साल 2000. तारीख़ 25 अगस्त. दिन शुक्रवार.
भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने एक बिल पर हस्ताक्षर किए. ये बिल, जो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही अब एक ऐक्ट बन चुका था, इसका नाम था The Uttar Pradesh Reorganisation Act. इसकी धारा तीन कहती थी कि उत्तर प्रदेश के 13 ज़िले अब एक तयशुदा दिन के बाद इस प्रदेश का हिस्सा नहीं रह जाएंगे. क्योंकि ये 13 ज़िले मिलकर अब एक नया राज्य बनाएंगे जिसका नाम होगा – उत्तरांचल.
इस ऐक्ट पर राष्ट्रपति की मुहर लगते ही प्रथक राज्य के निर्माण की संवैधानिक औपचारिकताएँ पूरी हुई. आंदोलनकारियों का सपना अब पूरा हो रहा था और राज नेताओं की तिकड़म अब शुरू. नए-नवेले राज्य की सत्ता किसे मिलेगी, कैबिनेट किसकी होगी और कौन होगा प्रदेश का पहला मुख्यमंत्री, ये तमाम सवाल थे और इनके जवाब में अपना-अपना पर्चा लहराते खड़े थे कुल 30 विधायक. वो 30 विधायक जो उस वक्त उत्तर प्रदेश विधान सभा या विधान परिषद के सदस्य थे और जिन्हें अब उत्तरांचल की पहली विधानसभा का सदस्य होना था.
इन 30 विधायकों में से 23 विधायक भारतीय जनता पार्टी के थे. लिहाज़ा ये तो तय था कि प्रदेश की पहली सरकार भाजपा की होगी. लेकिन असल घमासान इस बात का था कि इस अंतरिम सरकार का मुखिया कौन बनेगा.
केंद्र में उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. अटल जी ने 18 सितंबर के दिन भाजपा के दो बड़े नेताओं को देहरादून भेजा. इनमें एक थे पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे और दूसरे थे उत्तर प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष कलराज मिश्र. इन्हें जिम्मेदारी सौंपी गई कि देहरादून जाकर विधायकों की राय जानें और प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री का नाम फ़ाइनल करें. ये दोनों नेता देहरादून पहुँचे, विधायकों से मिले, उनकी राय जानी, दो दिन तक बैठक की लेकिन नतीजा ‘निल बटे सन्नाटा.’
कोई एक भी नाम ऐसा नहीं मिला जिसे अपना नेता मानने को सभी भाजपा विधायक तैयार हों. कुछ विधायक चाहते थे कि मुख्यमंत्री कोई गढ़वाली बने तो कुछ चाहते थे कि वो एक कुमाऊँनी हो.
अंततः ये फ़ैसला पार्टी आलाकमान ने अपने हाथों में लिया. और फिर 8 – 9 नवंबर की दरमियानी रात 12 बजकर 25 मिनट पर जिस नेता ने प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री की शपथ पढ़ी, वो न तो कुमाऊँनी था और न ही गढ़वाली. वो था 72 साल का एक बुज़ुर्ग, जनसंघ का अनुभवी नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के संघर्ष के दिनों का साथी नित्यानंद स्वामी.
हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले में नारनौल नाम का एक क़स्बा है और उसमें संघीवाड़ा नाम का एक मोहल्ला. यहां अधिकतर ब्राह्मण परिवार रहते हैं जिन्हें स्वामी उपनाम से पुकारा जाता है. ऐसे ही एक परिवार में 27 दिसंबर 1928 के दिन जब एक लड़के का जन्म हुआ तो उसके ज्योतिषी नाना बृजनंदन ने कहा, ‘इस बच्चे की कुंडली में राज योग लिखा है. देखना ये एक दिन राजा बनेगा.’
बच्चों के पैदा होने पर कही गई इस तरह की बातें अक्सर माँ-बाप को खुश तो करती हैं, लेकिन फिर बिसरा दी जाती हैं. नित्ती नाम के इस बच्चे के माता-पिता ने भी यही किया. उसके पिता बिहारी लाल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टिट्यूट यानी FRI देहरादून में नौकरी किया करते थे. उनके कुल 11 बच्चे थे जिनमें से तीन नित्ती से बड़े थे और सात छोटे. नित्ती अपने सभी भाई बहनों से कुछ अलग था.
बिहारी लाल जी के एक मित्र हुआ करते थे जिनका नाम था प्रह्लाद स्वरूप. वो रेलवे में थे और दिल्ली में रहा करते थे. उनकी बेटी चन्द्रकांता, नित्ती का क्रश हुआ करती थी. लेकिन संकट ये था कि उसे प्रपोज़ कैसे किया जाए? मोबाइल और इंटरनेट तो दूर, उस ज़माने में लैंडलाइन फ़ोन भी बेहद दुर्लभ थे. चिट्ठी लिखना ही प्रेम प्रस्ताव पहुँचाने का एकमात्र तरीका था लेकिन उसमें भी ये डर था कि चिट्ठी अगर पोस्ट से भेजी गई तो कहीं चन्द्रकांता से पहले उसके माता-पिता के हाथ न लग जाए.
प्रेम में डूबा 7th क्लास का स्टूडेंट नित्यानंद यानी नित्ती ऐसे मौके की तलाश में था जब वो चन्द्रकांता से अपने दिल की बात कह सके. ये मौक़ा उसे तब मिला जब बड़े भाई की शादी के लिए उसे आगरा जाना था और दिल्ली में ट्रेन तीन घंटे लेट थी. वो स्टेशन से सीधा रेलवे कॉलोनी में रहने वाले प्राह्लाद अंकल के घर पहुंच गया और उन्हें बताया कि ट्रेन कुछ लेट थी बस इसलिए मिलने चला आया हूँ. फिर मौक़ा मिलते ही उसने चुपके से एक प्रेम पत्र चन्द्रकांता के स्कूल बैग में रख दिया. इस पत्र में लिखा था, ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ. तुमसे ही शादी करूँगा. तुम्हें ये स्वीकार हो तो घर के पते पर मेरे नाम चिट्ठी लिखकर डाल देना.’
इस बात को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि नित्यानंद के नाम एक चिट्ठी देहरादून के पते पर पहुंच गई. अंदर चन्द्रकांता का नाम लिखा था. नित्ती को नोटिफ़िकेशन मिल चुका था कि उसका लव प्रपोज़ल ऐक्सेप्ट हो गया है. इसके बाद तो Love in 1940s की इस कहानी में चिट्ठियों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि नित्ती का सारा ध्यान सिर्फ़ चिट्ठियाँ लिखने और उनके जवाब के इंतज़ार में रहता. इन्हीं चिट्ठियों के बीच जब 9th क्लास का वो रिपोर्ट कॉर्ड घर आया जिस पर लिखा था ‘फेल’ तो नित्ती को एहसास हुआ कि और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा….
इस घटना के बाद ही नित्ती नाम के एक चंचल स्कूली छात्र का नित्यानंद स्वामी बनने का सफर शुरू हुआ. स्कूल की पढ़ाई के साथ ही उसकी राजनीतिक चेतना ने आकार लेना शुरू किया. और इस चेतना के विकास में अहम भूमिका निभाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने. नित्यानंद स्वामी संघ के एक समर्पित कार्यकर्ता बन गए और देश के अलग-अलग हिस्सों में बतौर प्रचारक काम करने लगे. 1948 में जब गांधी की जी की हत्या हुई तब नित्यानंद दिल्ली में RSS का काम कर रहे थे. इस हत्या के बाद RSS पर प्रतिबंध लगा तो तमाम स्वयंसेवक भूमिगत होने लगे. नित्यानंद स्वामी ने भी यही किया.
ये वो दौर था जब नित्यानंद RSS के लिए अपना सब कुछ त्यागने को तैयार थे. जिस लड़की के प्रेम में वो कभी दिन-रात डूबे रहते थे, इस बार जब उससे मिले तो बोले, ‘मैं देश का सेवक बन गया हूँ और इसलिए अब शादी नहीं करना चाहता. क्यों न तुम मुझे राखी बांध दो और हम भाई-बहन की तरह एक-दूसरे से प्यार करें.’ ये विचार जब उनके पिता जी को मालूम हुए तो उन्होंने नित्यानंद स्वामी को समझाते हुए कहा, ‘अगर देश की सेवा ही करना चाहते हो तो पहले अच्छी शिक्षा लो. घर लौटो और अपनी पढ़ाई पूरी करो. तभी देश के लिए भी कुछ कर पाओगे.’
पिता जी की सलाह पर नित्यानंद देहरादून वापस लौटे. DAV कॉलेज में दाख़िला लिया. पढ़ाई के साथ-साथ इलेक्टोरल पॉलिटिक्स का भी ककहरा सीखा और जल्द ही छात्र संघ के अध्यक्ष चुन लिए गए. यहीं से उनकी असल राजनीतिक पारी की शुरुआत हुई. और ठीक इसी समय वैवाहिक जीवन में भी प्रवेश हुआ. बचपन से जिस लड़की को वे चिट्ठियाँ लिखा करते थे, अब उनकी जीवन संगिनी बन चुकी थी.
लेकिन ये सब होने से पहले एक दिलचस्प घटना हुई जो उनके क़रीबी लोगों के बीच काफ़ी चर्चित है. छात्र-संघ के चुनावी समर में उतरने से ठीक पहले नित्यानंद एक ज्योतिषी के पास पहुँचे. देहरादून में घंटाघर के ठीक सामने जो दिग्विजय सिनेमा हॉल है, वो उस दौर में प्रकाश टॉकीज़ हुआ करता था. उसकी ऊपरी मंज़िल पर अमलानंद नाम के एक ज्योतिषी बैठते थे जो कांग्रेस नेता सूर्यकांत धस्माना के दादा थे.
नित्यानंद स्वामी जब यहां पहुँचे तो ज्योतिषी अमलानंद ने कुछ देर उनकी तरफ़ देखा और फिर बोले, ‘तुम तीन सवाल लेकर आए हो. पहला तुम्हारे कॉलेज से जुड़ा है. तुम्हें वहाँ सफलता मिलेगी और तुम छात्रों के सर्वोच्च पद पर चुने जाओगे. दूसरा सवाल राजनीति से जुड़ा है तो जान लो कि आज से ठीक आठ दिन बाद तुम जेल जाओगे. और तुम्हारा तीसरा सवाल शादी को लेकर है. जल्द ही तुम्हारी उस लड़की से शादी होगी जिसे तुम चाहते हो.’ ज्योतिषी की ये तीनों ही बातें कुछ ही समय में सच साबित हुई.
फिर आया साल 1952. वो साल जब आज़ाद हिंदुस्तान में पहली बार चुनाव हुए. कांग्रेस की एकतरफ़ा जीत हुई लेकिन उस पार्टी के कुछ बीज भी भारतीय राजनीति में पड़े जिसकी फसल आज पूरे देश में लहलहा रही है. इस पार्टी का नाम था भारतीय जन संघ. देहरादून में तब तक जन संघ का कोई अस्तित्व नहीं था और इसे यहां स्थापित करने का बीड़ा जिन लोगों ने उठाया था उनमें नित्यानंद स्वामी सबसे प्रमुख थे. गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले और घर-घर जाकर उन्होंने लोगों को इस पार्टी के बारे में बताया और इसकी सदस्यता दिलवाई. साल 1955 आते-आते स्वामी जन संघ में अपनी मज़बूत पहचान बना चुके थे और उन्हें उत्तर प्रदेश का पार्टी महामंत्री बनाया जा चुका था.
इसी जन संघ के टिकट पर स्वामी ने अपना पहला विधान सभा चुनाव लड़ा साल 1957 में. इसमें उनकी हार हुई और कांग्रेस नेता बीबी शरण विजयी हुए. अगला चुनाव साल 1962 में हुआ. इस बार भी नित्यानंद स्वामी की हार हुई और कांग्रेस नेता बीबी शरण की जीत. हालाँकि इस बार उनकी हार का मार्जिन थोड़ा कम जरूर हुआ था. फिर पांच साल के इंतज़ार के बाद जब 1967 के चुनाव आए तो नित्यानंद स्वामी को जीत की कुछ उम्मीद नजर आई. वो इसलिए क्योंकि इस बार उन्हें दोहरी पटकनी दे चुके कांग्रेसी बीबी शरण मैदान में नहीं थे. लेकिन इसके बावजूद भी चुनाव नतीजे स्वामी के पक्ष में नहीं रहे और जीत हुई एक निर्दलीय प्रत्याशी मास्टर रामस्वरूप की.
1967 का चुनाव नित्यानंद स्वामी की लगातार तीसरी हार थी लेकिन उनकी पार्टी के लिए ये चुनाव अच्छा साबित हुआ था. ये पहला मौक़ा था जब उत्तर प्रदेश में कोई ग़ैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री नियुक्त हुआ था. जाट नेता चरण सिंह ने प्रदेश में जन संघ, सीपीआई, रिपब्लिक पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. लेकिन ये सरकार एक साल भी नहीं टिकी और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
इसी तमाम उठापटक के बाद आया साल 1969. यानी 1969. वही 1969 जब पूरी दुनिया में इस्टैब्लिश्मेंट के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी. वही 1969 जब अमेरिका में रॉक कॉन्सर्ट सत्ता को हिला रहे थे. वही 1969 जिस पर ब्राइयन ऐडम ने अपना कालजयी गीत ‘समर ऑफ़ 69’ रचा और वही 69 जिसका जिक्र ईगल्ज़ ने अपनी सबसे चर्चित रचना ‘होटल कैलिफ़ॉर्न्या’ में किया. नित्यानंद स्वामी के लिए भी ये साल कुछ ऐसा ही सूर्योदय लेकर आया और उन्होंने जीत का पहला स्वाद चखा.
उन्हें ये जीत इसलिए भी मिली थी क्योंकि कांग्रेस के दिग्गज नेता और स्वामी को दो बार चुनाव हरा चुके बीबी शरण को उनकी पार्टी ने इस बार टिकट नहीं दिया था. और वे कांग्रेस के प्रत्याशी कृष्ण चंद्र सिंघल के ख़िलाफ़ काम करने लगे थे. इसका सीधा फ़ायदा जन संघ को हुआ और नित्यानंद स्वामी विधायक बन गए.
इस विधानसभा में स्वामी समेत जन संघ के कुल 47 विधायक पहुँचे थे. उस वक्त के एक क़िस्से का जिक्र करना यहां ज़रूरी है. जन संघ के ये विधायक सदन में एक प्रस्ताव लेकर आए. प्रस्ताव था कि उत्तर प्रदेश विधान परिषद को समाप्त कर दिया जाए. नित्यानंद स्वामी ने इस प्रस्ताव की ज़ोरदार पैरवी की और कहा कि विधान परिषद का अस्तित्व सिर्फ़ समय, संसाधन और पैसे की बर्बादी है. उन्होंने तमाम आँकडें रखते हुए उत्तर प्रदेश विधान परिषद को भंग करने की बात इतनी मज़बूती से रखी कि जब इस पर वोटिंग हुई तो लगभग पूरे सदन ने उनके प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया. हालाँकि ये प्रस्ताव पारित होने के बाद भी कभी लागू नहीं हो पाया. लेकिन सबसे दिलचस्प बात ये है कि जिन नित्यानंद स्वामी ने विधान परिषद को समाप्त कर देने की ज़ोरदार पैरवी की थी, वे खुद ही आगे चलकर तीन बार विधान परिषद के सदस्य बने और उनका लगभग पूरा राजनीतिक जीवन ही विधान परिषद के सहारे चला.
एक बार विधायक रहने के बाद नित्यानंद स्वामी अपना अगला चुनाव कांग्रेस के प्रत्याशी भोला दत्त सकलानी से हार गए. इस हार के बाद उन्होंने जन संघ से ही नाता तोड़ लिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के नज़दीक आने लगे. अब राजनीति में बने रहने के लिए उन्होंने विधान सभा की जगह विधान परिषद का रास्ता चुना. उसी विधान परिषद का जिसे भंग करने की वे पैरवी करते रहे थे. 1984 का विधान परिषद चुनाव एक निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीता और इसके तुरंत बाद ही तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के आग्रह पर वे कांग्रेस में शामिल हो गए.
विधान परिषद में नित्यानंद स्वामी का सफर काफी सार्थक रहा. 1984 में पहली बार यहां पहुँचने से लेकर वो अलग राज्य बनने तक लगातार इसके सदस्य रहे. इस दौरान 1991 में उन्हें उपसभापति चुना गया, फिर 1992 में वो कार्यकारी सभापति बने और 1996 में निर्विरोध सभापति चुने गए. सभापति रहते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण फैसले भी दिए. एक तो तब जब बसपा नेता मायावती ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की थी और दूसरा तब जब सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने नारायण दत्त तिवारी को देशद्रोही कहा था. इस पर नित्यानंद स्वामी ने बेहद सख़्त होते हुए कहा था कि ‘प्रजा तंत्र में देशद्रोह जैसे आरोपों के लिए कोई जगह नहीं होती.’ ये बात और है कि आज उनकी ही पार्टी के तमाम लोग आए दिन किसी न किसी को देशद्रोह का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं.
बहरहाल, विधान परिषद का हिस्सा बनते ही नित्यानंद स्वामी एक कांग्रेसी हो गए थे लेकिन इसके दस साल बाद यानी 1995 में वे वापस भाजपा में शामिल हुए. और उनकी ये घर वापसी करवाई थी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने. वाजपेयी तब लोक सभा में विपक्ष के नेता थे और अपने लोकसभा क्षेत्र लखनऊ के दौरे पर आए थे. उन्होंने एक रात नित्यानंद स्वामी को डिनर पर बुलाया. भाजपा नेता कलराज मिश्र और लालजी टंडन भी यहां मौजूद थे. उनके ही बात छेड़ने पर अटल जी बोले, ‘स्वामी, अब आपको घर वापस आ ही जाना चाहिए.’
नित्यानंद स्वामी ने ये प्रस्ताव स्वीकार किया लेकिन ये कहते हुए कि ‘1996 का विधान परिषद चुनाव मुझे लड़ना है. भाजपा तो अपना प्रत्याशी घोषित कर चुकी है और अब उन्हें हटाना ठीक नहीं होगा. इसलिए मैं ये चुनाव निर्दलीय लड़ूँगा. फिर मैं चाहे जीतूँ या हार जाऊँ, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा में शामिल हो जाऊँगा.’
ये वो 1996 था जब प्रथक राज्य उत्तराखंड का आंदोलन अपने चरम पर था. खटीमा, मसूरी और मुज़फ़्फ़रनगर में गोली कांड हो चुके थे. हर तरफ भारी आक्रोश था और ‘राज्य नहीं तो चुनाव नहीं’ के नारे गूंज रहे थे. जनता अपने नेताओं से मांग कर रही थी कि वो भी चुनावों का बहिष्कार करें और इसमें हिस्सा न लें. लेकिन हर नेता की तरह नित्यानंद स्वामी के पास भी चुनावों में शामिल होने के कई तर्क थे लिहाज़ा वो चुनाव लड़े, जीते और फिर से भाजपा का हिस्सा हो गए.’
72 साल की उम्र का होने के बाद स्वामी के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा पल आया. वो पल जिसके बारे में उनके ज्योतिषी नाना ने उनके पैदा होने पर कहा था कि ‘ये लड़का एक दिन राजा बनेगा.’ 9 नवंबर 2000 को वो दिन आया जब ‘नित्ती’ के बारे में की गई ये भविष्यवाणी सच साबित हुई और वो देश के 27वें राज्य के पहले मुख्यमंत्री चुने गए.
बतौर मुख्यमंत्री उनका कार्यकाल बेहद छोटा रहा और पहले दिन से ही पार्टी के भीतर ही उनका जमकर विरोध शुरू हो गया. बल्कि उनके शपथग्रहण समारोह में ही भाजपा के कई दिग्गज शामिल नहीं हुए थे. इनमें भगत सिंह कोश्यारी भी थे, रमेश पोखरियाल निशंक भी और नारायण रामदास भी.
नित्यानंद स्वामी के विरोधियों का एक आरोप ये भी होता था कि एक पहाड़ी राज्य का मुख्यमंत्री कोई ग़ैर-पहाड़ी कैसे हो सकता है. ये आरोप इतनी बार दोहराया गया कि उनके मुख्यमंत्री रहते 3 अप्रैल, 2001 को प्रदेश के सूचना एवं लोक संपर्क विभाग ने बाक़ायदा एक विज्ञप्ति जारी की जिसका शीर्षक था ‘नित्यानंद स्वामी पहाड़ी हैं.’ इसमें बताया गया था कि उनका परिवार सौ सालों से देहरादून में रहता आया है.
स्वामी इस आरोप पर अक्सर कहा करते थे कि ‘उत्तराखंड में जितने भी नेता या लोग हैं, सब बाहर के ही हैं. फ़र्क़ बस इतना है कि कोई चार सौ साल पहले यहां आया तो कोई सौ साल पहले. मेरे पिता 1922 में देहरादून आए थे. उन्होंने यहीं नौकरी की, जीवन के 80 बसंत यहीं बिताए और अंतिम सांस भी यहीं ली. फिर जब गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए तो किसी ने उनके मैदानी होने का सवाल नहीं उठाया. तो फिर मेरे लिए ही ऐसे सवाल क्यों उठाए जाते हैं.’
बतौर मुख्यमंत्री 11 महीने और 20 दिन का रहा. जिस पार्टी आलाकमान के आदेश पर उन्हें अप्रत्याशित तौर पर उत्तराखंड का सीएम बनाया गया था उसी पार्टी आलाकमान ने कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उनके सियासी सफ़र पर विराम लगा दिया.
उनके इस कार्यकाल को कुछ अच्छे फ़ैसलों के लिए याद किया जाता है तो कुछ बुरे फ़ैसलों के लिए भी. उनके अच्छे फ़ैसलों में सबसे प्रमुख है प्रदेश की आबकारी नीति में किए गए बदलाव. शराब के धंधे को माफ़ियाओं के चंगुल से निकालकर निगमों और स्थानीय लोगों के लिए आय का एक स्रोत बनाने का काम उन्होंने किया.
अपनी सरल जीवन पद्धति के लिए भी नित्यानंद स्वामी याद किए जाते हैं. वो प्रदेश के एक मात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे जो इस पद पर रहते हुए भी किसी बड़े बंगले या सरकारी भवन में नहीं रहे.
लेकिन उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे फैसले भी हुए जिनके चलते प्रथक राज्य के निर्माण का मूल उद्देश्य ही धराशायी हो गया. प्रदेश की राजधानी का मुद्दा इनमें सबसे प्रमुख है. आंदोलन के दिनों से ही उत्तराखंड की राजधानी के लिए ग़ैरसेण की माँग होती रही थी. लेकिन नित्यानंद स्वामी कभी इसके पक्ष में नहीं रहे. उनका मानना था कि ग़ैरसैण में राजधानी का प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है और इसके लिए जितनी धनराशि की जरूरत होगी, वो कभी नहीं जुटाई जा सकेगी. ये बात और है कि उससे ज्यादा धनराशि अब तक उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में लगाई जा चुकी है.
उत्तराखंड आंदोलन की मूल अवधारणा में ही ये बात शामिल रही थी कि ‘पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो.’ ताकि डीएम से लेकर सीएम तक पहाड़ चढ़ें, पहाड़ों में रोज़गार से लेकर स्वरोज़गार तक के अवसर पैदा हों और पलायन को रोका जा सके. लेकिन उत्तराखंड बन जाने के बाद पलायन कम होने की जगह और भी तेजी से हुआ और इसका एक बड़ा कारण राजधानी का पहाड़ में न होना भी माना गया. दूसरी तरफ़ देहरादून शहर पर उसकी क्षमताओं से ज़्यादा बोझ पड़ने लगा और नतीजे आज हम सबके सामने हैं.
राजधानी के मुद्दे को टालने का जो काम नित्यानंद स्वामी ने मुख्यमंत्री रहते शुरू किया, वही काम उनके बाद बने तमाम मुख्यमंत्री भी दोहराते रहे हैं. लिहाज़ा उत्तराखंड देश का एक मात्र ऐसा प्रदेश है जिसकी अपनी कोई स्थायी राजधानी नहीं है और जिसके गठन के 21 साल बाद भी राजधानी का मुद्दा लंबित ही है.
बहरहाल, नित्यानंद स्वामी का जो राजनीतिक सफर देश के पहले चुनावों से शुरू हुआ था वो उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के साथ ही लगभग समाप्त हो गया. लेकिन नीतिगत फ़ैसलों से इतर देखा जाए तो लोग उन्हें एक साफ छवि के ईमानदार और वक्त के पाबंद राजनेता के रूप में ही याद करते हैं.
जाते-जाते आपको उनकी ईमानदारी का एक दिलचस्प क़िस्सा भी सुनाते हैं. मोबाइल और इंटरनेट के दौर से पहले जब चिट्ठियों का चलन था तो नित्यानंद स्वामी के नाम सैकड़ों चिट्ठियाँ आया करती थी. इनमें कई ऐसी भी होती जिन पर चिपके डाक टिकटों पर कोई मुहर नहीं लगी होती. एक रोज़ उनके परिवार के एक सदस्य ऐसी सभी चिट्ठियों से डाक टिकट निकाल रहे थे ताकि उन्हें फिर इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन नित्यानंद स्वामी ने उन्हें ये करते देखा तो तुरंत ही सारे डाक टिकट फाड़ दिए और उन्हें डपटते हुए कहा, ‘पोस्ट ऑफ़िस की गलती के चलते इन टिकटों पर मुहर नहीं लगी है. लेकिन ये अपना काम पूरा कर चुके हैं. लिहाज़ा इन्हें निकालना सरकारी पैसे की चोरी करना है और ये हरकत मैं बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करूँगा.
स्क्रिप्ट : राहुल कोटियाल