उत्तराखंड के रवाईं क्षेत्र में एक ऐसा मंदिर है जिसमें किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं है. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर के पुजारी तक इसमें प्रवेश नहीं कर सकते. कई दशकों में एक-आध बार जब मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए प्रवेश अनिवार्य हो जाता है, सिर्फ़ तभी मंदिर के पुजारी मंदिर में दाखिल होते हैं और जीर्णोद्धार का काम निपटा कर लौट आते हैं. आख़िरी बार साल 1998 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और तभी मंदिर के पुजारी इसमें दाखिल हुए थे. यानी बीते 25 सालों से कोई भी व्यक्ति इस मंदिर के अंदर नहीं गया है. इस मंदिर के गर्भ गृह में दिव्य शक्ति किस रूप में विराजमान है, यह आज भी एक रहस्य ही है. मड़केश्वर महादेव नाम के इस मंदिर में हर साल एक मौक़ा ऐसा ज़रूर आता है जब मंदिर के बाहर पूरी धाम-धाम से हवन-पूजन होता है. रवाईं घाटी का सबसे बड़ा त्योहार ‘देवलांग’, इस हवन के बिना पूरा नहीं होता. देवलांग उत्सव क्या है, ये कहाँ, कब, क्यों और कैसे मनाया जाता है और इसमें मड़केश्वर महादेव के रहस्यमयी मंदिर की क्या भूमिका है, इन तमाम बातों के बारे में आज आपको विस्तार से बताते हैं.
उत्तरकाशी जिले का रवाईं क्षेत्र अपनी विशिष्ट संस्कृति के साथ ही कई विशेष पर्व और परंपराओं के लिए जाना जाता है. ऐसा ही एक पर्व है देवलांग जो दीपावली के ठीक एक महीने बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या के दिन मनाया जाता है. इस त्योहार के पीछे एक पौराणिक मान्यता का जिक्र महिशरण सेमवाल की किताब ‘श्री रघुनाथ चरित्रावली’ में मिलता है. वो लिखते हैं कि पौराणिक दृष्टि से देवलांग का सम्बंध सृष्टि की रचना के समय से ही किया जा सकता है. संसार की उत्पत्ति के समय विष्णु भगवान की नाभि से कमल के फूल की उत्पत्ति हुई थी जिसके ऊपर ब्रह्मा जी अवतरित हुए. वे जैसे ही कमल नाल से नीचे उतरे, उन्हें सबसे पहले विष्णु भगवान दिखाई दिए. ब्रह्मा जी का कहना था कि सृष्टि पर सबसे पहले मैंने जन्म लिया है, इसलिए इस संसार की उत्पत्ति का श्रेय तो मुझे ही मिलना चाहिए. ब्रह्मा जी की इस बात को सुनकर विष्णु भगवान ने कहा कि आपने मेरी कमल नाल से जन्म लिया है इसलिए पहली उत्पत्ति मेरी मानी जानी चाहिए. दोनों देवों के बीच जब यह विवाद चल रहा था तभी एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और इसके साथ ही आकाशवाणी हुई कि आप दोनों में से जो भी इस ज्योतिर्लिंग के आदि या अंत का पता पहले लगा लेगा, वही श्रेष्ठ माना जाएगा.
तब ब्रह्मा जी को देवलोक की ओर भेजा गया जिसमें उन्हें भू लोक से होकर भुवः लोक, स्वः लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक और सत्य लोक तक जान था. जबकि विष्णु भगवान को पाताल लोक की ओर भेजा गया जिसमें उन्हें इस लोक से होकर अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, भूतल और पाताल तक ज्योतिर्लिंग के आदि-अंत का पता लगाने पहुंचना था. यानी दोनों देवों को इस ज्योतिर्लिंग की खोज में से भूलोक के ऊपर और नीचे के उन सभी 14 भुवनों को नापना था जिन्हें सामूहिक रूप से ब्रह्मांड कहा गया है.
काफी समय बीत जाने के बाद भी जब ज्योतिर्लिंग के आदि-अंत का कोई पता नहीं चला तो भगवान विष्णु पाताल लोक की तरफ से वापस लौटे और उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे ज्योतिर्लिंग का छोर खोजने में नाकाम रहे. दूसरी तरफ ब्रह्मा जी ने एक चालाकी करनी चाही. वे स्वर्गलोक से अपने साथ एक गाय और एक केतकी का फूल ले आए थे. इन्हें साक्षी बताते हुए उन्होंने कहा कि मुझे ज्योतिर्लिंग मिल गया और उसी के ऊपर से मैं यह केतकी का फूल लाया हूँ. उनके साथ आई गाय ने भी उनके पक्ष में गवाही देते हुए कहा कि ब्रह्मा जी ने ज्योतिर्लिंग का पता लगा लिया है.
भोलेनाथ इस बात को जानते थे की ब्रह्मा जी झूठ बोल रहे हैं और केतकी पुष्प के साथ ही गाय भी उनके झूठ में शामिल है. ऐसे में भगवान शिव ने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि संसार में कहीं भी तुम्हारी पूजा नहीं की जाएगी. इसके साथ ही उन्होंने गाय को भी श्राप दिया कि उसने मुख से झूठ बोला है इसलिए वह पूज्य तो होगी लेकिन उसके मुख की पूजा नहीं की जाएगी केतकी के फूल को भी कभी किसी पूजा अनुष्ठान में नहीं चढ़ाया जाएगा.
‘श्री रघुनाथ चरित्रावली’ के लेखक महिशरण सेमवाल मानते हैं कि रवाईं क्षेत्र के देवलांग महोत्सव के मूल में यही पौराणिक कथा निहित रही होगी क्योंकि देवलांग सीधे-सीधे इस समूचे क्षेत्र का एकमात्र ज्योतिर्मय पर्व है. वे यह भी बताते हैं कि शिव पुराण के नवें और दसवें अध्याय में शिवजी ने कहा है कि ‘मार्गशीर्ष माह में जो मेरे लिंग की पूजा-अर्चना और दर्शन करता है, उसे महाफल की प्राप्ति होती है.’ इसी पौराणिक महत्व के चलते हर साल मार्गशीर्ष माह में मड़केश्वर महादेव की पावन भूमि पर स्थित रघुनाथ मंदिर में देवलांग के रूप में उस दिव्य ज्योतिर्लिंग की पूजा होती है.
देवलांग मेले की तैयारियां एक महीने पहले से ही शुरू हो जाती हैं. इसमें कई गाँव के लोगों की हिस्सेदारी होती है और सभी गांवों को अलग अलग तरह की जिम्मेदारियाँ सौंपी जाती हैं. जैसे देवलांग की तैयारी की पूरी जिम्मेदारी साठी थोक के वजीरों को दी जाती है. बियाली बनाल के हरिजन परिवारों को देवलांग के लिए कैल और देवदार के पेड़ की लकड़ियाँ लाने की जिम्मेदारी मिली है. यह लोग महीने भर तक लकड़ी को सुखाते हैं और फिर देवलांग के दिन सभी गांव वाले व्रत रखते हैं और इन लकड़ियों को पीठ पर लाद कर गैल मंदिर तक पहुँचाते हैं. देवलांग के लिए लकड़ियाँ लाने का अधिकार पूरी तरह से बियांली गाँव के लोगों को दिया जाता है. अगर किसी और गाँव के लोग लकड़ियाँ ले भी आते हैं तो उन्हें देवलांग पर नहीं चढ़ाया जाता है. यह परंपरा सदियों से ऐसे ही चलती आ रही है.
देवलांग दो अलग-अलग शब्दों में बना है जिसमें देव का अर्थ देवता से है और लांग पेड़ के एक सीधे और लम्बे तने को कहते हैं. देवलांग पर बांधी जाने वली सूखी लकड़ी के अलावा देवलांग के लिए देवदार के हरे पेड़ की भी आवश्यकता होती है. इस हरे पेड़ को लाने की जिम्मेदारी गैर बनाल के ‘नटाण परिवार’ की होती है. ये लोग उस पेड़ को काटते हैं जो सबसे लंबा होता है. जैसे ही मंदिर में देवलांग का पेड़ पहुँचता है, वहाँ मौजूद सभी लोग पेड़ के स्वागत में लग जाते हैं. धूप, दीपक और फूलों की माला के साथ देवलांगरूपी वृक्ष का स्वागत किया जाता है.
देवलांग के लिए मंदिर में लाए गए देवदार के पेड़ पर सूखे लकड़ी के फट्टों को बांधने का जिम्मा भी बियांली गाँव के लोगों का होता है. ये लोग बेल वाले पेड़ को भी मंदिर लेकर आते है और उनके गोलाकार घेरे बनाते हैं, जिन्हे ‘किनल’ कहा जाता है. इन्हीं किनलों की मदद से लकड़ी के सूखे फट्टों को देवदार के पेड़ पर बांधा जाता है. पूरे पेड़ पर एक के बाद एक घेर बनाया जाता है. उसके बाद देवलांग को भरने की प्रक्रिया शुरू होती है. गोलाकार किनलों के बीच देवलांग पर सूखी लकड़ी को ठूँस-ठूँस कर भरा जाता है.
देवलांग पर आग लगाने का अधिकार ‘थोक’ वालों को दिया गया है. इसमे सबसे पहले आराध्य इष्ट देव श्री रघुनाथ, डांडा देवता, मड़केश्वर महादेव, संकटारू महाराज और वन देवताओ की पूजा अर्चना की जाती है. सबसे पहले मंगल तिलक यानि की टिका लगाने का हक कोटी और बखरेटी के थोकदारों, गैर के नटाण परिवार के लोगों और बियांली के लोगों को दिया जाता है.
देवलांग जब पूरी तरह बन कर तैयार हो जाता है तो पूजा-अर्चना और मंगल तिलक के बाद थोकदार, थोकवासियों को एक प्रज्ज्वलित मशाल सौंपते हैं. इसे देवलांग पर्व मनाने की स्वीकृति माना जाता है और फिर उत्साही जन-सैलाब देवलांग की ओर बढ़ता है. पारम्परिक लोकवाद्यों की गूंज के बीच देवलांग को उठाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है. कभी-कभी तो विशाल देवलांग पहले ही प्रयास में खड़ा कर दिया जाता है लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि कई प्रयासों के बाद देवलांग को स्थापित करने में पूरी रात बीत जाती है. उत्साही युवा जब देवलांग को स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते हैं तो उत्सव का यह नजारा अद्भुत होता है. इसे ही देखने के लिए दूर-दूर लोग यहाँ पहुँचते हैं. बनाल पट्टी के गाँव साठी और पानशाही थोक में बंटे हुए हैं. देवलांग में इन दोनों ही थोकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. साठी थोक के वज़ीर कोटी गांव के रावत परिवार से आते हैं जबकि पानशाही थोक के बकरेटी गाँव के चौहान परिवार से. देवलांग को खड़ा करने में साठी और पानशाही थोक, दोनों की अहम भूमिका होती है. इन थोकों में वज़ीर एक पदवी होती है जिनके ऊपर पूरे देवलांग उत्सव के प्रबंधन की भी ज़िम्मेदारी होती है.
देवलांग को उठाने की एक शर्त यह भी होती है कि इसे सीधे हाथों से नहीं बल्कि लकड़ियों के सहारे खड़ा करना होता है और यही इस पूरी प्रक्रिया को चुनौतीपूर्ण भी बना देता है. लेकिन स्थानीय लोग मानते हैं कि राजा रघुनाथ की कृपा से सुबह होने से पहले ही देवलांग हर हाल में स्थापित हो ही जाता है. मंदिर परिसर में जैसे ही देवलांग खड़ी होती है ढोल-दमाऊ के ताल बदल जाते हैं और प्रतिस्पर्धी संगीत धुनें उत्सवी हो जाता है.
देवदार के पेड़ से बनी देवलांग की मशाल को स्थानीय भाषा में ओल्ला या ओला कहा जाता है. ब्याली गांव के ख़बडेई परिवार के लोग मशाल जलाकर लाते हैं. ये मशाल फिर साठी और पानशाही थोक के वज़ीरों को सौंपी जाती है जो इन्हें आगे बांटते हैं. तब देवलांग पर बंधे छिलकों में आग लगाई जाती है जो सुबह होने तक जलती है. देवलांग पर बंधे छिलकों की राख को हटाने की जिम्मेदारी भानी गांव के लोगों की होती है.
श्री रघुनाथ के मंदिर में होने वाले देवलांग पर्व के आखिरी ओले यानी मशाल को गौल गाँव के पास देवदार के घने जंगलों में स्थित भगवान मड़केश्वर महादेव के मंदिर में ले जाया जाता है. ये वही मंदिर है जिसका जिक्र हमने इस कार्यक्रम की शुरुआत में किया था. मान्यता है कि मड़केश्वर महादेव मंदिर में साक्षात भगवान शिव का वास है. स्थानीय लोगों मानते हैं कि भगवान शिव आज भी इस मंदिर में तपस्या में लीन है. यही वजह है गौल गांव में आज भी च्यूड़ा नहीं कूटा जाता जबकि यही देवलांग का प्रमुख प्रसाद भी होता है. क्योंकि स्थानीय लोगों का विश्वास है कि धान का च्यूड़ा कूटने के दौरान ओखल में जो धमक पैदा होती है राजा रघुनाथ और मड़केश्वर महादेव की तपस्या में व्यवधान हो सकता है. ऐसे में अन्य गांव के लोग गौला गांव वालों को तैयार च्यूड़ा भेंट करते हैं.
मड़केश्वर महादेव मंदिर में पूजा का अधिकार सिर्फ स्थानीय गौड़ ब्राह्मणों को है. कोई अन्य व्यक्ति मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता है. बल्कि नियुक्त किए गए पुजारी भी सिर्फ़ तभी इस मंदिर में प्रवेश करते हैं जब इसके जीर्णोद्धार के लिए ऐसा करना आती आवश्यक हो. बीते सौ साल में सिर्फ़ दो बार ही ऐसा किया गया है. एक बार साल 1943 में दूसरी बार साल 1998 में किसी व्यक्ति ने इस मंदिर में प्रवेश किया था.
इस मंदिर के भीतर भले ही कभी कोई प्रवेश नहीं करता लेकिन देवलांग के दौरान हर साल इसके प्रांगण में भव्य यज्ञ आयोजित होता है. देवलांग का समापन भी इसी मंदिर में होने वाले यज्ञ के साथ होता है जब गडोली बनाल के गौड़ ब्राह्मण देवलांग की आखिरी मशाल यानि ओले को हवन पूजन के साथ विसर्जित करते हैं और पूरे क्षेत्र की सुख समृद्धि की कामना करते है.
स्क्रिप्ट: वैष्णवी भट्ट
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