किसी रोमांचक फ़िक्शन फ़िल्म सरीखे इस नज़ारे को अपनी कल्पनाओं में आकार लेने दीजिए. भव्य हिमालय की बर्फ़ीली वादियों से घिरे मख़मली घास के ख़ूबसूरत मैदानों के बीच, बेतरतीब भूगोल को नापती आती कोई पगडंडी और यहां फैली अनहद शांति को तोड़ती, इस पगडंडी में भागते सफ़ेद घोड़ों के पदचापों की गूंज.
बेदिनी बुग्याल की सर्द हवाओं को चीरता हुआ घुड़सवारों का एक दल अब ‘पातर नच्योंणी’ से होता भगवाबासा को पार कर चुका था.
त्रिशूल और नंदा घुंटी की ऊँची हिमालयी चोटियॉं अपनी सल्तनत में दाखिल हुए इन घुड़सवारों पर लगातार निगाहें बनाए हुए थी. इन घुड़सवारों के हिस्से अब एक चढ़ाई आनी थी जिसके पार वे सीधे इन दोनों विशाल पर्वतों के आगोश में लेटी उस घाटी में होते, जो उनके इस सफ़र की मंज़िल थी. दाहिनी ओर 7120 मीटर ऊंचा भव्य त्रिशूल पर्वत और बाईं ओर 6309 मीटर ऊंची नंदा घुंटी.
लेकिन अपनी मंज़िल तक पहुंचने से पहले ही इस चढ़ाई के दूसरे छोर पर इन घुड़सवारों की मुलाक़ात एक ऐसी ख़ामोश झील से हुई, जहां सैकड़ों इंसानी लाशें और नर कंकाल बिखरे हुए थे. हिमालय की सर्द फ़िज़ाओं में लेटी एक ख़ामोश झील. और उसकी बर्फ़ के पिघल जाने से बाहर उभर आई, उसमें बिखरी लाशें और नर कंकाल. यह कोई फ़िल्मी नज़ारा नहीं बल्कि 2 अगस्त 1942 के दिन जीते जागते इंसानों के सामने, दिल दहला देने वाली हक़ीकत थी.
रहस्य और रोमांच से भरी इसी झील की कहानी के साथ पेश है ‘हुआ यूं था’ का अगला ऐपीसोड ‘रहस्यों का रूपकुंड’.
उस वक़्त हिंदुस्तान ब्रितानिया हुक़ूमत के मातहत था और उपनिवेशवाद की तमाम बुराइयों के बावजूद साइंटिफ़िक और डिसिप्लिंड तरीक़े से नॉलेज़ एक्सप्लोरेशन के ब्रिटिश कल्चर ने कई भारतीय विद्वानों को बेहद आकर्षित किया था. चाहे दुर्गम हिमालय की बेतरतीब चढ़ाइयों को नक्शे में दर्ज करने का जटिल काम हो या फिर यहॉं के फ़्लोरा—फ़ोना को डॉक्यूमेंट करने की ज़िद, इस सब में ब्रिटिशर्स के प्रयासों को भारतीय विद्वानों ने काफ़ी मदद की. इनमें से कई एक्सप्लोरर, ब्रिटिश कालीन फ़ॉरेस्ट आफ़िसर्स भी थे.
अगस्त 1942 में त्रिशूल पर्वत की ओर बढ़ रहे घुड़सवारों के इस दल का नेतृत्व भी एक ऐसा ही फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर कर रहा था जो उच्च हिमालय के किसी रेयर पौंधे की तलाश में था. इस फॉरेस्ट रेंजर, हरि किशन मधवाल, के ज़िम्मे उस ज़माने में हिमालयी जंगल का तक़रीबन वो हिस्सा था जिसे आज हम नंदा देवी नैश्नल पार्क के तौर पर जानते हैं. वे उत्तरी गढ़वाल वन प्रभाग के पिंडर रेंज के फ़ॉरेस्ट रेंजर थे.
फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट, पौड़ी गढ़वाल के पिंडर रेंज ऑफ़िस में घुड़सवारों के इस दल की तेज़ी से आमद हुई.. सैकड़ों किलोमीटर्स की एक जटिल यात्रा की थकान के बावजूद, आराम करने का ख़्याल भी रेंजर हरि किशन मधवाल के दिमाग़ में नहीं था और जो नज़ारा वे देख कर आए थे उसके बाद से वे एक ज़बरदस्त बेचैनी और गहरी उथल—पुथल से भरे हुए थे. कई सवाल उनके ज़ेहन में गूंज रहे थे जो अगले कई दशकों तक एक अबूझ रहस्यमई पहेली बनकर तैरते रहे.
मसलन,
* उस बर्फ़ीली झील में इतने सारे नर कंकाल और लाशें कहां से आ पहुंचे?
* ये नर कंकाल और लाशें आखिर किसकी थीं?
* बर्फ़ की सर्द कब्रगाह में ये कब से यहॉं पर थीं?
* और इनके बारे में किसी को अब तक क्यों कुछ नहीं मालूम था?
इनमें से कई के जवाब अब तक भी पुख़्ता तौर पर नहीं मालूम.
मधवाल ने किसी भी दूसरी चीज़ में खुद को मशगूल करने से पहले सीधे अपनी टेबल कुर्सी का रूख़ किया और बारीक़ नोक वाली अपनी कलम को दवात में डुबो कर, एक सादे काग़ज़ पर कुछ लिखना शुरू किया.
दरअसल, उस वक़्त के डैप्युटी कमिश्नर ऑफ़ गढ़वाल, आर. वी. वर्नेड के नाम सादे काग़ज़ में लिखे जा रहे इस ख़त में एक इतिहास लिखा जा रहा था. इस क़ागज़ में दुनिया की सबसे रहस्यमई, नर कंकालों वाली झील ‘रूप कुंड’ के बारे में, मानव इतिहास में पहली बार कुछ लिखा जा रहा था.
बाद के समय में रूपकुंड के रहस्यों को खंगालने के लिए शुरूवाती शोध करने वाले दल के प्रमुख मशहूर Anthropologist और लखनऊ युनिवर्सिटी में Anthropology के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट, डी एन मजूमदार ने अपने एक आलेख में, आर. वी. वर्नेड के साथ लंदन की एक मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए लिखा,
”आर. वी. वर्नेड, जो बाद में इंडियन सिविल सर्विसेज़ में आ गए थे और जो आजकल ऑक्सफ़ोर्ड के सेंट पीटर्स हॉल के बर्सर हैं, उन्होंने मुझे लंदन में बताया कि 1941 से 1946 तक वे गढ़वाल के डैप्युटी कमिश्नर थे और 1942 में उन्हें रूपकुंड के अस्थि ढेर की सूचना मिली थी. इसकी छानबीन करने के लिए उपयुक्त अवसर न होने से उन्होंने केवल सूचना देने वाले के यानि एच के मधवाल के वक्तव्य लिखा लिए थे.”
हालांकि, रेंजर एच के मधवाल का लिखा वह पत्र और उसके बाद उनके दर्ज किए गए वक्तव्य ही वे पहले लिखित दस्तावेज़ थे जिसमें रहस्यमयी रूपकुंड का ज़िक्र दर्ज हुआ.
बाद में, 6 मार्च 1956 के दिन ऑल इंडिया रेडियो, कई प्रसारण केंद्रों रेंजर एच. के. मधवाल का एक बयान ब्रॉडकास्ट हुआ. इसमें उन्होंने 2 अगस्त 1942 के उस दिन का अपना अनुभव साझा किया था जिस दिन वह पहली बार रूपकुंड की रहस्यमई झील में पहुंचे थे. सुनें उस बयान का यह हिस्सा —
‘दूर से देखने पर जो एक चढ़ाई का छोर नज़र आता था असल में वह एक छोटी झील का बाहरी किनारा था. जैसे—जैसे हम क़रीब पहुंचे, तो हमें झील में मटमैला पानी दिखाई दे रहा था और जब हम सच में इस झील के किनारे पहुंच गए तो हमारा सामना एक भयानक नज़ारे से हुआ जिसने हमारी सॉंसें रोक दी. पूरा इलाक़ा इंसानी लाशों से अटा पड़ा था. फूले हुए रबड़ जैसा मांस, अधिकतर शवों से चिपका हुआ था. उनके मुस्कुराते से दिखते चेहरों ने इस नज़ारे को और भी भयानक बना दिया.
इस भयानक जगह पहुंचकर हमारे पोर्टर्स को लगा कि वे किसी भूतहा जगह पर आ गए हैं और वे भाग गए. हालांकि मेरे असिस्टेंट लक्षम सिंह और मैं, लाशों और झील को कुछ नज़दीक से देखने के लिए वहीं रूके रहे. हमने देखा कि वे लाशें असामान्य तौर पर काफ़ी बड़ी थीं. चमड़े की चप्पलें जो हमें यहां-वहां मलबे में पड़ी मिलीं, वे बड़े आकार की थीं और ऐसी थीं जो कि आमतौर पर उत्तर प्रदेश में नहीं देखी जाती थीं. मलबे में लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, देशी छाते और बांस की छड़ें भी दबी हुई थीं। इनमें से अधिकांश मानव अवशेष आंशिक रूप से झील में बजरी और गाद के बीच दबे हुए थे.’
रूपकुंड के इन शवों और कंकालों ने रेंजर मधवाल के ज़रिए दुनिया के सामने आकर कुछ रहस्यमई पहेलियां सुलझाने के लिए छोड़ दी. जो शुरूआती अनुमान इनके बारे में लगाए जा सकते थे. उनके मुताबिक –
* क्या रूपकुंड के मृतक किसी सेना का हिस्सा थे जो वहां प्राकृतिक त्रासदी का शिकार हो गए थे.
* क्या वे तीर्थयात्री थे जो कि नंदा देवी के दर्शन के लिए उच्चहिमालय की ओर यात्रा कर रहे थे.
* क्या कोई ऐसी परम्परा थी जिसके चलते ऋषि मुनियों या श्रद्धालुओं ने मोक्ष प्राप्ति के लिए इतनी बड़ी संख्या में रूपकुंड में आत्महत्याएं की थीं?
* क्या ये तिब्बत की ओर जाने वाले कोई व्यापारियों का दल था जो कि भटक गया और आखिरकार यहां आकर प्राकतिक त्रासदी का शिकार हुआ.
* या फिर क्या किसी महामारी ने इन सब को यहां अपनी चपेट में ले लिया था?
रूपकुंड के इस रहस्य की खोज से पहले ही कई माउंटेनियर्स त्रिशूल पर्वत फ़तह कर चुके थे, जिनमें सितम्बर 1905 में त्रिशूल पर्वत की पहली चोटी की, पहली बार चढ़ाई करने वाले T. G. Longstaff भी शामिल थे. उन्होंने यह चढ़ाई त्रिशूल के दक्षिण पश्चिमी हिस्से से की थी. बाद में जून 1907 में Longstaff ने अपने कुछ साथियों के साथ फिर एक बार उत्तरपूर्वी हिस्से से त्रिशूल ‘1’ की चढ़ाई की. अपने संस्मरणों में उन्होंने इन दोनों ही expeditions और इस इलाक़े का विस्तार के साथ ज़िक्र किया है, लेकिन इंसानी कंकालों वाले ‘रूप कुंड’ का इसमें कोई ज़िक्र नहीं मिलता, जबकि अपनी दूसरी यात्रा में वे इसके क़रीब से ज़रूर गुजरे होंगे. हो सकता है कि साल के अधिकतम समय बर्फ़ से ढके रहने वाले रूपकुंड का रहस्य उस समय भी बर्फ़ की आगोश में छिपा रहा हो.
बहरहाल, इससे पहले के भी किसी ज्ञात लिखित दस्तावेज़ में रूपकुंड और उसके रहस्य का कोई ज़िक्र नहीं है.
हालांकि बर्फ़ीले हिमालय के प्राकृतिक नोमैंस लैंड की ओर यहां बसे समाज की जिज्ञासाओं ने भी कई यात्राएं की हैं. जिनमें से अधिकतर सामूहिक यात्राएं या ‘जात’ रही हैं और उनका मक़सद धर्म और आध्यात्म का एक्सप्लोरेशन रहा. इनमें सबसे बड़ी ‘जात’, इसी इलाक़े में होने वाली ‘नंदा देवी राज जात’ मानी जाती है. स्थानीय लोक स्मृतियों में इन्हीं यात्राओं के अनुभवों से उपजे कुछ लोकगीतों में ज़रूर, नर कंकालों वाली इस झील से जुड़ती एक कहानी के बारे में कुछ सुनाई देता है. अपने शोध के दौरान ही डी. एन. मजूमदार ने इस इलाक़े के कई बुजुर्गों से मुलाक़ात कर उन लोक गीतों में दर्ज ‘रूप कुंड’ की कहानी को जानने की कोशिश की. वे लिखते हैं,
‘जन साधारण को वे दंतकथाएं या उनके विस्तृत विवरण याद नहीं हैं. जिन्हें हम यहां उद्धृत कर रहे हैं, ये कथाएं विभिन्न गॉंवों से ऐसे वृद्ध पुरूषों से एकत्र की गई हैं जिनकी स्मरण शक्ति स्वयं धूमिल हो चली है. कभी कभी कुछ उत्साही व्यक्ति अपनी कल्पना के सहारे इन कथाओं की सृष्टि कर डालते हैं. कुछ लोगों का विचार है कि रूपकुंड के अस्थि ढेर से इन दंत कथाओं का कोई संबंध नहीं है. इनमें जिस दुर्घटना का उल्लेख हुआ है वह पहले हुई और कालांतर में उसको लेकर ये कथाएं रची गई. अथवा ये कथाएं पहले से प्रचलित थीं और बाद में रूपकुंड की कहानी उनसे जोड़ दी गई.’
Anthropologist डीएन मजूमदार ने लोकगीतों के आधार पर सबसे अधिक प्रचलित जिस कथा को दर्ज किया है. उसे संक्षेप में हम आपको सुनाते चलें.
कान्यकुब्ज यानी कन्नौज के राजा जसधवल और उसके राज्य पर देवी भगवती का कोप था. अच्छा धान बोने पर सोला उगता. लोग जब अच्छे गेहूं की उपज की आस लगाए बैठे थे, खेतों में गोबर पैदा हुई. चने की फसल जब लोग काटने गए तो उन्हें केवल काले सूखे छिलके मिले. जौं के खेतों में घास—पतवार का साम्राज्य हो गया. गायें, पंड़वों यानि भैंस के बच्चों को जन्म देती और भैंसें, बछड़ों को. इसी प्रकार भेड़ों से बकरी के मेमने पैदा होते और बकरियों से भेड़ों के बच्चे. मनुष्य की संतानें भी लुंज पुंज शरीर लेकर धरती पर आती. जल रक्तिम वर्ण का हो गया. देवी के कोप से सारे लोग हर प्रकार से सन्तप्त थे.
ऐसे में कन्नौज के राजा जसधवल और उनके दरबारी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह आपदा उनके राज्य में इसलिए आई है कि सुदूर हिमालयी पर्वतों में वास करने वाली देवी भगवती यानि भगवान शिव की अर्धांगिनी माता पार्वती के दर्शन के लिए, लंबे समय से कोई तीर्थ यात्रा नहीं की गई है.’ निर्णय लिया गया कि तुरंत तीर्थ यात्रा के लिए निकलना होगा.
प्रजा के परामर्श से राजा ने भोजपत्र के छत्र निर्मित करने की आज्ञा दी. लोगों में अपूर्व उत्साह था. राजा की आज्ञा से उन्होंने नए परिधान बनवाए और सारे गंदे वस्त्रों को स्वच्छ किया. भोज के छत्र भी तैयार हो गए.
सभी तैयारियां समाप्त होने पर राजा जसधवल, उसकी गर्भवती पत्नी रानी बलम्पा जिन्हें रानी बल्पा भी कहा गया है, राज परिवार के दूसरे क़रीबी और कुछ सेवक हिमालयी तीर्थ यात्रा पर चल पड़े. वहॉं से वे हल्द्वानी, सोमेश्वर, बैजनाथ, ग्वालदम, लोहाजंग होते हुए बेदनी पहुँचे. बेदनी में उन्होंने कुछ दिन ठहरकर, देवी भगवती के मंदिर में पूजा की और बलि दी.
कहते हैं, राजा सारे साज़ो सामान के साथ ही नर्तकियों की एक टोली को भी अपने मनोरंजन के लिए साथ लेकर गया था. बेदनी बुग्याल से ऊपर जहां आज पातरनच्योंणी है वहां तम्बू गाड़ राजा ने पातरों यानि नर्तकियों के नृत्य का आयोजन किया. जब इसकी ख़बर देवी भगवती को पहुंची तो वे अपने शांत और मनोहारी रहवास में राजा के इस ओछे आयोजन से नाराज़ हुई.
उसके बाद वहां से राजा का जत्था गिंगटोली पहुंचा जहां रानी बलम्पा को प्रसव पीड़ा हुई और जात्रा को रूकना पड़ा.
लोकगीतों के अनुसार घने बादल छा गए कोहरा चारों ओर फैल गया और शीघ्र ही गिंगटोली अंधकार में डूब गया. बग्गूबाशा के नज़दीक एक चट्टान के आश्रय में बलम्पा रानी ने एक बच्चे को जन्म दिया. इस जगह को ‘बल्पा सुलेड़ा’ के नाम से जाना जाता है. सुलेड़ा यानि प्रसूतिगृह. ‘बल्पा सुलेड़ा’ यानि बल्पा रानी का प्रसूतिगृह.
इसके बाद जब देवी भगवती को अपने वास स्थान के अंदर हुए प्रसव का समाचार मिला तो वह क्रोधित हुईं. उनके एक सेवक देवसिंह ने उन्हें आकर कहा ‘माता, तुम्हारा कैलास अपवित्र हो गया है.” देवी ने अपने सेवक हंस को पता लगाने के लिए भेजा कि वे लोग कौन थे जिन्होंने उनके पवित्र स्थान को, नर्तकियों का नृत्य और रानी का प्रसव करा अपवित्र कर दिया था. हंस ने सारी सूचना लाकर देवी को दी. क्रोधित देवी ने अपने विश्वासपात्र अंगरक्षक लाटू को, कन्नौज के राजा और रानी पर पत्थर बरसाने के आदेश दिए. लेकिन लाटू ने यह कहकर इनकार कर दिया राजा और उसका दल आपके अतिथि हैं उनका उचित सत्कार करना चाहिए.
लेकिन क्रोधित देवी भगवती ने एक ना सुनी और लाटू को कई तरह के लालच देकर उन्होंने उसे राजा पर कहर ढाने के लिए मना लिया.
लोकगीत कहते हैं, काले बादलों ने आकाश को ढक लिया और सर्वत्र घोर तिमिर छा गया. वर्षा, मेघ ध्वनि और हिमपात ने मिलकर प्रलय ढा दिया. ऊपर से लाटू ने पत्थर और लोहे के टुकड़े बरसाना शुरू कर दिया. जो भी रूपकुण्ड पहुंचा वह इस प्रलय का शिकार हुआ. और नीचे गिंगटोली की नदियों में बाढ़ आ गई. बल्पा—सुलेड़ा जहॉं रानी ने शिशु को जन्म दिया था, बह गया. बाद में कुम्बागढ़ में ग्वालों को बल्पा रानी की अस्थियां मिली.
लोकगीत के मुताबिक़ राजा, रानी और उनसे जुड़ा हर एक व्यक्ति इस प्रलय का शिकार हुआ, महज़ यतियों को छोड़ दिया गया, जो कि देवी का आदेश था.
हालांकि, लोकसाहित्य में रूपकुंड के नर कंकालों की रहस्य कथा का ज़िक्र तो मिलता है लेकिन इन कहानियों में कल्पनाओं का पुट ज़्यादा है और ये कहानियां साइंटिफ़िक अप्रोच और एविडेंसेज़ के साथ उस निश्चित इतिहास को नहीं बतलाती जो कि रूपकुंड से जुड़ी पहेलियों का सटीक जवाब देता हो.
बहरहाल, डीएन मजूमदार की राय है कि फ़ॉरेस्ट रेंजर, एच के मधवाल की रूपकुंड की खोज का महत्व यह है कि ‘पहली बार एक अंधविश्वास रहित और जिज्ञासु शिक्षित व्यक्ति ने रूपकुंड की दुर्घटना की वास्तविकता को प्रत्यक्ष रूप से समझने की कोशिश की।’
हालांकि मधवाल रूपकुंड की रहस्यमई झील के बारे में ब्रिटिश अधिकारियों को बता चुके थे लेकिन बावजूद इसके उसे लेकर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं किया गया. और भारत की आज़ादी के बाद 1955 तक भी रूपकुंड के अस्थि ढेर पर कोई व्यापक चर्चा नहीं हुई.
मजूमदार लिखते हैं, ”रूपकुंड के अस्थिढेर के बारे में अफ़वाहें थीं और इन अस्थियों के असाधारण आकार के चलते स्थानीय जन किंवदन्तियों और गप्पों में रूचि रखते हुए भी अत्यधिक अंधविश्वासी होने के कारण इन अस्थियों का उल्लेख भी नहीं करते थे.”
इधर अनूठे रूपकुंड के रहस्य को जानने की बेचैनी रेंजर एच के मधवाल के भीतर बरक़रार रही. 1955 में मधवाल ने उस वक्त के वन विभाग के उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी को, जो कि गढ़वाल से ही थे, इस रहस्यमई कुंड के बारे में बताया.
जगमोहन सिंह नेगी की स्थानीय इतिहास में गहरी रूचि थी इसलिए जब उन्हें रूपकुंड बारे में पता चला तो वे ख़ुद रूपकुंड के सबसे क़रीबी और इस इलाक़े के आखिरी गांव ‘वान’ गए. वहां उन्होंने लोकसाहित्य का संग्रह किया और रूपकुंड और उसके अस्थि ढेर के बारे में एक विवरण प्रकाशित किया. अपने अध्ययन के आधार पर नेगी ने अनुमान लगाया कि रूपकुंड के नर कंकाल, जम्मू के डोगरा राजपूतों के सेनापति और ‘हिंदुस्तान का नैपोलियन’ कहे जाने वाले ज़ोरावर सिंह कहलूरिया के सैनिकों के कंकाल थे. नेगी का अनुमान था कि जब ‘डोगरा—तिब्बत युद्ध’ के दौरान टो—यो की लड़ाई में 12 दिसम्बर 1841 को ज़ोरावर सिंह की मौत हुई तो उनके कुछ सैनिक भागते हुए इसी रास्ते से वापस आए होंगे और यहॉं किसी प्राकृतिक दुर्घटना का शिकार हो गए होंगे.
इस अनुमान का एक आधार यह भी था कि रूप कुंड में मौजूद लाशों और अस्थि ढेर के मुताबिक़ इन मृत इंसानों की औसत लम्बाई स्थानीय लोगों की लम्बाई से काफ़ी अधिक थी.
बहरहाल, इस अध्ययन के बाहर आते ही अख़बारों ने इसे हाथों हाथ लिया और हिमालय की शॉंत वादियों में पसरा रूपकुंड देशभर में चर्चाओं और कौतुहल का विषय बन गया. इसकी चर्चा ना सिर्फ़ देशभर में हुई बल्कि विदेशों में भी इसने लोगों की जिज्ञासाओं को बढ़ा दिया. समाचार ऐजेंसी रॉयटर्स और अख़बार स्टेट्समैन ने अपने पत्रकारों को इस कुंड के रहस्य की पड़ताल के लिए भेजा. ये रिपोर्टर्स, फ़ॉरेस्ट रेंजर एच.के. मधवाल को तलाश, उनके साथ ही 1955 में रूपकुंड पहुॅंचे. रॉयटर्स, स्टेट्समैन और फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट के इस जॉइंट expedition में जब एच.के. मधवाल इस दल के साथ दूसरी बार रूपकुंड पहुंचे तो नज़ारा पिछली बार से बिल्कुल अलग था और कोई भी पूरी लाश वहां नहीं दिखाई दे रही थी जबकि लाशों के क्षत—विक्षत टुकड़े और कंकाल पूरे इलाक़े में बिखरे हुए थे. पहले पहल रूपकुंड में स्पॉट किए गए शव और कंकाल झील के उत्तर पूर्वी हिस्से में ही दिखाई दिए थे. स्टेट्समैन के पत्रकार महेश चंद्र ने 26 सितम्बर 1955 के अपने डिस्पैच में लिखा,
‘इस बात पर यक़ीन करने के कई कारण हैं कि रूपकुंड क्षेत्र में बर्फ़ की स्थिति में काफ़ी बदलाव आया है और पहले अधिकतम समय बर्फ़ में ढकी रहने वाली ये लाशें इस दौरान काफ़ी समय के लिए खुले वातावरण में एक्सपोज़ रही हैं. हमने यह देखा कि बाद में ऊपर की ओर से झील में कई ताज़े बोल्डर्स गिरते हुए आए हैं जिनसे वहां बिखरे शव क्षत—विक्षत हो गए.’
इसके अलावा महेश चंद्र ने अपनी रिपोर्ट में एक और महत्वपूर्ण बात लिखी. अपनी इसी यात्रा में उनकी मुलाक़ात मुंडोली गांव के एक एक्स सर्विसमैन, रूप सिंह से हुई जिनका दावा था कि उन्होंने 26 साल पहले एक जात में हिस्सा लिया था. संभव है कि वे 1925 की नंदा राज जात का ज़िक्र कर रहे थे. वहां उन्होंने और उनके एक साथी ने पहाड़ी ढलानों के नीचे बर्फ़ में दबे शवों को इधर उधर बिखरे देखा था, उनके महज़ कुछ ही अंग बाहर निकले हुए थे.
पत्रकारों और फ़ॉरेस्ट के अधिकारियों का यह दल वापसी में अपने साथ वहां बिखरी कुछ खोपड़ियां, जबड़े, लम्बी—लम्बी अस्थियां, चमड़े की चप्पलें, कुछ मनके और चूड़ियां लेते आया. इन चीजों को अध्ययन के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग को दे दिया गया.
अब रूपकुंड का रहस्य पूरी दुनिया के लिए एक रोमांचक पहेली बन चुका था. आम लोगों के साथ ही वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं को भी यह पहेली बेसब्री से आकर्षित कर रही थी. ऐसे में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. सम्पूर्णानन्द ने, कुछ वैज्ञानिकों का एक खोजी दल बना कर उसका खर्च उठाने का प्रस्ताव Anthropologist और लखनऊ युनिवर्सिटी में हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट, डी एन मजूमदार के सामने रखा.
इसके बाद मई 1956 में पहली बार दस वैज्ञानिकों का एक दल रूपकुंड के रहस्य से पर्दा उठाने के मक़सद से त्रिशूल पर्वत की तलहटी में तक़रीबन 4,536 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद रूपकुंड की ओर रवाना हुआ. इस दल में देशभर के अलग अलग इलाक़ों से एनाटॉमी, जियोलॉजी, प्रीहिस्ट्री, ज़ूलॉजी, जियोकैमैस्ट्री, मेडिकल, फिज़िकल और कल्चरल एंथ्रोपॉलोजी के कई विशेषज्ञ शामिल थे.
काबिल एक्सपर्ट्स् की यह टीम प्रतिकूल मौसम होने के बावज़ूद भी रूपकुंड तक जा तो पहुंची लेकिन दुर्भाग्य से उनके हाथ कोई भी महत्वपूर्ण चीज़ नहीं आई. दरअसल रूपकुंड पूरी तरह कई फ़िट बर्फ़ में ढका हुआ था और इस एल्टिट्यूड में इतने बड़े क्षेत्र की ख़ुदाई कर पाना संभव नहीं था. अभियान के लिए चुना गया मई का महीना बिल्कुल ग़लत साबित हुआ और टीम को खाली हाथ वापस लौटने का फ़ैसला करना पड़ा.
उसी साल सितम्बर महीने में एक और दल डॉ. डीएन मजूमदार की लीडरशिप में फिर से रूपकुंड के लिए रवाना हुआ. हालांकि यह दल पिछले दल से छोटा था. लेकिन इस बार क़ामयाबी हाथ लगी. डॉ. मजूमदार अपने एक संस्मरण में लिखते हैं,
‘हम झील पहुंचे, हमने अस्थियां और उपकरण खोदकर एकत्रित किए और हम वापस लौटे. हमारे पास बहुत बड़ी मात्रा में खोपड़ियां, अस्थियां, कई तरह के उपकरण, बालों के नमूने, कपड़े गहने, बर्तन, तंबू के सामान, खुंटियां, कीलें और चाकू के फल थे. कोई शस्त्र नहीं मिले. हमारे दल द्वारा रूपकुंड से लाई गई खोपड़ियां और अस्थियां सम्भवत: 60—70 व्यक्तियों की हैं, यद्यपि बिल्कुल ठीक संख्या बताना संभव नहीं है क्योंकि इनमें से अधिकांश खोपडियां और अन्य अस्थियां अपूर्ण हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि एक व्यक्ति के समझे जाने वाले टुकड़े किसी अन्य व्यक्ति के नहीं हैं.’
रूपकुंड से लाई गई सामग्री और ख़ासतौर से अस्थियां अब ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने को तैयार थी जहॉं से उन सवालों के जवाब मिलने की गुंजाइश थी जो कि पिछले दिनों दुनियाभर में सबसे बड़े कौतुहल का विषय बन गए थे.
लखनऊ युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला में अस्थियों और लाई गई दूसरी सामग्री का कई स्तर पर परीक्षण शुरू हुआ. कपड़े और चमड़े के टुकड़े विशेषज्ञों को भेजे गए.
अस्थियों के गूदे और उनसे चिपटे हुए मांस के अध्ययन से ब्लड ग्रुप्स का पता किया गया. यह जानने के लिए कि वे चीज़ें एक ही लैवल से पाई गई हैं या नहीं, फ़्लोरीन टैस्ट किया गया और खोपड़ियों का मीज़रमेंट किया गया और उससे मिले डाटा का विश्लेषण हुआ. बालों के क्रॉस सैक्शन के टेस्ट हुए. दातों और जबड़ों के एक्सरे लिए गए और आखिर में रेडियो कारबन डेटिंग के लिए कुछ अस्थियों को मिशिगन यूनिवर्सिटी भेजा गया.
सितम्बर 1957 में एक्सपर्ट ओपिनियन के लिए मीज़रमेंट डेटा, फ़ोटोग्राफ़्स, बालों के सैम्पल्स, कपड़े और दूसरी सामग्री को योरप भेजा गया.
कुल मिला कर 1950 के दशक में जो भी उपलब्ध वैज्ञानिक तकनीकें थी उन सभी के मुताबिक़ सारे ज़रूरी प्रयोग किए गए.
इस अध्ययन के दौरान पता चला कि रूपकुंड में हादसे का शिकार हुए लोगों में पुरूष, महिलाएं और बच्चे सभी शामिल थे.
डॉ. मजूमदार अपने परीक्षणों के ज़रिए मूलत: इन निष्कर्षों पर पहुंचे.
1. रेडियो कार्बन डेटिंग के मुताबिक़ ये अस्थियां 650 वर्ष पुरानी हैं. इस काल में इधर या उधर 150 वर्षों का हेरफेर संभव है.
2. खोपड़ियों और अस्थियों की नाप से पता चलता है कि रूपकुण्ड दुर्घटना के शिकार व्यक्ति एक समान प्रजातीय प्रकार के थे और वे पश्चिमोत्तर भारत के लोगों, स्वात और हुंजा घाटी के लोगों से मिलते जुलते थे.
3. अधिकांश हड्डियां स्थानीय लोगों, भोटिया और गढ़वालियों से किसी प्रकार की उत्पत्ति सम्बंधी समानता व्यक्त नहीं करतीं.
4. कुछ खोपड़ियां जिनके पिछले भाग पर असाधारण रूप से उभरा क्रैस्ट है, सम्भवत: बोझ ढोने वालों की थीं, जो स्थानीय भोटिया हो सकते थे.
5. कुछ लोगों की खोपड़ियों पर चोटें आईं परन्तु आघात के उपरान्त वे कुछ काल तक जीवित रहने के बाद मरे.
6. बालों की परीक्षा से ज्ञात हुआ कि कुछ बाल कैंची से कटे हुए थे और सम्भवत: पूजा में भेंट स्वरूप वे झील में डाल दिए गए थे.
7. फ़्लोरीन परीक्षण, बालों की रचना के अन्तर, आपेक्षिक घनत्व परीक्षण तथा यह तथ्य कि कुछ अस्थियों में मांस चिपका हुआ था और कुछ में विभिन्न मात्रा में इम्प्रेग्नेशन हो चुका था, ये सारी बातें इंगित करती हैं कि सभी अस्थियां एक ही भूस्तर पर रहने वालों की ही नहीं हैं, और उन अस्थियों के जिनमें बहुत अधिक इम्प्रग्नेशन हो चुका है और उनके जिसमें मांस चिपका हुआ था बीच कुछ काल अवश्य बीता होगा.
डॉ. डीएन मजूमदार की लीडरशिप वाली टीम के इस अध्ययन ने रूपकुंड के कंकालों के बारे में लगाए जा रहे तब तक के दोनों ही अनुमानों को ख़ारिज कर दिया. इस अध्ययन के मुताबिक़ ना ही ये कंकाल और लाशें ज़ोरावर सिंह की सेना से ताल्लुक रखती थीं और ना ही लोकगीतों में वर्णित कन्नौज के राजा जसधवल की तीर्थयात्रा की कहानी से इसका ताल्लुक माना जा सकता था.
रेडियो कार्बन डेटिंग ने यह बताया था कि ये अस्थियां तक़रीबन 650 साल पुरानी हैं. जबकि ज़ोरावर सिंह की मृत्यु दिसम्बर 1841 में हुई. अध्ययन के मुताबिक़ इन कंकालों का संबंध ऊपरी स्वात और हुंजा घाटियों के रहवासियों से है ना कि कन्नौज के लोगों से. इसका तर्क यह था कि कंकालों की औसत ऊँचाई 5.7 फ़ीट थी जो कि उत्तर प्रदेश के मध्य इलाक़ों में नहीं थी. ब्लड ग्रुप के अध्ययन में भी कन्नौज से संबंध ना होने की बात सिद्घ की गई. एक तर्क यह भी माना गया कि तीर्थ यात्री चप्पल पहनकर यात्रा नहीं करते. उधर मिले तम्बुओं और उपकरणों के एंथ्रोपॉलॉजिकल विश्लेषण से भी इन विशेषज्ञों ने तीर्थयात्रा वाले मत को ख़ारिज कर दिया.
लेकिन यहॉं रूप कुंड के इस रहस्य से जुड़ी कई कहानियों में डॉ. मजूमदार ने एक नई कहानी की सम्भावना को जोड़ दिया. जैसा कि इस शोध का निष्कर्ष था कि यह कंकाल तक़रीबन 6 से साढ़े 6 सौ साल पुराने थे यानि कि सन् 1300 से 1350 ईसवी के बीच के. और उस वक्त दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश का शासन चल रहा था. डॉ. मजूमदार एक नया अनुमान ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि 1325 से 1351 तक दिल्ली सल्तनत के सुल्तान रहे मोहम्मद बिन तुगलक ने एक सैन्य दल तिब्बत भेजा था और वह दल तिब्बत के रास्ते में मौजूद दर्रों में प्राकृतिक विपत्तियों में फंस कर समाप्त हो गया था. हो सकता है कि रूपकुंड के कंकाल, प्राकृतिक आपादा का शिकार हुए इन्हीं सैनिकों के हों.
इस शोध से जुड़े अपने एक आलेख में अध्ययन के निष्कर्षों को अंतिम रूप देते हुए डॉ. मजूमदार ने लिखा.
‘मेरा विचार है कि जो अस्थियां हमें मिली हैं वे उस अस्थि राशि का एक अंश मात्र है जो झील में बड़े पत्थरों के नीचे दबी पड़ी हैं. जब तक हम इन सभी अस्थियों को बाहर न निकालें, अंतिम रूप से कोई मत व्यक्त करना असम्भव है.’
मजूमदार ने अपने निष्कर्ष में यह भी लिखा,
‘हम इस सम्भावना की भी अवहेलना नहीं कर सकते कि अस्थियां विभिन्न कालों की हैं. अलग अलग लैवल्स पर अलग अलग दौर की अस्थियां पाई गई हैं लेकिन हाल के मृत व्यक्तियों की अस्थियों ने प्राचीन काल की अस्थियों से मिलकर रूपकुंड के रहस्य को जन्म दिया है.’
हालांकि ख़ुद शोधकर्ता बहुत निश्चित तौर पर रूपकुंड के रहस्य की सारी परतें खोल पाने में क़ामयाब नहीं हुए थे और पहेलियां अब भी बरक़रार थी. लेकिन क्योंकि पहली बार रूपकुंड की लाशें कुछ कहती सुनाई दी थीं इसलिए इस अध्ययन के निष्कर्षों को दुनिया भर में हाथों हाथ लिया गया. कई अख़बारों, पत्रिकाओं ने इस पर बड़े बड़े आलेख प्रकाशित किए और इस भूतहा झील की कहानियों ने लोगों को रोमांच से भर दिया.
इसके बाद भी सालों तक रूपकुंड के रहस्य पर कई शोध पत्र भी प्रकाशित होते रहे जिनमें अलग—अलग अनुमान लगाए गए थे. क्योंकि अब रूपकुंड को पूरी दुनिया जान चुकी थी, तो उसके बाद जब भी कोई धार्मिक यात्राएँ या पर्वतारोहियों के दल इस रूट से गुजरे तो कंकालों के इस रहस्यमई घर को देखने के रोमॉंच में उन्होंने यहॉं ज़रूर दस्तख़ दी. कई यात्री अपने साथ इन कंकालों के अवशेष लेकर भी गए लेकिन इस विषय पर फिर कोई व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन अगले कई दशकों तक नहीं हुआ. रूपकुंड के रहस्य की गहराइयों में फिर से ये नरकंकाल खामोशी ओढ़ कर सोए रहे.
दशकों बाद 2003 में फिर एक बार जर्मनी की हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी के मशहूर Anthropologist प्रोफ़ेसर विलियम सेक्स की लीडरशिप में एक और टीम रूपकुंड के रहस्य की व्यापक पड़ताल के लिए रूपकुंड पहुॅंची. इस बार इस टीम के पास एक्सपर्ट्स की एक बड़ी टीम थी और अध्ययन के लिए 1950 के दशक की तुलना में बेहद एडवांस तकनीकें भी.
इस टीम ने रूपकुंड में क्या कुछ खोजा?
वहॉं मिले अवशेषों का किन आधुनिक तक़नीकों से अध्ययन किया गया?
अध्ययन का तरीक़ा क्या था?
क्या निष्कर्ष रहे?
और इस अध्ययन के निष्कर्षों में पिछले अध्ययन की तुलना में क्या फ़र्क था?
इन सभी चीज़ों के जवाब आपको मिलेंगे इस कहानी की अगली कड़ी में.
स्क्रिप्ट : रोहित जोशी
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