लोहारी गांव का आख़िरी दिन

  • 2022
  • 16:40

लोहारी गांव के लोग मायूस और गुस्सा दोनों हैं.  मायूस इसलिये कि उनके पुरखों की जमीन उनके ही सामने जल समाधि ले रही है और गुस्सा इसलिये कि बिना उचित मुआवजा दिये ही उन्हें महज 48 घंटे के भीतर गांव खाली करने का सरकारी फरमान सुना दिया गया.

अब गांव में झील का पानी भरने लगा है. गांव में एक माध्यमिक स्कूल है, जिसमें महज नौ कमरे हैं. इन कमरों में गांव के बुजुर्ग और बच्चों को रखा गया है. बाकी लोग खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं. ऐसा इसलिये, क्योंकि महज 48 घंटे में गांव के लोग अपने नये ठिकाने की व्यवस्था नहीं कर पाये हैं. गांव की महिलायें अपने बच्चों का ये हाल देखकर रो रही हैं और पुरूष बैचेनी से यहां वहां देख रहे हैं.

उत्तराखंड में, व्यासी जलविद्युत परियोजना जल्द ही बिजली पैदा करना शुरू कर देगी.120 मेगावाट का यह स्टेशन 420 मेगावाट की लखवार-व्यासी परियोजना का हिस्सा है, जो यमुना नदी पर सबसे बड़ा जलविद्युत बांध है. अगले चरण पर काम, व्यासी बांध के 5 किलोमीटर ऊपर 300 मेगावाट लखवार परियोजना इसी साल शुरू होने वाली है.

सत्तर के दशक के पूर्वाद्व में शुरू हुई ये परियोजना 1992 में रुक गई थी. पुरानी मंजूरी के आधार पर इसे 2014 में विवादास्पद रूप से पुनर्जीवित किया गया था। व्यासी परियोजना से आसपास के 6 गांव के 334 परिवार प्रभावित हो रहे हैं. इनमें से एक जौनसार-भाबर की अनूठी संस्कृति और परंपरा वाला जनजातीय आबादी वाला गांव लोहारी भी है. 72 परिवार वाला ये पूरा गांव झील में समा जाएगा. लेकिन पुनर्वास और मुआवज़े को लेकर ग्रामीणों का राज्य सरकार से समझौता नहीं हो सका है. इस गांव की विडबंना है कि बिना जमीन दिये ही इस गांव को डूबा दिया जा रहा है.

गांव के खेत पर लगाया गया वो पीला निशान डूब गया है जो झील का 626 मीटर का स्तर दर्शाता है. ग्रामीणों ने बताया कि यहां तक पानी चढ़ने पर उनके खेत डूब जाएंगे. जब हम गांव पहुंचे तो जल स्तर 624 मीटर था.  631 मीटर पर पूरा गांव डूब जाएगा. बेहद सुंदर-पर्वतीय शैली में लकड़ियों से बने दो मंज़िले घर झील में समा जाएंगे. एक पूरी सभ्यता डूब जाएगी.

लोहारी गांव लखवाड़ और व्यासी दोनों परियोजनाओं से प्रभावित हो रहा है. लखवाड़-व्यासी परियोजना के लिए वर्ष 1972 में सरकार और ग्रामीणों के बीच ज़मीन अधिग्रहण का समझौता हुआ था. 1977-1989 के बीच गांव की 8,495 हेक्टेअर भूमि अधिग्रहित की जा चुकी है. जबकि लखवाड़ परियोजना के लिए करीब 9 हेक्टेअर ज़मीन का अधिग्रहण किया जाना बाकी है. गांव वालों का आरोप है कि जहां टिहरी बांध प्रभावितों को जमीन के बदले जमीन दी गई और मकानों दुकानों के निर्माण के लिये अच्छी खासी रकम दी गई, वहीं लोहारी गांव वालों को जमीन नहीं दी गई.

गांव वाले साल 1972 के समझौते के दस्तावेज दिखाते हैं. जिसमें भविष्य में अधिग्रहण पर ज़मीन के बदले ज़मीन की बात लिखी थी.

उत्तराखंड सरकार वर्ष 2021 में कैबिनेट बैठक में इस मांग को ख़ारिज कर चुकी है. भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के तहत पुनर्वास के लिए जनसुनवाई और 70 प्रभावितों की सहमति होनी चाहिए.

लोहारी गांव में जनसुनवाई नहीं हुई. खेतों के बदले जो मुआवजा दिया भी गया, वो 11 चरणों मे दिया गया. इन 11 अधिग्रहणों को समिति के अध्यक्ष नरेश चौहान अपना ही उदाहरण देकर समझाते हैं. वो बताते हैं कि उनके जन्म से चार साल पहले पहला अधिग्रहण 1972 में हुआ. उस वक्त उनके दादा को बताया गया कि केवल उनके दो खेत आयंगे. उसका कुछ न्यूनतम धन उनके परिवार को दिया गया.

फिर 1976 में दूसरा अधिग्रहण किया गया. इस बार फिर बताया गया कि महज तीन खेत आयेंगे. फिर से न्यूनतम आर्थिक मुआवजा दिया गया. ऐसे करते करते, 11 बार भूमि अधिग्रहण किया गया. प्रभावितों को वक्त वक्त में मिला थोड़ा थोड़ा मुआवजा खर्च होता रहा. अगर एक साथ पूरी जमीन का अधिग्रहण किया जाता. जैसे की सभी बांधों में प्रभावित गांवों का होता ही है. तो हम भी कहीं और जमीन खरीद लेते. लेकिन आज न हमारे पास धन है और न ही जमीन.

Scroll to top