एक दिन, एक हफ़्ते या एक महीने में आप कुल कितने कदम चलते हैं इसका ट्रैक रखने के लिए आज तमाम तरह के स्मार्ट फ़ोन और स्मार्ट वॉच मौजूद हैं. लेकिन आज से क़रीब डेढ़ सौ साल पहले एक आदमी ऐसा भी हुआ जिसने दुर्गम पठारों और कठिन दर्रों को पार करते हुए क़रीब दो हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा की. इस यात्रा में वो 25 लाख कदम चला और अपने एक-एक कदम का बेहद नपा-तुला हिसाब उसने बिना किसी स्मार्ट फ़ोन या स्मार्ट वॉच के दर्ज किया.
उसकी इस यात्रा के बाद ही दुनिया के सामने हिमालय के पार की अबूझ दुनिया की गुत्थी सुलझी. विश्व मानचित्र पर पहली बास ल्हासा का सटीक नक़्शा बन सका और पहली बार दुनिया ने जाना कि ब्रह्मपुत्र और त्संगपो असल में एक ही नदी है.
उसकी यात्राएं इब्न बतूता, ह्वेन त्सांग, फ्रांसिस बर्नियर या मार्कोपोला की यात्राओं से किसी भी तरह कमतर नहीं रही और यही कारण है कि ब्रिटिश रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी के इतिहास का पहला सर्वोच्च सम्मान उसे मिला, पेरिस जियोग्राफिकल सोसायटी का सर्वोच्च पदक उसके नाम हुआ, सर्वे ऑफ़ इंडिया का gold medal उसने जीता और चीफ पंडित, ओरिजिनल पंडित और पंडितों का पंडित जैसे उपनामों से वो नवाज़ा गया.
पूरे एशिया की पीठ को अपने पैरों से नाप डालने वाले इस व्यक्ति का नाम था, पंडित नैन सिंह रावत. .
साल 1757. प्लासी का युद्ध अंग्रेज जीत चुके थे और ईस्ट इंडिया कम्पनी की रणनीति अब बदलने लगी थी. भारतीय उपमहाद्वीप के दूरस्थ इलाकों पर भी अपना अधिकार जमा लेना अब उनका मुख्य उद्देश्य बन गया था. इसके लिए ज़रूरी था कि हिमालय के आर-पार के इलाकों को बारीकी से समझा जाए. लिहाज़ा 1767 में ‘सर्वे ऑफ़ इंडिया’ की स्थापना की गई और इलाके की पैमाईश शुरू हुई.
ये किसी महा-परियोजना से कम नहीं था. पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का भौगोलिक सर्वेक्षण हो रहा था. इसके लिए साल 1802 में ‘Great Trigonometrical Survey’ की शुरुआत हुई जिसे ‘ग्रेट आर्क’ भी कहा जाता है. इस समय तक पूरे यूरोप में ये मान्यता थी कि दक्षिणी अमेरिका की एंडीज पर्वत माला ही दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत माला है. साल 1809-10 में जब सर्वेयर वेब, रेपर और कोलब्रुक ने दुनिया को बताया कि हिमालय के शिखर 25 हजार फ़ीट से भी ऊँचे हैं तो अधिकांश लोगों को इसका विश्वास ही नहीं हुआ.
तक़रीबन आधी सदी बीत जाने के बाद यानी साल 1860 तक उत्तर में तिब्बती सीमांत से लेकर दक्षिण में लंका तक के पूरे क्षेत्र का सर्वे किया जा चुका था. इसमें सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी साल 1852 में ‘पीक 15’ यानी माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई का पता लगाना. लेकिन हिमालय के पार की गुत्थी अब भी अनसुलझी ही थी. तिब्बत अब भी एक रहस्यमय और वर्जित क्षेत्र बना हुआ था.
Great Trigonometrical Survey के पचास साल पूरे हो चुके थे. इतिहासकारों के अनुसार उस दौर के युद्धों में भी इतना पैसा खर्च नहीं हुआ था और इतने लोग नहीं मारे गए थे जितने इस सर्वेक्षण को पूरा करने में मारे जा चुके थे. सर्वे विभाग के कई सर्वोच्च अधिकारी तक इस सर्वेक्षण में मारे गए या अपंग होकर इंग्लैंड वापस लौटे. लेकिन इस सब के बावजूद भी तिब्बत एक अबूझ पहेली बना हुआ था.
असल में तिब्बती प्रशासक किसी भी विदेशी और ख़ास तौर से यूरोपियंस को अपने क्षेत्र में नहीं आने देते थे. कई सर्वेयर तिब्बत में घुसने के दुस्साहस के चलते मारे जा चुके थे. ऐसे में सर्वे ऑफ़ इंडिया के सर्वेयर टीजी मांटगोमरी ने इसका समाधान खोजते हुए सुझाया कि तिब्बत के सर्वे के लिए सिर्फ़ हिमालयी इलाके के भारतीयों को ही भेजा जाए. ऐसे भारतीय जिन्हें तिब्बती भाषा का ज्ञान हो और जिनके नैन-नक़्श तिब्बतियों से मिलते-जुलते हों. व्यापार और तीर्थ यात्रा के लिए तिब्बत जाने वाले कुमाऊँ की जोहार घाटी के निवासी इसके लिए सबसे उपयुक्त साबित हुए. इनमें से जिन्हें तिब्बत भेजने के लिए चुना गया उन्हें पंडित या मुंशी नाम मिला.
इन लोगों को तिब्बती भाषा सिखाई गई, वहां के नामों का उच्चारण सिखाया गया, तिब्बती पहनावे से परिचित करवाया गया, गुप्त जेबें बनाने और उनमें डायरी या सर्वे के उपकरण छिपाने की ट्रेनिंग दी गई, ‘ओम् मणि पद्मे हुम’ का माला-जाप रटवाया गया और सर्वे में पारंगत बनाया गया. इन लोगों में से जो सबसे प्रतिभाशाली और प्रखर साबित हुए वो थे पंडित नैन सिंह रावत. उन्हें ‘पंडित-ए’, ‘चीफ पंडित’, ‘अरिजिनल पंडित’ और ‘नंबर-एक’ जैसे उपनाम मिले और इस अभियान के पहले और सबसे प्रमुख व्यक्ति बनने का सौभाग्य भी.
लेकिन नैन सिंह रावत का पंडित बन जाने का सफर इतना आसान भी नहीं था. इस पड़ाव तक पहुँचने से पहले उनका जीवन बेहद कठिन और दर्द भरा रहा. नैन सिंह के पिता अमर सिंह ने एक ऐसा दुस्साहस किया था कि उन्हें उनके परिवार, सम्पत्ति और समाज से बेदख़ल कर दिया गया. अमर सिंह शादीशुदा होते हुए एक अन्य विवाहिता से प्रेम कर बैठे थे और उन्हें अपने घर ले आए थे. वैसे बायगैमी यानी बहुविवाह तो उस दौर में एक आम बात थी लेकिन अमर सिंह अपनी दूसरी पत्नी के रूप में जिन्हें ले आए थे, वो एक विवाहिता थी.
अमर सिंह के इस दुस्साहस को न तो उनके परिवार ने स्वीकार किया और न ही उनके समाज ने. उनके भाइयों ने उन्हें सभी चल-अचल सम्पत्तियों से बेदख़ल कर दिया और समाज ने गांव छोड़ देने को मजबूर. प्रताड़ित अमर सिंह अपनी दोनों पत्नियों को लेकर मुनस्यारी के सामने गोरी नदी के पार भटकूड़ा नाम के एक गांव में आ बसे. अपनी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी के लिए उन्होंने कुमाऊँ कमिश्नर ट्रेल के न्यायालय में एक आवेदन भी डाला. मुफ़लिसी में दिन काट रहे अमर सिंह के परिवार के लिए अब न्यायालय ही आख़िरी उम्मीद थी. लेकिन जब यहाँ से भी फैसला उनके पक्ष में नहीं आया तो ये सदमा उनकी पत्नियाँ बर्दाश्त नहीं कर सकीं और दोनों ने ही एक साथ गोरी नदी में कूद कर अपनी जान दे दी.
अमर सिंह के लिए ये दौर बेहद कठिन और दर्द भरा था. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ख़ुद को टूटने नहीं दिया. किसी तरह अपनी आजीविका चलाई और कुछ सालों बाद एक नए परिवार की शुरुआत की. शौका समुदाय से तो उन्हें बहिष्कृत किया जा चुका था लिहाज़ा वहाँ उनकी शादी होना असम्भव नहीं था. लेकिन 1825 में उन्होंने जसुली नाम की एक जुमाल राजपूत लड़की से शादी की. इस शादी से उन्हें चार बच्चे हुए जिनमें दूसरे नंबर के थे नैन सिंह.
नैन सिंह का बचपन भी बेहद दर्द भरा रहा. वो सिर्फ़ 8 साल के थे जब उनकी माँ का देहांत हो गया और उनके 18 साल का होने से पहले ही पिता भी चल बसे. अपनी मौत से कुछ समय पहले ही अमर सिंह अपने बच्चों और चौथी पत्नी को लेकर अपने मूल गाँव मिलम लौट आए थे. हालाँकि उनके परिवार ने उन्हें अब भी स्वीकार नहीं किया था लेकिन अपने समुदाय में लौट आना बच्चों के लिए बेहतर साबित हुआ.
मिलम उस दौर में भारत-तिब्बत व्यापार के चलते बेहद गुलज़ार रहा करता था और कुमाऊँ का सबसे बड़ा गांव हुआ करता था. शौका समुदाय के लोग यहीं से तिब्बत की मंडियों में आते-जाते थे. भारत से अनाज, सूती कपड़े, गुड़, चीनी, तंबाकू, चमड़े का सामान और कई तरह के बर्तन निर्यात किए जाते और तिब्बत से ऊन, पशम, चंवर गाय की पूँछ, नमक, मक्खन, सोना और भेड़-बकरी-घोड़े जैसे जानवर आयात किए जाते थे.
नैन सिंह बचपन से इस गांव में रहे होते तो अब तक वो भी तिब्बत की एक न एक यात्रा जरूर कर चुके होते लेकिन सामाजिक बहिष्कार के चलते उनका पूरा बचपन अपने गांव और समुदाय से दूर बीता था जिसके चलते वो न सिर्फ़ अपने पारंपरिक व्यवसाय से अनभिज्ञ रहे बल्कि उस शिक्षा से भी वंचित रहे जो अपने समुदाय में उन्हें स्वतः ही मिलती.
पहले माँ और फिर पिता की मौत के बाद नैन सिंह और उनके भाई बेसहारा हो चुके थे. वे लोग अपने गांव तो लौट आए थे लेकिन परिवार से बेदख़ल होने के चलते न तो उनके पास अपना मकान था और न ही पारम्परिक व्यापार में कोई हिस्सेदारी. आगे चलकर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाने वाले नैन सिंह इस दौर में बेहद लाचार थे. और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब सौतेली मां से हुई कहा-सुनी के बाद नैन सिंह घर छोड़ कर चले गए.
21 साल के नैन सिंह की ये पहली यात्रा थी. मिलम से मुनस्यारी और फिर कालामुनी पर्वत और बेदिनी बुग्याल पार करते हुए वो जोशीमठ और फिर बद्रीनाथ पहुँचे. यहां के माणा गांव में मिलम वालों की रिश्तेदारी थी. नैन सिंह एक परिचित के घर पर रहने लगे और कुछ समय बाद यहीं शादी करके वो घर-जमाई बन गए. उनकी पत्नी उमती तब उनसे आधी उमर यानी सिर्फ़ 10 साल की थी. क़रीब तीन साल माणा गांव में आरामदायक जीवन जीने के बाद नैन सिंह ने वापस अपने गांव लौटने की ठानी और अपनी पत्नी को लेकर मिलम लौटे.
पैसों की तंगी अब भी बनी हुई थी और अब तो नैन सिंह पर अपनी पत्नी की भी जिम्मेदारी थी. लिहाज़ा अब उन्होंने व्यापार करने का मन बनाया. उन्होंने अपने चचेरे भाई से कुछ रुपए उधार लिए और बिरादरी के अन्य व्यापारियों के साथ निकल पड़े. ये नैन सिंह की दूसरी यात्रा थी लेकिन इस बार वो घर से भाग कर नहीं बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत व्यापार के लिए निकले थे. इस यात्रा में उन्हें उत्तराखंड को पार करते हुए हिमाचल जाना था और फिर तिब्बत होते हुए वापस लौटना था. आज के नक्शे में इस यात्रा को समझने की कोशिश करें तो इसमें गोरी, सरयू, रामगंगा, कोसी, गंगा, यमुना, सतलज, ब्यास, चंद्रभागा, स्पीती और गुंखा नदियों को पार करते हुए जाना था.
नैन सिंह ने ये यात्रा पूरी तो की लेकिन एक बार फिर से क़िस्मत ने उनका साथ नहीं दिया. वो जानवरों के व्यापार के लिए निकले थे लेकिन उनके ख़रीदे गए ज़्यादातर जानवर वापसी में एक बीमारी के चलते मारे गए और उन्हें व्यापार में बड़ा नुक़सान हो गया. उनका समय, मेहनत, पैसा सब कुछ बर्बाद हुआ और वो क़र्ज़ में और भी बुरी तरह फंस गए.
लेकिन अब उनकी ज़िंदगी का वो सबसे बड़ा पल आने ही वाला था जिसने उन्हें ‘द ग्रेट पंडित’ बनाया. ये वही समय था जब सर्वेक्षण की प्रक्रिया पूरे हिमालय में फैलने वाली थी. क़र्ज़ में डूबे नैन सिंह को मालूम चला कि जर्मनी से आए हुए कुछ सर्वे वैज्ञानिक लद्दाक और तुर्किस्तान की तरफ जा रहे हैं और उन्हें कुछ सहयोगियों की जरूरत है. नैन सिंह ये नहीं जानते थे कि सर्वे वैज्ञानिकों के साथ उन्हें क्या करना होगा. लेकिन अपनी ग़रीबी और क़र्ज़ से निकलने के लिए वो कुछ भी करने को तैयार थे और यही एक मात्र रास्ता था जिसमें वो बिना कोई पूँजी लगाए कुछ पैसा कमा सकते थे.
इन जर्मन वैज्ञानिकों के साथ नैन सिंह के ताऊ का बेटा मानी सिंह भी जाने वाला था. मानी सिंह इससे पहले भी कुछ वैज्ञानिकों के साथ कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जा चुका था. नैन सिंह अपने इस भाई के पास पहुँचे और उसे बताया कि वो भी इस यात्रा में चलना चाहते हैं. लेकिन मानी सिंह ने उन्हें साथ ले जाने से साफ इंकार कर दिया.
नैन सिंह इस बात से बेहद दुखी हुए और अपने दर्द को उन्होंने अपनी डायरी में कुछ इस तरह से दर्ज किया:
‘भाई माणी ने मुझे अपने साथ लेने से इनकार किया वल्के कई लफ़्ज़ें सक्त कही मैंने जाना कि मेरे नसीहत के लिए कहता है फिर भी वहुत अरज और मिन्नत की लेक्किं साथ लेने में कवूल न हुआ यद्दपि वह अपने साथ के लिए दोल्पा पांगती वग़ैरह जो उस्के रिश्ते में नहिं था वड़ी मिन्नत से चिट्ठी लिख लिख कर वुला रहा था यह हाल और अपने नसीव की खूवी को सोचकर मैं रो गया उसी वक्त उठकर ताऊ फतेसिंह का लड़का वड़ा माणी जो हमारी कौम में सर गिरोह था अक्सर मेरी पर मिहर्वानी रखता था उनके घर में जाकर रोरोकर सब हाल जो कुछ भाई माणी पटवारी ने कहा था सुनाया मुझे रोता हुआ देखकर भाई वड़ा माणी ने उसी वक्त एक आदमी के द्वारा माणी पटवारी को बुलाकर कह दिया कि नैन सिंह को साथ ले जावो यह तेरा सव तरह फर्मावरदार रहेगा क्योंकि हक़ीक़त में अपना अपना ही होता है विगाना विगाना ही होता गरज कि बहुत ही समझाने से माणी पटवारी ने मुझे साथ लेना कवूल किया.’
भाइयों के समझाने पर मानी सिंह मान तो गया और नैन सिंह को साथ ले गया लेकिन इस पूरी यात्रा में वो नैन सिंह के प्रति बेहद निर्मम बना रहा. इन लोगों को पहले देहरादून और फिर शिमला पहुंचना था जहां स्लांगेटवाइट ब्रदर्स नाम के
तीन जर्मन सर्वेयर इनका इंतज़ार कर रहे थे. इस यात्रा में मानी ने नैन सिंह को किसी कुली से भी ज़्यादा बोझ थमाए रखा और लगभग हर पड़ाव पर उनसे अपनी मालिश करवाई, कपड़े धुलवाए और अन्य निजी काम करवाए. यहां तक कि एक बार तो अपने बदले व्रत तक रखवाया. यानी भूखे नैन सिंह रहे और व्रत मानी सिंह का माना गया.
नैन सिंह ने अपनी डायरी में लिखा है:
‘मैं पीठ में वोझ लेकर साथ चलता तो भी मेरा काम कि डेरे में पहुंच कर भाई का पैर मलना अस्नान वाद धोती धोना और विस्तरा विछा देना वगैरह टहल नित्य अपनें पर मैंने निश्चय ठहरा लिया था क्योंकि मानी मुझसे उमर में और रुतवे में भी बड़ा था उसका ख़िदमत करने में मुझे कुछ लाज नहीं थी वलके अपनें तई धन्य जानकर सेवा टहल किया करता पर तमाशा यह था कि नौकरान भाई के खाली चलते रास्ते में वोझ का सवव मैं थककर पीछे रह जाता परंतु भाई साहब अपने नौकरों से कभी नहि कहता कि नैनसिंह थाल गया उसका वोझ तुम वांट लो वल्के इसके वदले नौकरान को लड़छड़ाते हुएं खाली चलना खुशामद पसंदी की बातें सुनना अपने को सवारी में चलना चचेरे भाई पर वोझ होना उस्की ख़ुद पसंदगी और शानशौक़त की जेआयश थी गरज कितने ही मंज़िल तै करते हुएं एक रोज़ सुबह के रोटी खाने कीं वक्त नैनीताल के नज़दीक भुवाली नाम मुक़ाम पर पहुँचे उस रोज़ शिव चतुर्दशी का दिन था भाई ने फर्माया कि मेरी सवारी का घोड़ा तो घर का वापीश गया आज मेरा व्रत का दिन है मैं चल नहिं सकूँगा मेरे बदले कोई व्रत ले तो मैं सवेरे का खाना खालू मैंने कहा कि आपके वदले व्रत मैं करूँगा.’
भाई के ऐसे ही दुर्व्यवहार के बीच 40 दिनों में क़रीब 450 मील का सफ़र तय करने के बाद नैन सिंह शिमला पहुँचे और स्लांगेटवाइट भाइयों से मिले. आगे की यात्रा उन्होंने इन्हीं वैज्ञानिकों के साथ की और अपनी प्रतिभा से तीनों वैज्ञानिकों को अपना मुरीद बना लिया. नैन सिंह ने बहुत कम समय में ही कंपास और बैरोमीटर से परीक्षण करना सीख लिया और सफलता पूर्वक सर्वेक्षण करने लगे. इसके अलावा उन्होंने स्लांगेटवाइट भाइयों को तिब्बती भाषा भी सिखाई. नैन सिंह की प्रतिभा से ये तीनों भाई इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नैन सिंह को तीन साल के लिए अपने साथ लंदन चलने का प्रस्ताव दिया.
प्रस्ताव था कि इंग्लैंड चलने पर नैन सिंह को सौ रुपए महीना दिया जाएगा और जाने से पहले एक हजार रुपए घर के गुज़ारे के लिए मिलेंगे. ये रक़म नैन सिंह के लिए बहुत बड़ी थी. लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने लंदन जाने के लिए तुरंत हामी नहीं भरी. वो इसलिए कि उस दौर में सात समंदर पार जाने में सामाजिक बहिष्कार का डर था. अलमोड़ा में तो साल 1900 के बाद भी समंदर पार जाने वालों को समाज से बेदख़ल कर दिए जाने का डर रहता था. कुमाऊँनी कवि गौरीदत्त पांडे के भाई भोला दत्त जब पढ़ाई के लिए जापान गए तो उन्हें जाति से बेदख़ल कर दिया गया था. गोबर, गौमूत्र और गंगाजल से स्नान के बाद भी उन्हें जाति में वापस नहीं लिया गया.
नैन सिंह के लिए तो ये डर और भी बड़ा था. अपने पिता की दूसरी शादी के चलते उनका परिवार कई साल तक अपने समाज से बेदख़ल किया जा चुका था. बड़ी मुश्किल से उनके जीवन में विपत्तियों का दौर समाप्त हुआ था. इसलिए लंदन के प्रस्ताव ने नैन सिंह को खुश करने की जगह असमंजस में डाल दिया. असमंजस ये कि अगर वो हाँ कहें तो कहीं समाज से बेदख़ल न कर दिया जाए और अगर न कहें तो साहब लोग नाराज़ न हो जाएं.
इसी असमंजस में डूबे नैन सिंह ने जब ये बात अपने भाई मानी को बताई तो उन्हें उम्मीद थी कि भाई उनकी इस उपलब्धि पर खुश होगा. लेकिन मानी उल्टे नाराज़ हो गया. मानी को ये ईर्षा हुई कि ऐसा प्रस्ताव उसे नहीं मिला जबकि वो पहले से सर्वेक्षण के काम में शामिल रहा था. उसने इसे अपना अपमान समझा और नैन सिंह को साफ-साफ लंदन जाने से मना कर दिया. मानी ने नैन सिंह से जो कहा वो उनकी डायरी में कूच इस तरह दर्ज है,
‘अगर तू इंग्लैंड को जाता है तो तू हमारे तर्फ से अभी मर गया तेरे लिए छाक अभी छोड़ते हैं गरज कई वातें दिखला का जाने से माना किया तव मैंने पूछा कि साहब तो मानता नहिं कहा कि आज रात को ख़ात में कूच कर जाओ’
भोले-भाले नैन सिंह ने मानी की बात मान ली और इंग्लैंड जाने की बजाय वो रातों-रात चुपचाप भाग कर भाई की बताई खात नाम की जगह की तरफ चले गए. अपने साहबों को वे अलविदा भी नहीं कह सके. बस माफ़ी-नामे के तौर पर उन्होंने एक पत्र स्लांगेटवाइट भाइयों के नाम रख छोड़ा और चुपचाप ख़ात के लिए निकल गए. यहां दो महीनों तक उन्होंने मानी का इंतज़ार किया. जो कुछ पैसा उन्होंने कमाया था वो इस दो महीने में लगभग खत्म हो गया. इसके बाद जब वो गांव पहुंचे तो स्थिति लगभग पहले जैसे ही बनी हुई थी. नैन सिंह की ये तीसरी यात्रा भी उनकी स्थिति सुधार नहीं सकी थी. लेकिन इस यात्रा ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया था और यही सीख उनकी अगली यात्रा में सबसे ज़्यादा काम आई और इसी ने उन्हें एक मामूली नैन सिंह से द ग्रेट पंडित नैन सिंह रावत बना दिया.
इस अगली यात्रा शुरुआत तब हुई जब कुमाऊँ के इंस्पेक्टर ऑफ़ द पब्लिक इन्स्ट्रक्शन डिपार्टमेंट एडमंड स्मिथ ने नैन सिंह को सलाह दी कि उन्हें Great Trigonometrical Survey में नौकरी के लिए देहरादून जाना चाहिए. इस वक्त तक नैन सिंह मिलम में ही एक स्कूल में पढ़ाने लगे थे. लेकिन यहाँ से होने वाली आमदनी से परिवार का खर्चा पूरा नहीं हो पा रहा था और इसी सिलसिले में वो एडमंड स्मिथ से मिले थे. स्मिथ की सलाह उन्हें पसंद आई और इस तरह नैन सिंह देहरादून पहुंचे.
यहां उन्हें प्रॉपर ट्रेनिंग दी गई. इस ट्रेनिंग में उनका भाई मानी भी साथ था जो आगे चलकर मानी कंपासी के नाम से चर्चित हुआ. ट्रेनिंग के दौरान इन लोगों को कंपास, बैरोमीटर और रूट सर्वे के तमाम उपकरणों का इस्तेमाल सिखाया गया. इनमें से काफी चीज़ें तो नैन सिंह अपनी पिछली यात्रा में ही सीख चुके थे लिहाज़ा इस ट्रेनिंग में वो सबसे बेहतरीन साबित हुए. क़रीब एक साल के प्रशिक्षण के बाद उन्हें जिम्मेदारी मिली कि वो तिब्बत जाएं और मिलम और मानसरोवर होकर ल्हासा तक का नक़्शा बनाएँ.
इस सर्वे के लिए नैन सिंह को एक माला भी दी गई थी. इस माला में 108 की जगह बस सौ दाने थे. सौ कदम चलने पर नैन सिंह माला का एक दाना आगे खिसका देते. यानी याने सौ दानों की माला का एक फेरा पूरा होते ही नैन सिंह, दस हजार कदम चलकर ठीक पांच मील की दूरी तय करते थे और इसी तरह अपने नपे-तुले कदमों को माला के दानों से गिनते हुए दर्ज किया करते.
नैन सिंह और उनके भाई मानी सिंह 1865 में काठमांडू होते हुए तिब्बत में दाखिल हुए. मानी सिंह तो कुछ ही दिनों बाद पश्चिमी तिब्बत से वापस लौट गए लेकिन नैन सिंह व्यापारियों के कारवां के साथ एक लामा के वेश में ल्हासा पहुंचे. उन्होंने दुनिया में सबसे पहले ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई नापी और इस शहर के अक्षांश और देशान्तर की गणना की. ये काम कितना कठिन रहा होगा इसका अंदाज़ ऐसे लगाइए कि गणना करने के बाद नैन सिंह उन्हें या तो कविताओं के रुप में याद रखते या फिर पूजा-चक्र में छुपा कर रख देते. कई बार तो वे पकड़े जाने से बाल-बाल बचे.
तिब्बत को नापते हुए नैन सिंह ने मानसरोवर के रास्ते कुल 1200 मील की पैदल यात्रा की और अपना पहला अभियान 1866 में सफलतापूर्वक पूरा किया. फिर 1867 से शुरू हुए अपने दूसरे अभियान में नैन सिंह ने पश्चिमी तिब्बत का भौगोलिक सर्वे किया. और 1874-75 में अपने आखिरी सफर में वो लेह से ल्हासा होते हुए वो तवांग पहुंचे.
नैन सिंह पहले व्यक्ति थे जो सांगपो नदी के साथ 800 किलोमीटर पैदल चले. उन्होंने ही दुनिया को बताया कि सांगपो और ब्रहमपुत्र असल में एक ही नदी है. उन्होंने ही सतलज और सिन्धु के उद्गम भी खोजे और सर्वेयरों की एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसमें उनके बाद उनके बाद उनके चचेरे भाई किशन सिंह, कल्याण सिंह आदि ने विभिन्न इलाकों से तिब्बत में प्रवेश कर महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारियां जुटाई. इन्हीं जानकारियों के आधार पर कैप्टन मांटगोमरी ने तिब्बत का सटीक नक्शा बनाया.
पंडित नैन ने अपनी यात्राओं के दौरान सैकड़ों पन्ने लिखे जो आज भी शोधकर्ताओं के लिए किसी ग्रंथ के कम नहीं हैं. सर्वे ऑफ़ इंडिया में रखे गए इन दस्तावेज़ों को देख कर समझा जा सकता है कि कैसे लगातार मौत से खेलते हुए नैन सिंह ये जानकारियाँ जुटा रहे थे. कठिन और जानलेवा भूगोल में यात्रा करना तो जोखिम भरा था ही लेकिन खतरा ये भी था कि तिब्बतियों द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें मौत की सजा दी जा सकती थी. इस सब के बीच नैन सिंह ने तापमान, अक्षांश, देशांतर, ऊँचाई, कदमों की संख्या और तारों की पड़ताल करते हुए तमाम जानकारी जुटाई भी और उन्हें सुरक्षित अपनी डायरी में दर्ज भी किया. इतिहासकार डा शेखर पाठक ने इन डायरियों को अलग-अलग इलाकों से खोज कर उन पर शोध किया और ‘एशिया की पीठ पर’ नाम से किताब लिखी. ये किताब पंडित नैन सिंह के पूरे जीवन और उनकी यात्राओं पर विस्तार से प्रकाश डालती है. हमारे इस कार्यक्रम की स्क्रिप्ट भी डॉक्टर शेखर पाठक की किताब के आधार पर ही लिखी गई है.
नैन साई रावत को उनके सर्वेक्षणों के लिए देश-दुनिया में कई सम्मान दिए गए. 25 मई 1868 को ‘रॉयल ज्योग्रैफ़िकल सोसायटी ने पंडित नैन सिंह को एक सोने की घड़ी इनाम में दी. इस घड़ी में देवनागरी लिपि में लिखा था, ‘द प्रेसिडेंट एंड काउन्सिल ऑफ़ द रॉयल ज्योग्रैफ़िकल सोसायटी ऑफ़ लंदन टु पंडित नैन सिंह फ़ॉर हिज़ ग्रेट ज्योग्रैफ़िकल एक्स्प्लोरेशन.’
पंडित नैन सिंह रावत दुनिया भर के भू-वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के लिए कितने महत्वपूर्ण थे इसका अंदाज़ा उनकी मौत पर हुई प्रतिक्रिया से भी लगाया जा सकता है. साल 1882 में जब उनकी मौत हुई तो इस खबर को दुनिया भर के अख़बारों में प्रमुखता से जगह मिली. ठीक इसी साल चार्ल्स डार्विन की भी मौत हुई थी. रॉयल ज्योग्रैफ़िकल सोसायटी की प्रोसीडिंग्स में डार्विन के लिए लिखी गई श्रद्धांजलि जहां आधे पेज में दर्ज हुई वहीं पंडित नैन सिंह पर ढाई पेज की श्रद्धांजलि प्रकाशित की गई.
स्क्रिप्ट : राहुल कोटियाल
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