कबूतरी देवी: पहाड़ की पहली ‘स्थापित’ लोकगायिका

  • 2023
  • 14:31

साल 1995. सीमांत क्षेत्र पिथौरागढ़ में ‘आज का पहाड़’ अख़बार के संपादक बद्रीदत्त कसनियाल, स्थानीय लोक कलाकारों पर आधारित लेखों की एक सीरीज़ प्रकाशित कर रहे थे. इस दौरान वो ऐसे कलाकारों की भी खोज कर रहे थे जिन्होंने एक दौर में प्रसिद्धि तो खूब पाई, मगर अब गुमनामी की ज़िंदगी जीने को मजबूर थे. उनके साथी नरेश जोशी ने तब उन्हें एक ऐसा नाम सुझाया जिन्हें उत्तराखंड की पहली लोक गायिका भी कहा जाता था. बद्रीदत्त कसनियाल और नरेश जोशी इस गायिका की खोज में निकल पड़े. वे जब क्वीतड़ गांव पहुंचे तो देखा कि उस गायिका की आर्थिक स्थिति दयनीय थी और वो दिहाड़ी-मज़दूरी करने को मजबूर हो गई थीं. कसनियाल ने उनसे लम्बी बातचीत की और ‘आज का पहाड़’ में उनके बारे में एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया. इस लेख ने गुमनामी के अंधेरों में खो चुकी लोक गायिका को जैसे एक नया जीवन दे दिया और पहाड़ की जनता के बीच उन्हें पुनर्स्थापित कर दिया.

इसके कुछ ही समय बाद 14 अक्टूबर 2000 के दिन पिथौरागढ़ के छलिया महोत्सव में जब हजारों की भीड़ को सम्बोधित करते हुए इस लोक गायिका ने अपनी खनकती हुई आवाज़ में गुनगुनाना शुरू किया तो श्रोता जैसे मंत्रमुग्ध हो गए. गुमनामी के अंधेरों से निकलकर पहाड़ की उस बेटी ने अपनी गायकी की दूसरी पारी का आगाज पूरी धमक के साथ जिस गीत से किया, उसके बोले थे ‘पहाड़ ठण्डो पाणि सुणि कसि मीठी वाणी’

इस महोत्सव की जो खबर अगले दिन के दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई उसमें स्थानीय पत्रकार रमेश गड़कोटी ने लिखा था, ‘तीन दिवसीय छलिया महोत्सव किसी और मायने में सफल रहा हो या नहीं, लेकिन इसके आयोजकों ने 21 साल से गुमनामी के अंधेरे में रह रही कबूतरी देवी को मंच पर लाकर महोत्सव की सार्थकता सिद्ध कर दी.’

ये महोत्सव सार्थक हुआ था कबूतरी देवी नाम की उस लोक गायिका की पुनर्स्थापना से जिन्हें पहाड़ में लोक संगीत के सबसे मजबूत हस्ताक्षरों में गिना गया, जिन्हें उत्तराखंड की ‘तीजन बाई’ और बेगम अख़्तर’ कहा गया, जिनकी आवाज़ में पहाड़ का पूरा सांस्कृतिक दर्शन बसता था और जिन्हें उत्तराखंड की पहली और एकमात्र लोक गायिका का ख़िताब, ख़ुद पहाड़ी समाज ने सौंपा था.

कबूतरी देवी का जन्म साल 1945 में उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले के दूरस्थ गांव लेटी में हुआ. देवराम और देवकी देवी के घर जन्मीं कबूतरी अपने दस भाई-बहनों में से तीसरी संतान थी. ये आज़ादी से पहले का वो दौर था जब साक्षरता पिथौरागढ़ – चम्पावत जैसे सुदूर इलाक़ों में किसी सपने से कम नहीं थी. हालाँकि कुछ स्कूल इन क्षेत्रों में खुल चुके थे लेकिन उनका घनत्व इतना कम था कि स्कूल जाने के लिए 10-12 मील पैदल चलना आम बात थी. कबूतरी देवी के गांव से भी स्कूल की दूरी करीब 14 मील थी. लेकिन इस दूरी को तय करने का अधिकार भी सिर्फ़ परिवार के बेटों को ही हासिल था. बेटियों को शिक्षित करने के लिए जब आज भी ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ जैसे नारे सरकार को गढ़ने पड़ते हैं तो ये कल्पना करना मुश्किल नहीं कि 1930-40 के दशक में देश के सीमांत क्षेत्र में कबूतरी देवी जैसे लड़कियाँ स्कूल क्यों नहीं भेजी गई होंगी.

बहरहाल, कबूतरी देवी को स्कूली शिक्षा तो नसीब नहीं हुई लेकिन संगीत उन्हें विरासत में मिला था. पहाड़ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में उमा भट्ट ने इसका विस्तार से जिक्र किया है. वे लिखती हैं, ‘कबूतरी के समाज में संगीत का माहौल था. उनके पिता देवराम दलित समाज से थे, जिनका पारम्परिक व्यवसाय संगीत से जुड़ा था. हुड़क्या, औजी आदि भूमिहीन दलित जातियाँ अपनी आजीविका के लिए चैत्र माह और शुभ कार्यों में सवर्ण जनों के घरों में जाकर ऋतु गीत सुनाया करती थीं. स्त्री-पुरुष दोनों की इसमें भागीदारी रहती. इसके अलावा पुरुष दर्ज़ी का भी काम करते और मज़दूरी तो स्त्री-पुरुष दोनों के ही हिस्से आती. इन सभी लोगों के घरों में तबला, हारमोनियम, सारंगी, हुड़का आदि वाद्य यंत्र होते थे. जब कभी भी लोग इकट्ठा होते तो संगीत की महफ़िलें जम जाती थीं. कबूतरी के पिता देवराम ने एक बार चमना गांव के उस्ताद देवीराम को अपने बच्चों को संगीत की शिक्षा देने के लिए अपने घर बुलाया. महफ़िल में बैठने पर किसी को यह न लगे कि उनके बच्चों को संगीत का ज्ञान नहीं है, इसलिए देवराम अपने बेटों-भतीजों को सिखाना चाहते थे. उस्ताद देवीराम, जिन्हें कई लोग संगीताचार्य कहते भी थे, तीन महीने तक उनके घर पर रहे. कबूतरी के जीवन में भी संगीत की नींव इसी वक्त मजबूत हुई.

कबूतरी के पिता सारंगी बजाते थे लेकिन गायन में उनकी पत्नी देवकी देवी उनसे ज़्यादा कुशल थी. देवकी ने अपने पिता से संगीत की शिक्षा ली थी. उनकी बहन भी एक दक्ष गायिका थीं. यानी कबूतरी के ननिहाल में संगीत का ज़बरदस्त माहौल था. उनके नाना, मामा, मौसी आदि सभी कलाकार थे. कबूतरी की माँ चाहती थी कि उनके बच्चे संगीत सीखें. उन्हें खुद बहुत से गीत और धुनें आती थीं. मरने तक भी वे बिस्तर में लेटे-लेटे गुनगुनाती रहती थी.’

ऐसे परिवेश में पलने का ही असर था कि संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा न मिलने के बाद भी कबूतरी देवी फाग, पटैं, चैती, तीन ताल, दादरा, प्रभाती और ठुमरी सब गा लेती थीं. लोग जब अपने घरों में शादी-ब्याह, नामकरण, मुंडन आदि अवसरों पर महफ़िल आयोजित करते तो स्थानीय कलाकारों को बुलाया जाता. ऐसे ही एक कार्यक्रम में कबूतरी देवी को एक बार 25 पैसे इनाम में मिले थे.

आगे चलकर जब भी कबूतरी देवी से पूछा जाता था कि उन्हें संगीत की शिक्षा कहां से मिली? तो इस सवाल पर हर बार वो एक ही जवाब देती थी – “अपने घर से”. कई बार वो अपने जवाब को आगे बढ़ाते हुए कहती थी, ‘मैंने संगीत की शिक्षा अपनी मां से ली. मां ने अपने पिता यानी मेरे नाना से सीखा. मेरे नाना उस्ताद थे. उन्होंने परम्परागत रूप से संगीत सीखा हुआ था.’ इसके साथ ही वो यह भी मानती थीं कि अगर उन्हें भी अपने भाइयों की तरह स्कूल जाने का अवसर मिलता तो वो संगीत में और भी बेहतर और ज़्यादा सीख सकती थीं. लेकिन औपचारिक शिक्षा के बिना भी कबूतरी देवी ने लोक परम्परा से मिले गीतों के साथ ही शास्त्र परम्परा से जुड़े गीतों को भी खूब साध लिया था. वे शादी-ब्याह में गाए जाने वाले शगुन गीत यानी फाग, वसंत के आगमन गाए जाने वाले चैतोल और जंगल के एकांत में गाए जाने वाली न्योली के साथ ही शास्त्रीय गीत भी गाया करती थीं.

कबूतरी देवी की आवाज़ को असल विस्तार, श्रोता और बड़े मंच उनकी शादी के बाद मिले और इसका पूरा श्रेय उन्होंने हमेशा अपने पति को दिया. उनके पति ने कैसे उन्हें एक स्थापित कलाकार बनाने में सहयोग किया, इसे समझने से पहले उस दौर की समाजिक-राजनीतिक स्थिति पर एक नजर डाल लेते हैं.

ये वो समय था जब 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद सीमांत क्षेत्रों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए राष्ट्रीयता का जमकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा था. इसके लिए एक तरफ आकाशवाणी केंद्र खुल रहे थे जहां से लोकगीतों का प्रसारण होने लगा था तो दूसरी तरफ गीत एवं नाट्य प्रभाग की स्थापना हो रही थी जिसमें सभी वर्णों के लोग मिलकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे थे. इसी माहौल से वो धारा भी निकली जिसमें मोहन उप्रेती, ब्रजेंद्र लाल शाह और तारादत्त सती जैसे लोगों ने लोक संगीत को एक नया आयाम दिया और कुमाऊँ की सांस्कृतिक पहचान के रूप में स्थापित किया. पहाड़ी लोक संगीत, भूले-बिसरे लोक गायकों और कबूतरी देवी जैसी नई प्रतिभाओं को इससे एक व्यापक फलक मिलने के रास्ते खुल गए.

कबूतरी देवी की शादी को तब कुछ ही साल हुए थे. उनके पति दीवानी राम पिथौरागढ़ से लगभग 30 किलोमीटर दूर क्वीतड़ गांव के रहने वाले थे और कबूतरी से 10 साल बड़े थे. ये उनकी दूसरी शादी थी जो 13 साल की कबूतरी से हुई थी. दीवानी राम ने 10 वीं तक की पढ़ाई की थी और कुछ साल मुम्बई में नौकरी भी की थी. इसके अलावा वो मुंबई, इलाहाबाद, कलकत्ता जैसे शहरों में खूब घूम चुके थे और एक बार तो विधायकी का चुनाव भी लड़ चुके थे. लोग उन्हें नेताजी कहकर पुकारते थे और उनकी पत्नी कबूतरी देवी भी उनका जिक्र ऐसे ही किया करती थीं. दीवानी राम जब घर पर रहते तो कपड़े सिलाई का काम करते थे लेकिन आमदनी कम ही होती और इसके चलते वो घर पर रुपया-पैसा कुछ नहीं देते. इस कारण अक्सर कबूतरी देवी और उनके बीच झगड़े भी होते. लेकिन इस शादी से कबूतरी देवी के गायन को मंच तक पहुँचने के रास्ते भी मिले.

दीवानी राम के चाचा यानी कबूतरी के चच्या ससुर भानुराम सुकोटि लखनऊ में लोक निर्माण विभाग में नौकरी किया करते थे और आकाशवाणी के लिए पहाड़ी गीत गाते थे. वो जानते थे कि कबूतरी देवी का गला सुरीला है. ऐसे में उन्होंने दीवानी राम को सलाह दी कि वो आकाशवाणी के लिए कबूतरी की आवाज़ का टेस्ट कराएं. दीवानी राम ने उनकी बात मानी और कबूतरी को लखनऊ ले गए. यहां पहुंचकर कबूतरी देवी ने आकाशवाणी लखनऊ में कई सारे पहाड़ी गीत सुनाए. 28 मई, 1979 को आकाशवाणी की स्वर परीक्षा उन्होंने पास की और पहला गीत आकाशवाणी लखनऊ में रिकॉर्ड किया. इसके बाद तो जैसे रिकॉर्डिंग का सिलसिला ही चल निकला.

कबूतरी देवी ने फिर आकाशवाणी नजीबाबाद और रामपुर समेत कई अन्य केन्द्रों में गीत रिकॉर्ड किए और अपनी सुरीली आवाज़ से सुनने वालों का दिल जीत लिया. कबूतरी देवी के चचिया ससुर भानुराम सुकोटी ख़ुद भी गीत लिखा करते थे जिनमें से कुछ गीत कबूतरी ने भी गाए. आकाशवाणी के नजीबाबाद केन्द्र से प्रसारित कार्यक्रम शैल संगीत से कबूतरी देवी की शानदार आवाज़ उत्तराखण्ड के गांव-कस्बों में गूंजने लगी थी. उस दौर में रेडियो ही किसी कलाकार को स्थापित करने का सबसे सशक्त माध्यम था और इसमें कबूतरी देवी ने 100 से ज्यादा पहाड़ी गीत गाकर श्रोताओं के बीच अपनी एक अलग पहचान बना ली थी. करीब पांच साल उन्होंने जमकर गाया और उनकी आवाज़ का जादू लोगों पर छाने लगा था. लेकिन वक्त ने एक बार फिर करवट ली और कबूतरी देवी को वापस गुमनामी की दुनिया में धकेल दिया.

साल 1984 में उनके पति दीवानी राम की मौत हो गई और इसके साथ ही उनके गायन का सफर भी थम गया. पति की मौत के वक्त कबूतरी देवी की छोटी बेटी हेमंती सिर्फ़ सात साल की थी. बच्चों की पूरी ज़िम्मेदारी अब कबूतरी पर आ चुकी थी और गायन में इतना पैसा नहीं था कि उससे ये जिम्मेदारी पूरी हो सके. आकाशवाणी में उन दिनों पारिश्रमिक के तौर पर 50 रुपए मिला करते थे. कबूतरी देवी को रिकॉर्डिंग के लिए गांव से शहर जाना होता था लिहाज़ा ये 50 रुपए उनके लिए नाकाफ़ी थे. ऐसे में दिहाड़ी-मजदूरी और खेतों में काम करना उनकी मजबूरी बन गई. कल तक जिन हाथों में हारमोनियम, तबला और हुड़का थे, अब उन हाथों में पत्थर तोड़ने के औजार आ चुके थे. हालांकि इस दौरान भी कबूतरी के गीत आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारित होते रहे थे मगर अब वो आकाशवाणी में रिकॉर्डिंग के लिए नहीं जा पा रही थीं.

साल 1995 तक कबूतरी देवी ने इसी तरह मेहनत-मज़दूरी कर अपने बच्चों को पाला. गायन और संगीत की दुनिया कहीं बहुत पीछे छूट चुकी थी और कबूतरी देवी एक बिसरा दी गई प्रतिभा हो चुकी थी. लेकिन फिर वो घटना हुई जिसका जिक्र इस कार्यक्रम की शुरुआत में किया गया था. बद्रीदत्त कसनियाल ने उन्हें खोज निकाला और उन पर विस्तृत लेख प्रकाशित किया. इस लेख के बाद पहाड़ के उन लोगों तक भी कबूतरी देवी की कहानी पहुंची जो उनकी ख्याति से रूबरू नहीं थे.

इसके करीब एक साल बाद 1996 में हेमराज बिष्ट ने ‘नवोदय कला केन्द्र’ नाम से एक संगठन बनाया. कई स्थानीय लोक कलाकार इससे जुड़े जिनमें कबूतरी देवी भी शामिल थी. कुछ साल बाद छलिया महोत्सव में भाग लेने के लिए हेमराज बिष्ट ने ही कबूतरी देवी से आग्रह किया. इसी महोत्सव में गाकर कबूतरी देवी ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की और लोगों को अपनी आवाज़ का एक बार फिर से मुरीद बना लिया.

कबूतरी देवी की आवाज़ फिर से उत्तराखण्ड के जन-जन तक पहुंचने लगी थी. सालों गुमनामी के अंधेरे में रहने के बाद कबूतरी देवी का नाम फिर से लोगों की ज़ुबान पर आने लगा था. इसे देखते हुए हेमराज बिष्ट ने उन्हें नवोदय कला केन्द्र का उपाध्यक्ष बनाया और उनसे आग्रह किया कि वे गांव से निकलकर पिथौरागढ़ में रहें और ग्रुप के काम-काज में भागीदारी बढ़ाएँ. लेकिन कबूतरी देवी को अपने गांव से बेहद लगाव था. गांव छोड़कर वो शहर में नहीं बसना चाहती थी. हालांकि कभी-कभी वो कार्यक्रमों में हिस्सा लेने ज़रूर जाती रही. लेकिन लोक संगीत में हो रहे बदलाव से वो असहज भी रहने लगी थी इसलिए ये सिलसिला भी ज़्यादा दिन नहीं चला.

गुमनामी से निकलने के बाद कबूतरी देवी ने कई सम्मान अर्जित किए. साल 2003 में मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति, अल्मोड़ा ने कबूतरी देवी को सम्मानित किया. दिसम्बर 2004 में पर्वतजन प्रकाशन समूह देहरादून द्वारा आयोजित कार्यक्रम में राज्यपाल के हाथों उन्हें सम्मानित किया गया. दिसम्बर 2008 में पहाड़ संस्था के 25 वर्ष पूरे होने पर कबूतरी देवी को रजत सम्मान से नवाज़ा गया. 2011 में शैलवाणी ने उन्हें लोक संस्कृति सम्मान दिया. 2014 में उत्तराखण्ड लोक भाषा साहित्य मंच, नई दिल्ली ने उन्हें महाकवि कन्हैया लाल डंडरियाल लोक गायन सम्मान दिया गया. ऐसे ही कई अन्य सम्मानों के साथ ही साल 2016 में कबूतरी देवी को उत्तराखण्ड सरकार द्वारा लोक संस्कृति का लाइफ़ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार भी दिया गया.

जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों से परिपक्व हुआ और समाज की संवेदनाओं को समेटे हुए कबूतरी देवी का कंठ साल 2018 में हमेशा के लिए शांत हो गया. 6 जुलाई 2018 के उस दिन कबूतरी अपने गाँव में ही थी जब उनके पेट में अचानक तेज दर्द शुरू हुआ. उस वक्त उनके साथ उनकी नातिन रिंकी के अलावा और कोई नहीं था. आस-पड़ोस में खबर दी गई तो गांव के ही कुछ लोगों ने उन्हें पिथौरागढ़ के सरकारी अस्पताल पहुँचाया. यहां बात नहीं बनी और डॉक्टरों ने उन्हें तुरंत हल्द्वानी ले जाने को कहा. जिला प्रशासन को सूचित किया गया तो उनके लिए हैलीकॉप्टर की व्यवस्था भी हो गई लेकिन खऱाब मौसम के चलते हैलीकॉप्टर उड़ान न भर सका. पिथौरागढ़ के उसी सरकारी अस्तपाल में 7 जुलाई 2018 के दिन पहाड़ की पहली लोक गायिका ने अंतिम सांस ली. उनकी बेटी हेमन्ती ने ही उनका अंतिम संस्कार किया और सैकड़ों लोग उनके अंतिम दर्शन में शामिल हुए.

कबूतरी देवी के गीतों का अब तक भी संकलन नहीं हो सका है. हालाँकि अलग-अलग कार्यक्रमों में गाए गए उनके कुछ गीत यू-ट्यूब पर जरूर उपलब्ध हैं. कई लोगों ने उनसे, उनके गीतों का कैसेट बनाने का आग्रह भी किया था लेकिन वो इसके लिए कभी तैयार नहीं हुई. स्टेज कार्यक्रमों के दौरान उनसे जिस गीत की सबसे ज़्यादा फ़रमाइश की जाती वो था ‘आज पनि जौं-जौं’.

(गाना बजते हुए…)

इस खूबसूरत और कल्ट गीत का मतलब है कि आज चले जाऊं या कल चले जाऊं, परसों तो जाना ही होगा. मुझे बस स्टेशन तक छोड़ने साथ चलो, परदेश में तो सब वीरान ही होगा.

अपना गांव-परिवार छोड़कर रोजगार की तलाश में परदेश जा रहे इंसान की व्यथा को शानदार शब्दों में पिरोता ये गीत, आज भी प्रासंगिक है और कबूतरी देवी की आवाज़ में हमेशा पहाड़ी समाज के दिलों को छूता रहेगा. जाते-जाते एक दिलचस्प जानकारी आपको और देते हैं. कबूतरी देवी की विरासत के कुछ अंश हमारे बीच आज भी हैं और पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं. अपनी गायिकी से पूरे देश का दिल जीत लेने वाले इंडियन आइडल विजेता पवनदीप राजन असल में कबूतरी देवी के ही परिवार से हैं. पवनदीप की नानी और कबूतरी देवी सगी बहनें थीं.

स्क्रिप्ट: अमन रावत

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