दो-दो परमवीर चक्र जीतने वाली कुमाऊं रेजिमेंट की शौर्य गाथा

  • 2022
  • 20:36

कुमाऊं रेजिमेंट का इतिहास जितना गौरवशाली है, उतने ही निडर और जांबाज़ उसके जवान भी. ये न सिर्फ़ देश की सबसे पुरानी कॉम्बैट फ़ॉर्सेज़ में से एक हैबल्कि देश का पहला सर्वोच्च वीरता पुरस्कार यानी देश का पहला ‘परमवीर चक्र’ भी इसी के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज है. एक ऐसी रेजिमेंट जिसे न सिर्फ दुनिया के सबसे ऊंचे हिमालयी रणक्षेत्र सियाचिन में लड़ने का गौरव हासिल है, बल्कि चीन और पाकिस्तान को धूल चटाने का अनुभव भी है.

कुमाऊँ रेजिमेंट बनी तो हैदराबाद में थी लेकिन इसकी तासीर में हिमालय का खून था. इसने न केवल 19 वीं सदी में मराठा और पिंडारी युद्ध में विजेता की भूमिका निभाई बल्कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध के साथ ही आज़ाद भारत में हुए कई युद्धों में निर्णायक भूमिका निभाई.

कुमाऊं रेजिमेंट की वीरता के किस्से सुनने से पहले उसके इतिहास की ओर थोड़ा चहलक़दमी कर लेते हैं. कुमाऊं रेजिमेंट गुलाम भारत की पहली रेजीमेंट्स में से एक है जिसकी स्थापना 1813 में हुई. शुरुआत में इस रेजिमेंट को ‘कुमाऊं’ के नाम से नहीं जाना था. बल्कि 1945 तक इसका नाम 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट था. असल में, हैदराबाद निज़ाम की रसेल ब्रिगेड जब बनाई गई थी, तो उसमें सबसे पहले कुमाऊँ के लोग ही शामिल हुए. ये कुमाऊँनी योद्धा निज़ाम की सेना की प्रसिद्ध बेरार इंफ़ैंट्री में भी सेवा देते थे. इसी रसेल ब्रिगेड और बेरार इंफ़ैंट्री को जोड़कर बाद में कुमाऊँ रेजिमेंट अस्तित्व में आई. रसेल ब्रिगेड और बेरार इंफ़ैंट्री थे तो ब्रिटिश सेना के अंग, लेकिन इस पूरे सैन्य दल के रखरखाव का भुगतान निज़ाम को करना होता था.

1853 में निज़ाम की इन सेनाओं को हैदराबाद परिसंघ के रूप में जाना जाने लगा और 1857 के बाद यह ब्रिटिश भारतीय सेना का हिस्सा बन गई. 1853 से 1917 के बीच, रसेल ब्रिगेड और बेरार इंफ़ैंट्री में कई कुमाउँनी लोगों को भर्ती किया गया. कुमाउं के जवानों की तादाद बढ़ने के चलते आखिरकार 23 अक्टूबर 1917 को, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, रानीखेत में पहली अखिल कुमाऊं बटालियन बनाई गई. इस लिहाज़ से देखें तो इस दिन को ही कुमाऊँ रेजिमेंट की स्थापना का दिन भी माना जा सकता है. लेकिन, प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुमाऊं बटालियन एक बार फिर से हैदराबाद परिसंघ का हिस्सा बन गई, जिसका नाम 1923 में 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट में बदल दिया गया था.

इसके 22 साल बाद, 27 अक्टूबर 1945 के दिन 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट का नाम एक बार फिर से बदलकर 19वीं कुमाऊं रेजिमेंट कर दिया गया. देश की आज़ादी के बाद 19वीं कुमाऊँ रेजिमेंट के नाम के आगे से 19वीं शब्द हटा दिया गया था और इसका मुख्यालय आगरा से रानीखेत आ गया.

विश्व युद्ध में कुमाऊं रेजिमेंट के वीर जवान हांगकांग और ईरान में लड़े. बर्मा और मलय प्रायद्वीप में भी कई अन्य बटालियनों में कुमाउँनी वीरता से लड़े. लेकिन कुमाऊनी जवानों ने असली ताकत दिखाई जब आज़ाद भारत जन्म ले रहा था और उसे अपने वीर सपूतों की सबसे ज्यदा जरूरत पड़ने वाली थी. देश का ये पहला युद्ध होने वाला था और रणभूमि थी कश्मीर का बड़गाम क्षेत्र. अगर ये युद्ध भारत हार जाता तो शायद आज पूरा कश्मीर पाकिस्तान के नक्शे में दिखाई दे रहा होता. इसलिये इस युद्ध को समझने से पहले हमें उस वक्त के भारत की राजनीतिक, सामरिक और भौगोलिक परिस्थितियों को भी समझना होगा.

3 जून 1947. यानी देश की आज़ादी से दो महीने पहले का वक्त. इस दिन ब्रिटिश सरकार ने भारत विभाजन की अपनी योजना में एक कदम और आगे बढ़ाया. सभी स्वतंत्र रियासतों को सूचित किया गया कि वे भविष्य में बनने वाले दोनों देशों यानी भारत और पाकिस्तान की सरकारों से अपने संबंध बना सकते हैं. संबंधों का मतलब था कि ये रियासतें इन दोनों देशों में से किसी की भी सरपरस्ती चुन सकती थी. उस समय लगभग साढ़े पाँच सौ रियासतें अस्तित्व में थीं. इनमें से ज्यादातर राजाओं ने वास्तविकता को स्वीकार करते हुए अपने नजदीकी देश में अपनी रियासत को मिलाने का फैसला कर लिया. लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं, जो स्वतंत्र रहना चाहती थीं. जम्मू-कश्मीर भी ऐसी ही एक रियासत थी जिसके महाराजा हरि सिंह न तो भारत का हिस्सा होना चाहते थे और न पाकिस्तान का. कुछ ऐसा ही विवाद हैदराबाद और जूनागढ़ रियासत का भी था लेकिन इनकी कहानी फिर कभी.

जैसे-जैसे आज़ादी का दिन यानी 15 अगस्त 1947 पास आने लगा वैसे-वैसे महाराजा हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों से यथास्थिति बनाए रखने के लिए समझौतों के प्रयास शुरू किए. जम्मू-कश्मीर की ज्यादातर आबादी मुस्लिम थी, जबकि शासक महाराजा हरि सिंह हिंदू थे. उधर पाकिस्तान का मानना था कि जिस आधार पर भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ है, उसी आधार पर जम्मू-कश्मीर उसके नियंत्रण में आना चाहिए क्योंकि वहां मुस्लिम आबादी ज़्यादा थी.

रियासत की सीमा एक ओर भारत को और दूसरी ओर पाकिस्तान को छूती थी. अक्तूबर 1947 में राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नैशनल कॉन्फ़्रेन्स के नेता शेख अब्दुल्ला ने भारत और पाकिस्तान दोनों से आग्रह किया कि वे दबाव डालकर कश्मीर को हासिल करने का प्रयास न करें और लोगों की इच्छा सामने आने तक इंतजार करें. भारत ने तो इस आग्रह को स्वीकार कर लिया, लेकिन पाकिस्तान ने स्टैंड-स्टिल एग्रीमेंट यानी यथास्थिति बनाए रखने के समझौते का उल्लंघन शुरू कर दिया.

पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में अराजकता फैलाने के लिए सबसे पहले कैरोसिन तेल, गैसोलीन, खाद्य पदार्थ, खाने का तेल, नमक आदि की आपूर्ति रोक कर आर्थिक संकट पैदा करना शुरू कर दिया. इन कारणों से महाराजा हरि सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच संबंध खराब हो गए. महाराजा हरि सिंह ने चेतावनी भी दी कि अगर रियासत की जरूरतों को पूरा नहीं किया गया तो वे दूसरे विकल्पों से सहायता लेंगे. यानी वो भारत के साथ समझौता कर लेंगे. लेकिन महाराजा हरि सिंह कोई निर्णय ले पाते उससे पहले ही पाकिस्तान ने उन्हें बेदखल करने के लिए कश्मीर पर आक्रमण की तैयारी कर ली. उसने उत्तरी व पश्चिमी सीमा के कबाइलियों को एकत्रित किया और उनके साथ पूर्व सैनिक, भगोड़े सैनिक और पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक भी मिला दिए. नियमित सैनिकों को छुट्टी पर दिखा कर इस काम में लगाया गया.

तारीख थी 20 अक्टूबर, 1947. पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कई ओर से आक्रमण कर दिया. कबाइलियों को मुरी-श्रीनगर मार्ग की ओर से भेजा गया और उन्हें पाकिस्तान सेना की ओर से श्रीनगर पर कब्जा करने के आदेश दिए गए. हत्याएं, लूट और महिलाओं से दुराचार करते हुए ये कबाइली हमलावर कश्मीर में दाखिल हुए. इस अराजक फौज को हर प्रकार का हथियार, रसद और चिकित्सा सुविधाएं पाकिस्तान की ओर से दी जा रही थीं.

मेजर जनरल इयान कारडोजो की किताब परमवीर चक्र में जिक्र मिलता है कि इन कबाइलियों के साथ तीन सौ ट्रक और पेट्रोल सहित पर्याप्त ईंधन भी लाया गया था. इस किताब में यह लिखा गया है कि उस वक्त ये सारा षडयंत्र ब्रिटिश प्रशासनिक और सैन्य अधिकारियों की सहमति और सहयोग से ही किया गया होगा.

कबाइली हमलावर सीमा पर तैनात कश्मीरी सैनिकों को खदेड़ते हुए पहले मुजफ्फराबाद पहुंचे. यहां उन्होंने जमकर लूटपाट और आगजनी की और फिर डोमेल और उरी सेक्टर में दाखिल हुए. उरी की सुरक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर की शाही फौज के ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह के साथ क़रीब एक सौ पचास वफादार सैनिक तैनात थे. उन्होंने बड़े साहस से प्रतिरोध किया लेकिन हमलावरों की बड़ी संख्या के सामने वे टिक न सके और ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह अपने वीर सिपाहियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए. लेकिन इस छोटी-सी ब्रिगेड ने कबाइलियों को काफी देर तक रोके रखा था. इससे भारतीय सेना को खासा फायदा मिला. ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह को उनके इस पराक्रम के लिए प्रथम महावीर चक्र प्रदान किया गया.

इस पूरी लड़ाई का जिक्र लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा 7 नवंबर, 1947 को ब्रिटिश सम्राट को लिखे गए एक पत्र में विस्तार से मिलता है. यही वर्णन बाद में स्टेनले वोल्पर्ट द्वारा लिखी किताब ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ में भी दर्ज किया गया था, जो कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई थी.

बहरहाल, उरी में पुल ध्वस्त किए जाने के कारण कबाइलियों की बढ़त रोक दी गई थी. 26 अक्तूबर 1947 को वे बारामूला पहुंचे थे जहां उन्होंने एक बार फिर भारी हिंसा, लूटपाट और बलात्कार किए. लेकिन ये हमलावर श्रीनगर तक नहीं पहुंच सके. इसका एक बड़ा कारण ये भी रहा कि लूट का माल और कश्मीरी औरतों को लेकर ये कबाइली अपने घर वापस लौटने लगे. लालची कबाइलियों का इरादा था कि वो पहले लूट से जमा किया गया माल अपने घर पहुंचा दें और फिर लौटकर आगे हमला करें. पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों ने उन्हें ऐसा न करने के निर्देश दिए, लेकिन इन हमलावरों ने अपने लालच के आगे किसी की न सुनी. इस लालच के चलते भी श्रीनगर इनके हमले से बच गया.

लेकिन डोमल और मुजफ्फराबाद के पतन से महाराजा हरि सिंह हिल गए थे. वहां की जनता और अधिकारी क्रूर कबाइली हमलावरों से त्रस्त थी. अधिकारी अपनी नौकरी छोड़कर भागने लगे थे और संचार व्यवस्था ठप होने लगी थी. आखिरकार 24 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद की गुहार लगाई. भारत सरकार ने महाराजा से कहा कि वह वैधानिक रूप से कार्रवाई तभी कर सकेंगे जब महाराजा भारत में कश्मीर के विलय के लिए राजी हों.

26 अक्टूबर 1947 के दिन महाराजा ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए. कश्मीर के सबसे बड़े राजनीतिक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भी इस फ़ैसले में उनका समर्थन किया. इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का कानूनी, नैतिक और संवैधानिक रूप से अभिन्न अंग बन गया. काग़ज़ी प्रक्रिया पूरी होते ही भारतीय सेनाओं को आदेश मिला कि वो तुरंत कश्मीर का रुख करें.

रिटायर्ड मेजर जनरल इयान कारडोजो अपनी किताब ‘परमवीर चक्र’ में लिखते हैं कि उस समय सबसे नजदीकी बटालियन दिल्ली के लाल किले में मौजूद थी. पहली और पांचवीं रॉयल गोरखा राइफल्स देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए तैनात थी. इसके कमांडिंग अधिकारी तो ले. कर्नल एएस पठानिया थे, पर इसमें निचले स्तर पर उस वक्त अंग्रेज अधिकारी ही नियुक्त थे. इस कारण इसे जम्मू-कश्मीर भेजना ठीक नहीं समझा गया.

दूसरी नजदीकी टुकड़ी फ़र्स्ट सिख बटालियन थी, जो गुड़गांव में मौजूद थी. इसके कमांडिंग अधिकारी को जल्द-से-जल्द अपने सैनिकों को लेकर दिल्ली में पालम एयरपोर्ट आने का आदेश दिया गया. फिर इन्हें नागरिक और सैनिक विमानों से श्रीनगर हवाई अड्डे पहुँचाया गया और वहां के सैन्य मुख्यालय में एकत्र किया गया. कमांडिंग अधिकारी सबसे पहले श्रीनगर हवाई अड्डे पर 27 अक्टूबर की सुबह उतरे. हवाई अड्डे को सुरक्षित पाकर उन्होंने फैसला किया कि श्रीनगर की सुरक्षा के लिए अब उस तरफ बढ़ा जाए जहां से हमलावरों का मूवमेंट होने वाला था. तय किया गया कि दुश्मनों को खदेड़ने से पहले कुछ समय तक रोका जाए ताकि इस दौरान और सैनिक भी पहुंच सकें.

इस दौरान आक्रमणकारी कबाइली श्रीनगर-बारामूला मार्ग पर आगे बढ़ने लगे थे. इन्हें रोकने के लिए पहली सिख बटालियन ने बारामूला के बाहर मोर्चा संभाला और बड़ी संख्या में कबाइली हमलावरों को मार गिराया. लेकिन कबाइलियों की संख्या बहुत ज्यादा थी लिहाज़ा ले. कर्नल राय ने अपनी सेना को पीछे हटाने का फैसला किया. अपने कुछ घायल सैनिकों को यहां से वापस लाते हुए ले. कर्नल राय भी कबाइलियों की गोली का शिकार होने से शहीद हो गए.

इसके बाद सिख बटालियन बारामूला से पीछे हटकर पाटन के पास आ गई, जो ऊंचाई पर श्रीनगर से सत्ताईस किलोमीटर आगे है. इस जगह 29 अक्टूबर को मोर्चा संभाला गया, लेकिन आक्रमणकारी जल्द ही यहां भी आ पहुंचे. उन्होंने तेजी से आक्रमण किया लेकिन भारतीय सैनिकों ने उनका डटकर मुकाबला किया और उन्हें भारी नुकसान पहुंचाते हुए पीछे खदेड़ दिया गया.

इसके कुछ ही समय बाद 161 इन्फैंट्री भी श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरी. इसमें चार कुमाऊं, एक पंजाब तथा एक कुमाऊं बटालियनें शामिल थीं. इनका नेतृत्व ब्रिगेडियर एलपी सेन कर रहे थे. अपनी किताब ‘स्लेंडर वॉज़ द थ्रेड’ में ब्रिगेडियर सेन लिखते हैं कि 4 कुमाऊं बटालियन के जवान 31 अक्तूबर 1947 को घाटी में उतरने लगे. ‘डी’ कंपनी मेजर सोमनाथ शर्मा की कमान में थी. वो 161 इन्फैंट्री ब्रिगेड के पहले सैन्य अधिकारी थे, जो वहां पहुंचे थे.

4 कुमाऊं की ‘ए’ व ‘डी’ कंपनी मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में और 1 पैरा कुमाऊं कैप्टन रोनाल्ड वुड के नेतृत्व में बड़गाम भेजी गई. मेजर सोमनाथ शर्मा एक अनुभवी अधिकारी थे. उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान बर्मा में हुए भीषण युद्ध में भाग लिया था और उनके कई किस्से तब तक प्रसिद्ध हो चुके थे. मेजर सोमनाथ शर्मा ने जल्द ही बड़गाम के पश्चिम में स्थित ऊंचे मैदान में मोर्चा संभाल लिया.

अब एक पैरा कुमाऊँ को आदेश दिया गया कि वो मैगाम की ओर बढ़े और एक पंजाब से संपर्क करने के बाद हवाई अड्डे पर लौट आए. इस आदेश की तामील करते हुए एक पैरा कुमाऊं कंपनी ने मैगाम तक का दौरा बिना किसी अवरोध के पूरा किया और 1 पंजाब से संपर्क करके दिन में एक बजे से पहले ही हवाई अड्डे लौट आई. मेजर शर्मा ने खबर दी कि बड़गाम में सबकुछ सुरक्षित है. गांव के लोग अपनी दैनिक गतिविधियां आराम से और बेरोक-टोक कर रहे हैं.

उन्होंने यह भी देखा कि ग्रामीणों का एक समूह एक नाले के पास एकत्रित है. दो बजे मेजर शर्मा ने आलाधिकारियों को सूचना दी कि ‘ए’ कंपनी हवाई अड्डे की ओर लौट रही है. ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एलपी सेन ने मेजर शर्मा से कहा कि वे एक घंटे तक मोर्चे पर डटे रहें और पीछे आना पांच बजे से प्रारंभ करें. मेजर शर्मा ने दोबारा आश्वस्त किया कि बड़गाम अभी भी शांत है. उस समय तक उन्हें यह अहसास नहीं था कि अगले आधे घंटे में क्या होने वाला है.

4 कुमाऊं की ‘ए’ कंपनी के लौटने के आधा घंटे बाद नाले के पास जमा ग्रामीणों ने विभिन्न दिशाओं में बिखरना शुरू किया. वे मेजर शर्मा की कंपनी के चारों ओर आने लगे. कुमाऊँनी कंपनी के सिपाहियों ने समझा कि ये ग्रामीण अब अपने घरों की ओर जा रहे हैं. उन्हें इस बात का बिल्कुल भी आभास नहीं था कि ये हमलावर हैं, जो कश्मीरी ग्रामीणों की पोशाक पहने हैं और इनके ढीले-ढाले कपड़ों के अंदर हथियार छिपे हैं. इन हमलावरों ने अचानक गांव के मकानों से हमला कर दिया.

अचानक हुए इस हमले की सूचना मेजर शर्मा अपने ब्रिगेड कमांडर को देते हुए बता ही रहे थे कि नब्बे साथियों के साथ वे किस तरह की स्थिति का मुकाबला कर रहे हैं, ठीक उसी समय पश्चिम में नीचे से कबाइलियों का एक बड़ा जत्था आगे बढ़ा और उसने मोर्टार व ऑटोमैटिक हथियारों से हमला शुरू कर दिया. मेजर शर्मा ने इस नई चुनौती का डटकर सामना किया और अपनी पूरी ताकत से उन्होंने हमलावरों के पहले जत्थे को खदेड़ दिया. लेकिन दुश्मन का दबाव फिर बढ़ने लगा और मेजर शर्मा की नब्बे जवानों की कंपनी को अब सात सौ कबाइलियों ने घेर लिया.

उनके अपने साथियों की संख्या कम हो रही थी लिहाज़ा उन्होंने ब्रिगेड से सहायता मांगी. ब्रिगेड ने आश्वासन दिया कि उन्हें जल्द ही हवाई सहायता मिलेगी. बहुत कम जवान होने के कारण मेजर शर्मा ने स्वयं हवाई जहाज के लिए जमीनी संकेत स्थापित किए. ताकि हवाई जहाज को लक्ष्य तक आने में दिशा-निर्देश मिल सकें. उधर तीन तरफ से हमले के कारण भारतीय सैनिक तेजी से शहीद होने लगे. इतने में ब्रिगेड मुख्यालय से संदेश आया कि एक पंजाब उनकी मदद के लिए आ रही है. लेकिन मेजर शर्मा जानते थे कि इसमें समय लगेगा. लिहाज़ा उन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना मोर्चे पर एक ओर से दूसरी ओर जाना और ऑटोमेटिक हथियारों से ताबड़तोड़ फायर करना शुरू कर दिया.

उन्हें देखकर उनके जवान भी जोश से भर उठे और उन्होंने दुश्मनों की लाशों का ढेर लगाना शुरू किया. मेजर शर्मा को पता चला कि जवानों की कमी से हल्की मशीन-गन भरने और चलाने में दिक्कत हो रही है तो उन्होंने खुद ही मैग्जीन भरना भी शुरू किया. वो दुश्मनों की गोलियों की परवाह किए बिना ही एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट पर मैगजीन ले जाने लगे. इसी दौरान मोर्टार उनके पास आकर गिरा और वे शहीद हो गए.

इस युद्ध में मेजर शर्मा के अलावा सूबेदार प्रेम सिंह मेहता सहित बीस अन्य भारतीय सैनिक शहीद हुए और छब्बीस सैनिक बुरी तरह घायल हुए. इसके मुकाबले दुश्मन को कहीं ज़्यादा नुकसान झेलना पड़ा. जब बड़गाम पर भारतीय सेनाओं ने दोबारा कब्जा किया तो वहां तीन सौ कबाइलियों की लाशें पड़ी मिलीं. मेजर सोमनाथ शर्मा के उच्च कोटि के शौर्य और नेतृत्व को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें आजाद भारत के पहले ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया.

कुमाऊं रेजिमेंट की वीरता के किस्से यहीं खत्म नहीं होते. इस रेजिमेंट ने अपने पराक्रम का एक बड़ा उदाहरण 1962 में लद्दाख के चुशूल रेज़ांग ला में भारत-चीन युद्ध के दौरान भी दिया. तब बेहद कम संसाधनों के साथ लड़ रही कुमाऊं रेजिमेंट को चीन की बड़ी सेना से जूझना पड़ा था. इस युद्ध में शहीद हुए मेजर शैतान सिंह को बाद में सर्वोच्च बलिदान के लिए ‘परमवीर चक्र’ से नवाज़ा गया.

इसी तरह 1984 में सियाचिन को दोबारा पाने के लिए जब ऑपरेशन मेघदूत की रणनीति बनी तो कुमाउं रेजिमेंट को ही इस दुर्गम चुनौती के लिए चुना गया. ये बात 13 अप्रैल 1984 की है. समय था सुबह पांच बजकर 30 मिनट. कैप्टन संजय कुलकर्णी के साथ एक सैनिक को लिए हुए चीता हेलिकॉप्टर ने बेस कैंप से उड़ान भरी. उसके पीछे दो हेलिकॉप्टर और उड़े. दोपहर तक स्क्वॉर्डन लीडर सुरिंदर बैंस और रोहित राय ने ऐसी कुल 17 उड़ानें और भरीं. कैप्टन संजय कुलकर्णी के साथ एक जेसीओ और 27 भारतीय सैनिकों को उस दिन सियाचिन में बिलाफ़ोन्ड ला के पास हेलिकॉप्टर से नीचे उतारा गया.

उस दिन विज़िबिलिटी शून्य से भी नीचे थी और तापमान माइनस 30 डिग्री से नीचे. बिलाफ़ोन्ड ला में हेलिकॉप्टर्स से उतारे जाने के तीन घंटे के भीतर रेडियो ऑपरेटर अत्याधिक ऊँचाई पर होने वाली बीमारी हाई एल्टीटयूड पुल्मोनरी एडिमा यानी हेप के शिकार हो गए थे. हालांकि इससे भारतीय दल को एक तरह से फ़ायदा ही हुआ क्योंकि रेडियो ऑपरेटर की अनुपस्थिति में पूरा रेडियो साइलेंस बरता गया और पाकिस्तानियों को वहां भारतीय सैनिकों होने की भनक तक नहीं लग पाई.

क़रीब 23000 फ़िट यानी सात हजार मीटर की ऊंचाई पर 75 किलोमीटर लंबे और क़रीब दस हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले सियाचिन ग्लेशियर का इलाक़ा बहुत ही दुर्गम है. इसे ऐसे समझिए कि दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई लगभग 8849 मीटर है. सियाचिन का ये युद्धक्षेत्र उससे सिर्फ़ 1500 मीटर ही कम है. ये इलाका इतना जानलेवा है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने 1972 तक इसकी सीमा के बारे में स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत ही नहीं समझी थी. लेकिन भारत का माथा तब ठनका जब 70 के दशक में कुछ अमरीकी दस्तावेज़ों में एनजे 9842 से आगे कराकोरम रेंज के क्षेत्र को पाकिस्तानी इलाक़े के रूप में दिखाया जाने लगा. भारत को ये भी पता चला कि पाकिस्तानी इस इलाक़े में पश्चिमी देशों के पर्वतारोहण दल भी भेज रहे हैं ताकि इस इलाक़े पर उनका दावा मज़बूत हो जाए. इसी बीच भारतीय खुफिया एजेंसी को एक ऐसी जानकारी मिली, जिससे आलाधिकारियों में हड़कंप मच गया. 80 के दशक में रॉ के जासूसों को पता चला कि पाकिस्तान जर्मनी से ऊंचाई पर रहने के लिए ख़ास तरह के कपड़े ख़रीद रहा है.

भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के प्रमुख रहे विक्रम सूद उस ज़माने में श्रीनगर में तैनात थे. उन्होंने ख़ुद 15 कोर के बादामी बाग़ मुख्यालय में जा कर वहां के कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल पीएन हून को पाकिस्तान की ताज़ा गतिविधियों से अवगत कराया था. एयर वाइस मार्शल अर्जुन सुब्रमणियम अपनी किताब ‘फ़ुल स्पेक्ट्रम इंडियाज़ वार्स 1972-2020’ में लिखते हैं कि पाकिस्तान ने 1983 की सर्दियों में बिलाफ़ोन्ड ला पर नियंत्रण करने के लिए मशीन गन और मोर्टार से लैस अपने सैनिकों का एक छोटा दल भेजा था. लेकिन मौसम इतना खराब हुआ कि ये दल सफल नहीं हो पाया.

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ भी उस ज़माने में वहां तैनात थे. वो अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर’ में लिखते हैं, ‘हमने सलाह दी कि हम वहां मार्च में जाएं लेकिन उत्तरी क्षेत्र के जनरल ऑफ़िसर कामांडिंग ने ये कह कर मेरी सलाह का विरोध किया कि दुर्गम इलाक़ा और ख़राब मौसम होने के कारण हमारे सैनिक वहां मार्च में नहीं पहुंच सकते. उनकी सलाह थी कि हम वहां पहली मई को जाएं. वो चूंकि कमांडर थे इसलिए उनकी बात मानी गई. यहां हमसे ग़लती हुई. हम जब वहां पहुंचे तो भारतीयों ने वहां पहले से ही ऊंचाइयों पर कब्ज़ा जमाया हुआ था.’

भारत ने इस ऑपरेशन को मेघदूत नाम दिया था और इसे सफल बनाने में कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों ने ही मेघदूत की भूमिका निभाई थी.

 

स्क्रिप्ट: मनमीत

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