‘काफल पाको’: उत्तराखंड की सबसे चर्चित लोक कहानी

  • 2022
  • 10:19

दूर एक पहाड़ सदियों से तपस्या में था.. और शायद इसलिए वहां के पहाड़ियों के हिस्से में संघर्ष आया. आता भी क्यों न तपस्या में अकसर परीक्षा होती है…. पहाड़ तप करता गया और पहाड़ी परीक्षा देते गए. हालांकि सबकी परीक्षाएं एक जैसी नहीं होती.. यहां भी डार्विन का जीवन संघर्ष सिद्धांत काम करता है या यूं कहें कि नियति खेल खेलती है. ऐसे ही संघर्ष और नियति की डोर से बंधी थी एक माँ और बेटी.

माँ अपनी पीठ पर पहाड़ ढोती थी और बेटी लदे पहाड़ से सुंदर-सुंदर फूल तोड़ कर अपनी कंडी सजाती थी. लेकिन, फूलों से पेट नहीं भरता इसलिए, माँ ने हमेशा बेटी को ढोने की सीख दी. ज़िम्मेदारी से लेकर, घास, लकड़ी, गोबर, पत्थर.. वह सब कुछ अपने साथ ढुलवाया जिससे उनके घर चुल्हा जल सके.

लेकिन समय का पहिया हर साल बदलता था और आता था गर्मियों का मौसम जब उन दोनों के संघर्ष में तिल जितनी ही सही … लेकिन कमी आती थी. दरअसल, उस मौसम जंगलों में काफल लगते थे. वह छोटे-छोटे जंगली बेर सरीके फल उनके लिए पहाड़ का प्रसाद थे.

माँ जंगल जाती और खूब सारे काफल तोड़ लाती और फिर उन्हें बेच कर कुछ पैसे कमा लेती. वह चंद पैसे उनके लिए कुबेर का खज़ाना था. जब माँ काफल बेचने जाती, बेटी घर के सारे काम करती और जब माँ वापस आती, तो साथ लाए पैसे देखकर अपने सपनों की कंडी में फिर फूल सजाने लगती.

उनके लिए, थोड़ी सी उम्मीद ज़िंदगी का उत्सव थी… लेकिन कभी-कभी उत्सव खत्म होने से पहले खत्म हो जाता है.. ऐसा ही कुछ उनके साथ भी हुआ.

एक सुबह माँ और बेटी जंगल गए. उन्होंने पूरी एक टोकरी काफल इकट्ठे किए. बच्ची का मन बार-बार दो-चार दाने खाने का कर रहा था, लेकिन मां ने साफ मना कर दिया. आखिरकार, उन्हें बेचकर ही तो घर का गुज़ारा होना था.

लेकिन बेटी ने बुरा नहीं माना.. वह माँ के साथ पहाड़ की ऊंचाई चढ़ती गई और एक एक काफल तोड़कर टोकरी में भरती रही.

मन की इच्छा और समझदारी के फर्क को समझने में कई लोगों की ज़िंदगी निकल जाती है.. लेकिन जब ज़िंदगी के घर के दरवाज़ों पर भूख दस्तक देती है, इच्छाएं खिड़कियों से सर्र से बाहर निकल जाती हैं. बेटी की ज़िंदगी भी उसी घर की तरह थी.. वह जानती थी कि दरवाज़े पर भूख जल्द ही दस्तक देने आ जाएगी.. शायद इसलिए उसे बुरा नहीं लगा बल्कि वह दरवाज़े पर आई भूख को भगाने की कोशिशों में माँ के साथ जुट गई.

ऐसा भी नहीं था कि माँ को बेटी की इच्छा का पता नहीं था. बेटी को छोटी-छोटी चीज़ों के लिए मना करना उसका कलेजा दुखा देता था. उसकी बेटी के अलावा उसका और था ही कौन. वह खुद भी इसलिए थी.. क्योंकि उसकी बेटी थी. लेकिन बेटी को बुनियादी सुखों से दूर करने का दुख उसे हर रोज़ कचोटता.. कितनी रातें होती जब एक रोटी होने पर वह बेटी को पूरी की पूरी रोटी दे देती और खुद पानी पीकर चैन से सो जाती, लेकिन जब एक भी रोटी नहीं होती.. तो बेटी को भूखा सुलाना उसके लिए मृत्यु जैसा होता था. उसका मन इस दर्द से भरा हुआ था.. जो अकसर टीस बनकर गाता…

कभी खूब सी आँगड़ी चदरी, धोती मैं त्वै कुनी ल्हायो,

मेरा मोर तिन अरो बिचारी, कभी पेट भरि खाणु नि खायो।

हँसुली-धगुली दूर रई पर, एक सूत भी मिन नि गढ़ायो,

त्यरा नाक को मुरखलु तक भी, पापी पेट की भेंट चढ़ायो।

दुख का साथ कुछ ऐसा ही था… लेकिन इस वक्त नहीं.. क्योंकि आज उन दोनों ने काफलों से पूरी टोकरी भर ली थी. माँ जानती थी कि आज उसकी बेटी भर पेट खाना खाएगी और इससे उसका अपराधबोध थोड़ा कम हो गया था. दोनों अपने घर वापस आती है कि तभी माँ देखती है कि उसके जानवरों के पास चारा नहीं है. वह एक पल सोचती है कि बेटी को घास के लिए भेज दूं लेकिन फिर सोचती है कि बेटी थक गई है उसे आराम करने देती हूं और काफल आज दिन की जगह शाम को बेच दूंगी.

माँ अपनी दरांती और जूड़ू यानी रस्सी उठाती है और अपनी बेटी से कहती है

“मैं घास लेने जा रही हूं, लेकिन बेटी इनका ध्यान रखना.. और जब तक मैं न आऊं इन्हें बिलकुल मत खाना.. मुझे पता है तुझे काफल खाने हैं, लेकिन बाज़ार वाले हिस्से पूरे हो जाएंगे, तो मैं तेरे लिए थोड़े निकाल दूंगी..”

बेटी माँ के आदेश का जंग में खड़े किसी सैनिक की तरह पालन करती है और काफलों का पूरा ध्यान रखती है. हालांकि, इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन ललचाया, लेकिन उसने अपने मन को पूरा काबू किया और एक भी काफल नहीं खाया. पहरेदारी और इंतज़ार में उसकी नींद लग गई और दोपहर होते-होते उसकी माँ आ गई.

लेकिन जैसे ही माँ ने टोकरी देखी उसकी आँखें फटी की फटी रह गई.. मेहनत से लाए काफल कम हो गए थे. मां का शरीर भूख में सुबह से काम करते-करते टूट चुका था और कम हुए काफल से उसकी उम्मीद भी चकनाचूर हो गई थी. उसने काफल की टोकरी के पास सोई अपनी बेटी देखी और उसे बहुत गुस्सा आया… कि मना करने के बावजूद, बेटी ने काफल खा लिए.

क्रोध इंसान को अंधा कर देता है और यहां भी यही हुआ.. माँ ने अपने घास की गठरी एक तरफ फेंकी और बेटी को उठाकर गुस्से में पूछा

“काफल कम कैसे हुए? तूने खाए ना? क्यों खाए.. मैंने मना किया था न.. अब मैं क्या बेचूंगी.. बता क्यों खाए”

इस पर बेटी बोली –

“नहीं मां, मैंने तो चखे भी नहीं! मैं तो यहां इनकी रखवाली कर रही थी.. मैंने काफल नहीं खाए.

पर माँ ने उसकी एक नहीं सुनी, माँ का गुस्सा बहुत बढ़ गया और उसने बेटी को मारना शुरू कर दिया। बेटी रोते-रोते कहती गई की मैंने नहीं चखे, पर माँ ने उसकी एक नहीं सुनी

और लगातार मारते गई जिससे बेटी अधमरी सी हो गई…… और आखिरकार मारते मारते एक वार ज़ोर से किया जिससे वह छटककर आँगन में गिर पड़ी और उसका सर पत्थर में लगा जिससे उसकी वही मौत हो गई.

बेटी का बहता खून देखकर माँ को एहसास हुआ कि उसने क्या कर दिया है, उसने बेटी को गोद में उठा कर माफ़ी मांगी, उसे खूब सहलाया, सीने से लगाया, देर तक उसे हिलाती डुलाती रही, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, बेटी दम तोड़ चुकी थी और माँ एक ज़िंदा लाश बन चुकी थी. उसने अपने इकलौते सहारे को, अपनी ही औलाद को अपने हाथों से मार डाला.

पहाड़, सूरज, आसमान और काफलों की टोकरी इस दुख के गवाह थे, सब वहीं रहे लेकिन सूरज हर रोज़ की तरह डूबा और जब शाम की चादर फैली तो काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई. जब ज़िंदा लाश बनी माँ की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा गए थे और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए.

अब अपराधबोध की हर सीमा पार हो चुकी थी.. माँ ने अपना सर पीटा और उसी पल सदमे से गुजर गई. पहाड़ के दो पहाड़ी नियति और जीवन संघर्ष के खेल में हार गए.

कहा जाता है कि वे दोनों माँ बेटी मर के चिड़िया बन गईं और जब भी पहाड़ो में काफल पकते हैं तो एक चिड़िया बड़े दर्द भरे भाव से गाती है – ‘काफल पाको! मैंल नी चाखो!’ यानी काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं और तभी दूसरी चिड़िया पुकार कर कहती है पुर पुतई पूर पूर! यानी पूरे हैं बेटी पूरे हैं.

Script: Priyanka Goswami

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