आज से लगभग दो सदी पहले एक अंग्रेज अधिकारी पिथौरागढ़ की सुदूर पूर्व दारमा घाटी में अपने तमाम लाव लस्कर के साथ भ्रमण कर रहा था. धारचूला से जैसे ही लगभग बीस किलोमीटर तवाघाट पहुंचकर अंग्रेज अधिकारी का सरकारी काफिला दारमा घाटी के अंतिम तीन गांव में सबसे पहले दांतू पहुंचा, वहां उन्होंने देखा कि न्योला नदी और धौलीगंगा के संगम पर कई बोरों में रूपया पैसा भर कर रखा हुआ है. नदी किनारे एक शौका महिला अपने पुरोहितों के साथ पूजा अनुष्ठानों में व्यस्त है. पूजा अनुष्ठान समाप्त होते ही वो महिला रूपयों से भरे बोरे नदी में उड़ेलने लगी. ये देखकर उस अंग्रेज अधिकारी के होश उड़ गये. उसने अपने मातहतों को तुरंत उस महिला के पास भेजा और इस हद तक पागलपन का कारण पूछा. पता चला कि महिला अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के बाद नदी में रूपया संपदा बहाकर परोपकार के वो तमाम धार्मिक अनुष्ठान कर रही है, जिसको करने से उसके मृत पति की आत्मा को शांति मिलती.
वो अंग्रेज अधिकारी तुरंत उस महिला के पास पहुंचा और बड़े सम्मान के साथ अपना सिर झुकाया. उसने उस शौका महिला को समझाया कि अगर उसे दान करना ही है तो वो क्यों नहीं किसी निर्धन या जरूरतमंद को ये सब दान कर पुण्य कमाए. पहले तो उस अनपढ़ महिला को कुछ समझ नहीं आया और जब आया तो फिर उसने कालांतर में वो काम किया, जिसके लिये उसका नाम इतिहास में दर्ज हो गया. इतिहास में ये महिला कुमाऊं की सबसे दानवीर महिला की उपाधि से नवाजी गई. ये महिला थी दारमा घाटी की जसुली देवी, जिसे इतिहास में दानवीर जसुली शौक्याणी के नाम से याद रखा गया.
जसुली देवी की शान शौकत और दानवीर होने की कहानी तब मुकम्मल तरीके से समझ आयेगी, जब हम रं जनजाति के बारे में विस्तार से जान लेंगे. पिथौरागढ़ के सबसे पूर्व में ऐसी घाटियां हैं, जहां के लोग सैकड़ों सालों से तिब्बत व्यापार कर रहे हैं. दारमा, व्यास, चौंदास और जौहार घाटी कभी इसी अंतर्राष्टीय व्यापार के चलते बहुत समृद्ध हुआ करती थी. ऐसी ही एक घाटी है दारमा, जिसके सबसे आखिरी गांव में मौजूद है दांतू. दांतू गांव पंचाचूली पर्वत श्रंखला का बेसकैंप भी है. इसी गांव से जसुली देवी की दुनिया शुरू होती है. दरअसल, जसुली देवी, रं जनजाती से आती थी. शक्ति प्रसाद सकलानी की किताब “उत्तराखण्ड की विभूतियां” के अनुसार जसुली देवी की अनुमानित जन्मतिथि 19 वीं सदी के पहले दशक में मानी जाती है. उनके अनुसार साल 1805 में जसुली देवी का जन्म हुआ था.
जसुली अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थी. जसुली देवी के परिवार से ही ताल्लुक रखने वाले स्व नैन सिंह बौनाल अपने एक लेख में बताते हैं कि जसुली देवी का विवाह व्यापारी जम्बू सिंह के साथ हुआ था. उनका एक बेटा बछुआ हुआ, जो जन्म से ही बोल पाने में असमर्थ था और जन्म के कुछ समय बाद ही उसकी मौत हो गई. बेटे की मौत के कुछ समय बाद पति जम्बू सिंह दताल भी चल बसे. जसुली देवी के परिवार की आर्थिक हालात पूरे इलाके में सबसे अच्छी थी. उधर, पति जम्बू सिंह मरने से पहले जसुली को उस धन दौलत के बारे में भी बता गये, जो उन्होंने खेतों में दबा कर रखी हुई थी. अनुमान है कि खेतों में ही दबी दौलत करोड़ों रूपयों के बराबर थी. धनी परिवार से होने की वजह से उनका सम्पूर्ण क्षेत्र में बड़ा रूतबा भी था.
जिस दिन जम्बू सिंह का अंतिम संस्कार होना था. उस दिन जसूली देवी ने अपने नौकर-चाकरों को आदेश दिया और कहा कि दांतू गांव से न्योला नदी के किनारे तक निगाल की एक चटाई बिछाई जाए. असल में ये वो वक्त था जब अमीर लोग गंगा में दान करने को पुण्य का काम मानते थे. लेकिन ये दान भी कुछ सिक्कों को नदी में बहा देने भर से होता था. क्योंकि लोगों के पास इससे ज्यादा दान करने के लिये होता ही नहीं था. लेकिन जसुली देवी की बात कुछ और थी. उनके पास धन संपदा की कोई कमी नहीं थी और न ही उन्हें अब पति और बेटे की मौत के बाद कोई मोह रह गया था.
बहरहाल, जसुली देवी के आदेश के बाद नौकर तैयारियों में जुट गए. इसी दिन दारमां घाटी में कुछ अंग्रेज अधिकारियों का दौरा भी सुनिश्चित था जिनमें तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे भी शामिल था. आसपास के गांव वालों को मालूम था कि जसुली देवी पति की मौत के बाद बचे हुए सारे धन को नदी में प्रवाहित करने वाली हैं. ज़ाहिर तौर पर जो अंग्रेज अधिकारी वहां पहुंचे उन्हें भी ये बात मालूम हो गई और ये सब सुनकर वो हैरत में पड़ गए. ऐसे में अंग्रेज अधिकारियों ने जसुली देवी से मिलने की इच्छा जा़हिर की.
जसूली देवी इस वक्त तक नदी के किनारे पहुंच चुकी थी और सोने-चांदी के सिक्के बहाने लगी थी. कुछ बोरों में भरे सिक्के नदी के प्रवाह में बह भी चुके थे. अंग्रेज अधिकारी तुरन्त वहां पहुंचे और जसूली देवी को रोक लिया. अंग्रेज अधिकारी, जसूली देवी से मिले तो उन्होंने जसूली को समझाया कि इस तरह इतने सारे धन को नदी में बहा देना व्यर्थ है. ये कोई दान नहीं है असल दान तब होगा जब आप इस धन को बहाने की बजाय आसपास के क्षेत्र में कोई धर्मशालाएं, सड़क, विद्यालय या अस्पताल बनवाएं जो कि जनता के काम भी आएगा और जिससे आने वाली पीढ़ी आपको याद रखेगी. जसूली देवी, अंग्रेज अधिकारियों की बात ध्यान से सुन रही थी. वो उनकी बात से सहमत भी थी. जसूली देवी के पास मौजूद इतनी संपत्ति को देख अंग्रेज आश्चर्य में थे और माना जाता है कि इसके बाद से ही अंग्रेजों ने दारमां घाटी को दारमां परगना कहना शुरू किया.
कालान्तर में जसुली देवी ने बचे हुए धन का उपयोग धर्मशालाएं बनाने में किया. नेपाल के डोटी और आवछाम में, साथ ही तिब्बत की कुछ मुख्य जगहों पर जसूली ने कम से कम 250 धर्मशालाओं का निर्माण किया. कुछ लेखों के अनुसार जसुली देवी ने धारचूला से लेकर हल्द्वानी तक करीब 300 धर्मशालाएं बनवाईं. जसूली देवी ने नेपाल, तिब्बत और कुमाऊं क्षेत्र में कुल मिलाकर 500 से ज्यादा धर्मशालाओं की स्थापना की. इसके बाद भी जो कुछ धनराशि बच गई थी, उसे जसूली ने अल्मोड़ा बैंक में जमा कर दिया. कहा जाता है कि ये धनराशि अब भी बैंक में ही जमा है.
इस तरह से सैकड़ों धर्मशालाओं के निर्माण के बाद जसूली देवी, दानवीर जसूली देवी शौक्याणी के नाम से जानी जाने लगी. जसुली द्वारा निर्मित धर्मशालाएं देवाल, नारायण तेवाणी, अल्मोड़ा के खतौनी संख्या 144 खेत 04 क्षेत्रफल 10 नाली, 5 मुट्ठी अभी भी मौजूद है. जसूली देवी द्वारा अधिकतर धर्मशालाएं उन मार्गों पर भी बनाई गई थीं जो भोटिया व्यापारियों की यात्रा का प्रमुख पड़ाव होते थे.
जसूली देवी ने कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर भी कुछ धर्मशालाएं बनवाई थीं. इन धर्मशालाओं के बनने के करीब डेढ़ सौ साल बाद तक भी लोग इनका उपयोग करते रहे. साल 1970 तक जब सड़कों की पहुंच गांव-गांव तक हो गई तब इनमें से अधिकतर धर्मशालाएं उपेक्षित हो गई.
जसूली शौक्याणी से जुड़ी एक और दिलचस्प बात ये भी है कि अपने जीवन का बाकि बचा समय उन्होंने कुतिया दताल के साथ उनकी पत्नी बनकर बिताया. कुतिया दताल के बेटे सेन सिंह दताल को जसुली ने अपना भी बेटा मान लिया था. जसूली देवी के पौत्र हुए सनपाल सिंह दताल. सनपाल सिंह दताल के सगे भांजे नैन सिंह बौनल थे. जिनका ज़िक्र हमने शुरूआत में भी किया था.
जसूली देवी के जन्म के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण कम ही मिलता है. शक्ति प्रसाद सकलानी की किताब “उत्तराखण्ड की विभूतियां” के अनुसार जसुली देवी का अनुमानित जन्म वर्ष 1805 है और मृत्यु का वर्ष 1895. संभवतरू इस बात में काफी हद तक सत्यता भी हो.
बहरहाल, पिथौरागढ़ से धारचूला के बीच मौजूद एक जगह सतगढ़ में जसूली देवी द्वारा बनाई गई धर्मशालाएं अपने खंडहर रूप में अब भी दिख जाया करती हैं. स्थानीय प्रशासन द्वारा कई बार इन पुरानी धर्मशालाओं के नवीनीकरण की बात तो कही जा चुकी हैं मगर ये बातें भी सिर्फ हवाई ही रह गई हैं. हालांकि कुछ जगहों पर इन धर्मशालाओं की स्थिति को सुधारा ज़रूर गया है.
मसलन, पिछले साल नैनीताल के सुयालबाड़ी क्षेत्र में जसूली देवी द्वारा बनाई गई धर्मशालाओं को नया स्वरूप दिया गया है. काकड़ी घाट में मौजूद धर्मशाला का भी जीर्णोद्धार किया गया था. सुयालबाड़ी में स्थित धर्मशाला को टूरिज़्म डेस्टिनेशन के रूप में डेवलप करने के लिए इसे 13 जिले 13 डेस्टिनेशन योजना में शामिल किया गया है.
जसुली देवी के गांव दांतु में आज उनका एक मंदिर भी बनाया गया है. रं कल्याण समिति लम्बे अरसे से इन धर्मशालाओं को पुरातत्व धरोहर घोषित करने की बात कहते आई है. प्रदेश सरकार को भी ये सुनिश्चित करना चाहिए कि पहाड़ की ऐसी विरासतों को सहेज़ कर रखा जाए ताकि भावी पीढ़ी अपने इतिहास और ऐतिहासिक शख्सियतों के बारे में जान सके.
स्क्रिप्ट: अमन रावत
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