैरन से पहले कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर रहे जॉर्ज विलियम ट्रेल को इस जगह की खबर हो चुकी थी मगर उन्होंने इस बारे में किसी को नहीं बताया. दरअसल स्थानीय लोग इस जगह को एक पवित्र जगह मानते थे और वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेज यहां किसी भी तरह का कोई निर्माण कार्य शुरू करें. ट्रेल भी जनता का हिमायती माना जाता था लिहाज़ा इस जगह के बारे में उसने किसी को भी कुछ नहीं बताया.
नैनीताल की खोज़ से जुड़ा एक किस्सा प्रचलित है जब पी बैरन ने धोखे ने स्थानीय थोकदार नर सिंह बोरा को डरा कर नैनीताल शहर पर अपना अधिकार जता लिया था. इस किस्से का ज़िक्र विस्तार से किया गया है बारामासा के इस एपिसोड में. वीडियो का लिंक कमेंट बॉक्स में दे दिया गया है.
बहरहाल, जब अंग्रेजों का इस क्षेत्र पर अधिकार हो गया तो धीरे-धीरे इस जगह पर बंगले, रेस्ट हाऊस, क्लब्स और कम्युनिटी सेंटर जैसे तमाम निर्माण कार्य शुरू होने लगे. अंग्रेज यहां अपनी आरामगाह कोठियां बनाने लगे. साल 1845 तक नैनीताल की करीब 536 एकड़ जमीन पर अंग्रेजों का अधिकार हो चुका था.
अब तक अंग्रेज अपना सामान ढ़ोने के लिए स्थानीय कुलियों, घोड़े-खच्चरों और गधों की मदद ले रहे थे. कई बार डांडी-कंडी के सहारे भी सामान ढ़ोया जाता था. छोटी दूरियां घोड़ों के सहारे ही तय की जाती थी. इससे क्षेत्र के पर्यटन को भी बढ़ावा मिल रहा था.
वक्त आगे बढ़ रहा था, जीवन की सुलभता के लिए नए-नए अविष्कार होने लगे थे. ऐसे में नैनीताल शहर की पहाड़ी पगडंडियों में फिरने और सामान ले जाने के लिए किसी अन्य आसान व्यवस्था की ज़रूरत महसूस होने लगी. और साल 1858 से नैनीताल में हाथ रिक्शे चलन में आए. हाथ रिक्शों में बैठकर अंग्रेज अधिकारी माल रोड होते हुए तल्लीताल से मल्लीताल तक का सफ़र तय करते थे. दो पहियों वाले हाथ रिक्शे को आगे बने हत्थे की मदद से एक व्यक्ति खींचा करता था. कभी-कभी सवारियों का वजन अधिक होने की वजह से इसे खींचने में दो व्यक्तियों की ज़रूरत पड़ती थी. हाथ रिक्शा उस वक्त शान-ओ-शौकत की सवारी मानी जाती थी. स्टेटस सिम्बल माना जाता था. अंग्रेज अधिकारी हाथ रिक्शा का उपयोग सामान ढ़ोने में भी करते थे. भारतीय, अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त थे. लिहाज़ा इस वक्त तक भारतीयों को हाथ रिक्शा में बैठने की इज़ाजत भी नहीं थी.
हाथ रिक्शों का ही एक एडवांस रूप था. जिसे झम्पानी कहा जाता था. वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि रात के वक्त के लिए इनमें अलग से एक विशेष प्रकार के लैम्प की व्यवस्था होती थी. इसकी गद्दियां अधिक आरामदायक होती थी. उस वक्त तक हर साल इनके रखरखाव के लिए भी पैसा खर्च किया जाता था. गर्वनर हाऊस के लिए अलग से रिक्शों की व्यवस्था होती थी. हनुमानगढ़ी से मल्लीताल और ऊंची-नीची पहाड़ी पगडंडियों पर चलने के लिए भी हाथ रिक्शों का उपयोग होता था.
संकरी गलियों में इनके आने-जाने पर प्रतिबंध था. इनमें पायदान भी होता था. बारिश और धूप से बचने के लिए छतरीनुमा हुड लगे होते थे. कुछ झम्पानी ऐसी होती थी जिन्हें चार लोग खींचा करते थे. कई बार जब मरीजों को इनमें ले जाना पड़ता था. ऐसे में संक्रमण रोधी दवाओं का छिड़काव करने के बाद ही अन्य सवारियों को इसमें ले जाया जाता था. शादी-ब्याह के अवसर पर इन्हें विशेष रूप से सजाया जाता था. झंपानी को रामरथ और विलियम एंड बरेली टाइप भी कहा जाता था.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखर प्रयाग पाण्डे की किताब ‘नैनीताल एक धरोहर’ में ज़िक्र मिलता है कि जनवरी 1921 में जब नैनीताल में नगर पालिका के चुनाव हुए तो नवनिर्वाचित सदस्यों ने कई सारे नए नियम बनाए और कुछ में बदलाव किए. इस दौरान झम्पानी संचालन के नियमों को भी और अधिक सख्त बना दिया गया था.
वर्तमान में नैनीताल में सिर्फ 2 हाथ रिक्शे बचे हैं जिनमें से एक मल्लीताल में मौजूद किसी शौचालय के पास खड़ा है. अब कौन जाने कि शायद यही वो हाथ रिक्शा रहा होगा जिस पर कभी नेहरू ने, दिलीप कुमार ने, अमिताभ बच्चन ने, इंदिरा गांधी ने या कादर खान ने शहर भर की सैर की होगी.
नैनीताल में हाथ रिक्शों का संचालन अचानक से ही बन्द नहीं हो गया. 40 के दशक तक जब हाथ रिक्शे अपनी अंतिम सांस ले रहे थे. उस वक्त इनका किराया मात्र दो आने होता था. 1942 से साईकिल रिक्शों की शुरूआत हो चुकी थी. मगर हाथ रिक्शे 70 के दशक तक भी कुछ हद तक चलते रहे. हालांकि अब तक हाथ रिक्शे सैर के लिए नहीं बल्कि सामान लादने के लिए और सब्जियां ले जाने के लिए ही उपयोग में लाए जाते थे. इसके अलावा किसी धार्मिक उत्सव या झांकियां या फिर शहर में होने वाले किसी विशेष कार्यक्रम की उद्घोषणा यानी अनाउंसमेंट के लिए भी हाथ रिक्शों का उपयोग होने लगा. कभी शान की सवारी माने जाने वाले हाथ रिक्शों का संचालन आज पूरी तरह से बन्द हो चुका है.
अब नैनीताल की माल रोड पर दौड़ते रिक्शों की बात हो ही रही है तो थोड़ा नैनीताल की माल रोड के बारे में भी जान लीजिए. नैनीताल की माल रोड से जुड़ी एक दिलचस्प बात ये भी है कि उस वक्त जब अंग्रेजों ने माल रोड बनाई तो उन्होंने इसका निर्माण कुछ अलग तरह से करवाया. एक नहीं दो माल रोड बनाई गई. एक मुख्य माल रोड, जिसे अपर माल रोड कहा गया और दूसरी माल रोड इससे कुछ 5-6 फुट नीचे बनाई गई जिसे लोअर माल रोड नाम दिया गया. अपर माल रोड पर सिर्फ अंग्रेज ही चल सकते थे, यहां भारतीयों के चलने की मनाही थी. भारतीयों के आने-जाने के लिए लोअर माल रोड का निर्माण करवाया गया था. गलती से यदि कोई भारतीय अपर माल रोड पर चलने लगता तो उसे सजा सुनाई जाती थी. लोअर माल रोड को ‘हिन्दुस्तानियों की सड़क’ भी कहा जाता था. गुलामी के दौर में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ किस तरह से भेदभाव किए जाते थे, नैनीताल की माल रोड इसका जीता-जागता उदाहरण है.
चलिए, रिक्शों पर वापस आते हैं. बीसवीं सदी का पांचवां दशक शुरू हो चुका था. देश में आज़ादी के लिए प्रतिरोध के स्वर चरम पर थे. भारत छोड़ो आन्दोलन की गूंज देश भर में फैली हुई थी. नैनीताल में हाथ रिक्शों को अब तक 80 साल से भी ज़्यादा वक्त हो चुका था.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखर प्रयाग पाण्डे की किताब ‘नैनीताल एक धरोहर’ में ज़िक्र मिलता है कि 1 नवंबर 1941 को जब नैनीताल में लाइब्रेरी कमेटी का गठन हुआ. इसी साल एक व्यक्ति ने माल रोड में पैडिल रिक्शा या साईकिल रिक्शा चलाने की अनुमति मांगी. मगर उस वक्त नगर पालिका ने इस बाबत उपविधि बनाने तक मामले को विचाराधीन रखा. साल 1942 में नगर पालिक ने रिक्शा संचालन के लिए उपविधियां बनाई. 22 जनवरी 1942 से मालरोड में रिक्शे चलने लगे. शुरूआत में पैडल रिक्शों की संख्या मात्र 10 ही थी. जिनका स्वामित्व उस वक्त भी नगर पालिका प्रशासन के पास ही था. नगर पालिक ने एक रिक्शे के लिए एक साल के लाइसेंस की फीस 25 रुपए निर्धारित की. इस वक्त 12 पैसे एक सवारी का किराया था और 2 सवारी का किराया 25 पैसे निश्चित था. इसके अलावा शुरूआत में इन साईकिल रिक्शा चालकों के लिए ड्रेस कोड भी लागू किया गया था. रिक्शा चालकों को हाथ की बांह में एक पीतल का पट्टा बांधना होता था जिसमें रिक्शे का लाइसेंस नम्बर लिखा होता था. प्रशासन द्वारा ऐसे भी निर्देश दिए गए थे कि शाम होते ही रिक्शा चालक लैंप जलाएं जिससे कि उनका नम्बर दिख सके. ऐसा न करने पर रिक्शा चालक का लाइसेंस निरस्त कर दिया जाता था.
1947 में देश अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद हुआ. अब अंग्रेज भारत से वापस जाने लगे थे. हाथ रिक्शों की जगह नैनीताल में साईकिल रिक्शे चलन में आ चुके थे. साईकिल रिक्शा या पैडल रिक्शा का संचालन भी तल्लीताल से मल्लीताल की ओर माल रोड पर होता था.
शुरूआत में नैनीताल के साईकिल रिक्शों में किराया मात्र दो आना हुआ करता था. वक्त के साथ-साथ महंगाई भी बढ़ती गई और महंगाई के साथ-साथ इनका किराया भी. सत्तर के दशक तक साईकिल रिक्शों का किराया 60 पैसे हो चुका था. धीरे-धीरे 1 रूपया, 2 रूपया, 3 रूपया, 5 रूपया, 10 रूपया और अब जब ये ऐतिहासिक पैडल रिक्शे अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं तो इनका किराया 20 रूपए है.
नैनीताल में रिक्शे की सवारी के लिए टिकट काउंटर में लम्बी लाइन में खड़े रहकर सवारियां मिनटों अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं. एक एनाउंसर रिक्शा चालकों का नम्बर एनाउंस करता है. दिनभर में प्राप्त टिकटों को टिकटघर में दिखाकर रिक्शा चालक अपने पैसे इकट्ठा करता है. पैडल रिक्शों में बैठकर माल रोड पर सजी दुकानों और नैनी झील को निहारना भी एक अलग तरह का अनुभव होता है. नैनीताल में साईकिल रिक्शों के संचालन को लेकर ये एक अनोखी व्यवस्था है जो सालों से चली आ रही है.
नैनीताल रिक्शा यूनियन से करीब 4 दशक से जुड़े और वर्तमान में व्यवस्थापक की भूमिका निभा रहे नंदा बल्लभ जोशी ने बारामासा से बातचीत में बताया कि नैनीताल में शुरूआत में अलग-अलग रिक्शा यूनियन्स मौजूद थी मगर बाद में सभी एक साथ हो गए और वर्तमान में मालिक साईकिल रिक्शा संगठन द्वारा ही सभी रिक्शों का संचालन हो रहा है.
साल 2005 के आसपास नगर पालिका द्वारा रिक्शों का किराया 5 रूपए से बढ़ाकर 8 रूपए कर दिया था. ऐसे में 2 रूपए के खुले न होने की दिक्कत होने लगी. इस पर रिक्शा यूनियन द्वारा प्लास्टिक के सिक्के सरीखे टोकन चलाए गए. अब ये 2 रूपए के 4 टोकन अगर किसी के पास हो जाएं. तो अगली बार टिकट काउंटर में 2 रूपए के इन 4 टोकन को दिखाकर वो सवारी कर सकता था.
नैनीताल के साईकिल रिक्शों के भौकाल का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक वक्त में यहां के स्थानीय विधायक बिहारी लाल भी रिक्शा चलाया करते थे और सवारियों को तल्लीताल से मल्लीताल की सैर कराते थे. उस वक्त तक इन रिक्शों का किराया मात्र 25 पैसे हुआ करता था.
नैनीताल के रिक्शा चालकों से जुड़ी एक दिलचस्प बात ये भी है कि हर हफ्ते इन्हें बोनस दिया जाता है. बोनस इस तरह से दिया जाता है कि हर चालक को हफ्ते भर में मिले टिकटों का योग किया जाता है. 2 रूपए पर टिकट के हिसाब से उसे बतौर बोनस यूनियन की तरफ से दिया जाता है. मसलन अगर किसी चालक ने हफते में 50 टिकट बनाए तो उसे हफ्ते के अंत में 100 रूपए बोनस के तौर पर दिए जाएंगे.
जोशी बताते हैं कि नैनीताल नगर पालिका द्वारा रिक्शा चालकों के दो तरह से परमिट जारी किए जाते हैं. एक मालिकाना और दूसरा ड्राईविंग का और यदि ऐसा हो कि कोई इंसान उस रिक्शे का मालिक भी है और चला भी वही रहा है तो उसके भी दो तरह के परमिट बनाए जाएंगे. मालिकाना का अलग और ड्राईविंग का अलग.
कुछ महीने पहले हाईकोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले पर जोशी अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि मात्र 15 दिन में हमें साईकिल रिक्शों को बदलने के लिए कह दिया गया है. इतने कम समय में ये सब बेहद मुश्किल है. दरअसल ई-रिक्शों की चार्जिंग और पार्किंग के लिए जगह की उपलब्धता इस राह में प्रमुख समस्या है.
स्क्रिप्ट: अमन रावत
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