भैरव की उपासना करने वाले वो रहस्यमयी साधक, जिनमें कान छिदवाने की अनिवार्य परंपरा है, जिन्हें प्राकृतिक आपदाओं को रोकने वाला सिद्ध और मंदिर – मठों का संरक्षक माना गया, जिनका प्रभाव सिर्फ़ आध्यात्म तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि जिन्होंने मंदिरों, मठों और राजाओं की राजनीति तक को प्रभावित किया. बद्रीनाथ से केदारनाथ तक और गोरखनाथ से भरत मंदिर तक, इनके प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है. वो साधक जिन्हें गढ़वाल और कुमाऊं की घाटियों में कभी डल्या-ओला तो कभी दर्शनी नाथ भी कहा गया. हम बात कर रहे हैं नाथ संप्रदाय की, जो सिर्फ़ एक संप्रदाय मात्र नहीं बल्कि एक ऐसी जीवंत परंपरा है जो समाज और संस्कृति से गहराई तक जुड़ती है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इसी नाथ सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हैं.
आज के एपिसोड में हम विस्तार से जानेंगे कि क्या है नाथ संप्रदाय, इसकी शुरुआत कब, कैसे और किसने की, क्या इस संप्रदाय से जुड़े लोग सिर्फ योगी थे, या इनके पास कोई विशेष शक्ति भी थी, नाथ संप्रदाय की परंपराएँ क्या रही हैं और समाज पर इनका क्या प्रभाव हुआ?
नाथ संप्रदाय भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. बल्कि ये सिर्फ़ एक धार्मिक धारा ही नहीं एक जीवनशैली थी, जहाँ हठयोग के माध्यम से शरीर को साधना और ध्यान की शक्ति से आत्मा को मुक्त करना ही परम उद्देश्य था. कहा जाता है कि ये संप्रदाय एक चुनौती था उन बंधनों के लिए, जो जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव के नाम पर मनुष्य को बाँधते थे.
नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति भगवान शिव से मानी जाती है, जिन्हें योगियों का आदिगुरु भी कहा गया है. नाथ परंपरा का वास्तविक स्वरूप 9वीं से 12वीं शताब्दी के बीच उभरकर सामने आया. इसका श्रेय गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ को दिया जाता है. गुरु मत्स्येंद्रनाथ के बारे में जो कथा प्रचलित है, वो भी सीधा भगवान शिव से ही जुड़ती है. कहा जाता है कि एक समय जब भगवान शिव कैलाश पर्वत पर पार्वती के साथ निवास कर रहे थे, तब पार्वती ने उनसे योग और मोक्ष के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की. शिव ने पार्वती को योग, तंत्र, ध्यान, कुंडलिनी जागरण और आत्म-साक्षात्कार के रहस्यों को सुनाना शुरू किया. मान्यता है कि भगवान शिव जब ये सब बता रहे थे तो एक मछली उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रही है. वो कोई साधारण मछली नहीं, बल्कि एक सिद्ध योगी थे जो भगवान शिव की बातें सुनने के बाद पुनः योगी स्वरूप में प्रकट हुए और योगी मत्स्येंद्रनाथ कहलाए. वे ही नाथ संप्रदाय के पहले गुरु बने. गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने इस गूढ़ विद्या को पूरी तरह समझ लिया था. उन्होंने फिर इसका प्रचार-प्रसार शुरू किया. गोरखनाथ उनके प्रमुख अनुयायी बने जिन्होंने न केवल इस योग विद्या को जन-जन तक पहुँचाया, बल्कि इसे एक सुव्यवस्थित साधना पद्धति का रूप भी दिया.
स्वयं भगवान शिव द्वारा दिया गया ज्ञान नाथ संप्रदाय के मूल सिद्धांतों में समाहित रहा है. इसमें कुंडलिनी योग, हठयोग, प्राणायाम और ध्यान जैसी विधियाँ शामिल हैं. इस पंथ में भगवान शिव को ही प्रथम योगी यानी आदियोगी और उन्हें ही प्रथम गुरु यानी आदिगुरु माना गया है. इसी के चलते नाथ सम्प्रदाय को ‘शिव की परम्परा’ भी कहा जाता है.
नाथ संप्रदाय या नाथ पंथ की अन्य विशेषताओं पर चर्चा करने पहले ये समझ लेते हैं कि ‘नाथ’ शब्द के अर्थ क्या हैं.
पंडित परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार नाथ संप्रदाय के ‘नाथ’ शब्द का किसी खास वंश या लौकिक देवता से सीधा संबंध नहीं है. नाथ शब्द वैदिक साहित्य, बौद्ध धर्म के ग्रंथ ‘धम्मपद’, पालि ग्रंथ, ‘अभिधानपदीपिका’ और जैन धर्म के दिगंबर संप्रदाय के साहित्य में अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होता रहा है. इसलिए यह शब्द स्वामित्व जैसे अभिप्राय का ही सूचक है.
अथर्ववेद में नाथ को रक्षक या शरणदाता कहा गया. महाभारत में इसका मतलब स्वामी या पति के रूप में मिलता है. जबकि ‘बोधिचर्यावतार’ ग्रंथ में बुद्ध के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है. जैन और वैष्णव परंपराओं में भी इसे सबसे बड़े देवता के लिए इस्तेमाल किया गया है. समय के साथ, योग साधना और पाशुपत शैव मत के प्रभाव से नाथ संप्रदाय का विकास हुआ और ‘नाथ’ शब्द शिव के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध हो गया.
शंकराचार्य ने नाथ शब्द को अपने ग्रंथों में अधिष्ठाता यानि ईश्वर के अर्थ में प्रयोग किया. भागवतकार ने ‘हे नाथ नारायण वासुदेव’ कहकर इस शब्द को विष्णु के हजारों नामों में से एक माना.
नाथ संप्रदाय के ग्रंथों में ‘नाथ’ शब्द का विशेष महत्व है. ‘गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह’ में ‘राजगुह्य’ नामक पुस्तक के एक श्लोक में नाथ शब्द की व्याख्या की गई है. इसमें कहा गया है कि ‘ना’ का अर्थ है, अनादि जिसका कोई आदि या प्रारंभ न हो और ‘थ’ का अर्थ है, स्थिर या स्थापित होना. एक और व्याख्या के अनुसार, ‘ना’ का अर्थ है ब्रह्म, जो मोक्ष प्रदान करने में सक्षम है, और ‘थ’ का अर्थ है अज्ञान को समाप्त करने की शक्ति. यानि जब कोई व्यक्ति नाथ के मार्ग का अनुसरण करता है, तो उसे ब्रह्म की अनुभूति होती है और अज्ञान का नाश हो जाता है.
‘गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह’ के अनुसार, शक्ति विश्व का सृजन करती है, शिव उसका परिपालन करते हैं, काल उसका संहार करते हैं और नाथ मुक्ति देते हैं. सांसारिक रीति से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के क्रम को स्वीकार किया जाता है. लेकिन नाथ मत के अनुसार इनका क्रम मोक्ष, धर्म, अर्थ और काम है. यानी इस मत का सर्वोपरि पुरुषार्थ मोक्ष है और मोक्ष देने वाले नाथ ही इस मत के सर्वेसर्वा हैं.
‘गोरखबानी’ में ‘नाथ’ शब्द के दो मुख्य अर्थ बताए जाते हैं. कहीं इसका अभिप्राय रचयिता यानी लेखक से है तो कहीं ब्रह्म यानी परम तत्व से. डॉक्टर विष्णुदत्त कुकरेती अपने एक लेख में इसका उदाहरण देते हुए लिखते हैं, ‘नाथ कहै तुम आपा राखो’ ‘नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू’ यहां नाथ का अभिप्राय रचयिता की पर संकेत करता है. जबकि ‘ते निहचल सदा नाथ के संग’ और ‘नाथ कहंता सब जग नाथ्या’ में नाथ शब्द का उपयोग ब्रह्म या परम तत्व के रूप में हुआ है.
नाथ संप्रदाय में सिद्ध योगियों को ‘नाथ’ कहा जाता है. यहां नाथ एक विशेष उपाधि है, जो किसी साधक को दीक्षा प्राप्त करने के बाद दी जाती है और उनके नाम के अंत में नाथ जोड़ा जाता है. नाथ सम्प्रदाय उन साधकों का समूह है जो नाथ को परमतत्त्व मानकर उनकी प्राप्ति के लिए योग साधना करते हैं. नाम के आगे ‘नाथ’ उपाधि जुड़ने से नाथमत को पहचान मिली और इसके अनुयायी नाथपंथी कहलाने लगे. यही कारण है कि इस परंपरा से जुड़े ग्रंथों को नाथ-साहित्य कहा जाता है. समय के साथ नाथों को सिद्ध या अवधूत भी कहा जाने लगा और नाथमत को सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, अवधूतमत और जोगेश्वरमत जैसे नामों से भी पहचाना गया. इस प्रकार ‘नाथ’ शब्द सिद्ध, अवधूत और योगेश्वर का भी पर्याय बन गया.
हिंदी-साहित्य-कोश में नाथ सम्प्रदाय का विश्लेषण करते हुए उल्लेख किया गया है कि मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य गोरक्षनाथ इस मत के प्रमुख प्रवर्तक थे. उनके द्वारा प्रचारित बारह-पंथी मार्ग ही नाथ सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ. कान की लौ छिदवाने के कारण इन्हें ‘कनफटा’, दर्शन धारण करने के कारण ‘दरशनी’ और गोरखनाथ के अनुयायी होने के कारण ‘गोरखनाथी’ भी कहा जाता है.
गढ़वाल में प्राप्त नाथपंथी साहित्य में इस संप्रदाय के और भी कई नाम मिलते हैं. ‘नादबुद’ पांडुलिपि में इसे ‘अगम पंथ’ और ‘गोरखपंथ’ कहा गया है. इसका उल्लेख कुछ पंक्तियों में भी मिलता है. जैसे
“काया निरमल विभूति आसण निरमल रूप ध्यान अशंख सत का तुमा अगम पंथ बाबा गोलालनाथ बीर भैराऊँ।”
इसका अर्थ है कि ‘शरीर पवित्र होता है जब विभूति धारण की जाती है, आसन और रूप भी निर्मल होते हैं जब ध्यान सत्य में स्थिर होता है. बाबा गोलालनाथ और वीर भैरव भी इसी मार्ग पर चलते हैं.’ इसी तरह ‘दड़िया-मंत्र’ पांडुलिपि में भी अगमपंथ का उल्लेख किया गया है:
‘अगमपंथ सीधी का वासा, करो सिधौ भुतौ कि नासा.’
यानि ये मार्ग सिद्ध योगियों का आश्रय है और साधना के द्वारा भूत-प्रेत बाधाओं को नष्ट किया जा सकता है. इसी पांडुलिपि में ‘स्वामीपंथ’ का भी वर्णन मिलता है,
‘अष्ट भैरों की मेलो नी पाई। नत्र सत्रु की पूजा नि पाई, गुरु को स्वामिय निपाई। नादु को ततड़ाट नि पाई.’
इसके अलावा यहां औघड़पंथी, अमरपंथी, आलेकपंथ और विगटपंथ नाम भी सामने आते है.
इन विविध नामों और मान्यताओं से स्पष्ट होता है कि नाथ सम्प्रदाय न केवल एक योग-परंपरा थी, बल्कि यह एक व्यापक आध्यात्मिक दर्शन भी था, जिसने समय-समय पर कई स्वरूपों में अपनी पहचान बनाई.
नाथ-पंथ के उदय से पहले शैव-मत के कई संप्रदाय प्रचलित थे. शिव के उपासकों पर किसी एक विशेष उपासना पद्धति का पालन करने का कोई बंधन नहीं था. वे शिव की अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते थे. सर्व दर्शन संग्रह में शैवों के चार संप्रदायों का उल्लेख मिलता है, शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक. डॉक्टर विष्णुदत्त कुकरेती के अनुसार आज से लगभग दो साल पहले ही हिमालय में पाशुपत धर्म फैल चुका था. 700 ईस्वी के आसपास उत्तराखंड के लक्षमंडल और आठवीं शताब्दी में काँगड़ा के बैजनाथ के विशाल शिव मंदिर इसकी पुष्टि करते हैं. सातवीं -आठवीं शताब्दी तक न सिर्फ़ केदारनाथ एक प्रसिद्ध तीर्थ बन चुका था बल्कि भृगुपंथ यात्रा भी प्रचलित हो चुकी थी। गढ़वाल में लकुलीश संप्रदाय के प्रभाव की पुष्टि यहां के भव्य मंदिरों और मूर्तियों से होती है. केदारनाथ केवल भारत में ही नहीं, बल्कि जावा द्वीप और कम्बोज जैसे प्रमुख शैव देशों में भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थल माना जाता था. आज भी गढ़वाल में मिलने वाले मुखलिंग, रेखांकित लिंग और हरगौरी की मूर्तियाँ शैव संप्रदाय की समृद्ध परंपरा को प्रमाणित करती हैं.
शैवों में नाथ योगियों का संबंध पाशुपत संप्रदाय से रहा है. 10वीं-11वीं शताब्दी तक कापालिक, लकुलीश और कालामुख संप्रदाय अपनी स्वतंत्र पहचान खोने लगे थे और इनमें से कापालिक, अघोरी आदि धीरे-धीरे नाथपंथ में समाहित हो गए थे. इन शैवों में तांत्रिक तत्वों का विशेष प्रभाव था. नाग-पंथियों में कनफटा शैव सन्यासी ज़्यादा प्रबल और संगठित थे. तंत्र साधना और पाशुपत मत की मिली-जुली परम्परा इनमें मिलती है. लेकिन क्या नाथ-पंथ शैव सम्प्रदाय का ही एक साधना पंथ है, इस सवाल पर विद्वानों में मतभेद है. कुछ इसे शैव-साधना संप्रदाय मानते हैं, तो कुछ इसे सिद्धों का परवर्ती संस्करण बताते है. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार नाथपंथ चौरासी सिद्धों से निकला है, जबकि आचार्य परशुराम चतुर्वेदी इसे योग-मार्गी साधकों का समुदाय मानते हैं, जिस पर बौद्ध और शैव दोनों परंपराओं का प्रभाव पड़ा. इसमें दक्षिणाचार और वामाचार दोनों परंपराएँ किसी-न-किसी रूप में सम्मिलित रही हैं.
गढ़वाल में प्राप्त नाथ साहित्य की भैरपावली पांडुलिपि में मत्स्येंद्रनाथ को लाकुड्या यानी लकुटधारी वीर मसाण कहा गया है, जो उनकी तांत्रिक शक्ति और सिद्धि का संकेत देता है. ‘मैमंदा की रखवाली’ में उन्हें कोटि कन्याओं से विवाह करने वाला बताया गया है, जिससे उनकी शक्ति साधना का बोध होता है. वहीं, रख्खाली में वे कौल मछीन्द्र के रूप में वर्णित हैं, जो कौल मार्ग की साधना से जुड़ा है. इन संदर्भों से स्पष्ट होता है कि मत्स्येंद्रनाथ शिव और शक्ति, दोनों के उपासक थे और उन्होंने तांत्रिक व योग मार्ग को एक साथ साधा.
नाथ संप्रदाय की एक प्रमुख शाखा नवनाथ संप्रदाय है. ये संप्रदाय उन नौ महान योगियों का समूह है, जिन्होंने नाथ पंथ की शिक्षाओं को आगे बढ़ाया और जन-जन तक पहुंचाया. नवनाथ संप्रदाय की कथा ‘योग-सम्प्रदाय-विष्कृति’ में मिलती है. इसके अलावा कई अन्य ग्रंथों में भी इनका उल्लेख हुआ है. नाथ परंपरा के अनुसार, नौ नाथ, आदिनाथ यानि भगवान शिव, उदयनाथ यानि पार्वती, सत्यनाथ यानि ब्रह्मा, संतोषनाथ यानि विष्णु, अचलनाथ (पतंजलि), कन्थड़िनाथ (गणेश), चौरंगीनाथ (चंद्र), मत्स्येन्द्रनाथ (मत्स्यावतार) और गोरक्षनाथ (सदाशिव) हैं. केदारखंड पुराण में भी इनका उल्लेख मिलता है. ‘नादबुद’ पाण्डुलिपि के अनुसार, नौ नाथ नौ दुर्गाओं से जुड़े हुए है.
गढ़वाल और कुमाऊँ के क्षेत्र में नाथपंथ का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. गढ़वाल में पंवार वंश से पहले नाग वंश और कत्यूरी वंश का प्रभाव रहा. उत्तरकाशी ज़िले के पट्टी गाजड़ा के चौंडियार गाँव में चौरंगी-नाथ के तिसाला मेले की परम्पराओं को देखने पर ये कहा जा सकता है कि यहां नाग-वंशी भी नाथ-पंथ से प्रभावित हुए. कत्यूरी राजा आसंति देव ने गुरु गोरखनाथ के अनुयायी नरसिंहनाथ को ज्योतिर्मठ की गद्दी दी थी. नरसिंहनाथ ने ‘सात सारी बारह हज़ारी’ कत्यूरियों की अगवानी की कई युद्धों में जीत हासिल की. इससे भी संकेत मिलते हैं कि नाथ संप्रदाय का प्रभाव केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी था.
पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी के अनुसार गढ़वाल के पंवार राजवंश के पहले राजा भौनापाल अथवा कनक पाल को सत्यनाथ ने बावन पीढ़ियों तक राज करने का आशीर्वाद दिया था. इसी वंश के 37वें राजा अजयपाल को नाथपंथ में बाबा अजेयपाल और आदिनाथ के रूप में भी जाना गया. इसके बाद भी कई राजाओं और शासकों ने नाथ पंथ को अपनाया. रानी कर्णावती, महाराज सुदर्शन शाह और मोलाराम जैसे विद्वान भी किसी न किसी रूप में इस संप्रदाय से जुड़े थे. इस प्रभाव के कारण ही गढ़वाल क्षेत्र की लोक-कथाओं और लोकगीतों में नाथ योगियों का उल्लेख मिलता है.
नाथ संप्रदाय को किसी एक क्षेत्र की सीमा में नहीं बांधा जा सकता. लेकिन इस पंथ के सिद्धों का गढ़वाल क्षेत्र से गहरा नाता रहा है. गुरु गोरखनाथ ने उत्तर दिशा को साधना के लिए श्रेष्ठ माना था जिसकी उदाहरण इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:
दक्षिण जोगी रंगा-चंगा, पूरबी जोगी बादी.
पछमी जोगी बाला-भोला, सिद्ध जोगी उतराधी.
केदारखंड में गुरु गोरखनाथ के आश्रम का उल्लेख मंदाकिनी नदी के किनारे गौरी तीर्थ के पास मिलता है. इसके अलावा श्रीनगर की गोरखनाथ गुफा, जोगी बाड़ा, गोरखनाथ मंदिर, बछणस्यूँ में गुरु गोरखनाथ का डांडा, बांसी गजवाड़, पोखरी, कलवाड़ी, धौल्या उड्यारी जैसे स्थान भी नाथ परंपरा से जुड़े हैं.
जोधपुर के राजा मानसिंह द्वारा संगृहीत नाथ संप्रदाय के तीर्थ स्थलों में हरिद्वार, श्रीनगर के चुनिया-मुनिया भैरव और देवलगढ़ में गोरख पादुका, कुमारी पादुका, सत्यनाथ पादुका के साथ ही अखंड ज्योति का उल्लेख मिलता है. इसके अलावा नवासु और बिडोली में सत्यनाथ मंदिर हैं. लंगूरगढ़, भैरव गढ़, मोलठी, पौड़ी के कोठार, उत्तरकाशी की गाजणा पट्टी, टिहरी, देहरादून में स्थित लक्ष्मण सिद्ध, कालू सिद्ध और जोगीवाला क्षेत्र भी इस परंपरा से जुड़े हैं.
नाथ योगियों की भ्रमणशील परंपरा के कारण उन्होंने कई बार बद्री-केदार की यात्रा की. मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ और माणिकनाथ जैसे सिद्धों ने यहाँ साधना की. टिहरी स्थित बूढ़ाकेदार भी एक महत्वपूर्ण सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध है. इस पूरे क्षेत्र में भैरव और नरसिंह की मूर्तियाँ घर-घर में स्थापित हैं, जो नाथ संप्रदाय के गहरे प्रभाव को दर्शाती हैं.
गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, चौरंगीनाथ, माणिकनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणपानाथ, नवनाथ और सत्यनाथ जैसे संतों का गढ़वाल से पुराना नाता रहा है. आज भी कई गाँवों में इनके वंशज बसे हुए हैं. पंडित हरि कृष्ण रतूड़ी के अनुसार, अब ये अलग-अलग जातियों में शामिल हो चुके हैं. वे लिखते हैं, नाथ लोग भैरव के उपासक होते हैं, कान छिदवाते हैं, नादी-सेली पहनते हैं और संतान भी पैदा करते हैं. इसलिए इन्हें जाति के रूप में मानना गलत नहीं होगा. खसिया जाति के अलावा दस और जातियाँ हैं, जिनमें गृहस्थी नाथ को दसवीं जाति कहा गया है. साथ ही, डोम जोगी और डोम-नाथों का भी ज़िक्र मिलता है. पैन्यूली लोगों के पूर्वज ब्रह्मनाथ संवत 1207 में पन्याला पट्टी में आकर बसे थे और जगूड़ी समुदाय भी ब्रह्मनाथ को ही अपना इष्टदेव मानता है.
नाथों के वंशज समाज में ‘नाथ’, ‘डल्या’ या ‘ओल्या’ नाम से जाने जाते है. डीएन मजूमदार ने अपनी किताब ‘हिमालयन पॉलीएंड्री’ में लिखा है कि गर्मियों में औडल यानि तूफान लगातार फसलें बर्बाद करते रहते हैं. कभी बर्फीले तूफान, कभी ओलों की मार और कभी सूखा, इन सबके चलते किसानों की महीनों की मेहनत मिट्टी में मिल जाती है. इसी वजह से पहाड़ों के लोग ‘डल्या-ओला’ की शरण लेते हैं, जो भैरव, नृसिंह या दूसरे देवताओं का पसवा बनकर तूफान रोकने या वक्त पर बारिश कराने के लिए अनुष्ठान करते हैं. इन्हें ‘डडवार’ देने की परंपरा थी और मठों के लिए ‘गूंठ’ गाँवों की व्यवस्था गढ़वाल के राजाओं ने की थी. गूंठ का मतलब आमतौर पर दान में दी गई भूमि से होता है, जिसे खासतौर पर मंदिरों, मठों, साधुओं या धार्मिक संस्थानों को दिया जाता था. ये परंपरा गढ़ नरेशों के दौर से भी पहले चली आ रही थी.
गढ़वाल के राजाओं ने दून की तराई के कुछ गाँवों की जमीन अलग-अलग मंदिरों को दान में दी थी. गोरखाली शासन के दौरान भी ये जमीन मंदिरों के अधीन ही रही. बदरीनाथ को डुभालवाला में जमीन दी गई थी, केदारनाथ को प्रेमपुर और जाखण में, भरत मंदिर को ऋषिकेश और तपोवन में और गोरखनाथ मंदिर को गोरखपुर और जोगीवाला में गूंठ मिली. मंगलनाथ का थान और देवलगढ़ का सत्यनाथ भैरव भी गूंठ गाँवों के हक़दार थे. साल 1712 में गोरखाली सरकार ने श्रीनगर के गोरखनाथ मंदिर को नकद धनराशि भी दी थी. उसके बाद साल 1816 में जॉर्ज विलियम ट्रेल के कुछ दस्तावेज़ों में भी गूंठों का ज़िक्र मिलता है, जिससे पता चलता है कि देवलगढ़ गूंठ के गाँव अलकनंदा नदी के दोनों किनारों पर फैले हुए थे. इसी तरह, कुमाऊँ के पुराने मंदिरों को भी चंद राजाओं के समय में गूंठें मिली थी. आज भी गृहस्थीनाथ और दसनामी संप्रदाय के लोग इनकी पूजा करते हैं. बागेश्वर के बागनाथ, जागेश्वर के जगन्नाथ, कत्यूर के वैजनाथ, सोमेश्वर के गणनाथ, चंपावत के बालेश्वर जैसे मंदिरों में गूंठ की जमीन का ज़िक्र मिलता है. यहाँ के पुजारियों ने गूंठ की सनद आज भी ताम्रपत्रों के रूप में सँभालकर रखी हुई है.
गढ़वाल के कई गाँवों में आज भी ‘दर्शनी’ नाथों की परंपरा जीवंत है. 1978 से ले कर 1982 तक हुए एक शोध में ये स्पष्ट हुआ कि कुछ नाथ नाथपंथ में दीक्षित हैं और कुछ अन्य जातियों में समाहित हो चुके हैं. उनके समाधि स्थल गाँवों के पास स्थित है, जैसे बिजलोट, कमेड़ा, अमाड़ी, डबरालस्यूं, सेम मुखेम, देवलगढ़, नवासू और बींधाधारा में प्रमुख महंतों की समाधियाँ हैं.
इसके अलावा कई प्रतिष्ठित संत हुए हैं, जिनमें पीर देवलगढ़ के बुद्धिनाथ, बींधाधारा के पशुपतिनाथ , श्रीनगर के गोपालनाथ और शारदानाथ, नवासू के फतेहनाथ, गगवाड़स्यूं के गोविंदनाथ, गैरू के गौरीनाथ , और सेम के बच्चूनाथ, चेतनाथ, बालकनाथ और फत्तूनाथ प्रमुख हैं. उज्याड़ी और कठूडथाती के रामनाथ भी इसी परंपरा से जुड़े थे. गोरख गुफा, भैरव गुफा और माणिकनाथ गुफा भी इस संप्रदाय का प्रमाण हैं. उत्तराखंड के अलग-अलग गाँवों के नाम जैसे जोग्याणा, जोगीमढ़ी, भल्डियाना, गिरिगाँव, पुजारगाँव, जोगीबाड़ा, जोगीवाला, गोरखपुर और बैरागढ़ी इस विरासत से जुड़े हैं. बदरीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ, नागनाथ और रुद्रनाथ जैसे नाम भी नाथपंथ के प्रभाव को दर्शाते हैं. बदरिकाश्रम से बदरीनाथ में रूपांतरण भी इसी प्रभाव का एक प्रमाण माना जाता है.
गढ़वाल में नाथपंथ और संत परंपरा का पहली बार डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने गहराई से अध्ययन किया. उनके लेख ‘गोरखनाथ’ में उल्लेख मिलता है कि गढ़वाल का नाथ साहित्य दो प्रकार का है. एक लिखित, जो ग्रंथों और काव्यों में देखने को मिलता है और दूसरा अलिखित जिसका जिक्र जागर, पँवाड़ों, लोकगीतों और लोक कथाओं में मिलता है. लिखित साहित्य में प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रंथ आते हैं. साल 1913 में पं. ब्रह्मानंद थपलियाल ने ‘ढोल सागर’ प्रकाशित किया. इसके बाद मोहनलाल बाबुलकर और अबाधवन्धु बहुगुणा ने इसे ‘गढ़वाल की लोकधर्मी कला’ और ‘गाडम्यटेकि गंगा’ में कुछ बदलाव के साथ प्रकाशित किया. इस ग्रंथ में ‘नाद’ का उल्लेख है. गोरखपंथी सिद्धांतों के कारण इसे ‘जोगेश्वरी ढोल सागर’ कहा जाता है. ‘जोगेश्वरी साखी’ नामक हस्तलिखित पोथी भी गोरखनाथ से जुड़ी है, जिसमें ढोल की आध्यात्मिक व्याख्या, भक्ति, ज्ञान और गुरु-शिष्य परंपरा का विस्तार से वर्णन है.
अलिखित नाथ साहित्य लोकगाथाओं, लोककथाओं, लोकगीतों और परंपराओं में संरक्षित है. इस क्षेत्र में डॉ. गोविंद चातक, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. शिवानंद नौटियाल, श्री तारादत्त गैरोला, श्री मोहनलाल बाबुलकर, प्रो. शंभुप्रसाद बहुगुणा और डॉ. कुसुमलता ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. लोकगाथाओं में ‘ब्रह्म-कुँवर और मोतीमाला’, ‘सुरजू कुँवर और जोतमाला’, ‘सिद्वा-विद्वा’ और ‘मालू-राजुला’ में गोरखपंथी साधुओं का प्रभाव स्पष्ट दिखता है.
नाथपंथ के अनुयायी तंत्र साधना में भी निपुण थे. सिद्वा-विद्वा के पास ‘लाहौरी विद्या’, ‘तामासिरी रोटी’, ‘काँवर की जड़ी’ और अन्य तांत्रिक उपकरण थे. उनकी पिटारी में ऐसे रहस्य भरे थे जो अद्भुत शक्तियों से जुड़े थे. चमोली जिले में आज भी सिद्वा-विद्वा के पँवाडे गाए जाते है. इसके अलावा भैरव, नरसिंह, गोरील, मैमंदावीर, विरंकार, हीत, कैलापीर, गोरखनाथ, चौरंगीनाथ, ब्रह्मनाथ, माणिकनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और ब्रह्मानाथ आदि की नृत्यमयी पूजा के समय ‘जागर’ लगाई जाती है. इन जागर-गीतों के अलावा मेलों, थौल, भण्डाणों और परम्पराओं से लोकजीवन में घुले-मिले शब्द जैसे अग्याल, दस्यूंण, उठाणा, अग्ल्यार, थेगली आदि भी नाथपंथ के व्यापक प्रभाव को अभिक्त करते हैं.
जैसा कि पहले भी जिक्र आया कि नाथ पंथ केवल गढ़वाल या कुमाऊँ तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे भारत भर में इसका प्रभाव है. इसके अनुयायी कई जातियों और समुदायों में फैले हुए हैं जिनमें जैन, सिख, मुसलमान और बौद्ध धर्म के लोग भी शामिल है. उत्तर भारत में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में योगी और जोगी जातियाँ नाथ संप्रदाय की मुख्य अनुयायी रही है. इसके अलावा नाथ सम्प्रदाय को सन्यासी, अवधूत, आदि नामों से भी जाना जाता है.
नाथ संप्रदाय से जुड़े प्रमुख मंदिरों और मठों में उत्तर प्रदेश का गोरखनाथ मंदिर सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है, जहाँ से संप्रदाय की परंपरा व्यापक रूप से फैली. राजस्थान में अलवर, बीकानेर और जोधपुर में गोरखनाथ के कई मंदिर स्थित है. यहाँ के राजपूतों के कुछ वंश, विशेष रूप से मेवाड़ और मारवाड़ के शासक, गोरखनाथ और उनके अनुयायियों से जुड़े रहे हैं. महाराष्ट्र में मराठा, कुनबी और कुछ धनगर जातियों के बीच नाथ संप्रदाय की शिक्षाओं का प्रभाव देखा जाता है. नासिक और त्र्यंबकेश्वर के आसपास कई मराठा परिवार नाथ योगियों से प्रभावित होकर उनकी परंपरा को मानते आए हैं. गुजरात में गिरनार पर्वत पर स्थित गोरखनाथ मंदिर भी एक प्रमुख केंद्र है. गुजरात में गुर्जर, भारवाड़ और कुछ कोली समुदायों में नाथ योगियों की परंपरा रही है. पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा में विशेष रूप से तांत्रिक परंपरा से जुड़े नाथ योगियों का प्रभाव बागड़ी, बाउल और कुछ भूमिहार समुदायों में देखा गया है. नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर से नाथ योगियों का गहरा संबंध रहा है और गोरखनाथ को गोरखा राजवंश का संरक्षक भी माना जाता है.
स्क्रिप्ट: प्रगति राणा
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